इन्द्रधनुषी प्रेम पत्रः डॉ-जयपाल तरंग / सुधा गुप्ता

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हिन्दी साहित्य के सृजनात्मक संसार में डॉ.जयपाल तरंग एक सुप्रतिष्ठित नाम है। आप व्यंग्य लेखन में सिद्धहस्त हैं। कविता, गीत, एकांकी, नाटक, बाल-साहित्य, समीक्षा, जीवनी-सभी क्षेत्रों में सफल लेखन के पश्चात् आपने पत्र-लेखन विधा में यह नवीन संग्रह 'इन्द्र धनुषी प्रेम पत्र' हिन्दी जगत को भेंट किया है-जो निश्चय ही चौंकाने वाला अभिनव प्रयोग है।

आकर्षक मुखपृष्ठ, खूबसूरत जिल्दबंदी और रंगों का सुंदर संयोजन। पुस्तक हाथ में आते ही उसे खोल कर देखने की अदम्य इच्छा होती है। पुस्तक खुलती है और सामने का समर्पण का पृष्ठ है-समर्पित है जिगर के उस टुकड़े के लिये, उसकी स्मृति में जो युवावस्था कि भटकन में ऐसा भटका कि वृद्ध पिता को कभी न भरने वाला ज़ख़्म देकर चला गया——और यही है मूल उत्स-यही है स्रोत-यही है वेदना से लबरेज़ प्रेरणा जो इस विवेकशील वरिष्ठ लेखक को ये छत्तीस विविध रंगों में डूबते-उतराते, विभिन्न सामाजिक-पारिवारिक परिस्थितियों से दो-चार कराते प्रेम पत्रों को लिखने के लिए विवश कर देती है।

भारतीय संस्कृति: डॉ.तरंग की एक बड़ी विशेषता है भारतीय संस्कृति के प्रति उनका गहरा जुड़ाव और उनके लेखन की सफलता का रहस्य भी इसी में छिपा है। इस पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ को पढ़ते हुए पाठक तुरन्त उससे जुड़ जाता है और अनुभव करता है-अरे, यह तो परिवार की, पड़ोस की या संक्षेप में 'मेरी-तेरी-उसकी बात है'। वातावरण में, घटनाओं में, व्यवहार में, आकस्मिकताओं और समस्याओं-सभी में एक जानी-पहचानी आत्मीय-सी गन्ध है जो हमारी अपनी है।

भाषा सौन्दर्य: दशकों से अध्यापकत्व से जुड़े, गम्भीर साहित्य अध्येता डॉ.।तरंग की भाषा साहित्यिक, ललित एवं विषयानुरूप 'रसवन्ती' भाषा कही जाएगी। वह स्वाभाविक भी है। एक दृढ़ साहित्यिक पृष्ठभूमि पर स्थापित होने के कारण लेखक बाध्य है, स्थान-स्थान पर साहित्यिक-पौराणिक संदर्भ देने के लिए, कहीं कालिदास-विद्योत्तमा हैं, कहीं तुलसी बाबा और रत्नावली, कहीं नल-दमयन्ती तो कहीं नागमती रत्नसेन और हीरामन सुआ विद्यमान हैं।

सूक्ति प्रयोग: इन पत्रों में कई स्थानों पर सुंदर सूक्तियाँ भी उपलब्ध हैं। ऐसी सूक्तियाँ पत्र के सार को स्पष्ट करने एवं वांछित प्रभाव उत्पन्न करने में समर्थ हैं, उदाहरणार्थ- (अ) प्रेम-सुख विघ्न बाधाओं में परिपक्व होता है, बिखर नहीं जाता (पृष्ठ 18) (आ) उपेक्षा कि जड़ में आशंकाओं के जंजाल होते हैं (पृष्ठ 73) प्रसंगानुकूल लोकोक्तियों का प्रयोग भी है, जाने-माने कवियों और शायरों के द्वारा रचित दोहे / शेर / पंक्तियाँ यत्र-तत्र उद्धृत की गई हैं। सौन्दर्याकंन: बीस-पच्चीस वर्ष की आयु वर्ग के तरुण-तरुणियों की दृष्टि से अपनी सखी / प्रिया / सहपाठिनी का जो सौंदर्य आँका गया है, वह यथार्थ और चित्ताकर्षक भले ही हो, कहीं-कहीं अतिशय उदारता खलने लगती है और ऐसा लगता है कि लेखक थोड़ी मितव्ययता से काम लेता तो अधिक अच्छा होता।

सम्बोधन: इन पत्रें की एक उल्लेखनीय विशेषता कही जाएगी लीक से हटकर, घिसे-पिटे, पुराने बहु-प्रचलित सम्बोधन न अपनाकर, नवीन, अर्थ गाम्भीर्य सँजोए, पत्र के कथ्य से पूर्णतः मेल खाते सम्बोधन एवं निवेदक (पत्र लेखक / लेखिका) के लिए प्रयुक्त शब्द। ये नितान्त अभिनव, विशेष व्यंजक, पत्र लेखक / लेखिका के मन का सही दिग्दर्शन कराने वाले सटीक, चुने हुए शब्द वास्तव में अनूठे हैं और पत्र-लेखन विधा के कोषागार में सुरक्षित रत्न-समूह माने जाने चाहिए। कठोर सत्य से परिचित कराते, व्यंग्य के पैने-तीखे, ज़हर बुझे तीर भी हैं, किन्तु प्रभावपूर्ण हैं।

