इन दिनों पाकिस्तान में रहता हूँ / पंकज सुबीर

Gadya Kosh से
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क़ाज़ी कैम्प...? रिटायरमेंट के बाद भोपाल के इसी मोहल्ले में आकर रहने को तो कहा था भासा ने। ज़हीर हसन भासा ने। राहुल की नज़र ऑटो के बाहर गई, तो एक दुकान के बोर्ड पर मोहल्ले का नाम देखकर अचानक उसे भासा का स्मरण हो आया। भासा... भासा असल में भाईसाहब का लघु रूप है। ज़हीर हसन इसी नाम से पूरे क़स्बे में मशहूर थे। वे उस छोटे-से क़स्बे के सरकारी अस्पताल में वाहन चालक थे। अस्पताल में बने सरकारी मकान में रहते थे। रहते थे अपने भरे-पूरे परिवार के साथ। जिसमें उनकी पत्नी, चार बेटियाँ और दो बेटे थे। लोग हैरत करते थे कि दो कमरों के उस सरकारी मकान में भला इतने लोग रह कैसे लेते हैं। पूरा परिवार उन्हें भासा ही कह कर बुलाता था। उनके बच्चे भी और पत्नी भी। बेटे-बेटियों ने कभी अब्बू या पापा कह कर नहीं बुलाया। असल में तो वे भाई साहब ही कह कर बुलाते थे, लेकिन छोटे बेटे क़मर हसन ने पूरा भाईसाहब कहने के स्थान पर भासा कह कर बुलाना शुरू कर दिया, तो बस वे जगत् भासा हो गए। पत्नी सीधे तो भासा नहीं कहती थीं लेकिन बच्चों से तो कहती ही थीं कि तुम्हारे भासा आ गए क्या? चारों बेटियाँ बला की ख़ूबसूरत थीं और मिलनसार इतनी कि सरकारी अस्पताल का वह कैम्पस जहाँ भासा का परिवार एकमात्र मुस्लिम परिवार था, वे उस पूरे कैम्पस की बेटियाँ थीं। भासा उस समय पचास के लगभग उम्र में थे। हमेशा पूरी बाँह की सफेद शर्ट और स्टील ग्रे कलर की पैंट पहनते थे। शर्ट की आस्तीनें भी हमेशा कोहनी से ऊपर मुड़ी हुई रहती थीं। नाटे कद के भासा सामने से पूरे गंजे थे, लेकिन कानों के ऊपर और पीछे की तरफ़ अच्छे ख़ासे घने बाल थे। खिचड़ी बालों को हमेशा कुछ बढ़ा के रखते थे, जो कानों के ऊपर लहराते रहते थे। दूर से देखने में किसी पक्षी का घोंसला-सा लगता था उनका सिर। मोटे लेंसों का चश्मा एक डोरी में बँधा हुआ गले में लटकता रहता। कुछ पास का देखना या पढ़ना हो तो कत्थई फ्रेम का वह चश्मा आँखों पर आ जाता था।

भासा बला के जीनियस प्राणी थे। मशीनों से खेलना मानों उनके ख़ून में था। कहने को ड्रायवर थे लेकिन गाड़ी के अलावा भी यदि कोई मशीन उनके हवाले कर दी जाए, तो उसे भी दुरुस्त करके ही दम लेते थे। हार मानना उन्होंने सीखा ही नहीं था मशीनों के मामले में। भले ही उस मशीन को खोलना तो क्या, देख भी पहली बार ही रहे हों, तब भी। पूरा क़स्बा था और भासा थे। उन दिनों इतनी मशीनें या गाड़ियाँ होती भी नहीं थीं कि छोटे क़स्बों में उनके मैकेनिक हों। सरकारी अस्पताल की गाड़ी को रखने का बड़ा-सा गैराज भासा के घर के पास ही बना था। यह गैराज ही भासा की प्रयोगशाला थी, जहाँ लोग अपनी बिगड़ी हुई मशीनें लेकर आते थे। भासा को किसी मशीन पर काम करते देखने का भी अपना ही आनंद था। वे किसी तपस्वी की तरह लीन हो जाते थे। इस दौरान बराबर उनके होंठों में दबी रहती थी बीड़ी। शेर छाप बीड़ी। इसके अलावा और कोई ब्रांड भासा को पसंद नहीं था। हाँ ये बात अलग थी कि जब वे काम में तल्लीन रहते थे, तो फिर इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि बीड़ी सुलगी हुई है अथवा बुझ गई है। बस होंठों में दबी रहना चाहिए। होंठों के बीचों बीच नहीं, एक किनारे पर। इसी प्रकार बीड़ी को दबाए हुए वे बात भी कर लेते थे, होंठ के दूसरे किनारे से। जब काम में तल्लीन होते थे, तो बीड़ी को होंठों में दबाए हुए ही वे कुछ बुदबुदाते भी जाते थे, मानों मशीन से बातें करते हों। या उसे सुधर जाने के लिए मना रहे हों। जो भी हो लेकिन होता यही था कि वे अंततः जीत कर ही उठते थे।

भासा को मैकेनिक बनाने में उस सरकारी गाड़ी का भी बहुत बड़ा हाथ था, जो अस्पताल को मिली हुई थी। मिलेट्री से रिटायर गाड़ी थी वह। थी तो पैट्रोल से चलने वाली लैंड रोवर, लेकिन इतनी पुरानी हो चुकी थी कि भासा को ही पता था कि वह कैसे चलती है। पार्ट्स उसके मिलते नहीं थे। भासा जुगाड़ में उसीके चलते महारत हासिल कर चुके थे। जो पार्ट ख़राब होता, उसके स्थान पर जुगाड़ का ही पुर्जा लगाना पड़ता था भासा को। गाड़ी की छत पर पैट्रोल की टंकी बँधी रहती थी, क्योंकि पीछे जो ओरिजनल टंकी थी वह ख़राब हो चुकी थी। भासा ने अस्पताल में मरीज़ों को ग्लूकोज़ चढ़ते देखा और पैट्रोल टंकी का विकल्प तलाश लिया। छत पर रखी टंकी से पैट्रोल आता था इंजन में। यह भासा का ही दिमाग़ कर सकता था कि जिस लैंड रोवर को पैट्रोल टंकी ख़राब हो जाने के कारण कंडम किया जा रहा था, उसे भी उन्होंने विकल्प के माध्यम से चला दिया था। भासा उस विशालकाय लैंड रोवर को जब चलाते थे, तो अपने नाटे क़द के कारण बड़ी मुश्किल से खिड़की से दिखाई देते थे। ऐसा लगता था जैसे विशालकाय हाथी को कोई महावत लेकर जा रहा हो। लैंड रोवर वैसे भी चलती कम ही थी। आस-पास के गाँवों तक सड़कें बनी नहीं थीं, तो डॉक्टरों के कहीं जाने या गाँव से मरीज़ों के क़स्बे तक आने का कुछ काम था ही नहीं।

भासा का मैकेनिक दिमाग़ सबसे ज़्यादा उपयोग में आता था दस दिनों के गणेश उत्सव में। वह समय टीवी, मोबाइल का नहीं था। उस समय मनोरंजन का मतलब, नाटक, नौटंकी और झाँकियाँ होता था। क़स्बे में एक ही स्थान पर गणेश स्थापना होती थी, सरकारी अस्पताल के प्रांगण में। दसों दिन यहाँ पर अलग-अलग झाँकियाँ सजाई जाती थीं। छोटे बच्चों को इन झाँकियों में देवी-देवता बना कर किसी भी प्रसंग में खड़ा कर दिया जाता था। बच्चों को सजा कर देवी-देवता बनाने का काम भासा की पत्नी करती थीं, क्योंकि सबसे ज़्यादा ज़री-गोटे के कपड़े उन्हीं के पास थे। भासा की बेटियाँ ही देवियाँ बनेंगी, यह तय था, क्योंकि सबसे सुंदर भी वही थीं। भासा का काम होता था झाँकी में तकनीक का चमत्कार दिखाना। विक्रमादित्य को तेल के खौलते कड़ाह में बिठाने के दृश्य के लिए वे कड़ाह में मटमैला पानी भर कर उसमें खेतों में दवा छिड़कने वाले पंप से हवा छोड़ते थे, जिससे पानी उबलता हुआ दिखता था। शंकर के शीश से ग्लूकोज़ की बाटल द्वारा अनवरत् गंगा निकालना हो या रावण के सिर एक-एक कर कटना और वापस आने के लिए लगाई गई चेन-पुली की तकनीक हो, सच यही था कि झाँकियाँ जो कुछ भी होती थीं, वह भासा और उनकी पत्नी के परिश्रम का नतीज़ा होती थीं। ये भासा का ही दिमाग़ होता था कि टाट के बने विशाल गोवर्धन पर्वत को इमली के जिस पेड़ के नीचे झाँकी सजती है, उसकी किसी शाख़ से मज़बूती से बाँध कर लटका दिया जाए और नीचे से कृष्ण बना बालक बस उसमें अपनी छोटी उँगली लगा कर खड़ा हो जाए। भासा की पत्नी को यह बताने की ज़रूरत नहीं होती थी कि शंकर का मेकअप कैसा होगा और काली माँ को कैसा? उन्हें मुस्लिम होने के बाद भी सब पता था।

भासा के छोटे बेटे क़मर हसन को एक बार शंकर बना कर लिटाया गया था और उसकी छाती पर लात रखकर मोहल्ले की सबसे साँवली लड़की को काली माई बना कर खड़ा किया गया था। झाँकी में पात्रों को कुछ भी करना नहीं होता था, बस एक ही मुद्रा में खड़े रहना होता था। बहुत देर तक लेटे-लेटे क़मर की नींद लग गई। क़रीब आधे घंटे बाद जब झाँकी देखने वाले दर्शकों की भीड़ चरम पर थी, तब अचानक क़मर की नींद खुली, वह आँखें मलकर अँगड़ाई लेता हुआ उठ बैठा। दर्शक हैरान, क़मर भी। उसकी नज़र काली माई पर पड़ी, वह चीख़ पड़ा, काली माई भी चीख पड़ीं। चीखते ही उनके मुँह में भासा द्वारा लगाई गई लाल जिलेटिन की पन्नी की जीभ, जिसके अंदर उन्होंने बड़ी कुशलता से टार्च का बल्ब सेल द्वारा जलाया हुआ था, नीचे गिर गई। पहले तो दर्शक हैरान हुए, मगर जैसे ही उनको पूरा माजरा समझ में आया, उनका हँस-हँस के बुरा हाल हो गया। भासा ने उस दिन झाँकी में लाल-पीली-नीली जिलेटिन की पन्नियों को आग की लपटों के आकार में काटकर, पंखे को नीचे लिटा कर उसकी हवा से उड़ा कर प्रचंड आग का माहौल बनाया हुआ था। दूर से देखने में ऐसा लग रहा था मानों आग से जलते हुए युद्धक्षेत्र में सचमुच काली माई शंकर के सीने पर पैर रख कर खड़ी हैं। झाँकी में लगे सारे बल्बों पर भी भासा ने लाल जिलेटिन लगा कर माहौल को और ख़तरनाक बना दिया था। भासा ने इस झाँकी को बनाने के लिए दो दिन से मेहनत की थी। अपना पूरा हुनर उन्होंने इस झाँकी को बनाने में झोंक दिया था। जो देख रहा था, वही दाँतों दले उँगली दबा रहा था। क़मर ने उनकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया था। झाँकी के पीछे के ग्रीन रूम में भासा ने पहले शंकर जी वाला पूरा मेकअप क़मर का उतारा, क्योंकि जो कुछ उनको करना था, वह शंकर जी के साथ नहीं कर सकते थे। जब शंकर से वापस क़मर प्रकट हुआ, तो भासा ने अपने प्लास्टिक के जूते से इतनी सुताई की थी कि चार दिन तक क़मर की पीठ सूजी रही थी।

