इन दरख्तों से खूँ टपकता है! / अनघ शर्मा

Gadya Kosh से
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1 ।

ऐ मुहब्बत वालियों, उठो देखो किले की बुर्जियों में सौदाई फरिश्तों के आँसुओं का सैलाब उमडा पड़ा है। बीबी, बेगम मुमताज का इंतकाल हो गया। मुहब्बत वालियों देखो सफेद रंग को तराश कर शाहजहाँ ने ताज बनवाया है। उसकी सफेद मीनारों से सरक कर कोहरा नीचे उतर रहा है। जमुना कि ऊदी रेत पर ओस पड़ रही है या पाला है कुछ समझ नहीं आता। वह देखो किले की बुर्जी की तरफ कोई बढ़ा जा रहा है। वहाँ जहाँ शाहजहाँ कैद है। सोने की सुनहरी थाली में, गोटे लगे किमख्वाब से कुछ ढका हुआ है। क्या है ये? शाहजहाँ ने खींच कर कपड़ा हटा दिया। कटा हुआ सिर। किसका? पद्मा का सिर, किसने काटा? सिर छूट कर शाहजहाँ के हाथों से गिर पड़ा। चौंक कर इमराना जाग पड़ी। खिड़की के नीचे भीगा हुआ मोतिया महक रहा था। उसने पलट कर घड़ी देखी सुबह के चार बज रहे थे। पिछली पूरी रात रह-रह कर पानी बरसता रहा था। उसने उठ कर कूलर बंद किया और पंखे की गति धीमी कर दी। पिछले साल इसी सावन में पंडित ने शुक्ला जी से कहा था।

"आने वाला अगला साल बहुत अच्छा होगा दिव्य के लिए शुक्ला जी. अगले साल सावन में स्वाति नक्षत्र बड़ा शुभ है लड़के के लिए. पर हाँ एक बार रुद्री पाठ करवा दें इसके नाम से, फिर देखिए कैसे आपके नाम और विरासत को आगे बढ़ाता है दिव्य और सवा आठ रत्ती का लहसुनिया पहनवा दीजिए चाँदी में।"

इमराना ने एक जम्हाई लेते हुए खुद से कहा, सो जाओ इमराना बीबी अभी तो सात बजने में बहुत वक्त है और जब से आगरा आई हो जी भर नीद नसीब नहीं हुई. उसने लाहौल पढ़ा, वैसे भी पिछले कई दिनों से ऐसे डरावने सपने बहुत आने लगे थे उसे।

किसका सिर काट भेजा औरंगजेब ने?

दारा का!

ये सियासत है शाहजहाँ ने सोचा और वहीं गश खा कर गिर गया। ये सिर पद्मा का तो हो ही नहीं सकता, उसने सोचा। वह तो अभी गुजरी है साढ़े तीन महीने पहले और दारा तीन सौ साल। हाँ वह वही होगा।

सियासत या राजनीति का ताना-बाना इतना घना होता है कि माइक्रोस्कोप के साथ भी कुछ देखना मुमकिन नहीं। पत्तियों के तंतुजाल से भी ज़्यादा घना और दुरूह। ऐसा ही घना और जटिल दिमाग था रेवती चरण शुक्ला का। कैसे-कैसे माइग्रेट्स वहाँ आ कर शरण पाते थे। इमराना भी उन्हीं में से एक थी।

चाय कि प्यालियों खट-पट ने उसे वक्त से कुछ पहले ही उठा दिया।

"क्या कर रहे हो दीपक?" उसने नौकर से पूछा।

भैया जी के लिए चाय बनाई थी तो प्याले साफ कर रहे हैं।

कुछ बता कर गए हैं? कहाँ जा रहे हैं?

हाँ, सुधीर भाई साहब के साथ एक हफ्ते के लिए लखनऊ।

और हम यहाँ पागलों की तरह इस कोठी की साफ-सफाई करवाते फिरें, इमराना ने बड़बड़ाते हुए कहा। हमारी चाय हमारे कमरे में ही पहुँचवा देना, थोड़ी देर और आराम कर लूँ मैं।

2 ।

सारा दिन बागीचे की साफ-सफाई कराने में गुजर गया। इतनी बड़ी कोठी थी पर बसावट कम और पेड़-पौधे ज्यादा। हर तरफ लंबी-लंबी घास खड़ी थी जिसे उसने रोलर चलवा कर कटवाया, पेड़ों की टहनियाँ छटवाई और फिर जा कर दिव्या का कमरा साफ किया। कमरे में एक तरफ रॉट आयरन का मॉडर्न डिजाइन में पलंग पड़ा था। एक कोने में रोजवुड की मेज रखी थी, जिस पर उसका अधखुला लैपटॉप, चाय का प्याला और आधा खाया टोस्ट पड़ा था। उधर पलंग पर एक सफेद कुर्ता पड़ा था, जिसे शायद वह सुबह जाते वक्त पहनने वाला था, पर छोड़ गया। उसे तह करते हुए उसने सोचा। ये आस्तीनें कितनों के खून के छीटों से भीगी हुई हैं। यार-दोस्तों के, गैरों के, अपनों के छीटों से।

धाँय, गोली चली, पद्मा के सीने को पार कर गई. वह चौंक कर चैतन्य हुई. ये पॉलिटिक्स उसकी समझ में नहीं आती। इन कोठियों में पता नहीं क्या-क्या होता है। जब वह अपने कमरे में पहुँची तो शाम ढल चुकी थी। इक्का-दुक्का बादलों को चीर कर चाँदनी नीचे उतर कर चमक रही थी। उसने खिड़की खोली, ठीक सामने टिकोमेर्जेंटीना का पेड़ खड़ा था। जो उसे बिलकुल पसंद नहीं था। दो कौड़ी का पेड़ न शक्ल न सूरत, उसने खिड़की बंद कर दी। उसने दूसरी खिड़की खोली, सामने चंद्रमा साफ दिख रहा था, एक तांबई रंग के गोले के अंदर।

" ये गोला कैसा है अम्मा ' ?