कथ्य-तथ्य परीक्षण एवं मूल्यांकन: 'इन्द्रधनुषी प्रेम पत्र' शीर्षक इस संकलन में विभिन्न परिस्थितियों एवं समस्याओं को उकेरते हुए छत्तीस पत्र हैं-सह-शिक्षा के वातावरण में आपसी आकर्षण, नोंक-झोंक, चुहल, मनोविनोद, ईर्ष्या-आशंका, संदेह और अविश्वास, शिक्षा ग्रहण के समय एकाग्रता कि आवश्यकता, प्रेम-पत्र लिखने में वक्त की बरबादी न करना जैसी सलाह-मशवरों की भूल-भुलैयाँ में भटकते हुए भावुक तरुण-तरुणियाँ उन अन्धी गलियों में जा पहुँचते हैं जहाँ जाकर वापिसी का रास्ता नहीं है-वे समस्याएँ जो आज भारतीय समाज को कैंसर बनकर अपनी गिरफ़्त में ले चुकी हैं! विवाह की निश्चित तिथि से तीन दिन पूर्व नायिका का अपहरण उसके प्रति शारीरिक अत्याचार और वापसी, नायक तथा परिवार वालों द्वारा इस विवाह से अस्वीकार, नाबालिग़ तरुण-तरुणि द्वारा प्रेम के वासनात्मक उद्दाम आवेग में बह जाने के दुष्परिणाम और तज्जन्य उत्पन्न विभीषिका-इसी प्रकार की समस्याएँ हैं, किन्तु यहाँ भी लेखक ने पराजय स्वीकार न करते हुए नायक-नायिका को धैर्य का पाठ पढ़ाया है, जीवन के युद्ध क्षेत्र में डट कर लड़ने के प्रति उत्साहित किया है। किसी भी प्रकार के पलायनवाद को प्रश्रय नहीं दिया। इन सम्पूर्ण स्थितियों में सर्वाधिक करुण, भयावह, मर्मान्तक वेदना को समेटे वह बालिका है जो प्रेमी के बहकावे में आकर घर से कैश तथा माँ के मूल्यवान् आभूषण लेकर घर छोड़ देती है और वह पिशाच प्रेमी उसे यत्र-तत्र भटकाकर, सारा पैसा लेकर उसे किसी के हाथ बेचकर फ़रार हो जाता है। कभी लौट कर नहीं आता।

मैं समझती हूँ कि यदि लेखक चाहता तो इसका भी कोई सकारात्मक हल खोज सकता था; किन्तु उसने जानबूझकर ही ऐसा नहीं किया होगा। कहा जाता है न कि बुराइयों के जीते-जागते उदाहरण समाज में रहने ही चाहिए जिससे आने वाले लोग उस प्रकार की ग़लतियों और बुराइयों से बच सकें, तो मेरा निष्कर्ष यही है कि ऐसे चक्रव्यूह में फँसे तरुण-तरुणियाँ समाज के लिए किन्हीं अर्थों में चेतावनी से भरे मार्गदर्शक भी हो सकते हें। यथार्थ के इसी आग्रह ने 'इन्द्रधनुषी प्रेमपत्र' को पृथ्वी के कठोर धरातल से जोड़े रक्खा है। वह वायवी काल्पनिकता से कोसों दूर, भारत के मध्यवर्गीय-परिवारों में, माता-पिता, भाई-बहन, बुआ, वृद्धा दादी और अन्य परिवारजनों से घिरे सामान्य तरुण-तरुणियाँ हैं। उनकी चपलता, शरारतें और ईर्ष्या, नाराज़गी सभी कुछ स्वाभाविक अतः क्षम्य हैं। भावना के सागर में डूबते उतराते हैं, किन्तु विवेक का दामन नहीं छोड़ते और अन्ततः अपनी समस्याओं का हल खोज लेने में सफल होते हैं।

एक सुझाव: होटल, क्लब, नशे की लत, पुरुष वर्ग द्वारा कई स्तरों पर स्त्री के शोषण की बात उठाई गई है; किन्तु क्या ही अच्छा होता यदि लेखक 'अर्द्धसत्य' से 'पूर्ण सत्य' की ओर बढ़ता और आज, इक्कीसवीं सदी के प्रवेश-सोपान पर खड़ी 'नारी' के उस स्वरूप को भी सामने लाने का साह दिखाता जिसके चलते, प्रगति के नाम पर, अत्याधुनिकता के नाम पर 'शॉर्टकट' मारने की चालाकी से भरी युवतियाँ, सीधे सरल हृदय साथियों से सीढ़ी का काम लेकर उन्हें निराशा के अन्धे कुएँ में ढकेल देती हैं उदाहरणों से हमारा परिवेश भरा पड़ा है। सज्जन परिवारों के सीधे-सादे तरुण, वर्षों तक निराशा-हताशा से ग्रस्त होकर अवसाद रोग के पंजे में जकड़े अपने जीवन के बहुमूल्य वर्ष बरबाद कर बैठते हैं। कुछ ऐसे प्रसंग भी ' इन्द्रधनुषी प्रेम पत्र में जोड़े जाने चाहिए। लेखक को हार्दिक बधाई।