क़मर हसन और राहुल समवय थे। क़मर बहुत चुलबुले टाइप का लड़का था। पिता के साथ रहकर ड्राइवरी सीख रहा था। पढ़ाई आठवीं के बाद छोड़ चुका था। भासा का बड़ा बेटा स्कूल में मास्टर हो गया था। राहुल के डॉक्टर पिता उसी अस्पताल में पदस्थ थे। राहुल के पिता को भी कैम्पस में ही सरकारी मकान मिला हुआ था। बिल्कुल ज़हीर हसन भासा के मकान के पास। राहुल के मकान से सटा हुआ गैराज था और उससे सटा हुआ भासा का मकान था। मकान के पीछे का छोटा-सा हिस्सा कँटीली झाड़ियों से घिर हुआ था, जिसमें भासा की बकरियाँ बँधी रहती थीं और एक तरफ़ कुछ सब्ज़ियों की बेलें लगीं रहती थीं। एक कोने में फट्टों का बना मुर्गियों का दड़बा, उससे लगा हुआ टीन की पुरानी चादरों से बना एक गुसलखाना, बिना छत का। भासा की पत्नी और बेटियों को पूरा समय मुर्गियों, बकरियों और सब्ज़ियों के पौधों की देखभाल में बीतता था। भासा गैराज में बैठकर अपनी जुगाड़-तुगाड़ में लगे रहते थे। राहुल स्कूल से लौटता और बस्ता फेंक कर सीधा गैराज की तरफ़ भागता था। भासा चश्मे के ऊपर के हिस्से में से राहुल को देखते, मुस्कुराते और फिर अपने काम में लग जाते। राहुल वहीं बैठकर भासा को काम करते हुए देखता रहता और क़मर को गालियाँ खाते, पिटते, डाँट खाते भी। क़मर का दिमाग़ शैतानी दिमाग़ था, डिस्ट्रक्शन ज़्यादा सोचता था, जबकि भासा कन्स्ट्रक्शन के बारे में सोचते थे। कई बार तो क़मर की पिटाई इतनी ज़्यादा हो जाती कि घर से निकल कर क़मर की अम्मी को आना पड़ता था उसको बचाने के लिए। जिस दिन भासा सरकारी गाड़ी लेकर कहीं टूर पर गए होते, उस दिन गैराज पर राहुल और क़मर का ही कब्ज़ा होता। दोनों मिलकर भासा के आविष्कारों की खोज-ख़बर लेते रहते। क़मर का पसंदीदा काम पैट्रोल को रूई के फाहे में भिगो कर सूँघना और भासा का बीड़ी का बंडल तलाश कर उसमें से बीड़ी पीना भी इस दौरान चलता रहता। क़मर का कहना था कि पैट्रोल सूँघने से शराब पीने जैसा ही नशा चढ़ता है। नशा तो क्या चढ़ता था लेकिन बस फेंटेसी थी, जिसे पूरा करते रहते थे।

राहुल उस समय कॉलेज में पढ़ रहा था, जब भासा रिटायर होकर क़स्बा छोड़कर गए थे। क़स्बे से क़रीब डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी पर भोपाल शहर था, प्रदेश की राजधानी। भासा के सारे रिश्तेदार वहीं रहते थे। उन्होंने भी भोपाल के क़ाज़ी कैम्प इलाक़े में मकान बनवा लिया था रिटायरमेंट के एक-दो साल पहले। उनके सारे रिश्तेदार क़ाज़ी कैम्प में ही बसे हुए थे। रिटायरमेंट से पहले चारों बेटियों और बड़े बेटे की भी शादी कर दी थी भासा ने। चारों बेटियों की शादी भी वहीं अपने इलाक़े के आस-पास ही की थीं। बड़ा बेटा क़स्बे में मास्टर था, उसकी शादी भी भासा ने क़स्बे में ही की थी। क़स्बे से कोई रिश्ता जुड़ा रहे यह सोचकर। क़मर को अफ़सरों से कह-कहा कर भोपाल में ही सरकारी ड्रायवर के पद पर लगवा दिया था उन्होंने। जब गए थे तब तक क़मर की ही शादी नहीं हुई थी बस, बाक़ी सारी ज़िम्मेदारियाँ पूरा कर चुके थे भासा, रिटायरमेंट के पहले। उन दिनों लॉकर आदि का तो चलन था नहीं। जब भी कोई शादी भासा के यहाँ होती, भासा कुछ ज़ेवर और पैसे राहुल की मम्मी के पास लाकर रख देते थे। फिर शादी में जैसे-जैसे ज़रूरत पड़ती, ले जाते रहते। भासा की पत्नी का भी कुछ ज़ेवर स्थाई रूप से राहुल की मम्मी की अलमारी में ही रखा रहता था। जब ज़रूरत पड़ती तो आकर ले जातीं और फिर काम पूरा होने पर वापस दे जाती थीं। वे दिन आपसी विश्वास के दिन थे। जब अमानत में ख़यानत जैसा भी कुछ होता है, यह सोचा भी नहीं जा सकता था। राहुल की मम्मी की अलमारी में उनके अलावा भी और कई लोगों की इसी प्रकार की पोटलियाँ रखी रहती थीं। यह कैम्पस में रहने वाले तृतीय और चतुर्थ वर्ग के कर्मचारियों के परिवारों का एक विश्वास का लॉकर था, जो बड़े डॉक्टर साहब के घर में खुला हुआ था। वह बहुत अलग तरह का समय था। उस समय में अंकल और आंटी भी नहीं होते थे बच्चों के। बहुत घरेलू और आत्मीय सम्बोधन होते थे। जैसे राहुल भी क़मर की तरह भासा को भासा और उनकी पत्नी को अम्मी ही कह कर बुलाता था। उन दिनों सब बच्चे यही करते थे। दोस्त की मम्मी उस समय आंटी नहीं होती थीं, मम्मी ही होती थीं।

"सर होटल आ गया..." ऑटो वाले की आवाज़ पर राहुल ने चौंक कर आँखें खोलीं।

"अरे! होटल आ भी गया, पता ही नहीं चला रास्ते का।" राहुल ने जेब से अपना पर्स निकालते हुए कहा। भासा के बारे में पुरानी यादों में इस तरह खो गया था राहुल कि क़ाज़ी कैम्प से पलाश होटल तक कब पहुँचा पता ही नहीं चला। घड़ी देखी तो दो बजने को थे। लंच का समय हो चुका है, काम करते समय कुछ चटर-पटर खाया था, अब भूख पेट में सिर उठा रही थी।

"सुनो भाई... शाम को क़ाज़ी कैम्प में किसी से मिलने जाना है लेकिन उनके मकान का पता ठीक-ठीक नहीं मालूम है मुझे। तुम ले जा सकते हो?" राहुल ने पैसे ऑटो चालक को देते हुए उससे पूछा। आज का काम समय से पहले ही पूरा हो गया था। कल सुबह की फ़्लाइट से वापस लौटना है। पहले सोचा था कि शाम को ज़रा भोपाल घूम लेगा, मगर क़ाज़ी कैम्प का नाम देखा तो इरादा बदल गया था राहुल का।

"क़ाज़ी कैम्प में? क़ाज़ी कैम्प तो बड़ा इलाक़ा है सर, मैं भी वहीं रहता हूँ। आपको जिनसे मिलने जाना है उनका क्या एड्रेस मालूम है आपको?" ऑटो चालक ने कुछ अदब के साथ पूछा। उसके पूछते ही राहुल ने एक बार ग़ौर से उस ऑटो चालक को देखा। बीस-बाईस साल का युवक था वह। बातचीत के लहज़े से मुस्लिम लग रहा था।

"यार बहुत ज़्यादा मालूम नहीं है, बस ये पता है कि किसी मस्जिद के सामने से रास्ता गया है और नाले के पास ही मकान है उनका। मस्जिद से बहुत दूर नहीं है।" राहुल ने याद करते हुए कहा। जब भासा रिटायरमेंट के बाद क़स्बा छोड़कर भोपाल रहने जा रहे थे, तो यही पता बताया था उन्होंने।

"मस्जिद तो दो-तीन हैं क़ाज़ी कैम्प में...! मगर नाले के पास की जो आप कह रहे हैं, तो नाले के बहुत पास तो एक ही मस्जिद है जामा मस्जिद अहले हदीस। जिनसे आपको मिलने जाना है उनका नाम क्या है?" ऑटो चालक ने एक बार फिर बहुत अदब के साथ पूछा।

"ज़हीर हसन साहब के घर जाना है।" राहुल ने उत्तर दिया। राहुल के उत्तर पर ऑटो चालक के चेहरे पर अपरिचय भरे उलझन के भाव आ गए। "उनका एक बेटा सरकारी ड्रायवर है, क़मर हसन।" ऑटो चालक को उलझन में पड़े देखा तो राहुल ने कहा।

"अरे...! हाज़ी भाई साहब के घर जाना है आपको? उनको ज़हीर हसन के नाम से कोई नहीं जानता सर, सब या तो भाई साहब कहते हैं या हाज़ी भाई साहब। कोई दिक़्क़त नहीं है सर। मुझे मालूम है कि वह कहाँ रहते हैं।" ऑटो चालक ने कुछ मुस्कुराते हुए कहा। ऑटो चालक के उत्तर ने राहुल को दो कारणों से प्रसन्न कर दिया। पहला तो यह कि भासा यहाँ भी भाई साहब के ही नाम से मशहूर हैं। दूसरा यह कि समय का बड़ा अंतराल बीच में हो चुका है। इतने लम्बे समय बाद किसी से अचानक मिलने जाना हो, तो सबसे पहला सवाल तो यही होता है दिमाग़ में कि पता नहीं सामने वाला अब हो भी या न हो? विशेषकर यदि मामला किसी बुज़ुर्ग का हो तो यह प्रश्न और भी परेशान करता है। आख़िरकार उस बात को भी तो अब दस-पन्द्रह साल हो ही गए हैं, जब भासा क़स्बा छोड़कर भोपाल रहने गए थे। रिटायरमेंट के हिसाब से ही जोड़ें, तो साठ और पन्द्रह मिलाकर पचहत्तर साल की उम्र तो हो ही गई होगी भासा की और आजकल पचहत्तर पार करना इतना आसान कहाँ है?

"अच्छा! यहाँ भी वह भाईसाहब के नाम से ही मशहूर हैं?" राहुल ने कुछ आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता से कहा। "तो फिर एक काम करना... लेकिन पहले अपना नाम तो बताओ भाई।" राहुल ने बात को अधूरे में ही छोड़ कर प्रश्न किया।

"सर...! जावेद... जावेद ख़ान।" जावेद ने अदब के साथ उत्तर दिया।

"हाँ तो जावेद एक काम करना, शाम को पाँच बजे के आस-पास आ जाना। ले चलना और फिर वापस भी छोड़ जाना होटल। पहले एक काम करो अपना मोबाइल नंबर दो मुझे।" राहुल ने कहते हुए अपने मोबाइल को स्वाइप कर के स्क्रीन को स्लीप मोड से बाहर निकाल लिया। जावेद का बताया हुआ नंबर मोबाइल में फीड करने के बाद राहुल ने उसे 'जावेद ऑटो भोपाल' के नाम से सेव कर लिया। उसकी पुरानी आदत, किसी अपरिचित का नंबर वह नाम, काम और जगह तीनों रेफरेंसेस के साथ सेव करता है। सर्च में आसानी हो जाती है बाद में। साल भर बाद यह तो याद रहेगा नहीं कि बंदे का नाम क्या था? कम से कम जगह या काम से तो सर्च किया ही जा सकता है।

ऑटो से उतर कर राहुल होटल में जाने से पहले एक बार ठिठका और जावेद के कंधे पर हाथ रख कर कुछ मुलामियत से बोला "ठीक है जावेद, शाम को चलते हैं तुम्हारे मोहल्ले।" कॉलेज में इकॉनामिक्स के प्रोफ़ेसर सुशील शर्मा द्वारा सिखाई गई बहुत-सी बातों पर राहुल आज भी अमल करता है। वे विषय से हटकर अक्सर बहुत-सी इसी प्रकार की बातें स्टूडेंट्स को बताया करते थे। उनमें से ही एक बात यह कि अपरिचित को एक बार स्पर्श ज़रूर करना चाहिए, ऐसा करने से वह आपको हमेशा याद रखता है। अपरिचित से बात करते समय स्वर को मुलायम रखना चाहिए और सबसे पहले उसका नाम पूछ कर, नाम लेकर ही बात करनी चाहिए। इससे अपरिचय का कोहरा जल्दी छँट जाता है। कितना अंतर आ गया है आज की शिक्षा प्रणाली में पहले के मुकाबले? पहले के शिक्षक कोर्स के अलावा भी कितना कुछ सिखा देते थे अपने स्टूडेंट्स को।

"जी सर मैं वक़्त पर आ जाऊँगा।" राहुल ने देखा कि कंधे पर स्पर्श करते ही जावेद के चेहरे पर एक अपनेपन का भाव आ गया है।

रूम में पहुँच कर वहीं लंच बुलवा लिया राहुल ने। खाना खाकर जब घड़ी देखी तो तीन बजने को थे। जावेद को पाँच बजे आना है, कुछ देर आराम किया जाए, यह सोच कर वह लेट गया। जीवन, परिवार, नौकरी की आपाधापी में ज़िंदगी का वह सबसे ख़ूबसूरत हिस्सा जिसका नाम बचपन था, बिसर-सा गया था। आज अचानक क़ाज़ी कैम्प के बहाने मानों किसी फ़िल्म की तरह आँखों के सामने चल रहा है। कितने दिनों बाद याद किया उसने भासा को, क़मर को और अम्मी को। क्यों होता है ऐसा कि कभी जिनके बिना हमारा एक दिन तो क्या कुछ घंटे काटना भी मुश्किल होता था, उनके बिना हम जीवन भी काटने लगते हैं। राहुल लेटा हुआ था लेकिन उसकी आँखों में नींद नहीं थी, बचपन का समय यादों से निकल कर तैर रहा था। यादों में क़स्बे के सरकारी अस्पताल का वह हमेशा गुलज़ार-सा कैम्पस तैर रहा था। बचपन के सभी साथी, भासा, अम्मी, क़मर, गैराज, लैंड रोवर, पैट्रोल के फाहे और जाने क्या-क्या गड्ड-मड्ड हो रहा था। कोलाज़ की तरह यादें होटल पलाश की दीवारों पर नए-नए कॉम्बिनेशन में सुधियों के पैटर्न रच रही थीं, हर पैटर्न लहरों की तरह उठता और बिखर जाता था। इन्हीें उठती-गिरती लहरों में उसे कुछ और भी दिखा। छोटा-सा कोई लड़का, जो आलथी-पालथी मार कर पटे पर बैठा है और आनंद ले-लेकर खाना खा रहा है। वह एक रहस्य जो बचपन में उसने बहुत जानने की कोशिश की लेकिन नहीं जान पाया। अपने घरवालों से भी बार-बार पूछा और भासा से भी। किसी ने कोई भी ठीक-ठीक उत्तर नहीं दिया था। जो उत्तर मिलते थे, वे बस मन बहलाव के लिए हैं, यह तो उसे उस समय भी समझ में आ जाता था।