दो पंद्रह-सोलह साल की लड़कियाँ एक बुढ़िया के पेट में हाथ डाले ये बात पूछ रही थी। इनमे से एक पद्मा थी दूसरी इमराना।

"जब ऐसा घेरा पड़ता है तो इंदर भगवान सभा करते हैं देवताओं की"

"ऐं अम्मा, जैसे छोटे चाचा करते हैं? पद्मा ने पूछा"

हाँ वैसे ही, उन्होंने हँस कर कहा।

पर किसे पता था कि आने वाले कल की एकांकी में ऐसी सभाओं की सूत्रधार पद्मा होगी। वक्त की कुंडली में बड़े-बड़े सूत्रधारों का भविष्य सिर छिपाए सोता है। आज के शेर, जंगल के मालिक, दरियाओं का रुख मोड़ने वाले कल सिर्फ़ हवाले में इस्तेमाल होंगे। शुक्ला जी को रह-रह कर ये ही डर खाएँ जा रहा था। वह अभी-अभी एक बड़ी पार्टी से अलग हुए थे। अपने चौंतीस साला राजनीतिक अनुभव के बल पर उन्होंने अलग पार्टी तो बना ली, पर ऐसा तारणहार जोड़ने में असमर्थ रहे जो उनके बाद इस विरासत को आगे बढ़ा सके. इसलिए अब उनकी सारी आशाएँ अपनी भतीजी पद्मा पर टिकी थी। उनका दिमाग हजारों दाँव-पेंच से भरा था। इन दाँव-पेंचों को परवान चढाने के लिए उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो महत्त्वाकांक्षी हो और साथ-साथ नए सपने देखने का आदी भी। इस कसौटी पर सिर्फ़ पद्मा खरी उतरती थी। उनकी दूसरी निकटस्थ थी इमराना, जिसका काम सिर्फ़ इतना था कि सज-धज के उनकी दी हुई इफ्तार पार्टियों में घूमना या साल में कभी-कभार अल्पसंख्यक आयोग की किसी मीटिंग में साथ चले जाना। इसलिए उनकी नैया का सारा दारोमदार अब पद्मा पर था।

3 ।

एक गुणा एक, बराबर ग्यारह, एक गुणा एक बराबर ग्यारह वह बार-बार दोहराए जा रहा था।

ऐ क्या पढ़ रहा है यह? पद्मा ने दिव्य को झिड़का, किसने सिखाया ये?

नाना जी ने, उसने एक नजर शुक्ला जी को देख कर कहा।

क्या चाचा जी आप भी पद्मा ने कहा।

अरे हम इसे राजनीति का गणित सिखा रहे हैं। कैसे गठजोड़ से विधायकों को खरीदा जाता है? कैसे निर्दलियों को अपने पक्ष में किया जाता है? ये किताबी गणित तो कोई भी मास्टर पढ़ा देगा इसे। उन्होंने हँसते हुए कहा, तुम्हें कितनी मुश्किल से सिखाया था राजनीति का ककहरा हमने। इसके मामले में हम कोई रिस्क नहीं लेंगे, इसे तो बहुत आगे जाना है अभी, वह भी कम समय में। तुम तो अभी भी कितना स्लो हो।

पर वह नहीं जानते थे कि एक दिन ये स्लो-लर्नर तुरुप का इक्का साबित होगी। जो गूढ़ ज्ञान पद्मा को लिंकन, गाँधी, नेहरू और बाबू जगजीवन राम का दर्शन नहीं दे पाया। वह उनकी संगति में धीरे-धीरे फल-फूल कर छतनार पेड़ बन गया।

"याद रखो पद्मा गाँधी, नेहरू का दृष्टिकोण लोकल पॉलिटिक्स समझने में कभी कोई हैल्प नहीं देगा"। उसके लिए तुम्हें लोकल आदमी की स्टडी करनी पड़ेगी। उसके फोड़े-फुंसी से लेकर बवासीर तक का हिसाब रखना पड़ेगा। नेशनल लेवल पर जाने के लिए पहले जिला स्तर पर दो-चार होना पड़ेगा।

ये छोटी-छोटी सीखें काँच चढ़े माँझे की तरह उसके रास्ते की हर पतंग को काटती गई.

मन क्या है चाचा जी?

मन क्या है? कुछ नहीं, एक आला दर्जे का हैट-रैक है पद्मा। जिसपे लोग टोपियाँ उतार-उतार कर टाँग देते हैं। या खालिस शब्दों में ये सिर्फ़ एक खूँटी है, जिस पर हजारों तरीके के मुखौटे टँगे रहते हैं, अपनी सुविधा से जो भी चाहो उतार कर पहन लो। इस खूँटी पर तुम्हें शतकोटि कृष्ण टँगे मिलेंगे, अर्जुन, नकुल-सहदेव से ले कर दुर्योधन, शकुनि से लेकर शिखंडी तक एक-दूसरे में गुथे हुए मिलेंगे। अलग-अलग मौकों पर इस खूँटी के हिज्जे-हिसाब बदलते रहते हैं यानी दिशा-दशा परिवर्तन। जिससे भी तकलीफ हो उस मुखौटे को तुरंत उतार दो पद्मा।

कुछ ही सालों बाद पद्मा शुक्ला विधवा हो गई और खूँटी से रंजन नाम का मुखौटा उतर गया।

शाम का धुँधलका अभी धुँधला ही था, अँधेरे में नहीं बदला था। अँगीठी के अधबुझे कोयले सा, न पूरा सुलगा हुआ न ही बुझा हुआ। हल्का-हल्का लाल रंग में लपलपाता हुआ। सेलम की रुई-सा गुनगुना। मुहब्बत के लिए एकदम माफिक वक्त।

रंजन पिल्लै ने सदर बाज़ार के ओर-छोर एक नजर उठा कर नापे पर पद्मा का दूर-दूर तक कोई पता नहीं था। वह दोनों हाथ पैंट की जेब में डाले इधर-उधर टहलता रहा पर वह नहीं आई.

वो इसी साल कर्नाटक से आगरा आया था। इतिहास से एम.ए. था और मुगल कालीन भारत पर रिसर्च कर रहा था और आगरा से बेहतर क्या जगह हो सकती थी। वह दोनों कभी किले में मिलते, कभी फतेहपुर सीकरी, कभी ताजमहल में तो कभी राजा मंडी मार्केट में। उसे इतिहास से प्रेम था और उसे राजनीति से। वह अकबर का दर्शन समझता था और वह युद्धनीति। वह शाहजहाँ के स्थापत्य से चकित था तो वह उस दौर के षड्यंत्रों को सूँघती फिरती थी। वह खंडहरों में हँसी सुनता था तो वह तलवारों कि आवाज।

ये शाम के उदास चेहरे मुझे बहुत लुभाते हैं। ये उदासियाँ मुझे बहुत पसंद हैं। मेरी अपनी जाती हैं, निजी हैं, व्यक्तिगत हैं। मेरी पर्सनेलिटी का एक बड़ा हिस्सा अँधेरा, उदास है। किसी का दिया हुआ नहीं, मेरा अपना छाँटा हुआ। ज़िन्दगी के अलग-अलग हिस्सों से थोड़ा-थोड़ा चुरा कर मैंने ये फ्रेम तैयार किया है। नदी किनारे का गीला सूनापन, आधा चंद्रमा, क्रिसेंट मून तुम नहीं समझोगे। हजार-हजार सालों तक कोई नहीं समझेगा इस महकते हुए डिप्रेशन को। उसने वॉटर-वर्क्स चौराहे पर खड़े हुए रंजन से कहा। पीछे यमुना उदास दम तोड़ती लहरों में बह रही थी। हर साल इसका पानी कम हो जाता है। यहाँ बाढ़ क्यों नहीं आती? आए तो रिलीफ फंड इकट्ठा किया जाए. थोड़ा पॉलिटिकल फुटेज तो मिलेगा, उसने सोचा।

चलें, उसने रंजन से पूछा।

हाँ, तो सवाल ये है पद्मा कि तुम पॉलिटिक्स में क्यों हो?

