इमेज / प्रज्ञा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इतवार की अलसाई-सी सुबह कितनी शांति और सुकून के एहसास से भरी होती है। न कोई भागमभाग न ही कोई पहले से सोची-समझी दिनचर्या। नहीं तो सोमवार से शनिवार तकअगले दिन की चिंता ही खाए जाती है। सारे कामों को सिलसिलेवार करने के चक्कर में रातसे ही अगले दिन के घंटे तय कार्यक्रम के मुताबिक भागने लगते हैं। ऑफिस जाने से पहलेसैकड़ों काम, दरवाजे से निकलने से पहले भी मम्मी जी को ज़रूरी हिदायतें देना, काम वालीबाई से जूझना, भागते -भागते ऑफिस पहुँचना और पिफर न जाने कितनी बार हंड्रेड मीटर,हर्डल और मैराथन भागते ही रहना। पर आज तो नीता के हाथ में चाय का मग है, अदरककी हल्की तीखी गंध वाली चाय है और वो टेबल पर पैर पर पैर चढ़ाए खुली खिड़की से सर्दीकी हल्की ठंडक को जी भर के जी रही है। नीता ने ठान लिया था कि आज “इत्मीनान सेअखबार पढूंगी, कहीं भी कुछ भी खरीदने नहीं जाउंगी और रसोई में तो रत्ती भर नहीं घुसनेवाली। पंद्रह दिन में आधे दिन की मेरी भी छुट्टी बनती ही है।”

यह सब सोचते-सोचते नीता कुर्सी पर अधलेटी से लेटी मुद्रा में आ गई। एक झपकी लेकर बड़ी मुश्किल से अपने कोसमेट-उठाकर मुँह धोने गयी तो आईने ने आज के दिन का पहला काम हाजिर कर दिया। बालों का कटाया जाना अब और मुल्तवी नहीं किया जा सकता था। बाल बड़े बेतरतीब हो रहे थे। उंगलियों से उन्हें संवारकर बिठाने की कोशिश भी की पर सब व्यर्थ। जगह-जगह से छोटी-बड़ी पुंछडि़याँ-सी निकल रही थीं। और बाल कटाने के काम ने उसका सारा सुकूनएकबारगी छीन लिया।

“अब पहले रूपल दी को फोन करो, टाइम लो फिर टाइम पर पहुँचकर भी अपनी बारी का इंतज़ार करो यानि पंद्रह मिनट के काम के लिए एक डेढ़ घंटे की बर्बादी।” सारी बातें सोचते ही आलस से लेकर इत्मीनान और हवा की ठंडक से लेकर चायका स्वाद सब काफूर होने लगे। बचपन में याद कराई कहावत सामने थी ‘मैन प्रोपोसेज़ बट गॉड डिस्पोसेज़’। “ये भगवान से मेरा एक दिन का चैन भी देखा नहीं जा सकता।”

छुट्टीका सारा नशा उतरने लगा और कामों की लिस्ट बनाने में लगा दिमाग दर्द करने लगा। वहीढाक के तीन पात। घर भर उठकर अपने कामों में लग गया और नीता जल्दी-जल्दी पोहा बना रही थी। ठीक समय से पार्लर पहुँच गयी पर रूपल दी के केबिन के बाहर लाईन लगी थी। केबिन के शीशे से झांकते हुए पहले अपनी हरदिलअजीज मुस्कान बिखेरी फिर कसकर होंठों को चोंच सा बनाया,नाक जरा उपर की ओर सिकुड़ गयी जिससे आँखें सिमट गईं। इस मुद्रा को देखने की आदत हो गयी है नीता को। जानती हूँ इसके बाद चेहरे की उसी याचक-सी आकृति से सिर को टेढ़ा करके तीन बार हिलाते हुए मुझसे सांकेतिक भाषा में कहेगी “प्लीज थोड़ा इंतज़ार कर लो। बस अभी फ्री हो जाऊँगी नीता जी।” और नीता भी तमाम झुंझलाहट और परेशानी समेटकर एक अच्छी- सी हँसी से जवाब देती आई है “कोई बात नहीं।”

अब करें भी तो क्या नाई, दर्जी, डॉक्टर क्या रोज-रोज बदले जाते हैं। और फिर रूपल दी एक अनार सौ बीमार। मालकिन होते हुए भी कर्मचारी ही लगती हैं। नयी-पुरानी तीन-चार लड़कियाँ भी हैं उनके यहाँ पर छुट्टी के दिन तो कितने ही लोग हों काम ही काम है ऊपर से कटिंग का कोई एक्सपर्ट नहीं उनके सिवाय। बीच-बीच में नई लड़िकयों की ट्रेनिंग, पुरानी लड़कियों को सिलसिलेवार ढंग से काम बताना ताकि किसी को लंबा इंतज़ार न करना पड़े। उनके चाय-पानी का इंतजाम, कैश कांउटर संभालना, संगीत-टीवी की व्यवस्था देखना, बीच-बीच में प्रोडेक्ट बेचने वालों से डील करना, क्लांइट को चेहरा मोहरा ठीक रखने के उपाय बताना कितने काम थे उन्हें फिर नए क्लाइंट को इस तरह काबू में करना कि नीता दी के अलावा उसे कोई और नाम सूझे ही नहीं अगली बार। एक हाथ में कैंची थामे और एक हाथ से निर्दंश देते हुए वो देवी की प्रतिमा-सी लगतीं जिसके कई-कई हाथ हैं।

“तो बताओ नीता जी कैसी कटिंग करूं इस बार?”