जिस रहस्य को लेकर राहुल बेचैन है, वह कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी। बस इतनी-सी बात थी कि राहुल को हर महीने एक बार भासा के घर खाना खाने जाना होता था। वह कोई निश्चित तारीख़ होती थी। लेकिन अंग्रेज़ी कैलेंडर की नहीं बल्कि चाँद की तारीख होती थी। जब राहुल भासा के घर खाना खाने जाता, तो वहाँ सब कुछ हिन्दू पद्धति से होता था। भासा की पत्नी रसोईघर में ही पटा लगाकर बहुत प्यार से उसे खाना खिलाती थीं। खीर, पूरी, भजिए, दहीबड़े, दो-तीन तरह की सब्ज़ियाँ, चटनी और कभी-कभी मिठाई भी। उस खीर का स्वाद अभी भी राहुल की ज़ुबान पर है। वैसी खीर कहीं और नहीं खाई, जैसी अम्मी बनाती थीं। ऐसी सौंधी-सौंधी महक उठती थी खीर से कि रसोई क्या पूरा घर उससे महकता रहता था। एक चम्मच मुँह में रखते ही केशर, इलाइची की महक स्वाद तंतुओं को उद्दीप्त कर देती थी। गाढ़ी और मलाईदार खीर। भासा पूरे समय पास बैठकर इन्स्ट्रक्शन देते रहते थे। -'देखिए भैया की थाली में पूरी तो है ही नहीं।' भासा उसे भैया ही कह कर बुलाते थे। उसे बहुत अजीब-सा लगता था कि उम्र में इतने बड़े होने के बाद भी भासा उसे नाम लेकर क्यों नहीं बुलाते, फिर उसे लगता कि शायद वह भासा के ऑफ़िसर का बेटा है इसलिए भासा उसे भैया कह कर बुलाते हैं। उत्तर में अम्मी भी मीठे स्वर में भासा को झिड़कतीं-'जी... मुझे दिख रहा है, खा तो लें, गरम-गरम रख दूँगी और पूरियाँ खाकर पेट भर लेंगे, तो खीर कैसे खाएँगे?' जब तक वह खाना खाता तब तक भासा और अम्मी के अलावा किसी और का रसोईघर में आना मना होता था। वह खाना खाता रहता और भासा और अम्मी में इसी प्रकार की मीठी तकरार चलती रहती। अम्मी की झिड़की खाकर भासा कुछ देर को सिटपिटा कर चुप हो जाते। कुछ देर चुप रहते, फिर जैसे झिड़की सुनने के लिए ही कुछ कह देते। अम्मी फिर बड़बड़ातीं-'कितनी बार कहा है आप बाहर बैठा कीजिए, हम खिला देंगे खाना, मगर भरोसा किसे है?'

खाना खा चुकने के बाद भासा और अम्मी दोनों उसे एक-एक चवन्नी देते थे। यह चवन्नी बाद में अठन्नी में बदल गई थी। भासा जब चवन्नी देते थे, तो उनकी आँखें सूनी-सी होती थीं। लेकिन अम्मी जब चवन्नी देकर राहुल को सीने से लगाती थीं, तो उनकी आँखें भीगी हुई होती थीं। कई बार तो वे सिसक भी रही होती थीं। भासा उस समय रसोईघर से बाहर निकल जाते थे। अम्मी कुछ देर तक राहुल को सीने से लगाकर कर दुलार करती रहती थीं। उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में गहरा लगा हुआ काजल फैलकर उनके दूध से गोरे चेहरे पर आँसुओं के साथ बह जाता था। राहुल को उस क्षण की कितनी ख़ुश्बुएँ याद हैं। वह इत्र जो अम्मी लगाती थीं और उस तम्बाख़ू की महक जो अम्मी पान में डाल कर खाती थीं। अम्मी के सीने से लगने के बाद देर तक यह सारी ख़ुश्बुएँ राहुल को अपने आप पर से भी आती थीं। उसके बाद भी देर तक अम्मी राहुल के सिर पर हाथ फेरती रहती थीं। एक हाथ से दुपट्टे से आँखें पोंछती रहतीं और दूसरे से राहुल के सिर पर हाथ फेरती जातीं और जाने क्या-क्या दुआएँ देती जातीं। -'अल्लाह करे ख़ूब तरक़्क़ी करो, ख़ूब बड़े आदमी बनो, अपने माँ-बाप का नाम ख़ूब रोशन करो। ख़ुदा क़ामयाब करे।' उन दुआओं से निकलते शब्द और सिर पर हाथ फेरने से उपजती सिहरन मिलकर राहुल को किसी दूसरी दुनिया में पहुँचा देती थी। ऐसा लगता था कि यह सारे शब्द सच होने के लिए ही निकल रहे हैं, इनमें इतनी पवित्रता है कि यह शब्द सच होंगे ही होंगे। राहुल यंत्रचलित-सा अम्मी के पैर छू लेता था। हर बार अम्मी उसके पैर छूते ही अपने कान छू लेती थीं, उसे मना करती थीं यह कह कर कि 'नहीं बेटा हम लोगों में पैर छूना या छुआना बड़ा गुनाह माना जाता है।' और हर बार राहुल पैर छू लेता था।

इस रहस्यमय भोजन के कार्यक्रम में कभी भी राहुल के अलावा कोई और दूसरा शामिल होते राहुल ने नहीं देखा था। यदि भासा के घर में मेहमान भी आए हुए होते, तो वे या उनके बच्चे भी राहुल के खाना खा लेने के बाद ही खाना खाते थे। बड़ा अजीब लगता था राहुल को कि वह किसी शाही मेहमान की तरह खाना खा रहा है और उसके इंतज़ार में पूरा परिवार और मेहमान भी भूखे बैठे हुए हैं। जिस दिन राहुल को भासा के यहाँ खाना खाने जाता होता था, उस दिन माँ सुबह से ही टोक देती थीं कि स्कूल की आधी छुट्टी में मास्टर साहब को बोलकर घर आ जाना, भासा के घर सब भूखे बैठे रहेंगे। यह किसी नियम की तरह उसे भी पता होता था कि आज भासा के घर जाना है और आज स्कूल की रेसेस में ही घर लौट आना है। सब कुछ पता था, बस यह नहीं पता था कि वह हर महीने बिना नागा क्यों जाता है भासा के घर? राहुल के घर आने वाले मेहमान नाक-भौं सिकोड़ते थे-'माँस-मच्छी खाने वालों के घर पूजा-पाठी ब्राह्मण के लड़के को खाना खाने भेजना...?' माँ के पास एक सधा हुआ उत्तर होता था-'माँस-मच्छी खाते हैं तो क्या? राहुल के लिए तो खीर-पूरी ही बनाते हैं और माँस-मच्छी खाने से ही कोई अगर अपवित्र हो जाता हो, तो फिर तो बहुत से ब्राह्मणों के घर भी हमें खाना नहीं खाना चाहिए, उनके घरों में भी बहुत लोग माँस-मच्छी खाते हैं।' माँ के इस उत्तर के बाद कोई कुछ कहने की स्थिति में नहीं होता था। दोनों तरफ़ के परिवारों में सबसे बड़ी होने के कारण कोई कुछ कह भी नहीं सकता था। भासा और अम्मी के साथ माँ का बड़ा आत्मीय रिश्ता था। भासा माँ को बाई साहब कहते थे और अम्मी दुलहिन कहके बुलाती थीं। जिस दिन राहुल को खाना खाने जाना होता उसके एक दिन पहले ही अम्मी का संदेशा लेकर कोई बेटी या बेटा आ जाता-'कल राहुल भैया को घर पर खाना-खाना है।' या खिड़की थपथपा कर अम्मी ख़ुद ही संदेश दे देतीं-'दुलहिन कल भैया को खाना इधर ही खाना है।'

अम्मी के साथ भी राहुल की ख़ूब छनती थी। जब भासा कहीं गाड़ी लेकर दौरे पर गए होते और क़मर भी साथ गया होता था, तो राहुल अम्मी के पास बैठकर ही बतियाता रहता था। ठिगने क़द और भरे शरीर की अम्मी सलीक़े से शलवार-कुरता पहनती थीं और उस पर दुपट्टा, जो हमेशा बड़े सलीक़े से सिर पर रखा रहता। नाक में चमकीले पत्थर की लोंग और लोंग के ठीक पास नाक पर एक बड़ा-सा मस्सा। अम्मी का उजला रंग ही बेटियों और बेटों को मिला था, भासा तो कुछ साँवले थे। अम्मी को न केवल उजला रंग मिला था बल्कि नाक-नक्श भी बहुत ख़ूबसूरत थे। माँ अक्सर कहती थीं कि अम्मी जवानी में कितनी ख़ूबसूरत लगती होंगी। कई बार जब राहुल वहाँ पहुँचता तो अम्मी नमाज़ पढ़ रही होती थीं। सिर पर दुपट्टे को कसे नमाज़ पढ़ती हुईं अम्मी को वह मंत्रमुग्ध होकर बस देखता रह जाता था। ऐसा लगता था जैसे सारी दुनिया की शांति सिमट कर अम्मी के व्यक्तित्व में उन पलों में समा गई है। अम्मी से बतियाना उसे ख़ूब अच्छा लगता था। मुँह में पान दबाए, आवाज़ में नाक की टोन शामिल कर बोलतीं अम्मी की बातें उसे बहुत अच्छी लगती थीं। अक्सर तो वे या अपने सब्ज़ी के पौधों की देखभाल में लगी होती थीं, या अपनी सिलाई मशीन लेकर बैठी होती थीं। घर से लगा हुआ ही एक बहुत पुराना पीपल का पेड़ खड़ा था। पेड़ के बाद खेत और जंगल शुरू हो जाते थे। उस पेड़ के नीचे एक चबूतरा-सा बना लिया था अम्मी ने, कच्ची मिट्टी से छाब कर और गोबर से लीप कर। उसी पर दरी बिछा कर अपनी सिलाई मशीन लेकर बैठती थीं अम्मी। बीच-बीच में सिलाई रोक कर सरौते से छालिया (सुपारी) काटने लगतीं। काट-काट कर सुपारी के टुकड़े अपने मोतियों के काम वाले बटुए में रखती जातीं। बटुआ हमेशा उनके साथ ही रहता था और एक छोटी-सी टोकरी भी। उस टोकरी में चूना, कत्था, तम्बाख़ू, भीगे कपड़े में लिपटे पान के पत्ते और एक छोटी-सी डब्बी में पेपरमिंट रखा रहता था। राहुल को पेपरमिंट सबसे ज़्यादा पसंद था, खाने के लिए भी और अपनी पलकों पर लगा कर ठंडक महसूस करने के लिए भी। गाहे-बगाहे उसे अम्मी पान भी बना कर खिला देती थीं। बिना सुपारी और बिना कत्थे का पान। राहुल उनसे बतियाता रहता और कपड़ों की कतरनों से खेलता रहता। उस दौरान भी उसने कई बार अम्मी से पूछने की कोशिश की थी कि क्यों उसको हर महीने वह खाना खाने बुलाती हैं? हर बार इस प्रश्न पर अम्मी की आँखों सूनापन उमड़ पड़ता था। इस सूनेपन में कभी-कभी नमी भी समा जाती थी। मगर हर बार वे इस प्रश्न को टाल देती थीं। कभी कोई सीधा उत्तर नहीं देती थीं।

