इन्डी सिनेमा और भारतीय सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे

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इन्डी सिनेमा और भारतीय सिनेमा
प्रकाशन तिथि : 02 जुलाई 2013


किरण राव ने 'धोबीघाट' नामक फिल्म बनाई, जिसकी प्रशंसा अखबारों में हुई, परंतु सिनेमाघरों में उसे दर्शक नहीं मिले, लेकिन यह स्पष्ट हो गया कि आमिर खान की अभिरुचि किस तरह की फिल्म बनाने में है। 'पीपली लाइव' और 'देल्ही बैली' भी उनकी सिफारिश से आमिर खान ने बनाई थी। आजकल वे आनंद गांधी की 'शिप ऑफ थीसियस' का प्रचार अपने ढंग से कर रही हैं। इंटरनेट में जिस शहर से उन्हें फिल्म लगाने का आग्रह होगा, वहां प्रदर्शन की व्यवस्था की जाएगी। उन्नीस जुलाई को यह कुछ महानगरों में प्रदर्शित होने जा रही है। आश्चर्य की बात है कि सार्थक सिनेमा के ये समर्थक अपनी फिल्म शैली को इन्डी फिल्में कहते हैं, जिसका अर्थ संभवत: यह है कि यह पढ़े-लिखे शाइनिंग इंडिया की फिल्में हैं, परंतु भारतीयता का यह आग्रह फिल्म के नाम से नहीं मिलता। थीसियस यूरोप की किवदंती का पात्र है। किवदंतियों का आधुनिक संदर्भ में पैरेबल की तरह इस्तेमाल होता है, जैसे ऋषिकेश मुखर्जी ने १९६९ में 'सत्यकाम' में महाभारत की जाबाली कथा के रूपक का प्रयोग किया था। सुना है यह कथा एक यात्रा पर निकले तीन लोगों की है, जिनमें एक बीमार जैन भिक्षु है। आंख की बीमारी से त्रस्त एक फोटोग्राफर तथा एक गुजराती शेयर दलाल है। कोई ४०-४५ वर्ष पूर्व महेश भट्ट ने भी एक प्रयोगवादी फिल्म 'मंजिलें और भी' बनाई थी, जिसमें सहयात्री है एक तवायफ, एक अपराधी और एक लेखक।

बहरहाल, इस समय लीक से हटकर यथार्थवादी फिल्मों की पताका किरण राव, रितेश बत्रा, आनंद गांधी इत्यादि के हाथ है। कुछ वर्ष पूर्व 'निच सिनेमा' नामक शब्द उछाला गया था और कुछ फिल्मकार सगर्व कहते थे कि वे महानगरीय फिल्में बनाते हैं, जिन्हें आप्रवासी भारतीय पसंद करें, गोया कि भारतीय महानगर के लोगों और आप्रवासी भारतीयों की पसंद एक जैसी है।

रितेश बत्रा मुंबई में डिब्बेवालों पर शोध करने आए थे। ज्ञातव्य है कि यह संस्था हजारों दफ्तर में काम करने वालों को भोजन का डिब्बा देती है और ग्राहक की पहचान के लिए वे विशेष चिह्न बनाती है। कमोबेश वैसा ही जैसा लॉन्ड्री वाले बनाते हैं। उन्होंने अपने इस अनुभव से एक प्रेम-कथा बनाई है, जिसका प्रारंभ डिब्बे के बदल जाने से होता है।

यह प्रसन्नता की बात है कि कुछ लोग प्रयोगवादी फिल्में बना रहे हैं, परंतु एतराज केवल उनके मसीही अंदाज में प्रस्तुत होने का है। वे आभास दे रहे हैं कि वे पहले क्रांतिकारी हैं। दरअसल, हिंदुस्तानी सिनेमा के हर दशक में नया प्रयोग किया गया है। वी. शांताराम की 'दुनिया ना माने'(१९३७) इतनी साहसी कथा है कि आज छियासी वर्ष बाद भी वैसा साहस कोई दिखा नहीं पाता। इसके भी पूर्व हिमांशु राय और निरंजन पॉल की 'लाइट ऑफ एशिया' भी प्रयोगवादी थी। आज 'लंच बॉक्स' को कान्स में सराहे जाने वालों को याद दिलाना आवश्यक है कि चेतन आनंद की 'नीचा नगर' को १९४६ में कान्स में पुरस्कृत किया गया था और भारत में जवाहरलाल नेहरू की पहल से उसका प्रदर्शन संभव हो पाया था। उसी दौर में इप्टा द्वारा निर्मित ख्वाजा अहमद अब्बास की 'धरती के लाल' भी यथार्थवादी फिल्म थी।

आजादी के बाद बिमल रॉय की 'दो बीघा जमीन' राज कपूर की 'बूट पॉलिश' और 'जागते रहो' जिया सरहदी की 'सोने की चिडिय़ा', अमिय चक्रवर्ती की 'पतिता' अभूतपूर्व सिनेमाई उपलब्धियां थीं। मेहबूब खान की 'अमर' साहसी फिल्म थी। उसी दौर में 'हम लोग', 'फुटपाथ' और बलराज साहनी अभिनीत 'गर्मकोट' लाजवाब फिल्में थीं। ख्वाजा अहमद अब्बास की गीतविहीन 'मुन्ना' भी सराहनीय प्रयास था। चेतन आनंद की देव आनंद अभिनीत 'फन्टूस' भी कमाल की फिल्म थी, जिसके क्लाइमैक्स मेें एक गरीब को आत्महत्या करते देखने के टिकट बेचे जाते हैं।

चेतन आनंद की 'आखरी खत' का केन्द्रीय पात्र एक दो वर्ष का बालक है, जो महानगर की भीड़ में खो गया है। मुंशी प्रेमचंद की 'दो बैलों की जोड़ी' से प्रेरित कृष्ण धवन की 'हीरा-मोती', फणीश्वरनाथ रेणु की 'तीसरी कसम' पर शैलेंद्र की फिल्म लीक से हटकर विशुद्ध भारतीय फिल्म थी, परंतु उस जमाने में उसे इन्डी फिल्म नहीं कहा गया। सारांश यह कि भारतीय सिनेमा में मसाला फिल्मों के साथ ही यथार्थवादी और प्रयोगवादी फिल्में हर कालखंड में बनती रही हैं और भविष्य में भी बनती रहेंगी, क्योंकि यही भारती सिनेमा का मिजाज हमेशा रहा है।