इनसाइड आउट : बचपन का मनोविज्ञान / जयप्रकाश चौकसे

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इनसाइड आउट : बचपन का मनोविज्ञान
प्रकाशन तिथि :03 जुलाई 2015


युवा लेखक देबाशीष आयरंगबम के पहले उपन्यास 'मी मीया मल्टीपल' के विमोचन के लिए जावेद अख्तर व अर्जुन कपूर को निमंत्रित करने के सिलसिले में दो घंटे का वक्त काटने के लिए 'डिज़्नी' की 'इनसाइट आउट' नामक एनीमेशन फिल्म देखने का अवसर मिला। 'डिज़्नी' संस्था ने ही एनीमेशन फिल्मों की विधा का अाविष्कार किया है और वे इस व्यवसाय में 1922 से ही सक्रिय हैं। 'इनसाइड आउट' के दर्शक समूह में बच्चों की संख्या कॉफी बड़ी थी और विगत पूरी सदी में 'डिज़्नी' का आर्थिक आधार बच्चे ही रहे हैं, यहां तक कि उनके थीम पार्क भी बचपन के केंद्र में रखकर बनाए गए हैं। इस फिल्म में इतनी गहरी दार्शनिक सतहें हैं कि बच्चे उसे समझ ही नहीं पाएंगे परंतु फिर भी उन्हें पूरा आनंद आ रहा है। दरअसल सिनेमा का आनंद लेने के लिए उसकी गहराई को समझना संभवत: आवश्यक नहीं है।

'इनसाइड आउट' की ग्यारह वर्षीय केंद्रीय पात्र के माता-पिता अपना पुराना शहर छोड़कर नए शहर में बसते हैं और बालिका के मित्र उससे बिछड़ जाते हैं। नए शहर के स्कूल के सहपाठियों से उसका भावनात्मक तादात्म्य बन नहीं पाता और जिस खेल में अव्वल थी, उसी में पिछड़ जाती है तथा इस झटके से उसका पूरा अस्तित्व ही हिल जाता है। कथा बच्ची के हृदय में निवास करने वाले आनंद एवं अवसाद तत्वों के दृष्टिकोण से प्रस्तुत की गई है। फिल्म में प्रतीकों और परसोनीफिकेशन की भरमार है। हर भाव का प्रतीक स्वरूप एक पात्र गढ़ा गया है। फिल्म में आनंद और अवसाद नामक दो पात्र हैं, आनंद का रंग गोरा और अवसाद का सांवला है। ये रंग मनुष्य अवचेतन में अजीबोगरीब ढंग से स्थापित हो गए है और इनकी जड़ें इतनी गहरी है कि इक्कीसवी सदी में रंग के आधार पर मनुष्य के धर्म और चरित्र की व्याख्या होती है। किंतु जैसे अनेक महारथियों के अथक प्रयास के बाद भी अमेरिका के बीहड़ में रंग भेद कायम है और उसके रहते अमेरिका प्रगति के कितने भी दावे करे, सब खोखले लगते हैं। भारत में भी रंग का अपना ही महत्व है। आज भी सांवली कन्या के विवाह में दिक्कत है। यहां तक कि आबनूस से काली, मोटल्ली सास भी गोरी बहू की जिद पर अड़ी रहती है। गोरा रंग आज भी हमारी मानसिक ग्रंथि हैं, जिस कारण रंग गोरा करने के क्रीम का व्यापार अरबों तक पहुंच गया है। गोरा रंग भारत का अपना तो नहीं है, वह तो आर्य आक्रमण के बाद स्थापित हुआ है। सलमान की 'बजरंगी' में बजरंगी कहता है कि वह अनाथ बालिका को प्रश्रय दे रहा है और उसके गोरे रंग से लगा कि यह गूंगी लड़की बामन की कन्या है।

बहरहाल, इस फिल्म का मूल संदेश तो यह है कि माता-पिता संतान से प्यार के बाद भी उनके मनोविज्ञान को नहीं समझते और उनकी बचपन की अवधारण बच्चों के यथार्थ से अलग है। इसी तरह बच्चे भी माता-पिता को कहां समझ पाते हैं। यह फिल्म दोनों पक्षों के बीच इस अदृश्य दीवार को तोड़ने का प्रयास है। इस फिल्म का महत्व आज इसलिए बढ़ गया है कि आज बच्चों और किशोरों के मन को समझने में परेशानी हो रही है और ऐसी कुंठाओं का जन्म हो रहा है कि इन बच्चों के सारे जीवन पर इसका साया मंडराएगा। इंटरनेट, आईपैड इत्यादि के आगमन के बाद ज्ञान प्राप्त होगा कि नहीं, यह तो जानना कठिन है परंतु बच्चों के अवचेतन में गहरी गांठे बंध रही हैं और अनेक बच्चों को आंखों के रोग हो रहे हैं, असमय चश्मा लग रहा है।

यह इत्तफाक देखिए कि मराठी भाषा में बनी 'किला' फिल्म की 'इनसाइड आउट' से इस मामले में समानता है कि किला में बच्चे की मां के बार-बार ट्रांसफर के कारण बालक कहीं भी मित्रों से भावनात्मक तादात्म्य नहीं बना पाता। बहरहाल, ये दोनों फिल्में वयस्कों को भी देखनी चाहिए।