और जिस दिन भासा क़स्बा छोड़कर जा रहे थे? कितना दुखी था उस दिन पूरा कैम्पस। सब ज़ार-ज़ार रो रहे थे। राहुल उस समय स्कूल के आख़िरी साल में था। बड़ा हो चुका था। उसे सीने से लगा कर कैसा हिलक-हिलक कर रोईं थीं अम्मी। रोना और दुआएँ देना एक साथ किया था अम्मी ने। जाने कितनी दुआएँ दे डाली थीं अम्मी ने उस दिन। जो भी दुआएँ हो सकती हैं, सब दे डाली थीं उसे। सब ग़मगीन थे उस दिन। हालाँकि सरकारी कैम्पस में यह मिलना-बिछड़ना आम बात होती है लेकिन कैम्पस के अधिकांश चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, नौकरी लगने के बाद से यहीं पदस्थ थे। इसलिए आपस में बहुत आत्मीयता के साथ जुड़े हुए थे। भासा जब रिटायर होकर गए, तब घर में बस भासा और अम्मी ही बचे थे। बेटियाँ ब्याही जा चुकी थीं। बड़ा बेटा क़स्बे में ही अलग मकान लेकर वहाँ रहता था। क़मर ड्रायवरी सीख रहा था और भोपाल ही रहता था। राहुल को आज भी याद है कि जब लोडिंग टैम्पो में सामान रखवा कर भासा कुछ दूर तक आ गए थे, तो उन्होंने सूनी आँखों से एक बार मुड़कर उस मकान को देखा था, जिसमें उनकी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा गुज़रा था और उस गैराज को भी जो उनकी प्रयोगशाला थी। राहुल को कुछ दिनों पहले ही आए टीवी पर दूरदर्शन के चित्रहार कार्यक्रम में देखे गए किसी गाने की पंक्तियाँ याद आ गईं थीं-'मुड़ कर किसे देखता है मेरे दिल, वहाँ कौन है जो तुझे रोक लेगा।' वह दृश्य आज तक राहुल के दिमाग़ में स्थिर होकर रुका हुआ है। जीवन में कई क्षण बीतने के बाद भी बीतते नहीं हैं, वे फ़्रीज़ होकर रह जाते हैं। किसी तस्वीर की तरह।

फिर यह हुआ कि राहुल भी स्कूल की पढ़ाई पूरी करके अगले साल कॉलेज की पढ़ाई के लिए बाहर चला गया। जब पढ़ाई पूरी हुई, तो दिल्ली में ही एक प्राइवेट कम्पनी में अच्छी नौकरी लग गई। इस बीच पिताजी का भी क़स्बे से ट्रांस्फ़र हो गया, तो राहुल के लिए क़स्बा एक तरह से छूट ही गया। बस यादों में ही बचा रह गया। फिर शादी, बच्चे, ज़िंदगी, सबकी उलझनों में जीवन उलझता गया, उलझता गया। अब तो पिताजी रिटायर भी हो चुके हैं। रिटायरमेंट के बाद राहुल ने उन्हें दिल्ली ही बुला लिया अपने पास। माँ, पिताजी, पत्नी और दो बेटियाँ, यही है अब उसकी छोटी-सी दुनिया। दिल्ली से बहुत दूर बसा वह छोटा-सा क़स्बा आज भी उसके सपनों में आता है। बचपन के वह सुनहरे दिन अभी भी ख़्वाबों में आ जाते हैं। राहुल को आज भी जब सपने में कोई घर दिखाई देता है, तो वह क़स्बे का वही सरकारी घर होता है। लेकिन सपनों की रात के बाद फिर सुबह होती है और सुबह लेकर आती है जीवन की आपाधापी। भागदौड़, वह सब कुछ जो स्मृतियों पर धूल डाल देता है।

सोचते ही सोचते कब राहुल की नींद लग गई उसे पता ही नहीं चला। साइट पर सुबह से इन्स्पेक्शन करने की थकान तो थी। मोबाइल की रिंग से उसकी नींद खुली। देखा तो जावेद का कॉल था। जावेद को उसने इंतज़ार करने को कहा और उठकर बाथरूम में चला गया।

तैयार होकर राहुल होटल के बाहर आया जहाँ जावेद इंतज़ार कर रहा था। "अच्छा जावेद ऐसा करो पहले ज़रा बाज़ार चलो, कुछ कपड़े लेने हैं और मिठाई भी।" राहुल ने ऑटो में बैठते हुए कहा।

जावेद ने ऑटो 'चौक बाज़ार' के पास लाकर रोक दिया। बाज़ार से राहुल ने भासा के लिए सफ़ेद कुरता-पाजामा का कपड़ा खरीदा और अम्मी के लिए कशीदाकारी वाला शलवार-कुरते का कपड़ा। कुछ मिठाइयाँ, चॉकलेट्स और फल भी ख़रीदे। उसे कुछ भी अंदाज़ा नहीं था कि भासा के घर कौन मिलता है, इसलिए बस अनुमान से कुछ सामान ख़रीद लिया। ख़रीददारी करता हुआ जब राहुल क़ाज़ी कैम्प पहुँचा तो शाम हो चुकी थी। जावेद ने ऑटो एक घर के सामने ले जाकर रोक दिया। राहुल ने साथ लाए सामान को उठाया और ऑटो से उतर गया।

"जावेद मुझे यहाँ शायद कुछ देर लगेगी। मैं फ्री होकर तुमको कॉल कर लूँगा।" राहुल ने जावेद से कहा।

"जी सर मेरा घर यहाँ पास ही है, आपको जब भी ज़रूरत हो बुला लीजिएगा।" जावेद ने उत्तर दिया और ऑटो को स्टार्ट करके चला गया।

हाथ में सामान लिए राहुल घर की ओर बढ़ गया। दरवाज़े के पास आकर वह कुछ देर को ठिठका, फिर दरवाज़ा खटखटाया। कुछ ही देर में एक आठ-दस साल के लड़के ने दरवाज़ा खोला। लड़के के चेहरे-मोहरे को देख कर राहुल को समझ में आ गया कि यह क़मर का बेटा है। लड़के की आँखों में अपरिचय के भाव नज़र आए राहुल को।

"ज़हीर हसन साहब हैं क्या घर पर?" राहुल ने लड़के को असमंजस में देखा तो पूछा।

"भासा...? जी हैं न।" लड़के के चेहरे पर छाया असमंजस कुछ छँट गया था।

"कौन है शेख़ू?" अंदर से जनाना स्वर भी उभरा।

"भासा से मिलने आए हैं कोई।" लड़के ने अंदर मुँह करके उत्तर दिया।

"तो दरवाज़े पर ही खड़ा रखोगे क्या? बिठाओ उन्हें।" अंदर से आवाज़ आई। आवाज़ में जो डपट का अंदाज़ था उसके चलते लड़का तुरंत दरवाज़े से हट गया और बोला "आइये..." राहुल-राहुल अंदर आ गया। कमरा लगभग वैसा ही सजा हुआ था जैसा उस सरकारी मकान में भासा के घर का कमरा होता था। राहुल ने हाथ के सामान को टेबल पर रख दिया और लकड़ी के नक़्क़ाशीदार सोफे पर बैठ गया। लड़का तेज़ी के साथ अंदर चला गया।

थोड़ी ही देर में अंदर के कमरे का परदा हटा और भासा कमरे में आए। राहुल तेज़ी के साथ उठा और उठ कर उसने भासा के पैर छू लिए।

"अरे...अरे... कौन हो भाई... ?" भासा की आवाज़ वैसी की वैसी थी। शरीर में बदलाव आ गया था। कुछ कमज़ोर हो गए थे। सिर के बाल पूरी तरह सफ़ेद हो गए थे। दाढ़ी भी बढ़ा ली थी उन्होंने और वह भी झक सफ़ेद। पेंट-शर्ट की जगह सफ़ेद कुरता-पाजामा पहने हुए थे।

"पहचानिए... ?" राहुल ने भासा का हाथ अपने हाथों में लेते हुए पूछा।

भासा कुछ देर तक राहुल के चेहरे को देखते रहे फिर अचानक उनकी आँखों में चमक आ गई। आँखों में पानी तैरने लगा, होंठ कँपकँपाने लगे... "भैया..." इसके बाद और कुछ नहीं बोले बस राहुल को भींच कर सीने से लगा लिया। उनके आँसुओं की नमी को राहुल ने अपने कंधे पर महसूस किया। कुछ देर तक दोनों उसी प्रकार रहे, फिर जब अलग हुए तो भासा ने रुँधे कंठ से अंदर की ओर मुँह करके आवाज़ लगाई "सुनिए... इधर आइए ज़रा।" कुछ ही देर में परदा हटा कर अम्मी अंदर आईं। बालों की सफ़ेदी और चेहरे की झुर्रियों के अलावा लगभग वैसी की वैसी थीं अम्मी। नूर से रोशन चेहरा जस का तस था। राहुल ने उन्हें देखा तो उनकी ओर बढ़ गया और उनके पैर छू लिए। "भैया" अम्मी ने राहुल के पैर छूते ही कहा। भासा ने तो आँसुओं को बस ज़रा-सी इजाज़त दी थी लेकिन अम्मी तो राहुल को सीने से लगा कर फूट-फूट कर रो पड़ीं। "इतने बरसों बाद याद आई अम्मी की? ऐसे भुलाया जाता है?" अम्मी रोती जा रही थीं और शिकायतें करती जा रही थीं।

"बस भी कीजिए... इतने दिनों बाद आए हैं... मिलते ही शिकायतें..." भासा ने क्रम को तोड़ने के लिए धीमे-से झिड़का। "पानी-वानी पिलवाइए... पता नहीं कहाँ से थके-हारे आ रहे हैं, साँस तो लेने दीजिए ज़रा।" और फिर अंदर मुँह करके आवाज़ लगाई "शेख़ू... पानी लाओ भाई... ।"

थोड़ी ही देर में वही लड़का पानी के गिलास ले कर आ गया। "सलाम किया था कि नहीं चचाजान को?" भासा ने डपटने के अंदाज़ में कहा शेख़ू से। शेख़ू ने कमरे में सबकी आँखों में आँसू देखे तो कुछ सहम गया, उस पर भासा की झिड़की से एकदम सिटपिटा गया। जल्दी से पानी की ट्रे को टेबल पर रखकर राहुल को सलाम किया उसने।

"ये क़मर के बेटे हैं न? इधर आओ बेटा। क्या नाम है आपका?" राहुल ने शेख़ू को सहमते देखा तो तुरंत बोल पड़ा।

"जी आफ़ताब हसन।" कुछ झिझकते हुए शेख़ू पास आया और अदब के साथ उत्तर दिया।

"वाह... पिता का नाम चाँद और बेटे का सूरज़।" शेख़ू के पास आते ही राहुल ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा "माशा अल्लाह, एकदम दादी की सूरत लेकर आए हैं।" इतना कह कर राहुल ने टेबल पर रखे मिठाई के डब्बे, चॉकलेट्स और फलों की टोकरी उठाकर शेख़ू के हाथों में रख दिए "ये सब आपके लिए... ।" शेख़ू को झिझकते देख कर भासा बोल पड़े "ले लीजिए मियाँ... आपके अब्बा के सबसे ख़ासुलख़ास दोस्त हैं ये... आपके चचाजान होते हैं ये और आपकी दादीजान के सबसे लाड़ले... आपसे भी ज़्यादा लाड़ले।"

शेख़ू सामान लेकर अंदर जाने लगा तो अम्मी बोल पड़ीं "अपनी अम्मी से कहना ठंडे दूध में रूह-अफ़ज़ा और बर्फ़ डाल कर दूध-शरबत बना दें।"

"आपको याद है अम्मी अभी तक?" राहुल को आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई। कितना पसंद था उसे ठंडे दूध में रूह-अफ़ज़ा डाल कर पीना। तब फ़्रीज तो होता नहीं था, अम्मी मिट्टी के घड़े में दूध भर कर उसे भीगी हुई टाट से लपेट कर रखती थीं गर्मियों में। उस दूध में मिट्टी के घड़े का भी सौंधा-सौंधा स्वाद आता था। अम्मी दूध में रूह-अफ़ज़ा मिलाकर ऊपर से बादाम की कतरन डाल कर देती थीं उसे। वह स्वाद जैसे अभी भी होंठों पर है।

"बेटों को क्या पसंद है ये माँ कभी भूलती है क्या?" अम्मी ने दुपट्टे से आँखें पोंछते हुए कहा। राहुल ने टेबल पर रखे कपड़े भासा और अम्मी के हाथों में रख दिए। "ये क्या है भैया?" भासा ने कुछ हैरत-से पूछा।

"ये है कि अब आपका बेटा कमाने लगा है। अच्छा-ख़ासा कमाने लगा है। सब आप लोगों की दुआओं, आशिर्वादों का फल है।" कुछ प्यार से कहा राहुल ने। भासा और अम्मी की आँखों में एक बार फिर से नमी के बादल तैर गए।

"अल्लाह और तरक़्क़ी दे मेरे बच्चे को। ख़ूब क़ामयाब करे।" अम्मी की दुआएँ लबों पर आ गईं।

"दुआएँ ही देती रहेंगी कि खाने की तैयारी भी करेंगी?" भासा ने मीठी झिड़की लगाई।

"अम्मी खाना तो खाऊँगा, पर दो शर्तें हैं।" राहुल ने भासा के कहते ही तुरंत कहा।

"शर्तें...? ये क्या बात हुई?" अम्मी असमंजस में पड़ गईं।

"पहली शर्त तो ये कि खीर, लौकी के कोफ़्ते और कैरी-पुदीने की चटनी आप ही बनाएँगी और दूसरी शर्त भासा से है..." कह कर राहुल भासा की ओर मुड़ा "वो ये कि आप मुझे वह पूरी बात बताएँगे कि बचपन में जो आप मुझे खाना खाने हर महीने बुलाते थे, उसका राज़ क्या था?"