“दी वही अपना तो ओल्ड इज़ गोल्ड”

“नहीं इस बार चेंज करो थोड़ा। इतने सालों से एक जैसा ही। न न इस बार मैं नहीं सुनूंगी आपकी। ट्राई करो और यकीन करो सूट करेगा।”

“यकीन ही तो है दी। बस ज़्यादा चेंज नहीं प्लीज़”

अपना काम करते-करते रूपल दी बच्चों के बारे मे पूछना नहीं भूलतीं और न ही अपने इकलौते बेटे के बारे में बताना।

“देखो नीता जी मैंने तो भेज दिया है हॉस्टल। अब वहाँ पढ़ता है या क्या करता है राम जाने। पढ़ाई का तो बचपन से ही चोर है तो वहाँ क्या झंडे गाड़ेगा जानती हूँ। अच्छा है थोड़ी शांति है।”

“अकेला नहीं लगता आपको?” “टाइम किसके पास है यहाँ। ये सारा दिन ड्यूटी पर और मैं पार्लर में। फिर एक नया काम शुरू कर दिया है?”

“नया पार्लर खोला है क्या?”

“पार्लर के काम से तो अब उब-सी होने लगी है। गरीब, बेसहारा लड़कियों को सिलाई-कढा़ई सिखाने के बारे में सोच रही हूँ आपका क्या विचार है?”

“नेकी और पूछ-पूछ”

“पर नीता जी आपकी मदद भी चाहिए मुझे। सिर्फ हौसला बढ़ाने से काम नहीं होगा।“

“ऐनी टाइम दी”

”ठीक है फोन करुंगी आपको। और लो देखो नया कट”।

“वाउ दी संडे वसूल कट”

रूपल दी को थैंक्स करके जब घर लौट रही थी तो नीता को कई साल पुरानी उनकी कही बातें याद आने लगीं। रूपल दी को बचपन से ही कटिंग का चस्का लग गया था। चोरी-छिपे अपने बाल काटा करती थीं। खुद उन्होंने बताया था कि कैसे बचपन में एक दिन परांदे में बाल गूंदे थे। जब सहेलियों का खेल खत्म हुआ और परांदा खोलने की कोशिश की तो बाल उलझ गए। इस कदर उलझ गए कि मम्मी के डर से उन्होंने कैंची से काट लिए। बस उसके बाद तो कैंची छटूी ही नहीं। सभी उन्हें पगली कहते बस पापा ही सारे एक्सपेरीमेंट्स कराने को हाजिर थे। धीरे-धीरे हाथ सध गया और फिर लगे हाथ कटिंग और ब्यूटिशियन का छोटा-सा एक कोर्स भी कर डाला। शादी के बाद सबके खिलाफ जाकर जब दी ने काम शुरू किया था तब इस इलाके में बहुत कम महिलाएँ ये काम कर रही थीं और ढंग का काम करने के कारण रूपल दी की धक भी जम गई थी। किराए की जगह से लेकर अपनी स्थाई जगह और अकेले से लेकर लड़कियों को मदद के लिए तनख्वाह पर रखना कैसे ईंट-ईंट करके अपने सपने को साकार किया था रूपल दी ने। एकबार ठान लिया तो बस पूरा करके ही माना। गजब की इच्छाशक्ति और जबरदस्त महत्वाकांक्षा। ससुराल वालों ने तो उनकी छेड़ ‘नाई’ ही रख दी थी जो आज भी यथावत कायम है पर दी को क्या। उन्हें तो अपना मनचाहा काम करना था किसी भी कीमत पर। पर आज की उनकी बातों से नीता ये समझ नहीं पा रही थी कि जिस काम को दी दीवानों की तरह चाहती हैं उसे छोड़कर एकदम नए तरह का काम वो कैसे कर पाएँगीं। और फिर पार्लर कौन चलाएगा? नए काम में सिरदर्दी और नए तरह की भागदौड़ होगी और अब उसके बाल कौन काटेगा? दी की बड़ी चिंता से भी ज्यादा बड़ी चिंता नीता को खुद की हो गई। रोज की भागदौड़ में नीता रूपल की बात भूल ही जाती कि एक दिन रूपल का फोन आ गया।

“नीता जी भूल गए न आप?”