रंजन और भी बहुत कुछ कहता रहा, पर वह दूसरी तरफ बहती हुई यमुना को देखती रही। नदी के छोटे-छोटे भँवर में गेंदे के फूलों की माला एक थैली में बँधी धीमी गति से बह रही थी। हम सबका जीवन ऐसा ही है। इन लहरों के सहारे बहता, डूबता, टूटता हुआ और किसी एक मोड़ पर ओझल। आधे चंद्रमा की परछाईं लहरों के साथ बहते-बहते कभी टूट जाती थी, तो कभी नए सिरे से बन जाती थी। बादलों के रुई जैसे टुकड़ों ने आकाश को अपने अंदर समेट लिया। वह दोनों पुल के फुटपाथ से उतर कर सड़क पर आ गए. उसने कुछ कहा वह सुन नहीं पाई. एक बस तेजी से दोनों को पीछे छोड़ती हुई आगे निकल गई और उसकी बात हॉर्न के शोर में डूब गई.

4 ।

तो सवाल ये है कि मैं पॉलिटिक्स में क्यों हूँ चाचा जी?

आजकल बहुत सवाल पूछने लगी हो तुम। यहाँ बैठो, शुक्ला जी ने एक कुर्सी खींच दी उसके आगे। इनसे मिलो ये है प्रभात अग्रवाल, हमारी पार्टी के बिहार और बंगाल के नए प्रभारी। मैं चाहता हूँ कि तुम इनके साथ बिहार में पार्टी प्रचार पर ध्यान केंद्रित करो। अभी तुम्हारी मेहनत पार्टी की स्थिति मजबूत कर सकती है और लौट कर यू.पी. पर ध्यान लगाओ. तुम्हारा उत्तर समय आने पर। वह एक झटके से उठे और बाहर निकल गए.

छ महीने के लंबे अंतराल ने उसके अंदर ठहराव पैदा कर दिया था। कहाँ-कहाँ नहीं घूमी थी वो। मोतिहारी, पटना, पूर्णिया, भागलपुर और भी न जाने कहाँ-कहाँ, लगभग आधा बिहार। इस यात्रा ने उसके अंदर आकलन करने की एक नई क्षमता को जन्म दिया था। अब उसके अंदर उमड़ते-घुमड़ते प्रश्नों के बादल कम बरसते थे।

तुम पार्टी क्यों नहीं ज्वाइन कर लेती? एक एक्टिव वर्कर बन जाओ. वैसे भी तुम इफ्तार पार्टीज और अल्पसंख्यक आयोग की मीटिंग्स तो अटेंड करती हो। तुम्हारे पार्टी को फ्रंट लेवल पर ज्वाइन करने से एक खास कम्युनिटी को हमसे जुड़ने में आसानी होगी, पद्मा ने इमराना से कहा।

चाय के प्याले में चीनी घोलते-घोलते इमराना रुक गई. आजकल तुम्हारे दिमाग में छोटे चाचा की तरह हजारों खुरपेंच चलती रहती हैं। क्यूँ, है न पद्मा? मैं जमीनी स्तर पर रही हूँ हमेशा और वैसे ही रहना चाहती हूँ। यूँ भी मुझे ये सब चीजें कम समझ में आती हैं।

फिर भी...

फिर भी क्या पद्मा? महुआ के शहद से ज़्यादा मीठे हैं छोट चाचा और महुआ की ताड़ी से ज़्यादा जहरीले। बड़े घाघ हैं ये। इमराना ने खिड़की खोलते हुए कहा। खुली खिड़की में से साफ धुला आकाश दिख रहा था और आधा चंद्रमा चमक रहा था। हल्की-हल्की चाँदनी चारों ओर फैलने लगी थी। सामने के पेड़ पर किसी घोंसले में परिंदे ने पंख फड़फड़ा के करवट बदली। कंपन से शाखें काँपी. दो मुरझाए लाल फूल शाख से टूट कर जमीन पर गिरे तो उसने खिड़की बंद कर दी।

इन लाल गुलाबों के अंदर ऐसी तेज गंध होती है जो आदमी का सिर चकरा दे। इनकी पत्तियों के साथ काँटे होते हैं। चंदन के पेड़ पर साँप लहराते फिरते हैं। यही साँप अपराजिता और रात की रानी की तरफ भी आकर्षित होते हैं। भँवरे चंपा के फूलों की तरफ झाँकते भी नहीं। हजार-हजार रात चंपा यूँ ही नंगे आसमान के नीचे खुले सिर भँवरों के इंतजार में खड़ी रहती है। यहाँ प्रेम जैसा कुछ नहीं होता रंजन। वक्ती रस्में हैं ये सब और वक्त के साथ इनका रूप बदल जाता है। मेरा-तुम्हारा या किसी का किसी से भी सम्बंध निश्छल नहीं है। इस आँचल के किनारे में ये जो रेशमी धागे से फूल कढ़ा है। इसके लिए भी इसे हजारों बार सुई से छलनी होना पड़ा है। व्यक्ति का सिवाय अपने आप के किसी और से निश्छल प्रेम नहीं हो सकता। इसीलिए प्रेम बड़ा पीड़ा दायक है।

"पर जहाँ मन मिल जाते हैं वहाँ प्रेम पीड़ादायक नहीं होता।"

"मन तो एक खूँटी है रंजन, जिसपे हजारों मुखौटे टँगे रहते हैं।" कल को कोई भी मुखौटा फिसल सकता है।

"ये रहस्य रोमांच, गंध, रंग, सूर्य की चमक, लहरों के प्रसार में डूबते किनारे, मिस्र की प्रेम कहानियों में ही नील के किनारे अच्छे लगते हैं और नील इस देश में बहती नहीं रंजन।"

"इस देश में गंगा और शांतनु का प्रेम तो है पद्मा।"

"गंगा इस शहर में नहीं।"

"इस शहर में यमुना तो है, यहाँ से ताजमहल दीखता है पद्मा।"

पर शुक्ला जी जानते थे, नदी कोई-सी भी हो जब उफान पर आती है तो बुलंद इमारतों की भी नींव हिल जाती है। पद्मा की भावनाएँ उनकी इच्छाओं की नींव हिलाती उससे पहले ही पद्मा का जीवन रंजन के साथ बाँध दिया उन्होंने।

