इरादा / हेमन्त शेष

Gadya Kosh से
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पेड़ पर हवा दिखती नहीं, पर है – जैसे खुद पेड़, जो है भी, और दिखता भी है. संदेह का भाव मन में लाए बगैर बिना दिखे भी जो चीज़ चलती या रुकी रहती है वह है हवा, और जिसके बारे में अगले ही वाक्य में मैं कह रहा हूँ, वह यथार्थ है- वृक्ष और हवा क्रमशः दिखते हुए और न दिखते हुए यथार्थ हैं.

क्या हवा आकाश में रहा करती है या पेड़ में? क्या चीज़ें, दो चीज़ें, ये दो, आपस में गुंथी हुई हैं- भाषा में? भाषा, जिसे इसलिए और अदल-बदल कर बरतना चाहता हूँ कि वह बचे भी, बढ़े भी.

भाषा के पेड़ को नयी हवा चाहिए, नया पानी.

यह हिन्दी साहित्य की मूर्ति को चमकाने टाइप काम है.

और अगर आप लोग समझते हैं पानी कोई पुल है जिसके सहारे मैं नई हवा की खोज में चलूँगा और किसी दिन दिखने वाले पेड़ जैसी भाषा उगाऊँगा, जो असल में हिन्दी साहित्य की मूर्ति को चमकाने टाइप काम होगा, तो आप बिल्कुल ठीक सोच रहे हैं.