“नहीं दी। बताओ।”

“अरे आप इस विधायक से मिलवा दो न। आपके हस्बैंड को तो जानते हैं वो। बस एक बार मेरी मुलाकात हो जाए...।”

“उससे क्या काम आ गया दी?” नीता रूपल के जवाब का इंतज़ार करती रही पर जवाबी प्रतिक्रिया में जब एक चुप्पी मिली तो समझ गई कि बात गंभीर है और रूपल दी अभी कुछ और शेयर करने के मूड में भी नहीं हैं। समझदार को इशारा काफी था।

“ठीक है दी... इनसे पूछकर बताती हूँ, आपको।”

“जरा जल्दी। हाँ..ठीक है फिर बात करती हूँ आपसे”।

हाँ तो नीता ने कर दी थी पर अनुराग का डर भी कम नहीं था। उसे पता था बात छेड़ते ही कहेंगे—“पता नहीं क्या पडी़ रहती है तुम्हें दूसरों की। अरे काम है तो खुद मिल लो। हमें क्या कोई मिलवाने गया था। खामखां का एहसान लो। मिलना मिलाना कुछ नहीं। ऐसे ही सबको ले जाते रहे फ्री-फंड में तो कल को हमारे जेनुइन काम कौन कराएगा। और ये विधायक क्या चैरिटी में सब करते हैं सब अपना फायदा देखते हैं। और तुम्हें पड़ी है धर्मात्मा बनने की। अरे कह देती हम नहीं जानते या कोई बहाना लगा देतीं। जब देखो फंसा देती हो मुझे यों ही।”

और वाकई यही हुआ ठीक इन्हीं शब्दों के साथ बल्कि इससे कुछ ज्यादा और कुछ तीखे ही। अनुराग को पता था नीता की गरज है तो अपने दिल में छिपे गुस्से की परतों का अगला-पिछला सारा हिसाब क्लीयर कर लिया। नीता बखूबी वाकिफ है अनुराग की इस आदत से पर इतना भी जानती है कि सबके बाद करेगे वही जो नीता चाहती है। नीता सही थी। अनुराग ने जल्द ही रूपल दी का काम बनवा दिया।

बाद में अनुराग ने ही बताया कि रूपल दी एक एन.जी.ओ. टाइप संस्था शुरू करने जा रही हैं जिसके लिए फंड की जरूरत है। इन विधायकों के पास ऐसे कई फंड होते ही हैं और फिर ये स्वपोषित संस्था गरीब लड़कियों की शिक्षा और रोजगार के सामाजिक उद्देश्य से जुड़ी थी तो फंडिंग में कोई बहुत बड़ी अड़चन यूं भी नहीं आनी थी। तीसरी और सबसे जरूरी बात थी चुनाव नजदीक थे और विधायक को भी अपनी पार्टी के प्रचार के लिए रूपल दी जैसे ‘स्मार्ट’ लोगों की जरूरत थी। हालांकि ये तीसरी बात नीता को जरा भी नहीं भाई। इस ‘स्मार्ट’ शब्द के पीछे किसी भी औरत का मजाक उड़ाने से लेकर मजा लेने तक के सारे दरवाजे तंग सोच लोग अपने आपखोल लेते हैं। अनुराग को आँखें तरेरकर देखते हुए उसे बस यही संतुष्टि थी कि रूपल दी का काम बन गया।

इस बात को काफी दिन बीत गए। नीता ने कई दिन रूपल दी के शुक्रिया का इंतज़ार किया पर कोई फोन नहीं आया। फिर बात कई महीनों के लिए आई गई हो गई। इधर नीता ने लंबे बाल रखने का मन बना लिया था तो पार्लर जाना भी नहीं हो सका।

“अरे अनुराग!! देखो यार रूपल दी की तस्वीर छपी है अखबार में।” अचानक एक दिन सुबह की जल्दबाज़ नज़र जब अखबार पलट रही थी तो नीता चिल्लाई। देश में बढ़ती मंहगाई के विरोध में हुए व्यापक धरने में अग्रिम पंक्ति में रूपल दी अलग ही दिखाई दे रही थीं। पहली नज़र में तो नीता तस्वीर देखकर बड़ी खुश हुई पर कुछ क्षण बाद ही उसे लगा कि “ये किस काम में लग गई रूपल दी? एक तो अपना जमा-जमाया काम अनदेखा कर रही हैं और फिर जिस नए काम का बीड़ा उठाया उसकी तो कोई प्रेाग्रेस दिखाई नहीं दे रही। आखिर ये क्या चक्कर है?”

उस दिन कई बार नीता का मन किया भी कि रूपल दी को फोन कर के कहूँ -”दी आपकी तस्वीर देखी आज।” पर बार-बार मन ने कहा ‘चल छोड़ न नीता’। उसी दिन शाम को घर लौटते समय शालिनी मिल गई। वही शालिनी जो दस-बारह साल से रूपल दी के पार्लर में काम कर रही है। उसे आज के अखबार की बात बताते ही सारी तस्वीर साफ होने लगी।

“भाभी आँटी तो पार्लर में बैठती ही नहीं कई महीनों से। और रोज़ ही कभी किसी धरने या रैली में जा रही होती हैं। और आपने शायद उनका पहला फोटो देखा है। पार्लर में तो आजकल कई अखबार मँगवाती हैं आँटी रोज ही किसी न किसी में उनकी फोटो लगती ही रहती है। मैं उन्हें काट-काटकर संभालती रहती हूँ रात को आती हैं बस पैसों के हिसाब के लिए। मुझे ही रूकना पड़ता है भाभी देर तक।”

“और उनकी संस्था का क्या हुआ?”

”पार्लर के साथ वाला फ्लैट किराए पर लिया है। दो कमरों में एक जिम खोल लिया है औरतीसरे में ‘शक्ति’ का बोर्ड लगा है। कुछ लडकियाँ आती हैं। एक लडक़ी रखी है जो उन्हें अक्षर ज्ञान सिखाती है। कभी-कभी सिलाई वगैरह।”

“और उन लड़कियों के लिए रोजगार?”