5 ।

शाम ने अपने नन्हें-नन्हें पंख फैला कर जमीन पर उतरना शुरू कर दिया था। सड़क के दोनों ओर बकाइन और कनेर के पेड़ शाम के टिमटिमाते उजाले में चुपचाप खड़े थे। यही पिछले बरस तक पौधों की श्रेणी में आते थे। शाम अब पंख समेटे कैक्टस के गमले के पास बैठी थी। गमले में बहुत सारे छोट-छोटे हल्के गुलाबी रंग के फूल खिले थे। रात के आने में अभी बहुत समय था। शाम ने वहीं से बैठे-बैठे दरवाजे की दरार में से झाँक कर देखा। पद्मा के कमरे में रात का अँधेरा पसरा पड़ा था। वह घबड़ा के उठ खड़ी हुई. बाहर किसी शाख से कनेर का फूल टूट कर जमीन पर गिर पड़ा। इमराना ने दरवाजा खोल कर कमरे की बत्ती जलाई. सामने की मेज पर पद्मा कि तस्वीर रखी थी, जिस पर सुबह के चढ़े फूल सूख चुके थे। हवा के साथ कामिनी के फूलों की गंध कमरे में घुलने लगी। उसने तस्वीर के सामने दिया जलाया और ताजे फूल चढ़ा दिए. मेज के एक कोने पर अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की जीवनी रखी हुई थी। इमराना ने हँस कर सोचा जो पद्मा जय प्रकाश नारायण और गांधी की जीवनियाँ पढ़ कर राजनीति की सीढ़ियाँ चढ़ती थी। आज उसका बेटा विदेशी राजनेताओं का हाथ थामे कूटनीति पढ़ रहा है। वह आराम कुर्सी पर बैठ गई.

रात अब अपने पूरे चरम पर थी। पहर के आखिर में उसने देखा बाहर अँधेरा सागवान के चौड़े-चौड़े पत्तों से उतर कर नीचे खिली नागचंपा पर फैलने लगा था। यहाँ से आगे बढ़ कर ये यमुना के मटमैले पानी की सतह पर लेट कर और गहरा हो जाएगा। हाथी घाट तिराहे पर हाथी और उनके पैर जकड़े मगर भी इस अँधेरे की गहरी पकड़ से बच नहीं सकते। वहाँ से आगे बढ़ कर ये सड़क किनारे दोनों तरफ पत्थर की अधबनी मूर्तियों पर छा जाएगा। उसके बाद ये मनकामेश्वर के शांत, चुप, आधी नीद में डूबे मंदिर को अपने अंदर लपेटता हुआ आगे बढ़ जाएगा। फिर ताजमहल की ऊँची सफेद मीनारों के गले पर लिपट कर उनका दम घोंटने लगेगा और फिर दिया बुझते ही इस कमरे में पसर जाएगा। उसने काँपती उँगली से नाइट बल्ब जला दिया और कमरा बंद करके बाहर चली गई.

अपने कमरे में बैठा हुआ दिव्य अपनी सीधी कलाई निहार रहा था। इसी कलाई पर लगभग छ महीने पहले पुलिस ने हथकड़ी पहनाई थी। खींचतान में अँगूठे के पास का एक बड़ा हिस्सा कील में फँस कर फट गया था। वह जख्म तो अब भर गया था, पर एक पीली लकीर रह गई थी उस जगह। उसे पता ही नहीं चला कब पीछे से सौम्या आ गई. जब उसने झुक कर उसका कंधा चूमा तो वह चौंक गया।

"तुम कब आई?"

"बस अभी आई, क्या सोच रहे थे?"

"कुछ नहीं ऐसे ही लखनऊ वाली मीटिंग का प्लान बना रहा था, कल जाना है ना। नीचे कौन-कौन बैठा है?"

"दयाल अंकल और नाना जी, कल कैसे जाओगे?"

"क्यों?"

"नाना जी कह रहे थे कि कल तुम्हें दीवानी जाना है।"

हम्म्म ...एक मिनट चुप रह कर उसने कहा। लखनऊ तो रात को जाना है और दीवानी सुबह, बारह बजे तक फ्री भी हो जाऊँगा।

"भाई जी को बोलूँ साथ जाने के लिए."

"शैलेश को क्यों तंग कर रही हो? आई विल मैनेज माइसेल्फ"

"ठीक है" बाद में मुझे अबुलला की मजार तक ड्रॉप कर दोगे?

"क्यों?"

"इम्मो मौसी पद्मा आंटी के लिए चादर चढ़ाएगी, साथ चलने को बोला था उनने।"

"रहने दो, क्या करोगी जा कर?" उसने सौम्य को घूरा।

जैसे उसने कोई न कहने लायक भेद भरी भीड़ में खोल दिया हो।

"फॉरगेट ऑल सच स्ट्युपिडिटी."

"तुम आंटी का जिक्र आते ही बात क्यों टालने लगते हो?"

"क्योंकि मुझे उस विषय में बात करना पसंद नहीं।"

दिव्य बाहर निकलो इस गिल्ट से। तमाम दुनिया जानती है वह एक हादसा था बस। ट्राई टू बी हैप्पी. इतना परेशान क्यों रहने लगे हो आजकल?

क्योंकि मैं जानता हूँ वह गोली... वह गोली।

श्श्श्श्श... सौम्या ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया। खबरदार जो कुछ भी कहा। चुप बिलकुल चुप।

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद दिव्य ने पूछा।

"तुम्हें आज से पहले ऐसे रिएक्ट करते नहीं देखा सौम्या।"

"क्योंकि मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती।"

"जीवन एक झरने की तरह है दिव्य, हर वक्त बहता हुआ। निरंतर आगे को बहता हुआ। कभी पलट कर नहीं लौटता, जो गया सो गया। मत बाँध कर रखो कुछ, उलीच दो दोनों हाथों से। सब बहा दो, कुछ मत रखो दिव्य।"

"बहुत कुछ उबलता रहता है अंदर ही अंदर।"

"दिव्य दुनिया की कोई आग किसी समंदर, किसी झरने को सुखा नहीं सकती। समंदर की सतह में लगातार फूटने वाले ज्वालामुखी भी कभी उसे सुख नहीं पाते। किसी के भी भीतर सूरज जितना ताप नहीं होता जो सब जला कर खत्म कर दे। अंदर आग पालने वालों की आँखों में भी आँसुओं का सोता छिपा होता है।"

सौम्य ने उठ कर खिड़की खोल दी। धूप की एक किरण तिरछी हो कर उसके माथे से फिसलती हुई कंधे पर जा कर खत्म हो गई. वहाँ देखो दिव्य, सौम्या ने बाहर खिले हुए एक सदाबहार की तरफ इशारा किया।

"ये पौधा दो बार मेरी गाड़ी के नीचे आ गया था।" फिर भी अपनी जिजीविषा से पनप रहा है। फूल भी खिल रहे हैं। बरसातों के मौसम में भी कई मोर पंख फैला कर नहीं नाचते। अनार की डालियों की छतनार छाँव सब को नहीं मिलती। तुम्हें मिली है तो उपयोग करो। "

6 ।

खटाखट-खटाखट कैमरे के फ्लैश ने उन सब पर रोशनी बिखेरनी शुरू कर दी। एकाएक भीड़ में ऐसी हस्तियों को देख कर हाटवालियों ने अपने-अपने सामान समेटने शुरू कर दिए. किसी ने सिल-बट्टा पीछे सरकाया, किसी ने चीनी मिट्टी के प्याले खिसकाए. किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ और उनके लिए रास्ता बना दिया।

"ये सब क्या है सौम्या?" उसने पूछा।

कुछ नहीं अबुलला का उर्स है आजकल।

"और ये अखबार वाले?"