"बता तो दूँ, लेकिन आपको यक़ीन नहीं होगा उस बात पर। मगर फिर भी... अब आप बड़े हो गए हैं, अब आपको पूरा क़िस्सा सुनाया जा सकता है। खाना खाने के बाद बैठेंगे, तो सब बता देंगे आपको।" इतना कह कर भासा अम्मी की तरफ़ मुड़े "आप अंदर जाकर तैयारियाँ कीजिए खाने की, हमारा तो कुछ नहीं हमें तो बस सुनाना है, आपको तो बनाना है। इतने दिनों से सारी ज़िम्मेदारी दुल्हन पर डाल दी है, पता नहीं खीर पकाना अब आता भी है कि नहीं?" भासा ने चुहल की

भासा की चुहल पर अम्मी ने तुरंत उत्तर दिया "ये आपकी ड्रायवरी नहीं है कि रिटायर हो गए तो सब भूल गए।" फिर राहुल की तरफ़ देखती हुई बोलीं "भैया आप अपने भासा से बैठकर बातें करो, मैं आपकी शर्त की तैयारी करती हूँ अंदर जाकर।" कहते हुए अम्मी अंदर चली गईं।

अम्मी के जाने के बाद भासा और राहुल बैठकर बातें करने लगे। शेख़ू इस बीच आकर दूध-शरबत रख गया था और साथ में मीठी रेवड़ियाँ भी। बातचीत में राहुल को पता चला कि क़मर की बस एक ही औलाद, एक बेटा ही है। पहले ही बेटे के पैदा होते समय कुछ कॉम्प्लिेकेशन होने के कारण डॉक्टरों ने आगे माँ बनने में क़मर की पत्नी हिना के लिए ख़तरा बता दिया था। इसलिए बस एक ही बेटा है। क़मर, उसकी पत्नी, बेटा, भासा और अम्मी, ये पाँचों ही रहते हैं घर में। भासा की चारों बेटियाँ भी यहीं क़ाज़ी कैम्प में ही रहती हैं। बेटे-बेटियों वाली हो गईं हैं। क़मर चिकित्सा संचालक की गाड़ी चलाता है। देर रात कभी दस, तो कभी ग्यारह बजे तक घर लौटता है। राहुल से भी भासा उसके माँ-पिताजी, पत्नी, बच्चों के बारे में जानकारी लेते रहे। उस छोटे-से क़स्बे में बिताए गए उस कालखंड से जुड़े हुए लोगों के बारे में जो जानकारी भासा के पास थी, वह भासा ने राहुल को बताई और जो राहुल को पता थी, वह राहुल ने भासा को बताई। वैसे राहुल के पास कम ही जानकारी थी। भासा तो बड़े बेटे के पास जाते-आते रहते हैं, जो अभी भी क़स्बे में ही रहता है। राहुल खोद-खोदकर उनसे क़स्बे के लोगों के बारे में जानता रहा। उन सब लोगों के बारे में, जो अब बस उसकी यादों में ही आते हैं। बातें तो ख़त्म होने वाली भी नहीं थीं, मगर शेख़ू ने आकर खाना लग जाने की सूचना दे दी और यादों की यायावरी बंद करनी पड़ी राहुल और भासा को।

खाना जैसे बचपन में ठहरे हुए किसी पल में से ही आया था। वही खीर, वही कोफ़्ते, वही पूरियाँ, सुगंध भी वही और स्वाद भी वही। राहुल ने पहला ही कौर तोड़ कर जब मुँह में डाला तो उसकी आँखें भर आईं। कितने दिनों बाद, कितने बरसों बाद। स्वाद तंतुओं में बरसों बाद झनझनाहट हुई।

"हम्म अम्मी, आप के हाथों का स्वाद तो बुढ़ापे में और भी बढ़ गया है।" राहुल ने रसोईघर की दिशा में कुछ ऊँची आवाज़ में बोलते हुए चुहल की।

"अपने भासा के साथ घंटा भर क्या बैठ लिए, रंग चढ़ गया उनका आप पर भी।" अम्मी ने रसोई के दरवाज़े पर आकर उत्तर दिया।

"लो... अपने झगड़े में मुझे क्यों घसीटा जा रहा है? मैं चुपचाप खाना खा रहा हूँ।" भासा ने भी चुहल का जवाब चुहल से ही दिया।

पूरियाँ परसने आई क़मर की पत्नी हिना को राहुल ने पहली बार देखा। जैसे ही वह राहुल की थाली में पूरियाँ रखने लगी, राहुल ने रुकने का इशारा किया रसोई के दरवाज़े पर खड़ीं अम्मी से बोला "अम्मी मैं क़मर से छह महीने बड़ा हूँ ना?" अम्मी के हाँ में सिर हिला कर उत्तर देते ही राहुल फिर बोला "तब तो यह मेरे लिए भी बहू समान हैं। भाभी तो बोलूँगा नहीं। नाम लेकर ही बुलाऊँगा।" कहते हुए राहुल ने उल्टे हाथ से शर्ट की जेब में रखे पैसे निकाल लिए, अंदाज़ था कि दो से ढाई हज़ार रुपये हैं। वह पैसे उसने हिना की ओर बढ़ाते हुए कहा "लो हिना, हमारे यहाँ जब बहू पहली बार खाना खिलाती है, तो जेठ और ससुर उसे नेग देते हैं। ये तुम्हारा नेग है, अपने मनपसंद कपड़े ले आना इनसे।" हिना ने असमंजस में भासा की ओर देखा, भासा ने आँखों से रख लेने का इशारा किया। हिना ने पैसे ले लिए। "हाँ, अब रखो पूरियाँ।" राहुल ने थाली की ओर इशारा करते हुए कहा।

खाना खाकर भासा और राहुल बाहर के कमरे में आकर बैठ गए। थोड़ी देर में अम्मी भी अपने पान की डलिया और सुपारी का बटुआ लेकर आ गईं और कमरे में पड़े दीवान पर बैठ कर पान लगाने लगीं।

"भासा अब आपकी बारी। अपनी शर्त पूरी कीजिए।" राहुल ने भासा की तरफ़ देखते हुए कहा।

"आप भी सुनेंगी कहानी? रोएँगी तो नहीं?" भासा ने अम्मी की तरफ़ देखते हुए प्रश्न किया। अम्मी ने सिर हिला कर स्वीकृति प्रदान की।

"दुल्हन ने खाना खा लिया हो तो उनको भी बुला लीजिए, वह भी सुन लेंगी।" भासा ने पास बैठे शेख़ू की ओर देखते हुए कहा। भासा के कहते ही शेख़ू उठ कर अंदर चला गया। कुछ देर बाद लौटा तो हिना उसके साथ थी। हिना आकर अम्मी के पास दीवान के एक कोने में सकुचा कर बैठ गई। रात का सन्नाटा कमरे में और बाहर भी पसरा हुआ था।

"ये तब की बात है जब आप लोग वहाँ नहीं आए थे, मेरा मतलब है साहब का तबादला वहाँ नहीं हुआ था। मेरे ख़याल में आप लोगों के आने से क़रीब तीन-चार साल पहले की बात है वह। हम लोग भी बस तीन-चार महीने पहले ही वहाँ रहने पहुँचे थे। उस सरकारी मकान में रहने। उससे पहले कैम्पस में कोई सरकारी मकान ख़ाली नहीं था इसलिए हम किराये का मकान लेकर क़स्बे में रहते थे। कोई रिटायर हुए तो मकान ख़ाली हुआ और हमें मिल गया। आपने तो वह मकान देखा है, जंगल और खेत से एकदम लगा हुआ मकान था वो।" भासा की आवाज़ सन्नाटे को तोड़ती हुई गूँजी।

"बच्चे सब छोटे-छोटे ही थे। क़मर तो बस पाँच-छह साल का ही था।" रात की ख़ामोशी, भासा की खरखरी आवाज़ और उनके सफ़ेद बाल, दाढ़ी, सब मिलकर एक बहुत ही रहस्यमय वातावरण उत्पन्न कर रहे थे। "उन दिनों घरों में आज की तरह तेज़ रोशनी वाले बल्ब, ट्यूब-लाइट नहीं होते थे। वही चालीस पॉवर के ज़र्द रोशनी वाले बल्ब होते थे; जिनके पीछे तामचीनी की सफ़ेद प्लेटें रिफ़्लेक्टर की तरह लगी होती थीं उजाला बढ़ाने के लिए। उन दिनों रातें आज की तरह इतनी रोशन नहीं होती थीं। बमुश्किल आठ बजते न बजते सब घरों में दुबक जाते थे। हवा-साये का डर, कीड़े-काँटे का डर, जंगली जानवर का ख़तरा। आपने तो ख़ुद ही सुना है पीछे के जंगल से रात को सियारों का रोना और तेंदुए तो आपके सामने ही कितनी ही बार आ गए थे हमारे कैम्पस में?" भासा ने स्वीकृति के लिए राहुल की तरफ़ देखा तो राहुल ने सिर हिला कर अपनी स्वीकृति दी।

"उन्हीं दिनों की बात है। एक दिन जब आपकी अम्मी रात को सब बच्चों को खाना खिला कर बर्तन साफ़ कर रही थीं बैठ कर, तब पहली बार..." कहते हुए भासा कुछ देर रुके और फिर राहुल की तरफ़ देखते हुए बोले "आपने उस सरकारी मकान में बरतन साफ़ करने वाली फर्शी तो देखी ही थी? पीछे वहाँ पीपल के दरख़्त के पास।" राहुल ने एक बार फिर से स्वीकृति में सिर हिला दिया। राहुल की स्वीकृति के बाद भासा ने एक बार अम्मी की तरफ़ देखा। अम्मी चुपचाप सिर झुकाए पान लगा रही थीं। पान के आधे पत्ते पर पहले चूना लगाया, फिर उस पर कत्था लगाया और पिपरमेंट, सुपारी की कतरन, इलायची के दाने रखकर सलीक़े से उसे मोड़ दिया। अम्मी हमेशा चौकोर ही पान लगाती हैं। जब पान लग गया तो अम्मी ने शेख़ू की ओर बढ़ा दिया। शेख़ू ने जाकर पान भासा को दे दिया।

"और मुझे अम्मी...?" राहुल ने तुरंत प्रश्न किया।

"आप खाते हो भैया पान?" अम्मी ने पूछा।

"हमेशा नहीं, कभी-कभी और वह भी आपकी तरह लगाया गया पान, बस चूना, कत्था, पेपरमिंट और इलायची के दाने।" राहुल ने कुछ मुस्कुरा के कहा। राहुल के कहते ही अम्मी उसके लिए पान लगाने लगीं। राहुल ने भासा की ओर देखा, इस अंदाज़ में कि फिर आगे क्या हुआ?

"तब पहली बार वह आया था।" भासा की आवाज़ में हल्का-सा कंपन था, राहुल ने देखा पान लगाते अम्मी की हाथ भी हल्के से काँप गए। "तुम्हारी अम्मी तो बेहोश ही हो गईं थीं उस रात। कोई भी हो जाता अगर उसके साथ ऐसा होता तो।" शेख़ू ने पान लाकर राहुल को दिया। राहुल ने पान लेकर, हौले से शेख़ू के गाल को थपथपा दिया। पान को मुँह में रखकर राहुल एक बार फिर भासा की तरफ़ देखने लगा।

"तुम्हारी अम्मी जब बरतन साफ़ करके उठीं तो देखा, पीपल के चबूतरे पर बैठा था वो। लम्बा, काला, चमकदार। भुजंग। कुंडली मार कर बैठा था, एकटक तुम्हारी अम्मी की तरफ़ ही देख रहा था जैसे। ये ज़ोर से चीख़ीं। बरतन पटक कर भागीं। घर में आते ही बेहोश।" इतना कह कर भासा चुप हो गए। अम्मी की तरफ़ एक बार देखा। अम्मी को सहज होकर छालिया काटते देखा तो मानों उनको राहत पहुँची।

"बड़ी मुश्किल से जब इनको होश में लाए, तो इन्होंने पूरी बात बताई। हम लोग जब टार्च, लाठी लेकर दौड़ के पीछे गए तो वहाँ कुछ नहीं था। टूटी हुई रकाबियाँ फैली पड़ी थीं।" भासा ने क़िस्से को आगे बढ़ाया। "इनकी चीख़ सुनकर आस-पड़ोस के भी सब आ गए थे। सबको यही लगा कि कुछ न कुछ वहम हुआ होगा इनको। एक-दो ने कहा कि पीपल का दरख़्त बहुत पुराना है, उसमें कोई हवा रहती होगी, जो साँप बनकर इनको दिख गई। नुक़सान नहीं पहुँचाया, इसलिए डरने की कोई बात नहीं है। बात आई-गई हो गई।" भासा ने ठंडे स्वर में कहा।