“पार्लर का काम ही तो रोजगार है उनका। किसी तरह एक घंटा गुजरता है पढ़ाई का बस फिर हम किसी को थ्रेडिंग सिखाते हैं, किसी को वेक्सिंग कोई साफ-सफाई देखती है तो कोई ऊपर के काम। वो भी खुश हम भी खुश। वैसे भी उनका पढ़ने-वढ़ने में कोई मन नहीं। स्लम की ये लड़कियाँ तो यही सोचकर खुश हैं कि कुछ और नहीं तो शादी के लिए और शादी के बाद मेकअप करके पति और ससुराल पर रौब जमा सकेंगी।”

शालिनी ने अपना मुँह कुछ और खोला तो नीता का मुँह खुला का खुला रह गया—“पर भाभी आँटी बदल गईं हैं पूरी तरह।”

बातों की गहराई में जाकर नीता ने जाना कि रूपल दी के पार्लर की सब पुरानी जमी-जमाई लड़कियाँ शादी-ब्याह के बाद पार्लर छोड़कर इधर-उधर चली गईं। एक-आध विश्वसनीय लड़कियाँ रह गईं हैं अब शालिनी जैसी। आस-पास मंहगे पार्लर्स की बढ़ती ख्याति, काम का तनाव, पार्लर ठप्प होने की आशंका उससे जुड़ी आर्थिक अनिश्चितता और फिर खुद को नई महत्त्वाकांक्षा के अनुरूप गढ़ने की लगन--इन सबने किसी और ही दिशा में सरका दिया रूपल दी के सपनों को। स्थानीय नेताओं की सरपरस्ती यूँ ही नहीं स्वीकारी उन्होंने। एक सामाजिक रूसूख कायम किया और सत्ता को इर्द-गिर्द रखकर एक सुरक्षा कवच भी तैयार किया। फिर इस नई संस्था में शामिल स्लम एरिया की ये लड़कियाँ जिस उद्देश्य से यहाँ जोड़ी गईं वो बोर्ड के ‘शक्ति’ शब्द तक सीमित रहीं और उसके बाद उनका अपने सिरे से इस्तेमाल। देना-दिलाना कुछ था नहीं उन्हें, नीता का अचानक लगा कि रूपल दी ने जिस इंसानियत की दुहाई देकर मदद मांगी थी वो तो जैसे काफी दिनों की तगड़ी प्लैनिंग का कोई पत्ता था। कई सवाल घुमड़ रहे थे नीता के दिमाग में। पर अचानक एक सवाल उठा”

“शालिनी पार्लर में अब हेयर कट कौन करता है, उसकी एक्सपर्ट तो रूपल दी ही हैं। बरसों से ये काम तो न उन्होंने किसी लडक़ी को सिखाया न किसी और को दिया है? और हेयर कट तो वैसे भी किसी भी पार्लर की ऑक्सीजन होता है।”

“इसका इंतजाम भी किया जा चुका है भाभी। पहली बार रूपल दी के पार्लर में एक लड़का रखा गया है इसके लिए। आँटी के पास टाइम ही कहाँ है। पता नहीं किस- किस समिति-फमिति से जुड़ गई हैं। पर भाभी सिर्फ आपको बता रही हूँ अगर उन्हीं से कट कराना हो तो दो दिन पहले फोन पर रिक्वेस्ट कर लो। आँटी रात को टाइम निकाल लेती हैं कई बार पर बड़ी मुश्किल से। पर भाभी प्लीज ये मत कहना मैंने बताया आपको वरना डांट खानी पड़ेगी मुझे, आँटी बड़ा भरोसा करती हैं न मुझ पर दिल टूट जाएगा उनका। अच्छा भाभी चलूँ अभी हिसाब लिखना है आज का।”

शालिनी को बेफ्रिक रहने को कहकर नीता अपने रास्ते चली तो आई पर दिमाग उन्हीं बातों में उलझा रहा। मन खिन्न था बुरी तरह। एक बार तो जी में आया अब कभी रूपल दी से न मिलूँ पर कुछ देर बाद ये बात भी सिर उठाने लगी शायद शालिनी ने उनके काम को सही तरह न समझा हो और अपनी लो इंटलैक्ट में मुझे बहका दिया हो। इसी उधेड़बुन में उसे शालिनी की सलाह याद आई। उसने खट से रूपल दी को फोन लगाया पर उम्मीद के अनुरूप फोन फट्ट से रिसीव नहीं किया गया। दो-तीन बार के प्रयास के बाद किसी भीड़ की आवाज को चीरती रूपल दी की आवाज को नीता अपने बढ़े हुए बालों का रोना ही पहुँचा पाई और उसी भीड़ से आती उनकी आवाज़ “परसों आठ बजे” ये तीन शब्द ही नीता तक पहुँचा पाई।