"दैनिक जागरण वाले हैं। मैंने ही बुलाया है इन्हें। कार में बैठ कर बस पाँच मिनट का इंटरव्यू दे देना। चलो अब अंदर चलें, चादर चढ़ाने का वक्त हो रहा है।"

वो मुड़ी कि एक गिरगिट पास से सरक कर सड़क किनारे के गड्डे में कूद पड़ा। कुछ छींटे उसकी साड़ी पर भी पड़े। उसने घूम के देखा, एक छोटे से गड्ढे में उसका सिर्फ़ सिर चमक रहा था। ये सरीसृप होते ही ऐसे हैं हर बनते काम पर मिट्टी उड़ेलने वाले। पर मिट्टी उड़ेलने वाले सिर्फ़ ये ही नहीं होते। उस ईश्वर के चौसर पर और भी बहुत प्यादे खड़े रहते हैं राजा कि मुंडी काटने को। एक ऐसा ही प्यादा कही अनंत भविष्य के गर्भ में साँस ले रहा था।

गुलाब था या केवड़ा जिसकी खुश्बू दिव्य को सराबोर कर गई. उसने चारों तरफ नजर घुमा के देखा एक सोलह-सत्रह साल की उठे बदन की लड़की एक कोने में खड़ी सौम्या को निहार रही थी। बारबार अपने दुपट्टे को उँगली से बाँधती और खोलती, फिर बाँधती और खोल देती। अचानक उसने दिव्य को अपनी तरफ देखते पाया तो झेंप कर आँखें झुका ली।

" नाम क्या है तुम्हारा? ' दिव्य ने पूछा।

"परवीन"

"कहाँ रहती है?"

"यही, बाग फरजाना, टीन के गिरजे के पास।"

"तो यहाँ क्यों?"

"अम्मी को चादर चढ़ानी थी।"

"ओह!"

इतने में सामने से सौम्या आ गई.

"क्या कर रहे हो, चलो भी।"

"बस कुछ नहीं, ऐसे ही इस लड़की से बात कर रहा था।"

"अच्छा दो मिनट ठहरो यही। एक फोटो ऐसा भी खींचवा लो इसके साथ। टैग लाइन मैं सजेस्ट कर दूँगी।"

"मिनिस्टर आम जनता के बीच या फिर राज्य का भावी कर्णधार, खेवैया अपनी रिआया के साथ या फिर।"

"अच्छा बस करो" दिव्य बोला।

नब्बे का दशक अपने उतार पर था और दुनिया भर की राजनीति अपने चरम पर थी। तमाम देश मंडल आयोग की सिफारिशों से झुलस रहा था। जिधर देखिए उधर ही आग की लपटें धूँ-धूँ कर के उठ रही थी। सिर्फ़ पद्मा के कमरे में खामोशी करवटें बदल-बदल के सो रही थी। रंजन की तस्वीर पर चढ़े फूल सुबह से शाम तक चढ़े-चढ़े सूखने लगे थे। शुक्ला जी ने कमरे में झाँक कर देखा। पद्मा एक फाइल में सिर गढ़ाए पड़ी थी।

"ये विदेशों के झंझट छोड़ो और ये फाइल पढ़ लो।"

"क्या है इसमें चाचा जी?"

"मंडल आयोग ने जिन-जिन पॉइंट्स की सिफारिश की है और जिसकी वजह से ये बवाल मचा है। उसी की सूची है ये। सरकार ने बैठे-बिठाए ये मौका हाथ में दे दिया है तो पद्मा इसे कैश करा लो। थोड़ी मुखालफत थोड़ी हिमायत करके हित साध लो।"

"दो परस्पर विरोधी नीतियाँ कैसे चल सकती हैं चाचा जी?"

"यही तो राजनीति है बेटा, न बुरे बनो न भले। उदारवादिता दिखानी ज़रूरी है पद्मा इस समय। ऐसे ही छोटे-बड़े अवसर भाग्य तय करते हैं, इस वक्त पार्टी का भाग्य तुम्हारे दारोमदार पर टिका है।"

"अगले महीने लखनऊ में तुम्हारी एक मीटिंग फिक्स की है यादव जी के साथ।"

"कुछ दिन प्रभात के साथ बैठ कर मीटिंग का मसौदा तैयार कर लो। पूरी तैयारी बिना कोई हल नहीं निकलेगा। केंद्र की सरकार गिरी नहीं कि प्रदेश में एक नया समीकरण बनेगा और यादव जी की सरकार तैयार और फिर तुम्हारा यहाँ से जीतना लगभग तय है। अगर तुम नहीं भी जीती तो भी तुम्हारी कैबिनेट की राह का समाधान है हमारे पास।"

"क्या?"

"हम पार्टी का विलय उनके साथ कर रहे हैं और सी.एम. यादव जी ही बन रहे हैं। बस मीटिंग में अपने पक्ष पर अड़ी रहना। हम चाहते हैं कि तुम ऊर्जा या महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की डिमांड करो।"

"और अगर शर्त नहीं मानी गई तो?"

"तो भी अड़ी रहना। यादव जी ने हमें भरोसा दिलाया है तोड़ेंगे नहीं।"

"आपको इतना यकीन कैसे है चाचा जी?"