"मगर बात आई-गई होने वाली नहीं थी। तीन-चार दिन बाद मैं रात को बहुत देर से लौटा। दौरे पर गया था गाड़ी लेकर। बारह-साढ़े बारह बज गए थे। बच्चे सब कमरे में सो रहे थे। तुम्हारी अम्मी कमरे के बाहर दालान में खाट पर सो रही थीं। मेरा इंतज़ार करते-करते वहीं सो गईं थीं। मैं जैसे ही वहाँ पहुँचा तो मेरी जान सूख गई। तुम्हारी अम्मी चैन से सो रही थीं और एक लम्बा-काला साँप, खाट की पाटी पर टिककर उनके सीधे पैर का अँगूठा चूस रहा था। जब तक मैं कुछ करता तब तक तो मेरे आने का खटका सुनकर वह सरसराता हुआ फुर्ती से ये जा, वह जा।" भासा किसी कुशल क़िस्सागो की तरह कहानी में आए भावों के हिसाब से आवाज़ को परिवर्तित कर रहे थे। "एक पल को तो मैं होशो-हवास खोकर खड़ा रहा बुत की तरह, फिर अचानक तुम्हारी अम्मी का ख़याल आया। लगा कि साँप डस कर चला गया है। भागकर इनके पास गया, इनको जगाया। पैर का अँगूठा देखा, तो उस पर कहीं साँप के दाँत का निशान नहीं था। तुम्हारी अम्मी बार-बार पूछती रहीं क्या हुआ? लेकिन मैंने उनको कुछ भी नहीं बताया। बता देता तो इनकी हालत और ख़राब हो जाती। जैसे-तैसे मैंने अपने आप को ज़ब्त किया और चुप रहा।"

राहुल ने देखा कि यहाँ तक की घटना सुन कर अम्मी के पास बैठा शेख़ू धीरे से उनकी गोद में लेट गया है। अपने दोनों हाथों से अम्मी की कमर के इर्द-गिर्द घेरा डालते हुए।

"दुल्हन... ज़रा चाय हो जाए, इलायची वाली...?" भासा ने हिना की ओर देखते हुए कहा। भासा का इशारा पाकर हिना चाय बनाने अंदर चली गई। भासा चुप हो गए, हिना के चाय बनाकर लाने के इंतज़ार में। कमरे में टँगी पेंडुलम घड़ी ने एक-एक करके दस बार आवाज़ करके दस बजने की सूचना दी। राहुल ने घड़ी को देखा। कितनी पुरानी है यह घड़ी। बचपन में भासा के घर से आती इसकी टन-टन की आवाज़ से ही अंदाज़ा लगाकर उसके घर में काम होता था। उसके घर की एक खिड़की जो भासा के घर की तरफ़ खुलती थी, उसमें से होकर ये आवाज़ अंदर आती थी समय की सूचना देते हुए। उन दिनों खिड़कियों में बस सलाखें होती थीं लोहे की, जिनमें से हाथ डालकर सामान इधर का उधर होता रहता था। उस खिड़की में से और भी बहुत कुछ आता था; अचानक मेहमानों के आ जाने पर भासा के घर से दूध, शक्कर, पत्ती, काँच के गिलास, चम्मचें, काँच की प्लेटें। माँ और अम्मी उसी खिड़की के दोनों तरफ़ खड़ी होकर घंटों बातें करती रहती थीं। अब तो वह सारी खिड़कियाँ ही बंद हो गईं जिनके पास खड़ी होकर मम्मियाँ और अम्मियाँ बतियाती थीं। अगर ये ख़िड़कियाँ खुली रहतीं तो बहुत आज की बहुत-सी समस्याएँ शायद होती ही नहीं। पहले जालियाँ लगीं मच्छरों के नाम पर और फिर पल्ले ही बंद हो गए। अब घरों में खिड़कियाँ तो होती हैं लेकिन कभी खुलती नहीं हैं, उस पर मोटे परदों से हमेशा ढँकी रहती हैं। पता नहीं ये होती क्यों हैं?

अम्मी जब भी लौकी के कोफ़्ते बनातीं तो गरम-गरम कोफ़्ते लेकर खिड़की पर आ जातीं और आवाज़ लगातीं-"दुलहिन..."। अम्मी को पता था कि माँ को कढ़ाई से गरमा-गरम निकले कोफ़्ते, पकौड़े की तरह खाना बहुत पसंद है। खिड़की के पास खड़े होकर माँ को जब तक कोफ़्ते खिला नहीं देती थीं अम्मी, तब तक जाती नहीं थीं। "खा लो दुलहिन, गरम-गरम हैं। ठंडे हो गए तो मिसमिसे हो जाएँगे। घर का काम तो होता रहेगा, खा लो दो घड़ी बैठकर।" अम्मी की प्यार भरी झिड़की सुनकर माँ बैठकर कोफ़्ते खाने लगतीं और अम्मी खिड़की के उस तरफ़ खड़े होकर उन्हें देखती रहतीं। राहुल देखता था कि कोफ़्ते माँ खाती थीं लेकिन संतुष्टि और तृप्ति के भाव अम्मी के चेहरे पर आते थे। इलायची की ख़ुशबू से राहुल की तंद्रा टूटी, हिना चाय बना कर ले आई थी।

"उस दिन तो ख़ैर बात छुप गई। लेकिन बात ऐसी नहीं थी कि इनसे बहुत दिन छिपती।" चाय का कप हाथ में लेकर भासा ने क़िस्से का सिरा एक बार फिर से पकड़ लिया। "आठ-दस दिन बाद एक रात ये मेरे इंतज़ार में वहीं खाट पर करवट लेकर सो रही थीं, अचानक पैर के अँगूठे पर कुछ महसूस होने पर आँख खोली, तो देखा वही साँप पाटी पर सिर टिकाए अँगूठा चूस रहा है। एक पल को तो इनकी घिग्घी बँध गई, फिर ये हिम्मत जुटा कर ज़ोर से चीखीं और बेहोश हो गईं। अंदर के कमरे से बच्चे और बाहर से पड़ोसी, सब इनकी चीख़ सुनकर दौड़े। तब तक साँप तो मोरी में से बिला गया था। इनको होश में लाया गया, तो पूरी बात पता चली। तुरंत टार्चें लेकर आस-पास तलाशा लेकिन जाने वाला तो जा चुका था। सुबह तक इनको बुख़ार भी आ गया था। दो दिन तक हरारत रही थी दहशत के कारण।" भासा की आवाज़ और चेहरा रात की ख़ामोशी के अँधेरे ग्रे शेड में मानों डूब कर कहीं से उभर रहा था। भास चुप हो जाते तो दीवार की घड़ी की टिक-टिक क़िस्से के ख़ौफ़ के सिरे को पकड़ कर गूँजने लगती थी। भासा कुछ देर को चुप होकर चाय की चुस्कियाँ लेने लगे। राहुल भी चाय पीने लगा।

"फिर तो यह अक्सर की बात होने लगी।" भासा ने चाय का ख़ाली कप टेबल पर रखते हुए कहा "वह चुपचाप आता और इनको सोता हुआ पाकर अँगूठा चूसने लगता। हालाँकि हम सब निगरानी रखते थे इन पर लेकिन वह तो जैसे हवा में से आता था। आँख के फरूके में तो आ भी जाता और आहट पाकर बिला भी जाता। निगरानी रखने वाला भी कब तक रखता?" भासा ने एक प्रश्न पर बात को ख़त्म करके अम्मी की तरफ़ देखा, यह तसल्ली करने के लिए कि अम्मी पर क़िस्से का कोई विपरीत प्रभाव तो नहीं पड़ रहा है। अम्मी चुपचाप गोद में सिर में रखकर लेटे शेख़ू के घुँघराले बालों में उँगलियाँ फिरा रही थीं सिर झुकाए। "लाइए थोड़ी छालिया तो दीजिए, चाय का मुँह हो गया है।" भासा ने धीमे से कहा। अम्मी ने बटुए में से बारीक कटी हुई सुपारी निकाली और हिना की ओर बढ़ा दी, हिना ने सुपारी ले जाकर भासा को दे दी।

"फिर ये हुआ कि वह दिन में भी आने लगा और इनके सोने का भी इंतज़ार नहीं करता था। ये अकेली होतीं और वह आ जाता। बरतन माँज रही होतीं, रोटियाँ सेंक रही होतीं, कपड़े धो रही होतीं, सिलाई मशीन पर काम कर रही होतीं और वह जाने कब चुपचाप आकर अपने अँगूठा चूसने के काम पर लग जाता। इनको पता भी नहीं चलता। बहुत देर से बैठे होने के कारण पैर वैसे भी सुन्न हो जाता है, तो वह कब आकर अँगूठा चूसने लगा है, इसका एहसास ही नहीं हो पाता इनको। जब नज़र पड़ती तो ये चिल्लातीं।" भासा ने मुँह में डाले गए सुपारी के टुकड़ों को दाँत से कुतरते हुए क़िस्से को आगे बढ़ाया।

"बस एक बात तसल्ली की थी कि वह इनको या किसी और को कोई नुक़सान नहीं पहुँचा रहा था। बाक़ी किसी से तो उसे कोई मतलब ही नहीं था। हम सबकी तरफ़ तो वह देखता भी नहीं था। लेकिन उससे क्या होता है, था तो ज़हरीला साँप ही न? अँगूठा चूसने में ही कभी दाँत लग जाए तो? और फिर ये भी बीमार रहने लगी थीं उसके कारण। दहशत के कारण भी और ग़ैरत के कारण भी। कहने वाले तो हर क़िस्से में दस तरह की बातें करते ही हैं। कहने वालों का मुँह थोड़े ही पकड़ा जाता है। फिर बच्चे भी डरे-डरे रहने लगे थे उसके कारण। लड़कियाँ तो बहुत ख़ौफ़ज़दा रहती थीं, अपनी अम्मी को एक पल भी अकेला नहीं छोड़ने की कोशिश करतीं।" भासा ने अम्मी की तरफ़ ही देखते हुए कहा।

"धीरे-धीरे वह रोज़ ही आने लगा। ऐसा लगता था जैसे ग़ायब होकर ताक में रहता था कि कब ये अकेली होती हैं। मौक़ा मिलता और वह आ जाता। जब रोज़ की बात हो गई तो मुझे लगा कि अब तो कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। वरना तो दहशत के कारण इनका जीना ही मुश्किल हो जाएगा। बच्चे भी बीमार रहने लगे थे। पूरा परिवार हर लम्हा जैसे मर-मर के जी रहा था। मैं दौरे पर जाता मगर दिमाग़ तो घर पर ही लगा होता। घर की फ़िक्र लगी रहती। कैम्पस में, रिश्तेदारों में, बच्चों के दोस्तों में, शहर के जानने-पहचानने वालों में, सबके बीच यह बात फैल गई थी। इनका घर से आना-जाना मुश्किल हो गया था। जहाँ जातीं सब उसी साँप के बारे में सवाल पूछते। घर में रहतीं तो वह आ जाता।" भासा लम्बी बात कह कर कुछ देर को चुप हो गए। घड़ी की टिक-टिक कमरे में गूँजने लगी।

"क़मर नहीं आया अभी तक?" राहुल ने घड़ी की तरफ़ देखा और फिर अम्मी से पूछा।

"उनका कोई ठीक नहीं है भैया, आ जाएँ तो आठ नौ बजे तक आ जाएँ और नहीं तो दस, ग्यारह, बारह कुछ ठिकाना नहीं है आने का।" अम्मी ने कुछ शिकायत के लहजे में कहा। कमरे में फिर ख़ामोशी छा गई। राहुल ने भासा की तरफ़ देखा।

"फिर हम लोगों ने उसकी घेराबंदी करने का फ़ैसला लिया। आख़िरकार कहीं से तो आता है और कहीं तो जाता ही है। भले ही नुक़सान नहीं पहुँचा रहा हो, मगर दहशत में कब तक जीते हम सब? तो बस एक दिन यही किया। घर की सारी नालियों, नाबदानों, मोरियों में टाट के फट्टे ठूँस-ठूँस कर उनको बंद कर दिया। जिस कमरे में यह बैठती थीं उसमें दरवाज़े को छोड़कर सब कुछ सील कर दिया। बच्चों को रिश्तेदार के घर भेज दिया और आस-पड़ोस के लोगों को साथ लेकर घेराबंदी कर दी। इनको अकेला कमरे में बिठाकर हम सब छिप-छिपा कर ताक में बैठ गए उसके आने की।" भासा ने क़िस्से को फिर शुरू कर दिया।