अभी दो दिन शेष थे वैसे भी कल का सारा दिन तो रात के खाने की मेहमाननवाजी में जाने वाला था नीता का। सो उसने अपना ध्यान रूपल दी की ओर से हटाया और अपने पड़ोसी मित्र मिसेज आशा देशपांडे दंपति पर लगाया। उनकी पसंद के हिसाब से मेन्यू तय करते हुए नीता सोचने लगी-- हम से अच्छी तो घरेलू औरतों की ही जिंदगी है यहाँ तो दोहरे काम के बोझ तले दबे रहो। ऑफिस भी संभालो और होममेकर की भूमिका भी निभाओ। सारी जिंदगी इसे ही बैलेंस करने में निकली जा रही है। बस मम्मी जी की सहारा है नहीं तो बच्चे कौन संभालता? अगली रात अनुराग और आशा के पति तो खाने से पहले पीने में मसरूफ हो गए। बच्चे आपस में और हम दोनों लेडीज़ अपनी बातों में पेशे से डायटीश्यिन आशा ने खाने का मुआयना किया और खुश हो गई। धीरे-धीरे बातों के दौरान उसने मुझसे समय निकालकर एक नई संस्था से जुड़ने का सुझाव रखा, जिसके साथ वो हाल ही में जुड़ी है।

संस्था का नाम सुनकर चौंकने की बारी मेरी थी। वो संस्था कोई और नहीं ‘शक्ति’ ही थी पर मेरे सामने फिर एक नए रूप में प्रेजेंट हो रही थी।

“देखो नीता, इस संस्था में हमें ज्यादा कुछ नहीं करना है। बस हफ्ते में अपना थोड़ा समय देना है और मासिक दो हजार रूपये। गरीब, बेसहारा लड़कियों की मदद के लिए स्कीम्स बनानी हैं। इस संस्था में हम जैसी कुछ अच्छे पद वाली और ढंग का सोचने वाली औरतों की जरूरत है। सभी को नहीं बुलाया जाता। हाँ ये ध्यान रखा जा रहा है कि एरिया की हर सोसायटी से ऐसी इन्फ्लूएँशल महिलाएँ इससे जुड़ जाएँ।”

आशा की बातों से नीता ने जान लिया कि ‘शक्ति’ खास तबके की महिलाओं को जोड़ने के प्रयास में है। पर ये दो हजार वाली बात उसकी समझ में नहीं आई तब आशा ने खुलासा करते हुए यही समझाया हमें तो दान करना है। और इस दान की भरपराई भी हो जानी है। रूपल ने कहा है दो हजार देने वाली महिलाओं का मंथली ब्लीच, फेश्यिल, कटिंग, थ्रेडिंग सब फ्री। “सोच लो नीता बुरा सौदा नहीं है। दान का दान, समाज सेवा और पार्लर का खर्चा मुफ्त।”

आशा के परिवार के विदा होने के समय नीता ने उससे सोचने का समय लिया। उस रात नीता ने पहली बार संघर्षशील रूपल और व्यावसायिक बुद्धि वाली रूपल को एक साथ सामने रखकर तौलने की कोशिश की। बार-बार जिस सवाल से नीता जूझ रही थी शायद उसका कोई सिरा हाथ लग ही जाए। “आखिर क्या पड़ी है रूपल दी को ये सब चक्करबाजी करने की? कर तो रहीं थीं अपना काम तसल्ली से। इतने साल का जमा-जमाया काम था ही। क्या चल नहीं रहा था पार्लर?”

खुद से सवाल करने के क्रम में आखिरी सवाल पर नीता ठिठककर ठहर गई... शायद यही है वो सिरा, पार्लर चल नहीं रहा था शायद उतनी अच्छी तरह। अकेली रूपल दी और समस्याओं का बढ़ता हुआ जंगल, दुनिया भर के दंद-फंद। ऐसे में भी दी किसी भी तरह अपनी इमेज को खत्म नहीं करना चाहती थीं। शुरू से ही देखा है नीता ने हरदम पार्लर की बेहतरी के लिए उन्हें नया सोचते-करते हुए। और अब ये नयी संस्था सच में बेसहारे का सहारा ही बनने जा रही थी। दरअसल रूपल ब्यूटी पार्लर के कमजोर कदमों को ही शक्ति चाहिए थी। बाजार के दबाव के चलते उससे बचाव के लिए पैदा किया एक और बाजार थी यह संस्था--‘शक्ति’। दो हजार रूपये का नियमित भुगतान ‘शक्ति’ के लिए नहीं पार्लर की संजीवनी थी। अब समझ आने लगी आशा की बात- ‘हमें तो बस ऐसी महिलाओं की चेन क्रिएट करनी है।’

आज नीता को रूपल दी से मिलने में वैसी सहजता महसूस नहीं हो रही थी जैसे कि बरसों से होती आई थी। एक जरूरी बात ये भी थी कि अब तक महीने में एक बार काम के लिए मिल लेने के बाद क्या दखल रह जाता था दोनों का एक-दूसरे की ज़िंदगी में परसंस्था से जुड़ने पर पता नहीं मुझसे उनकी क्या उम्मीदें होगी और क्या मैं पूरा कर पाउंगी? ऐसे सवालों ने नीता की मुद्रा को असहज बना दिया था।