"क्योंकि वह शेर हैं, दहाड़ ही काफी है उनकी।"

"शेर मारे भी जाते हैं"

"याद रख लड़की शेर जंगलों में विचरते हैं और खुले सिर में घूमने वाले जुएँ होते हैं, जिन्हें नाखूनों से रगड़ दिया जाता है। शेरों को मारने के लिए मचान बाँधनी पड़ती है।"

पर समय ने पद्मा को नाखून के हल्के दाब भर से रगड़ दिया। ये उसका पहला पड़ाव था राजनीति के लंबे अनथक सफर में। जब एक बार उसके हाथ सत्ता की चाबी आई तो उससे बड़े-बड़े ताले खोलने का हुनर, सिल्वर फिश की तरह हर परिस्थिति में मुसीबतों को दाँत से काटने का हौसला उसमें स्वतः ही आ गया। वह अब प्रदेश की राजनीति का उभरता हुआ सितारा थी पर तेजी से कृष्णबिंदु की ओर अग्रसर।

सन 92 में जनता दल टूटने के बाद जब यादव जी की अपनी पार्टी की सरकार बनी तो पद्मा के भाग्य की पतंग अनंत आकाश की परिक्रमा के लिए उड़ चली।

7 ।

"जिसका विद्रोह होता है, उसका वर्चस्व होता है और जिसका वर्चस्व होता है वह राजा होता है। मुझे राजा बनना है इसलिए वर्चस्व चाहिए." समझीं सौम्या, दिव्य ने कहा।

"और राजा का ही पतन होता है।" याद रखना दिव्य सौम्या ने एक फीकी हँसी हँस कर कहा।

बरसात की बूँदों ने जहाँ जीवन की सामान्य परिपाटी को ढर्रे से उतारा वहीं जून की आग उगलती गर्मी से राहत भी दी। कोठी के कोने में लगा बॉटलब्रश अपने पूरे शबाब पर था, अमलतास के नन्हे पीले फूलों ने पेड़ों को पूरी तरह ढक रखा था। इतनी बहार के बाद भी इमराना के अंदर कहीं एक अजब-सी हड़बड़ाहट थी। एक संशय की डोर हृदय के इस कोने को छूती दूसरे कोने की तरफ बढ़ जाती थी। भय, संशय, गोपन की बिजली रगों की तरफ बार-बार लपलपा जाती थी। चिंता के बादल पल-पल उमड़ते-घुमड़ते रहते थे पर बरसते नहीं थे। वह जितनी बार आँखें बंद करती उतनी ही बार कितनी ही सूरतें हँसते हुए गुजर जाती थी। कभी रंजन की, कभी पद्मा की, कभी सौम्या, कभी शुक्ला जी, कभी दिव्य और कभी। अचकचा कर उसने अपनी आँखें खोल दीं। कैसी सूरत थी उसकी। स्याह रंग, मर्दाना गठन, लड़कों की छँट में कटे बाल, हथेलियों के बीचों-बीच मेहँदी का धब्बा। बार-बार हथेली फैला कर बात करने का लहजा। पैर इतने मोटे जैसे सूज गए हों, उन पर फँसी पाजेब। ऊपर से काहिया रंग के छींटदार कपड़े। उसकी बातें इमराना का दम ऐसे घोंटे जा रही थीं जैसे साँप की गिरफ्त में मरता हुआ चूहा।

"देखिए बहन जी बिन बाप की लड़की मुहल्ले भर की नजर में चढ़ जाती है। उस पर ऐसी दिया-बत्ती-सी हँसी है हमाई लड़की की कि धप-धप पूरा घर चमक-चमक जाए. सुरमें की लकीर-सी पतली हमाई मौड़ी अँगुरियन के पोरों-सी होने लगी है। वा पै दिन-दिन खटिया पर पड़ी रहती है। मुहल्ले भर की औरतें मुँह फेर-फेर के हँसे हैं हमाए दरबज्जे पै। अभी उमर ही क्या है उसकी? सतरा बरस। उस पर सफाई भी करवानी है अभी।"

"क्या नाम है लड़की का?"

"परवीन"

कुछ देर बाद इमराना ने उसके हाथ में हजार-हजार के तीन नोट थमा दिए. जाओ सफाई करवा देना। नजर रख अपनी लड़की पर वर्ना मिट्टी में खोद कर गढ़वा दूँगी। ढूँढे नहीं मिलेगी तुझे।

उसके जाने के बाद उसने सारी खिड़कियाँ खोल दी। देर तक घुटी-घुटी फिजा में बाहर से आते गीली हवा के झोंके उसे बड़े भले लगे। वह फिर जा कर पलंग पर बैठ गई. ऐसी दिए-बाती-सी हँसी तो सौम्या की भी है। पूरा घर जगमगाने लगता है फिर दिव्य को बाहरी उजाले की ज़रूरत क्यूँ पड़ी? ऐसे अजदहे दूर ही से प्यार की चिरैया को फाँस कर मार देते हैं। पर अजदहे ने फंदा ही नहीं कसा बल्कि जहरीली साँसें भी हवा में घोल दीं। ऐसे ही तीन हजार रुपये सौम्या से भी वसूल कर के ले गई वह सफाई करवाने के लिए.

8 ।

धाँय गोली चली, धमाके से पूरी कोठी काँप उठी। साथ चलते कूलर की तेज आवाज भी उस धमाके में घड़ी भर को डूब गई. वह दौड़ कर ऊपर भागी। पद्मा का खून में लथपथ शरीर आधा कमरे में और आधा चौखट के बाहर पड़ा था। इमराना के पीछे-पीछे शुक्ला जी भी वहाँ पहुँच गए. कमरे के एक कोने दिव्य खड़ा था और पाँव के पास पिस्तौल पड़ी थी। दोनों चीजें एक साथ पहुँची शुक्ला जी के घर, एंबुलैंस और पुलिस की जीप। वह तीन दिन अस्पताल में भर्ती रही। आगरा मेडिकल कॉलेज में शायद ही कभी इतनी भीड़ जुटी हो जितनी इन तीन दिनों में। सुबह से शाम तक मिलने वालों का ताँता आई.सी.यू. के बाहर लगा रहता था। लोग बारी-बारी दरवाजे से झाँक भर लेते थे। इन तीन दिनों में शुक्ला जी कभी अस्पताल में तो कभी जेल में चक्कर काटते पाए जाते थे। ऑपरेशन के बाद भी पद्मा की स्थिति खतरे के बाहर नहीं थी। बचने की उम्मीद धीरे-धीरे कम होती जा रही थी। तीन दिन की अथक मेहनत के बाद हर कोशिश थम गई. बागबाँ के हाथों से उड़ कर खुशबू हवाओं में मिल गई और शाख से फूल टूट गया।

पद्मा की मृत्यु ने शुक्ला जी के राजनीतिक मानचित्र में एक बड़ा शून्य पैदा कर दिया था। इस शून्य को सिर्फ़ दिव्य भर सकता था। इसलिए उसे साफ-सुथरी इमेज के साथ इस केस से बाहर निकालना उनका एक मात्र ध्येय था। चाहे इसके लिए उन्हें साम-दाम-दंड-भेद किसी का भी इस्तेमाल करना पड़े। पाँच महीने की लगातार दौड़-धूप के बाद फास्ट-ट्रैक कोर्ट से वह दिव्य को बरी करा पाए. कोर्ट में पुलिस ने जो दस्तावेज जमा किए थे, उनमें साफ लिखा था कि पिस्तौल साफ करते समय गोली गलती से छूट गई और ऐन मौके पर पद्मा सामने पड़ गई. दोनों वाकए अचानक हुए, ये मात्र एक दुर्घटना थी।

