इन संघर्षों से शिक्षा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
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इन संघर्षों में दो हजार से ज्यादा किसान और किसान सेवकस्त्री, पुरुष, बच्चे-जेल गए। बहुत ज्यादा पीटे गए। कुछ मारे भी गए। मगर किसान हिम्मत से डँटे रहे। आज भी हिम्मत वैसी ही है। उन्होंने दिखला दिया किक्षेत्रतैयार है,हम तैयार हैं। स्त्रियों ने जो बहादुरी दिखाई उसका मौका तो हमें और तरह से मिलता ही नहीं। किसानों में श्रेणी की भावना ऐसी जाग्रत हुई और दूर-दूर के किसानों ने उनमें ऐसा भाग लिया कि सभी दंग रहे। हलवाहे, चरवाहे-बिना जमीनवाले भी उसमें शामिल रहे। सभी जातियों एवं धर्मों के लोगों ने भाग लिया। दरभंगे में तो हाजी लोग भी जेल गए।

मैंने हाल में पटने के बेलदारीचक में देखा कि दो किसानों को खेत में ही गोली से मार दिया गया। मगर शेष किसान ठंडे रहे और अपना काम करते ही रह गए। फलत: जमींदार को पुलिस के डर से छिपना पड़ा। मगर किसानों को कभी ऐसी दिक्कत नहीं हुई। मगर जहाँ जरा भी गड़बड़ी हुई कि उनमें भगदड़ मची और सारा काम चौपट हुआ। घर-गिरस्ती भी खत्म हुई। इसीलिए मोतिहारी के प्रांतीय सम्मेलन में मैंने ही प्रस्ताव किया कि हर हालत में─यहाँ तक कि हमला होने पर भी, मौजूदा हालत में पूर्ण शांति जरूरी है। क्योंकि जमींदारों ने यह सोचा है कि हमले करें और अगर किसान जवाब दें, तो खूनखराबी में उन्हें फँसा के त्रस्त कर दें। सौ-पचास जगहें ऐसा होने पर तो सारा आंदोलन ही दब जाएगा। इसीलिए मौजूदा हालत में साधारणतया आत्मरक्षार्थ भी हिंसा को मैंने रोकने की राय दी।

इन संघर्षों में हमने मुकदमे लड़ने से इनकार कर दिया। यों तो किसानों के लिए आमतौर से मुकदमा लड़ना ही असंभव है। असल में सत्याग्रह का खयाल और त्याग एवं हिम्मत के बढ़ाने की भी बात थी। केस लड़ने से हमारा ध्यान भी बँट जाता है और हममें कमजोरी भी आ जाती है। मगर कुछ दिनों के बाद धीरे-धीरे जब मजबूती आ गई तो हमने वह नीति नापसंद की और जरूरत देख के मुकदमे भी लड़ लिए। सब मिलाकर उससे फायदा ही हुआ। अब तो मैंने निश्चय कर लिया की कानूनी अस्त्र से जितनी मदद ली जा सके ली जाए। क्योंकि हमारा सत्याग्रह गाँधी जीवाला तो है नहीं। हमने तो इसमें शांति आदि को अपनाया है केवल फायदा देख कर। मगर केस न लड़ने से आसानी से हमारे अच्छे-अच्छे कार्यकर्ता ही जेल में ठूँस दिए जाते हैं,ताकि पथदर्शक बिना सारा संघर्ष ही बंद हो जाए। इसीलिए मैं मानता हूँ कि केसों को जरूरत समझ कर लड़ा जाए और जमानत पर लोग बाहर लाएँ जाए।

सबसे बड़ी बात यह रही कि हमने संघर्ष शुरू करके सुलह की बात करना अब पसंद किया। प्राय: सर्वत्र ऐसा ही हुआ। हमने कभी इससे इनकार नहीं किया। मगर अनुभव ने बताया कि यह चीज अच्छी नहीं। उसमें फँसा कर जमींदारों और अधिकारियों ने हमें बहुत परेशान किया। दरभंगे में तो हमारे आदमियों को बड़ा ही कटु अनुभव हुआ। कमबेश यही हालत अन्यत्रा भी रही। गया में भी कुछ ऐसा ही हुआ। यहाँ तक कि रेवड़ा में भी हमें पीछे अनेक दिक्कतें उठानी पड़ीं। वहाँ भी अभी तक कुछ-न-कुछ झमेला चलता ही है। इसलिए मैं तो इस नतीजे पर पहुँचा कि साधारणतया हमें सुलह के झमेले में, लड़ाई छिड़ने के बाद, पड़ना ही न चाहिए। हार भले ही जाए। ऐसे मौके पर हार से भी फायदा होता है। क्योंकि अपनी कमजोरियाँ मालूम हो जाती हैं।

हमने यह भी देखा कि यदि मुस्तैदी और विश्वास के साथ काम करें तो रुपए, अन्न या आदमी के बिना काम नहीं रुकता। ये तीनों चीजें किसान ही मुहय्या कर देते हैं, सो भी आसानी से। हमारी बड़ी भूल है यदि हम जनता की लड़ाई गैरों के पैसे और आदमियों से जीतना चाहते हैं। मैं उस जीत को अगर वह हो भी जाए, हार ही मानता हूँ। क्योंकि किसान उसमें स्वावलंबी तो बनेंगे नहीं और यही लड़ाई का असली उद्देश्य है। वह हक तो कभी फिर छिन जाएगा जो आज गैरों के बल से मिला है। मैंने तो किसानों को देखा है कि वह सब कुछ कर सकते हैं और भूखों मर के भी हमें मदद दे सकते हैं, यदि हममें नेताओं में विश्वास और मुस्तैदी हो। अगर यह विश्वास न हो तो हम निश्चय ही हारेंगे, यह भी मैंने अनुभव किया।