पार्लर पहुँची तो काम खत्म-सा हो रहा था। एक हाई-फाई लडक़ा हेयर ब्रश लेकर एक लड़की को बालों की केयर के टिप्स दे रहा था। ये वही था जिसके बारे में शालिनी ने पहले ही बता दिया था। शालिनी अस्त-व्यस्त पार्लर में पूरे दिन का हिसाब लिख रही थी। अंदर के कमरे में एक कमजोर-सी लड़की बिखरे सामान को व्यवस्थित कर रही थी जिससे कल काम ठीक तरीके से शुरू किया जा सके। नीता ने अंदाजा लगाया कि ये लड़की जरूर ‘शक्ति’ से जुड़ी हुई स्लम की लड़की है। साढ़े आठ के आस-पास रूपल दी गुलाबी साड़ी और मैचिंग मेकअप में लिपटी, हैंडबैग लटकाए दाखिल हुईं। उन्हें देखकर लग ही नहीं रहा था कि वो नीता के काम से पार्लर में आई हों, थके हुए चहेरे पर चिरपरिचित मुस्कान के साथ उन्होंने नीता का स्वागत किया।

“लाना शालिनी मेरी कैंची, अब तो वो भी मुझे भूलने-सी लगी है नीता जी।”

इसी बीच उस नए लड़के से और शालिनी से जरूरी बात करके अंदर काम कर रही लड़की को देखने गईं और थोड़ी देर बाद बंद दरवाजे से उनके डांटने की आवाजें आने लगीं। “चोर कहीं की...इन लोगों को कितना ही अच्छा बनाने की कोशिश करो रहेंगे तो झुग्गी वाले ही।” दाँत पीसते हुए उनके शब्द बाहर निकलने हुए नीता को साफ सुनाई दे गए। नीता भीतर तक हिल गई। तो ये है रूपल दी का व्यवहार अपनी संस्था की लड़कियों से? इस तरह के पूर्वाग्रहों से चलाएँगी ‘शक्ति’ को?

लड़की को धमकाते हुए जब वो नीता की सेवा में हाजिर हुईं तो झटपट फ्लॉट मारते पल्ले को कमर में खोंसकर अपना सूती कोट पहनकर सामान्य सेविका बन गईं। नीता को अब वह पहले जैसी रूपल दी ही लगने लगी। कटिंग के दौरान बातों ही बातों में अपनी संस्था और उससे जुड़ी व्यस्तताओं के बारे में बताती रहीं।

“देश में गरीब लड़िकयों की हालत बड़ी खराब है नीता जी। हम नहीं सोचेंगे तो कोई नहीं सोचने वाला इनके बारे में। इसीलिए ये काम से जुड़ी। समाज सेवा को मैंने अपना लिया है। पर अकेले नहीं हो सकता ये सब। आप भी मदद करो न।”

नीता का उखड़े मन से ‘हाँ-हूँ'करती रही। वह रूपल के व्यवहार के दोनों पक्षों का मुआयना भी करती जा रही थी। इसके बाद दो हजार वाली स्कीम की पेशकश नीता के आगे भी रखी गई और वही बातें दोहराई जाने लगीं जिनका जिक्र आशा कर ही चुकी थी। केवल वही नहीं रूपल ने नीता को एक रजिस्टर भी दिखाया जिसमें गरीब बेसहारा लड़कियों की लिस्ट और रोजगार के कुछ उपाय से लिखे हुए थे। कहीं मसाला पीसने की मशीन दिलाने के वादा, कहीं सिलाई मशीन तो कहीं घर में काम दिलाने का। कहीं भी जिक्र नहीं था कि वे इस समय पार्लर का काम भी सीख रही हैं या मदद कर रही हैं। उन्हें विधायक की पार्टी के लिए रोज ही किसी समिति, बैठक, रैली में जाना पड़ता था इसके बारे में रूपल दी ने नीता से कहा—

“अगले ने मदद की है तो बदले में हमें भी तो मदद करनी पड़ेगी।”

कटिंग के बाद चाय मंगवाकर रूपल दी एकालाप करती रहीं। उनकी बातों का कुल जमा यही सार था कि उनके पास आज कई महिलाएँ जुड़ गईं हैं। सबके दिए गए सुझाव अब रूपल दी के सुझाव हो गए हैं--जीवन का लक्ष्य गरीबों की सेवा है इसलिए डिस्टेंस एजूकेशन से रूरल डेवलेप्मेंट का डिप्लोमा कोर्स भी कर रही हैं, ऐसा उन्होंने ही बताया। इन बेसहारा लड़कियों को इक्कट्ठा करके हर सोसायटी में रोजमर्रा के समान बिकवाने से लेकर तीज-त्यौहार पर ब्यूटी प्रोडेक्ट बिकवाने से लेकर मेंहदी लगवाना और फिर घर-घर में पार्लर की सेवा देना, महीने में एक बार शक्ति से जुड़ी महिलाओं की किट्टी पार्टी, पिकनिक ताकि मिलने-जुलने के अवसर हों। विधायक जी की पत्नी भी शामिल हैं इसमें। एरिया की महिलाओं के लिए रेस, खेल आदि प्रतियोगिताएँ और जीत पर पुरस्कार। और न जाने क्या-क्या ताकि हर सोसायटी शक्ति से अछूती न रहे और एक चेन क्रिएट हो बस ...पावरफुल चेन। नीता को सभी आइडियाज़ बड़े बेतरतीब से इसलिए लग रहे थे कि इन्हें व्यवहार में लाए जाने की कोई ठोस योजना नहीं थी रूपल के पास। ठोस योजनाओं के क्रियान्वयन का टाईम न रूपल के पास था न चेन बनाने वाली महिलाओं के पास। नीता को लगा समय के साथ भागते-भागते ये काम भी छू भर लिया जाए, ऐसे ही प्रयोग जारी थे ‘शक्ति’ के साथ। आजकल कायदे और गुणवत्ता का जमाना नहीं है न। चलो बाकी तो अपने अपने कामों से जुड़े हैं उनके लिए तो ये पार्ट टाइम अफेयर है पर रूपल दी? उनके लिए तो जीवन-मरण की बात है। ये ताश का महल एक झटके में ढह जाएगा। सब कुछ बिखर जाएगा। इतने में रूपल दी बोलीं

“तो आपके दो हजार?”