झंझा, आँधी, अंधड़ सौम्या के मन को एक कोने से उठा कर दूसरे कोने में पटक देते थे और फिर कहीं दूसरी जगह पटक देते। निर्वात के एक धक्के से अनंत अंतरिक्ष में आकाशगंगा टूट कर बिखर गई थी। ऐसा ही हाल आजकल सौम्या का हो रखा था। कौन था ऐसा? जो सौम्या के इस उठते अंधड़ को झेल पाता।

दिन ढले भी हवा में उमस और गर्मी थी। धड़धड़ाती ट्रेन की आवाज हवा में दूर से तैरती आ रही थी। एक रेल की पटरी रावली के शिव मंदिर की दीवार से सट कर गुजरी थी। जिसकी वजह से हर बार गुजरती ट्रेन की धमक मंदिर को कँपा जाती थी। रावली के शिव पर सौम्या की बड़ी आस्था थी। पर इन दिनों हर आस दीमक लगी भुरभुरी मिट्टी के ढेलों की तरह हाथ लगते ही टूट रही थी। एकाएक गुजरती रेल ने उसका ध्यान तोड़ दिया। जरा-सा फर्श काँपा तो उसने सोचा जो शिव हर आती-जाती गाड़ी से काँप जाते हैं, वह उसके काँपते मन को क्या साध पाएगें। कोई मजबूत हाथ ही इस समय इस भटकते मन को साध सकते हैं और ऐसे हाथ सिर्फ़ इमराना के थे। उसने हाथ जोड़े और बाहर निकल आई.

शाम का सुरमई अँधेरा जब काजल की तरह चारों तरफ फैल गया तब वह शुक्ला जी के घर पहुँची।

"दिव्य कहाँ है?" उसने घुसते ही पूछा।

"लखनऊ गए हैं।" इमराना ने कहा।

"और नाना जी?"

"साथ गए हैं।"

"आप अकेली हैं घर में?"

"हाँ" , चाय पिएँगी?

"नहीं मौसी." वह आई थी?

एक बार को तो इमराना सकपका गई.

सच बताना इम्मो मौसी.

"क्या?"

"जब कोई उँगलियों के पोर-सा हो जाता है तब क्या पुराना रिश्ता टूट जाता है?"

एक चुप्पी...

"बताओ न?"

दुबारा चुप्पी... बहुत देर बाद इमराना ने कहा। जानती है बेटा, "कुछ लोग इस कदर खुशफहम होते हैं कि खुद का कद इतना ऊँचा समझते हैं जैसे यूकेलिप्टस के पेड़। जिनकी जड़ें जमीन के पार का सारा पानी सोख लेती हैं। ये खुशकामत न ही किसी सदाबहार के सब्जे को खिलने पनपने देते हैं, न ही किसी को छाँव। ये खुद को इतना कद्दावर समझते हैं कि कोई नॉर्मल इनसान इनके पास नहीं जा सकता। इनके गाल सिर्फ़ जिराफ या गुजरे जमाने के डायनासॉर ही सहला सकते हैं। कई बार जी चाहता कि ऐसों के आँगन में एक सागवान रोप दिया जाए, जो अपनी खुशकामती से इन्हें ऊँचाई का अहसास दिला सकें। बहुतों के लिए ठीक बैठती है ये बात। क्यूँ है न? दिव्य भी इन्हीं में से एक है।"

"कौन रोप सकता है इनके आँगन में सागवान मौसी?"

"क्यूँ, तुम रोप सकती हो। अपनी ऊँचाई से इन्हें बौना बना सकती हो। एक सलाह देती हूँ। वैसे तो दिव्य को देनी चाहिए थी, पर तेरे लिए ज़्यादा कारगर साबित होगी।"

"क्या?"

"इस गुस्से को टोंड डाउन कर, पॉलिश कर, नरिश कर, जज्ब कर के रख। खामोश दरिया हमेशा बड़ा तूफान लाते हैं।"

"मैं समझाऊँ उसे मौसी?"

"कोई फायदा नहीं।"

"क्यों?"

"क्यूँकि ब्यानहार गैया और खुले नाड़े के आदमी की बैचैनी तब तक नहीं खत्म हो सकती जब तक कि वह फारिग न हो जाए."

"आप इतनी ऐंटी दिव्य क्यों हो?"

"क्यूँकि पद्मा मुझे बहन जितनी प्यारी थी।"

"तुम तो पार्टी ज्वाइन करने वाली थीं।"

"कांग्रेस।"

' यू.पी. में कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं है। तुम्हें बसपा या सपा इनमें से कोई करनी चाहिए. "

हवा में रात की रानी और बेले की मिली जुली गंध घुलने लगी थी।

"चलूँ मौसी?" सौम्या ने पूछा।

"अच्छा, आराम से जाना।"

"ठीक है, एक बात और मौसी."

"क्या बेटा?"

"इनकी पैदाइश में कोई खोट?"

"नहीं, ऐसा क्यूँ लगा?"

" मैंने सुना था कि इनकी पैदाइश का कुछ सम्बंध प्रभात बाबू से था।

जिसके शक के चलते पद्मा आंटी को..."

"नहीं, हर्गिज नहीं, बिलकुल नहीं। ऐसा कुछ नहीं था। पद्मा का करैक्टर असॅसीनेट मत करो।"

"तो फिर ऐसा क्यों?"

"इसलिए कि आज के दौर में प्यार का एटीट्यूड और फिजिकल डिजायर अलग तरीके का है। हीर-राँझे अब इश्क के संदर्भ में भी इस्तेमाल नहीं होते। सौम्या हर आदमी के मन में एक बाँबी होती है। जो आदिम से आज तक और आज से अनंत तक हजारों तरह के साँपों की पनाहगाह रहेगी और औरत की बाँबी में एक से एक खतरनाक अजदहे पलते रहते हैं, जो वक्त आने पर बड़े-बड़े सूरमाओं को मसल देते हैं।"

9 ।

कॉफी हाउस में वह दोनों नहीं आमने-सामने जैसे चुप्पी बैठी थी। नकली फूलों पर प्लास्टिक की ओस से जमे हुए. फिर सौम्या ने ही कॉफी का प्याला सरकाते हुए कहा।

प्यार दो तरीके का होता है। एक जैसा तुमने किया और दूसरा जैसे मैंने।

मैं जानती थी मेरा प्यार तुम्हारे ऐसे था।

"जैसे बटन होल में लगा फूल... पहले दिन महकेगा, दूसरे दिन थोड़ा कुम्लहाएगा और तीसरे दिन जब मुरझा जाएगा तब इसे हाथ से झटक दोगे।"

और तुम्हारा प्यार मेरे जीवन में दो चीजें लेकर आया।

"पहला-मन के सुदूर कोनों में नख्लिस्तान"

"दूसरा-मन के कोने-कोने में रेगिस्तान"

"दोनों ही सूरतों में नुकसान तो मेरा ही हुआ और हाँ मैंने दयाल अंकल की पार्टी ज्वाइन कर ली है।"

शीशे में आया हुआ बाल पहली बार साफ-साफ दिखा दिव्य को।

धमाके की तरह एक शाम शुक्ला जी दिव्य के जीवन में धमाका कर के खामोश हो गए. मार्गदर्शन की बीच राह में ही वह दिव्य को अंधड़ झेलने के लिए अकेला छोड़ गए.