"वह तो बेख़ौफ़ हो ही चुका था उस वक़्त तक। किसी का डर नहीं था उसे। ये चुपचाप कमरे में लेटी थीं और वह आ गया। मैंने उस दिन कमरे की टाँड पर छिपकर बैठे हुए उसे पहली बार पूरा देखा। य्ये लम्बा था, एकदम काला भुजंग, लहर खाता था तो चमकीले बदन में बिजली-सी चमकती थी। कमज़ोर दिल वाला आदमी तो उसे सामने देख कर ही जान छोड़ दे। लहर खाता हुआ वह खाट की तरफ़ बढ़ रहा था। मैं लाठी लेकर टाँड पर से नीचे कूदा। मेरे कूदते ही वह पलट कर दरवाज़े से बाहर भागा। मगर बाहर तो मौत खड़ी ही थी उसके इंतज़ार में। बाहर खड़े लड़कों ने लाठियों से पीट-पीटकर उसे वहीं मार डाला। भागने का कोई रास्ता नहीं मिला उसे। जब मर गया तो उसे सीधा करके नापा। सात फुट लम्बा था वो। किसीने कहा कि इसको ऐसे नहीं फैंकते हैं, जला देते हैं, तो वहीं पीपल के नीचे लकड़ियाँ इकट्ठी कर के उसे जला दिया।" भासा की आवाज़ में कुछ सूनापन आ गया था। वह फिर कुछ देर को चुप हो गए।

"हमने सोचा कि मुसीबत टल गई। मगर।" भासा ने बात फिर शुरू की "क़मर से छोटे वाले को तो आपने देखा ही नहीं, आप लोगों के आने से पहले ही वो। नूर नाम था उसका मगर उसे हम भैया ही कह कर बुलाते थे। चारों बहनें जान छिड़कती थीं उस पर। अपनी अम्मी से रंग-रूप सब वैसा का वैसा ही लेकर आया था वो। उस साँप को मारने के एक महीने बाद भैया को बुख़ार आया। जब तक हम कुछ समझते, तब तक तो पाँच दिन में ही वह चट्ट-पट्ट हो गया। आपके पिताजी से पहले डॉक्टर द्विवेदी रहते थे आपके वाले मकान में। डॉक्टर द्विवेदी भी हैरान थे कि दवा ही नहीं लगी उसे।" कह कर भासा चुप हो गए। राहुल ने देखा कि अम्मी ने दुपट्टे के कोने से आँखों को चुपचाप पोंछ लिया है।

"नूर को गए महीना भी नहीं बीता था कि क़मर बीमार पड़ गए। वही तेज़ बुख़ार। आपकी अम्मी का रो-रोकर बुरा हाल था। एक बेटे को खो चुकी थीं और दूसरा भी उसी तरह बीमार पड़ा था। नूर के जाने के बाद घर में वीरानी छा गई थी, क़मर के बीमार पड़ते ही जैसे मातम-सा छा गया घर में। बच्चियाँ खाना नहीं खा रहीं थीं, आपकी अम्मी सब कुछ छोड़-छाड़ कर बस क़मर के सिरहाने आकर बैठ गईं थीं, न कुछ खाना, न पीना। जब डॉक्टर द्विवेदी क़मर को देखने आए, तो दवा देकर मुझे चुपचाप से अपने घर आने का इशारा कर के चले गए। उनको साँप वाला पूरा वाक़या मालूम था। किसे नहीं मालूम था?" भासा ने जैसे एक-एक शब्द हिम्मत जुटा कर बोला।

"उनके घर पहुँचा तो वहाँ एक बुज़ुर्ग बैठे हुए थे। बड़े-बड़े सफ़ेद बाल, लम्बी सफ़ेद दाढ़ी और सफ़ेद ही कपड़े पहने हुए वह बुज़ुर्ग एकदम किसी फ़रिश्ते की तरह लग रहे थे। मेरे पहुँचते ही द्विवेदी साहब उठकर चले गए, मैं और वह बुज़ुर्ग ही रह गए बस कमरे में। थोड़ी देर तक तो वह चुप रहे फिर बोले-'आपने एक बहुत ग़लत काम कर दिया है, वह क्या नुक़सान पहुँचा रहा था आपको?' बुज़ुर्ग के कहते ही मैं एकदम से हैरत में पड़ गया, कुछ बोल नहीं पाया। क्या बोलता? मुझे चुप देखकर वह बुज़ुर्ग ही फिर बोले-' आपके मज़हब में बहुत-सी बातों को माना नहीं जाता है। ये मामला भी कुछ ऐसा ही है। आप इस मकान में अभी दो-तीन महीने पहले ही रहने आए हैं? और इसी बीच ही कुछ ऐसा हो गया कि।" भासा ने बात को बीच में ही छोड़ दिया। कुछ देर चुप हो गए। कमरे में सन्नाटा छा गया।

"दुलहन... शेख़ू शायद सो गए हैं, इन्हें अंदर ले जाकर सुला दीजिए।" भासा ने हिना की ओर देखते हुए कहा। भासा के कहते ही हिना दुपट्टा सँभालते हुए उठी और शेख़ू को उठाने लगी। शेख़ू अभी कच्ची ही नींद में था, हिना के जगाते ही उठ गया। हिना उसे अंदर लेकर जाने लगी तो भासा ने फिर कहा "चाय और बना लो दुलहन अगर दूध बचा हो तो।" हिना ने बस 'जी' कहा और शेख़ू को लेकर अंदर चली गई।

"उन बुज़ुर्ग के सामने मेरी ज़बान तो जैसे तालू से ही चिपक गई थी, कुछ बोल ही नहीं पा रहा था मैं। वह बोले-'वो पीपल पर ही रहता था बरसों-बरस से। बस इतना जान लीजिए कि वह आपकी पत्नी को कोई नुक़सान नहीं पहुँचाना चाहता था। मगर अब ज़रूर पहुँचाना चाहता है आपके पूरे परिवार को। वह अब भी वहीं रहता है, उसी पीपल के पेड़ पर। आपके मज़हब में तो दूसरा जन्म होता है यह नहीं मानते लेकिन वह पिछले किसी जनम का इनका बेटा था। जब ये यहाँ आईं तो इनको पहचान गया और इनसे मिलने आने लगा। आपने उसे मार दिया तो अब वह आप सबको मारना चाहता है, बस आपकी पत्नी को छोड़कर। आप सबसे तो उसका कोई रिश्ता नहीं है, बस आपकी पत्नी से ही है।' उनके इतना कहते ही मैं तो रो पड़ा और कुछ सूझा ही नहीं मुझे।" भासा कुछ ठहर-ठहर कर क़िस्से को आगे चला रहे थे। बार-बार अम्मी की तरफ़ नज़र डाल कर उनके चेहरे के भावों को भी पढ़ लेते थे। भासा के चुप होते ही हिना चाय की ट्रे लेकर कमरे में आ गई। सबको चाय देकर जब वह अंदर जाने लगी तो भासा बोले "बैठ जाओ दुलहन।" हिना किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह बैठ गई।

"मुझे रोता देखकर वह बुज़ुर्ग उठ कर मेरे पास आ गए। मेरे कंधे पर हाथ रख दिया। बोले-'अब जो ग़लती हो गई सो हो गई, अब तो ये सोचना है कि क्या किया जाए? अगर मैं कुछ बताऊँ करने को तो आप करोगे? कुछ ऐसा, जिसे करने की आपके मज़हब के हिसाब से मनाही हो।' मैंने फौरन हाँ कर दी। उसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं था मेरे पास। एक बेटा तो खो ही चुका था मैं। वह फिर बोले-'बाक़ी जो मुझे करना है वह तो मैं कर दूँगा, आपको बस ये करना है कि जिस दिन आपने उसे साँप को मारा था, चाँद की उसी तारीख़ को आपको कुछ करना होगा। अपनी पत्नी से कहियेगा कि उस रात नहा-धोकर, अपनी रसोई को अच्छे से धोकर खीर पकाएँ और फिर अच्छे से तैयार होकर, तैयार होकर मतलब सज-धज कर रात को बारह बजे वह खीर एक मिट्टी के कुल्हड़ में भरकर और साथ में एक मिट्टी का दीपक जला कर चुपचाप से बिल्कुल अकेली जाएँ और दोनों चीज़ें पीपल के नीचे रखकर दीपक के बुझने तक वहीं पीपल के नीचे बैठी रहें। फिर चुपचाप से उठ कर आ जाएँ। अगले दिन किसी भी बच्चे को खाना खाने बुलाएँ और रात के धुले रसोईघर में खीर, पूरी पका कर उसे खिलाएँ। खिलाने के बाद उसे कुछ पैसे देकर ही घर भेजें। वैसे आप किसी को भी बुलाकर खिला सकते हैं, लेकिन आपके लिए अच्छा होगा कि किसी हिन्दू बच्चे को ही बुलाएँ, बच्चा मुसलमान होगा तो उसके माँ-बाप दस तरह के सवाल पूछेंगे कि क्यों खिला रहे हो, ये तो कुफ़्र हैं और हाँ कोशिश करना कि एक ही बच्चे को हर बार बुलाकर खिलाओ, उससे आपको हर बार नए बच्चे के माँ-बाप को इस सवाल का जवाब नहीं देना पड़ेगा कि क्यों बुला रहे हो? एक बार बता देना कि जो बेटा चला गया उसकी याद में खिला रहे हो। पहला काम दीपक लगाने का उसी तारीख़ को करना है, खाना खिलाने का दूसरा काम तीन-चार दिन आगे-पीछे भी कर सकते हो और हाँ आपकी पत्नी अपना रोज़मर्रा का काम उस पीपल के नीचे बने चबूतरे पर ही बैठकर करें, तो बहुत अच्छा रहेगा। वह उनका बेटा है, उनको अपने आस-पास देखकर ख़ुश रहेगा और उसके नाम से किसी बच्चे को खाना खिलाना भी उसे अच्छा लगेगा।' इतना कह कर वह बुज़ुर्ग चुप हो गए थे।" यहाँ तक बात कह कर भासा भी चुप हो गए। धीरे-धीरे चाय के घूँट भरने लगे। राहुल भी चाय पीने लगा। रात को उसे इतनी चाय पीने की आदत नहीं है लेकिन आज वह इतना गरिष्ठ खाना खाने के बाद दो कप चाय भी पी चुका है।

"मैंने उनसे पूछा कि वहाँ पर दीपक रखने के बाद कोई दुआ माँगनी है या कुछ और करना है तो वह बुज़ुर्ग मुस्कुराए और बोले-'माँ हैं वो, माँ को बताना नहीं पड़ता कि आगे उनको क्या करना है, उन्हें सब पता होता है। कुछ बातें बिन कही ही रहें तो ज़्यादा अच्छा है, कहेंगे तो आपके मज़हब के हिसाब से वह ग़लत हो जाएगा। अभी तो एक काम करो आप कि डॉक्टर साहब के बच्चे राजेश को ही बुला लेना खाने पर। मैं उन्हें समझा दूँगा।' अगले दिन ही वह तारीख़ थी, वह बुज़ुर्ग रात को घर आए और पीपल के नीचे आकर बैठ गए, चुपचाप बस बैठे रहे। बारह बजे तक, जब तक आपकी अम्मी दीपक और खीर का कुल्हड़ लेकर वहाँ नहीं पहुँचीं, आपकी अम्मी के वहाँ आते ही वह उठकर चले गए। अगले दिन सुबह से क़मर का बुख़ार कम होने लगा। सुबह राजेश को बुलाकर खाना खिलाया और बस तब से ही हर महीने राजेश को बुलाकर खाना खिलाना शुरू कर दिया।" भासा ने बात को फिर से शुरू किया और क़िस्से को विराम देने वाले अंदाज़ में बात को रोक दिया। वह फिर से चाय पीने लगे।

"फिर द्विवेदी साहब का ट्रांस्फ़र हो गया और आपके पिताजी आ गए। द्विवेदी साहब के घर से भाभीजी ने मेरी परेशानी आपकी माताजी को बता दी, आपकी माताजी भी आपको खाना खाने भेजने के लिए तैयार हो गईं और फिर जब तक हम लोग वहाँ रहे, तब तक आप आते रहे। फिर रिटायरमेंट के बाद हम लोग आकर यहाँ बस गए।" भासा ने बात को ख़त्म करने के अंदाज़ में कहा।

"यहाँ आकर फिर वह खाना खिलाने का काम?" राहुल ने पूछा।

"यहाँ आकर तो मैं मुसलमान होने लगा, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे। देख नहीं रहे हो अब तो पूरा मुसलमान ही दिखता हूँ।" भासा ने अपने आप की ओर इशरा करते हुए कुछ तंज़ के साथ कहा। "यहाँ पर वैसा कुछ करने की सोच भी नहीं सकते हैं। अस्पताल का वह कैम्पस और ये क़ाज़ी कैम्प का इलाक़ा, आपने देखा नहीं कितना अंतर है दोनों में? हिन्दू इस इलाक़े को पाकिस्तान कहते हैं, यहाँ आने से कतराते हैं, घबराते हैं। हमारे मुल्क़ के हर बड़े शहर में ऐसे ही न जाने कितने पाकिस्तान बन गए हैं। हम लोग यहाँ दुनिया से अलग-थलग होकर, कटकर पड़े रहते हैं। हमें पता भी नहीं चलता कि कब गणेश जी बैठते हैं, कब दुर्गा जी आती हैं, कुछ पता नहीं चलता। क़मर ने तुम लोगों के साथ होलियों पर, दीवालियों पर कितनी मस्तियाँ की हैं, रंग खेला, पटाखे छुड़ाए... क़मर के साहबज़ादे शेख़ू अब वैसा करने की सोच भी नहीं सकते। कुफ़्र हो जाएगा। जाने क्या-क्या बातें दिमाग़ों में भर दी हैं, कहते हैं होली का रंग अगर कहीं भी चमड़ी पर लग गया, तो हश्र के दिन उतनी चमड़ी काट के उतारी जाएगी। हम दुनिया से कट कर बस दीन के होकर रह रहे हैं यहाँ। कट कर... या शायद काट दिए जाकर कहेंगे तो ज़्यादा मुनासिब होगा। यहाँ दीन के हिसाब से ही रहना पड़ता है। बहुत मन करता है कि दीपावली पर क़स्बे के सरकारी मकान की तरह यहाँ भी दो दीपक जला कर दरवाज़े पर रख दें मगर रख नहीं सकते, वबाल हो जाएगा। यहाँ तो दीपावली के आने-जाने का ही पता नहीं चलता। उसके बाद बाबरी, गोधरा, नफ़रतें, नफ़रतें... जाने क्या-क्या होता गया। हमारा यह पाकिस्तान और ज़्यादा पाकिस्तान होता चला गया। अब तो।" एक ठंडी साँस छोड़ कर हुए भासा ने शून्य में देखते हुए बात को भी मानों हवा में ही छोड़ दिया।