इस सवाल के लिए तैयार होकर आई नीता फिर भी हड़बड़ा गई—“वो दी. . . अभी सोचकर।”

“सोचना जरूर और जुड़ जाओ न हमसे।” कहकर रूपल ने अच्छे से बाय कहा। घर लौटते समय शालिनी भी साथ हो ली।

“अच्छा किया भाभी जो आपने हामी नहीं भरी। मैं तो आपको इशारा करने ही वाली थी। आँटी के पास बहुत सारे लोगों ने रूपया जमा करा दिया है। वो वाला रजिस्टर नहीं दिखाया आपको। सबका रूपया तो ले लिया अब उनके काम करने का समय कहाँ है? पता है पार्लर में आने वाली एक आँटी कह रही थीं कि रूपल आँटी कांउस्लर का टिकिट चाहती हैं। चुनाव लड़ना चाहती हैं। महिला सीट के लिए ही सारी भाग-दौड़ कर रही है। तभी तो भागी फिरती हैं विधायक के पीछे।”

शालिनी के लो इंटलैक्ट को भांपकर नीता हँस दी—“चल पागल कहीं की”

“कसम से भाभी देख लेना आप। तभी तो सबको जोड़ रही हैं। औरतों की मीटिंग लेती रहती है। किट्टी वगैरहा। इतनी भाग-दौड़ कर रही हैं। अखबार में फोटो निकलवा रही हैं। संस्थामें औरतों- लड़िकयों को जोड़कर ले जाती नहीं है रैली-वैली में और रूपया भी तो आ रहा है चंदे के नाम से।”

नीता शालिनी के तर्कों को हवा में उड़ा तो नहीं सकी। अब तक उसे रूपल की हर योजना अनिश्चितता भरे दौर में पार्लर को चमकाने और व्यवसाय बचाने वाली ही लग रही थी पर अगर शालिनी की बात सही है तो फिर ये है वो सिरा जिस तक नीता पहुँच नहीं पा रही थी। और तभी ‘शक्ति’ का इतना प्रचार होते हुए भी ‘शक्ति’ क्यों दीन-हीन, उपेक्षित है अब समझ आने लगा। उसे रूपल दी के पुराने काम से उब और नई महत्त्वाकांक्षाओं के जन्म का समीकरण भी हल होता दिख रहा था। मन को समझाते हुए और बात बदलते हुए उसने कहा—

“तो शालिनी तू कब अपना पार्लर शुरू कर रही है?”

“कहना नहीं भाभी किसी से सामान तो कब से जोड़ रही हूँ बस एक फेशियल चेयर या सस्ते दाम में मिल गया तो सेकेंड हैंड फेश्यिल बैड खरीदना है। सुबह कमरे को पार्लर बना लूँगी और रात को घर।’ आपको तो पता ही है एक कमरा सास-ससुर का है और एक मेरा।”

“तो देर किस बात की है शालिनी? तू अभी हिचक रही है न पार्लर से निकलने में? रूपल दी बहुत बिजी हैं न और सारा काम तुझ पर है। यही मुश्किल है न तेरी?” तमाम सच जानने केबावजूद नीता की चिंता अब भी रूपल के काम से जुड़ी थी। “क्या मुश्किल भाभी। पार्लर तो तब शुरू करूंगी जब कोर्स खत्म करने का सर्टीफिकेट देगी आँटी मुझे, रोज कहती हूँ पर टाल देती है। एक मैं ही बची हूँ उसकी भरोसेमंद। वो अपना समय ले रही है और मैं समय काट रही हूँ भाभी यही मुश्किल है। कोई समझदार लडक़ी अब नहीं आने वाली इनके झांसे में और क्या इन नई लड़िकयों के भरोसे चला सकती हैं पार्लर? ये करेंगी पाँच साल का कोर्स मेरी तरह? वो तो शुरू के साल मैंने कोर्स पर ध्यान नहीं दिया नहीं तो मैं भी कब की निकल जाती औरों की तरह। अच्छे घरों की लड़कियाँ तो वैसे ही गली-मुहल्लों के पार्लरों में काम सीखती नहीं और ये गरीब लड़कियाँ टिकेंगी इतने साल? ज्यादातर तो दिल्ली की है ही नहीं। फिर ये स्लम भी तो चुनाव तक यहाँ है फिर उजड़ेगा या रहेगा कौन जानता है? स्लम उजड़ा तो आँटी का नया कुनबा भी उजड़ जाएगा। न रहेगा पार्लर न कोई संस्था-फंस्था। और अब तो अकेले भी नहीं चला पाएगी आँटी। गुस्सा तो बड़ा आता है भाभी मुझे आँटी पर लेकिन क्या करूं अपने हाथों से काम सिखाया है न आँटी ने बस इसीसे उसके बुरे वक्त में धेाखा नहीं देना चाहती।”