वो दोनों अब ज़िन्दगी के हाथों में शटल कॉक की तरह थे। जिधर चाहती उधर उछाल देती।

मौसम बदले, ग्लेशियर जमे, पिघले, नदियों में उफान आया, गाँव-शहर डूबे, पानी चढ़ा, फिर उतर गया। मौसम बार-बार बदलते रहे। हर बदलते मौसम के साथ थोड़ा-थोड़ा वह दोनों भी बदलते रहे।

प्रेम और प्रेम के बाद की घृणा को उन दोनों ने Political Mandate (राजनैतिक अधिकार-पत्र) की तरह ग्रहण किया। घड़ियाँ बदली और छोटे-छोटे वक्फे सालों में बदल गए. जीवन की परिधि दस बरस आगे खिसक गई. दस सालों में दोनों ने अपने-अपने मापदंडों में बहुत कुछ खोया बहुत कुछ पाया।

दिव्य ने इमराना की ममता खोई तो परवीन की बेलौस मुहब्बत पाई. हालाँकि ये मुहब्बत हमेशा उसके गले में फाँस-सी चुभती रही। तो उधर सौम्या ने दिव्य को खोया और इमराना जैसा सारथी पाया, जिसके साथ अनायास ही पद्मा और शुक्ला जी का गूढ़ ज्ञानानुभव और नीतियाँ स्वतः ही उसके रथ पर आ कर बैठ गई.

दाँव-पेंच आगरा की गलियों से निकल कर सालों से लखनऊ की फिजाओं में खेले जाने लगे थे। दोनों तरफ की चालें, घातें उनके जीवन में कशीदाकारी का काम कर रही थी। कभी बनती बात बिगड़ती, कभी बिगड़ा काम इफ्तार पार्टियों में बनता।

"मौसी."

"हूँ"

"हमें यादव जी की पार्टी ज्वाइन करने का ऑफर मिला है।"

"जानती हो दिव्य डिप्टी सी.एम. बनने लायक औकात रखता है उस पार्टी में।"

"जानते हैं, पर औरत की मन की बाँबी में बड़े खतरनाक अजदहे पलते रहते हैं।"

"मतलब?"

"मतलब ये कि परवीन कौन है उनकी? मॉरल पुलिस का काम करेगी पब्लिक और मीडिया। हमारी पार्टी का उनमें विलय ऊर्जा मंत्री का पद दिलाएगा हमें। वक्त की नजाकत को देख कर झुकने वाली घास ज़्यादा वक्त तक तूफान में टिक पाती है और देखिए डिप्टी सी.एम. तो नहीं बनने देंगे हम उन्हें, ना ही कोई ढंग का मंत्रालय जाने देंगे उनके पास।"

"तुमको यकीन है?"

"पक्का, एकदम पक्का। चुनाव तो आने दो बस एक बार।"

जैसे-जैसे चुनाव पास आते गए वैसे-वैसे मीडिया ने दिव्य और परवीन के सम्बंध की पैनी जाँच-पड़ताल शुरू कर दी। दिव्य की परेशानी का सबसे बड़ा सबब था मीडिया का लगातार बढ़ता दबाब, जिसकी वजह से परवीन का टिकट पाना बहुत मुश्किल हो गया था। फिर भी जुगत भिड़ा कर उसने परवीन को औरैया से टिकट दिला दी।

दो वाकयों ने चुनाव की सूरत बदल दी थी। चुनाव से पाँच दिन पहले दिव्य ने परवीन का नाम प्रवीन बदल कर सिविल मैरिज करके मीडिया की तमाम अटकलों और रस्साकशी को थाम दिया था और अगले दिन पार्टी विलय के बाद जिस गाड़ी से सौम्या और दिव्य वापस जा रहे थे वह हाई-वे पर धुंध के कारण बस से टकरा गई. ड्राईवर सही-सलामत निकाल लिया गया था। दिव्य का बायाँ पैर चोटिल था और डॉक्टर ने कहा था कि कम से कम छ महीने तक व्हील चेयर का इस्तेमाल करना पड़ेगा। बस एक सौम्या को हादसे के बाद बचाया नहीं जा सका। दूसरे दिन सुबह वेंटिलेटर पर दम तोड़ दिया उसने। फाख्ता इस मुंडेर से हमेशा के लिए उड़ चुकी थी। बस एक इमराना समझ रही थी हादसे की हकीकत को।

चुनाव हुए, नतीजे आए. यादव जी को बड़ी जीत मिली थी। जगह-जगह नामी हस्तियों को शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने का न्योता भेजा जाने लगा था। ऐसा ही एक न्योता दिव्य ने भेजा था इमराना के पास समारोह में शामिल होने के लिए.

टी.वी. चल रहा था, न्यूज पर थोड़ी-थोड़ी देर बाद समारोह की झलक दिखाई जा रही थी। हल्की नारंगी रंग की साड़ी में लिपटी परवीन दिव्य की व्हील चेयर को मंच की तरफ ले जा रही थी। न्यूज रीडर बार-बार ये बता रही थी कि ज़्यादा घायल होने के कारण दिव्य शुक्ला अपनी पत्नी प्रवीन शुक्ला के साथ उनके तुरंत बाद अपने पद की शपथ लेंगे। प्रवीण शुक्ला प्रदेश की ऊर्जा मंत्री की रूप में शपथ ले रही हैं और दिव्य शुक्ला...

न्यूज रीडर आगे कुछ और बोलती उससे पहले ही इमराना ने टीवी बंद कर दिया। खुली खिड़की से ठंडी हवा का झोंका अंदर आया तो उसने मुड़ कर देखा। एकाएक घने कोहरे की चादर हर जगह पसर गई. गुड़हल और अनार की पत्तियों से सरक-सरक के कोहरा बूँद-बूँद जमीन पर गिर रहा था।

उसे सामने कभी पद्मा दिखती, कभी सौम्या तो कभी हँसता हुआ दिव्य।

अचानक उसे हर जगह लाल रंग का कोहरा नजर आने लगा। गुड़हल और अनार की पत्तियों से उसे सुर्ख रंग की बूँदें टपकती दिखने लगी। उसने डर कर तुरंत खिड़की बंद कर दी और पास पड़ी कुर्सी पर धम्म से बैठ गई.

नीम बेहोशी में डूबने से पहले उसने इतना ही कहा।

"या अल्लाह! इन दरख्तों से खूँ टपकता है।"