"अब तो ऐसा लगता है कि अस्पताल का वह कैम्पस शायद ख़्वाब में ही देखा था। जहाँ मैं मुसलमान नहीं था किसी के लिए। किसी को इस बात से कोई फ़र्क़ भी नहीं पड़ता था कि मैं मुसलमान हूँ। मगर अब तो। मगर अब तो मैं बस... और बस मुसलमान ही हूँ। दुनिया भर के अपनों को छोड़कर दीन के अजनबियों के बीच पड़ा हूँ, अब तो वही मेरे अपने भी हैं, जो अपने थे उन्होंने तो अजनबी कर ही दिया। निकाल कर, काट कर फैंक दिया अपनी दुनिया से। आप कह सकते हो... आप कह सकते हो कि मैं इन दिनों पाकिस्तान में रहता हूँ।" भासा ने बुदबुदाते हुए कहा, पूरे क़िस्से को एकदम ख़त्म कर देने वाले अंदाज़ में कि अब कुछ नहीं बचा है सुनाने को। राहुल ने महसूस किया कि भासा द्वारा बुदबुदा कर कहे गए अंतिम वाक्य में दुनिया भर का दर्द सिमट कर आ गया है। कमरे में एकदम सन्नाटा छा गया।

कुछ देर तक कोई कुछ नहीं बोला। सब चुप थे। भासा का क़िस्सा तो ख़त्म हो चुका था। राहुल ने घड़ी देखी ग्यारह बज रहे थे। सुबह फ़्लाइट भी पकड़नी है दिल्ली की।

"ग्यारह बज गए, क़मर नहीं आया अभी तक, मैं ऑटो वाले को कॉल कर लेता हूँ। सुबह फ़्लाइट भी पकड़नी है मुझे।" कहते हुए राहुल ने मोबाइल उठाया।

"अरे भैया, यहीं चौराहे पर मिल जाएँगे ऑटो। मत परेशान होइए।" भासा ने कहा।

"नहीं भासा, मुझे जावेद लेकर आया था, उसका घर यहीं पास है, उसीको बुला लेता हूँ। वही छोड़ आएगा, मैंने कह दिया था उसे।" राहुल ने कहा।

"जावेद...? उस्मान भाई का बेटा? पास ही तो है उनका घर, चलिए मैं छोड़ देता हूँ, कुछ टहलना भी हो जाएगा।" कहते हुए भासा उठ कर खड़े हो गए।

राहुल भी उठा और उठकर अम्मी के पैर छू लिए। अम्मी ने उसे गले लगाया और फफक कर रो पड़ीं। राहुल के अंदर भी कुछ भीगा और आँखों के रास्ते से उमड़ गया। कुछ देर तक दोनों उसी हालत में रहे, फिर राहुल धीरे से अलग हुआ और अम्मी के हाथों को हाथ में लेकर बोला "रोइये मत अम्मी, मैं आता रहूँगा आपसे मिलने।" अम्मी दुपट्टे से आँखें पोंछती हुईं अंदर चली गईं और कुछ देर में लौटीं तो हाथ में एक प्लास्टिक का डिब्बा था "दुलहिन को देना, आँवले का अचार है, उनको बहुत पसंद है। इस बार आओ तो उनको भी साथ लेते आना, हम तो दिल्ली आ नहीं सकते बेटा। एक बार मिल लेंगे तो। साहब और दुलहिन दोनों को हमारा सलाम कहना।" कहते हुए अम्मी फिर से सुबकने लगीं, राहुल ने उनके हाथ से डब्बा ले लिया। डिब्बा हाथ में लेकर वह एक बार फिर से अम्मी के गले लगा। चलते समय हिना ने ख़ुदा हाफ़िज़ कहा तो राहुल ने प्यार से उसके सिर पर हाथ रख दिया, कुछ कहना चाहा तो उसका भी गला रुँध गया।

सबसे विदा लेकर भासा और राहुल जावेद के घर की ओर चल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद राहुल ने कहा "भासा आपने उस क़िस्से में कुछ छिपा लिया है न?"

"माशा अल्लाह, बरख़ुरदार आप तो बहुत ज़हीन हो गए हैं, ख़ूब... बहुत ख़ूब... इसे कहते हैं उड़ती चिड़िया के पर गिनना।" भासा ने छड़ी टेक कर चलते हुए कुछ हँसते हुए कहा। "सही पकड़ा है आपने, एक बात ऐसी भी है जो आपकी अम्मी को भी नहीं पता है। आपने उस सरकारी मकान के पीछे पीपल के दरख़्त के नीचे बना हमारा गुसलखाना तो देखा ही होगा, दड़बे के पास बना था जो। टीन की पुरानी चादरों का। ऊपर से खुला हुआ। हम लोगों ने ही उस मकान में आने के बाद बनाया था उसे। वह साँप पीपल के दरख़्त पर ही रहता था। वह जो पिछले जनम के बेटे वाली बात है, वह सब झूठ है, वह बस आपकी अम्मी को बताने के लिए एक क़िस्सा बनाया था उन बुज़ुर्ग ने।" कुछ अटक-अटकर कर बात पूरी की भासा ने। दोनों टहलते हुए चले जा रहे थे। रात होने के बाद भी मोहल्ले में एक एकदम सुनसान नहीं था। मुस्लिम बस्तियों में देर रात तक चहल-पहल रहती है।

"वहीं से पीपल पर से ही उसने आपकी अम्मी को गुसल करते हुए देख लिया था। आपकी अम्मी माशा अल्लाह बहुत ख़ूबसूरत थीं। उन बुज़ुर्ग का कहना था कि..." भासा कुछ देर को रुक गए "कि उसे आपकी अम्मी से लगाव हो गया था... आप उसे इश्क़ भी कह सकते हैं। हमने उसे मार दिया तो वह ग़ुस्से में आकर पूरे परिवार को नुक़सान पहुँचाना चाहता था। हम सबको ख़त्म करना। एक-एक करके। उन बुज़ुर्ग का कहना था कि आपकी अम्मी वहाँ उसकी तारीख़ को जाएँगी, सज-धज कर, तो उसे लगेगा कि उसीके लिए आईं हैं। नाराज़ आशिक़ अपनी महबूबा को देखकर सारा ग़ुस्सा भूल जाता है। बाक़ी भी दिन में आपकी अम्मी वहीं पीपल के आस-पास बनी रहेंगी तो वह किसीको नुक़सान नहीं पहुँचाएगा। इसीलिए आपकी अम्मी अपना सारा काम वहीं पीपल के चबूतरे पर बैठ कर ही करती थीं और हुआ भी वही, क़मर भी ठीक हो गए और उसके बाद फिर किसीको कोई नुक़सान उसने नहीं पहुँचाया।" भासा ने बिना राहुल की ओर देखे बात पूरी की।

"और वह खाना खिलाने वाली बात? उसका क्या मतलब था? उसका तो अब कोई मतलब ही नहीं समझ आ रहा।" राहुल ने प्रश्न किया। रास्ते में आते-जाते लोग भाई साहब को अदब के साथ सलाम करते हुए गुज़र रहे थे, भाई साहब सबको सलाम का उत्तर देते हुए चल रहे थे।

"वो बस आपकी अम्मी का मन बहलाने की बात थी भैया। उन बुज़र्ग का कहना था कि अगर आपकी अम्मी को यह सारा मामला पता चल गया, तो उनके लिए जीना मुश्किल हो जाएगा। ग़ैरत ऐसी चीज़ है जो बहुत परेशान करती है और आपकी अम्मी तो आपको पता ही है कि कितनी ग़ैरतमंद हैं। इसलिए उन बुज़ुर्ग का कहना था कि हमें ऐसा कुछ नाटक भी करना पड़ेगा जिससे आपकी अम्मी को इस बात का यक़ीन हो जाए कि वह सचमुच ही पिछले जनम का उनका बेटा था। उनको यह नहीं पता चलना चाहिए कि साँप उनको गुसलखाने में नहाते हुए देखकर उनसे मुहब्बत कर बैठा था, इससे उनको बहुत सदमा पहुँचेगा। खाना खिलाने की बात के दो कारण थे, एक तो यह कि आपकी अम्मी को इस बेटे वाली कहानी पर विश्वास हो जाए और दूसरा ये।" भासा कुछ देर को चुप हुए "दूसरा ये कि माँ आख़िर होती तो माँ है, भले ही पिछले जनम के बेटे को मारने की बात कह रहे हैं, लेकिन रिश्ता तो माँ-बेटे का कहा जा रहा है न? मन पर रखा ये पत्थर भी कम होगा कि कम से कम पिछले जनम के उस बेटे की याद में खाना तो खिला ही रही हैं। इसीलिए तो आपने देखा होगा कि आपकी अम्मी जब आपको खाना खिलाती थीं, तो कितने चाव से खिलाती थीं, जैसे अपने बेटे को ही खिला रही हों।" कह कर भासा एक बार फिर चुप हो गए। दोनों चुपचाप टहलते हुए चले जा रहे थे।

"ख़ुदा इस एक झूठ के गुनाह को मुआफ़ करे।" भासा ने बहुत धीरे से बुदबुदाते हुए कहा।

टहलते हुए दोनों जावेद के घर तक आ गए। जावेद घर के बाहर ही चबूतरे पर बैठा था, दोनों को आते देखा तो एकदम उठकर खड़ा हो गया।

"सर आपने क्यों तकलीफ़ की, मुझे मोबाइल पर कॉल कर देते मैं वहीं आ जाता। सलाम भाई साहब।" जावेद ने दोनों काम एक साथ कर दिए।

"बेटा मुझे भी तो टहलना ही था थोड़ा, बस ले आया इनको। चलो अब छोड़ आओ इनको होटल।" भासा ने हँसते हुए कहा और राहुल की पीठ पर हाथ रख दिया। राहुल ने झुककर भासा के पैर छू लिए। भासा ने उसे उठा कर सीने से लगा लिया। राहुल को पीठ पर फिर से नमी महसूस हुई।

"साहब और बाई साहब को मेरा सलाम कहना बेटा।" भासा ने पहली बार भैया के स्थान पर राहुल को बेटा कह कर पुकारा था। राहुल ऑटो में बैठ गया। ऑटो में बैठकर उसने भासा के दोनों हाथों को अपने हाथों में ले लिया और बोला "इतना निराश मत होइये भासा, ये सब थोड़े दिन का है। ये नफ़रतें बहुत दिनों तक नहीं रहने वालीं। सब ठीक हो जाएगा। आप जैसे लोग अभी हैं, जो सब ठीक कर देंगे। एक दिन सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा, सब कुछ।"

"आमीन। ख़ुदा करे कि तुम्हारी बात सच हो जाए बेटा। चलो भाई जावेद ले जाओ, रात हो रही है।" भासा का आदेश पाते ही जावेद ने ऑटो स्टार्ट कर दिया। राहुल ने हाथ जोड़ कर भासा को नमस्कार किया और ऑटो आगे बढ़ गया।

कुछ दूर ऑटो जाने के बाद राहुल ने ऑटो से झाँककर पीछे देखा तो भासा उसी जगह पर खड़े थे। जाते हुए ऑटो को देख रहे थे। चाँदनी रात में सफ़ेद कपड़ों, सफ़ेद बालों और सफ़ेद दाढ़ी में खड़े भासा किसी देवदूत, किसी फ़रिश्ते की तरह नज़र आ रहे थे। जगमगाते हुए। ऑटो धीरे-धीरे दूर होता जा रहा था और भासा एक सफ़ेद धब्बे में बदलते जा रहे थे, उजले सफ़ेद धब्बे में। चारों तरफ़ घनी मुस्लिम बस्ती थी। राहुल को भासा की बात याद आ गई जो उन्होंने बहुत दर्द भरे स्वर में कही थी "तुम कह सकते हो कि मैं इन दिनों पाकिस्तान में रहता हूँ।"