एक के बाद एक न जाने कितने रूप बयाँ हो रहे थे रूपल दी के आज। कैसी वितृष्णा-सी हो रही थी नीता को आज उनसे। चुनाव की सरगर्मियाँ अपना रंग पकड़ रही थीं। उम्मीदवारों के नाम अभी तय नहीं हुए थे पर पोस्टरबाजी के लिए मोहल्ले की दीवारें कम पड़ने लगीं थीं। अचानक एक दिन सत्तारूढ़ पार्टी के विरोध में आयोजित धरने-प्रदर्शन के दौरान विधायक की तस्वीर वाले पोस्टर में कोने में रूपल दी हाथ जोड़े खड़ी दिखाई दीं। नीता को शालिनी के शब्द और उसके ‘लो इंटलैक्ट’ की अपनी बेवकूफाना दलील याद आने लगी। अब तस्वीर एकदम साफ थी। दिन पर दिन रूपल दी पोस्टरों की शोभा बढ़ा रही थीं और पार्लर के कई क्लाइंट छिटककर दूर हो रहे थे। शालिनी किस किस को संभालती। मैन पावर कम, बदइंतजामी और उपर से रूपल दी की पार्लर के प्रति उदासीनता की हद तक घोर उपेक्षा। पार्लर को लेकरनीता की आशंका सच में बदल गई। गनीमत थी कि अभी ताला नहीं लगा था बस शालिनी उसे घसीट रही थी किसी तरह। नीता को अब विधायक की पार्टी के उम्मीदवारेां की लिस्ट आउट होने का बेसब्री से इंतजार था। ऐसे में अनुराग एक दिन ऑफिस से आते ही धमाका कर दिया—

“विधायक से बुरी तरह झगड़ी है तुम्हारी रूपल?”

“क्यों...क्या हुआ?”

“उसका कहना है कि मेरा नाम, काम सब छीन लिया पार्टी ने। अरे बच्ची है क्या? विधायक तो नहीं आया था इसके पास खुद ही गई थी मेल-जोल बढ़ाने। अब राजनीति तो फुल टाइम जॉब है, पार्लर तो ठप्प होना ही था।”

“पर झगड़ा?”

कांउस्लर की सीट पर लड़ना चाहती थी। महिला के लिए आरक्षित हो गई है सीट इसीलिए ‘शक्ति’ के बहाने से मिलने गई थी विधायक से। अब कहती है कि संस्था का भी मनचाहा इस्तेमाल किया विधायक ने।”

“पर नाम तो अभी अनाउंस हुए ही नहीं?”

“सौ प्रतिशत सच्ची खबर है कि आज की प्रेस कांफ्रेस में विधायक की पत्नी का नाम आना तय है। ‘शक्ति’ की इन्फ्लूइनशल महिलाएँ सब विधायक की पत्नी के साथ हैं, रूपल की क्या बिसात उसके आगे।”

“ये तो गलत हुआ, दी तो...”

“रहने दो, दी को और टिकिट क्या हलवा है जो हर कोई ऐरा-गैरा निगल जाएगा? फिर जन-सेवा के नाम पर किया क्या है उसने?”

“ऐसे तो विधायक की पत्नी ने भी क्या किया है?” नीता ने प्रतिवाद का स्वर नहीं छोड़ा।

“किया है बरसों पति के साथ घूम-घूमकर, सभा-समिति में बैठकर अपनी दावेदारी ही तो मजबूत करती रही फिर जाहिर-सी बात है राजनीति में पति की सेवा का मेवा रूपल जैसियों को नहीं पत्नियों को ही मिलता है।”

औरों के लिए हँसी-मजाक में उड़ाने वाली बात हो पर नीता के लिए रूपल की तमाम खामियों, कमियों के बावजूद ये बहुत बड़ा झटका था। उनका सब कुछ खत्म हो चुका था। नाम, काम और सपना। ‘अब क्या होगा रूपल दी का?’

--ये सवाल नीता को परेशान करता रहा कई दिन। अनुराग की बात सच हुई। टिकिट विधायक की पत्नी को ही मिला। आस-पड़ोस में सब रूपल का मजाक उड़ा रहे थे पर नीता ऐसे तड़प रही थी जैसे उसका कुछ छिन गया हो। सोच ही रही थी कि रूपल दी से मिलने का बहाना कैसे ढूंढूं कि खुद उनका फोन आ गया-“नीता जी कैसे हो? आपको तो सब पता ही है कैसा धेाखा हुआ है मेरे साथ। बुरे वक्त में हेल्प चाहिए बस। सबको फोन कर रही हूँ, मदद करो आप जैसे पुराने क्लाइंट अगर फिर से पार्लर आने लगें और थोड़े नए क्लाइंट बना दें तो देख लेना एक दिन पार्लर भी चला लूँगी और ‘शक्ति’ को खड़ा करके अपने बलबूते टिकिट भी निकाल लाऊँगी। सब समझ लिया मैंने,ऐसे नहीं मिटने दूँगी अपनी इमेज को...