इलेक्शन का इल्म / प्रमोद यादव

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‘देखोजी... मैं वोट डाल के आ गई... ’ पत्नी ने अपनी उँगली पर लगे स्याही के निशान को दिखाते ऐसे ख़ुशी से चहकी जैसे “कौन बनेगा करोड़पति” में पच्चीस लाख जीत कर आई हो...

‘वेरी गुड... तुमने मेरा इन्तजार भी नहीं किया... कहा था न... वोटिंग ख़त्म होने से पहले दुकान से आ जाऊँगा... फिर साथ-साथ चलेंगे... ’ मैंने रूखेपन से कहा.

‘अजी... अब रहने भी दो... .” हम साथ-साथ हैं “ का जमाना गया... .पिछली बार भी यही कह गए थे... आये ही नहीं... मेरा कीमती वोट “सुन्दर सपना बीत गया” की तरह बीत गया (ख़राब हो गया)... सारे ज़माने को “जाग मतदाता जाग” कहने वाला खुद सो गया दास्ताँ कहते-कहते... ’ उसने जवाब के साथ उलाहना भी दिया... .एक के साथ एक फ्री की तरह.

‘अरे... तो क्या करता... .ग्राहकी छोड़ देता? भारी भीड़ थी उस दिन ... अपनी कमाई देखता कि इन नेताओं की? और फिर अपनी कमाई ही अपने काम आएगा... ... फांके पड़ेंगे तो कोई नेता हमें चुगाने नहीं आएगा... सच पूछो तो वोट देकर हम ही इन नेताओं को कमाने (लूटने) का न्यौता देते हैं... एक चुनाव वोट नहीं दिया तो क्या फर्क पड़ गया? ‘

‘अरे... गुस्सा क्यों हो रहे आप... मैं तो ये कह रही थी कि एक चुनाव – मतलब पूरे पांच साल... .होली, दिवाली, दशहरा तो साल-दर-साल आता-जाता रहता है... ये पूरे पांच साल में आता है... इसलिए कुछ तो इसका सम्मान होना चाहिए... ’ पत्नी समझाने के अंदाज में बोली.

‘कुम्भ तो पूरे बारह साल में आता है... तो उसे कितना सम्मान दी हो अब तक? कभी एक बार भी गई हो? अब ये मत कहना कि मैंने कभी कहा नहीं... पिछली दफा ही कहा था... और तुमने जवाब दिया था- कहाँ भीड़-भाड़ में जायेंगे जी... चलना ही है तो चलो सिंगापूर हो आयें... मौसी की लड़की की जेठानी की बड़ी बहन रहती है वहां... .मिलकर खुश हो जायेगी... कुम्भ तो घर बैठे टी.वी. में देख लेंगे... ’

पत्नी एकाएक खामोश हो गई. मुझे लगा कि मैंने नहले पर दहला दिया पर क्षण भर की चुप्पी के बाद बहलाने के अंदाज में बोली- ‘कहा तो था जी ... पर तब मुझे कुम्भ की महत्ता का कोई इल्म न था... इसलिए... ’

मैंने तुरंत बात काटी - ‘तो इलेक्शन का भला तुम्हें क्या इल्म है? क्या जानती हो राजनीति के विषय में? जरा मैं भी तो सुनूँ... ’

‘अरे... छोडो भी न... कहाँ कुम्भ से इलेक्शन में आ गए... मैं जब इलेक्शन की बात करती हूँ ,आप कुम्भ चले जाते हो... कुम्भ के विषय में कहती हूँ तो इलेक्शन में घुसे जाते हो... ’

‘देखो प्रियंका... बात को गोल-गोल मत घुमाओ... घोर-घोर रानी छोडो और बताओ... इलेक्शन का तुम्हें क्या ज्ञान है? कितना इल्म है? ‘मैं मुद्दे पर आया.

‘देखोजी... बताउंगी तो आपको बुरा ही लगेगा... ’ उसने हिचकिचाते कहा.

‘अरे बुरा क्यों लगेगा... मुझे तो ख़ुशी होगी कि मेरी पत्नी गाँव वालों की तरह गोबर नहीं बल्कि विदुषी महिला है... पढ़ी-लिखी और जागरूक है... चुनाव, राजनीति सबमें उसका दखल है... चलो... बताओ... क्या जानती हो चुनाव के बारे में? ‘मैंने उसे प्रेम से उकसाया.

‘देखो... मुंह खुलवा रहे हो... पहले ही बता देती हूँ... बुरा लगे तो होली समझ माफ़ कर देना... तो बोलूं इलेक्शन पर? ‘

‘इरशाद... ’ मैंने कहा.

‘अपने ज्ञान की बातें बाद में करुँगी... पहले आपको आपके ज्ञान का दर्पण दिखा दूँ... बताइये आज तक आपने कितने मतदान किये? ‘

‘यही कोई... पांच-सात दफा... ... ’

‘और मेरे साथ? ‘

‘दो-तीन दफा... ’ मैंने कहा- ‘पर इससे क्या? ये क्यों पूछ रही हो? ‘

‘अब आप सच-सच बताना... आपने जब-जब जिसे दिया... क्या वो जीता? ‘सी.आई.डी. के ए.सी.पी. प्रद्युम्न की तरह हथेली हिलाते उसने पूछा.

मैंने सिर खुजाते कहा- ‘अफ़सोस यार... हर बार मैंने जिसे वोट किया... वो हार गया... ... पर इससे क्या फर्क पड़ा? जो जीता वो भी तो भ्रष्टाचारी और निकम्मा ही निकला... जो-जो जीते सब के सब गधे के सिंग की तरह अगले चुनाव तक गायब रहे... मानता हूँ कि मेरा आकलन हर बार फेल रहा... पर इससे हमें कोई नुक्सान तो नहीं हुआ ... ’ मैंने अपराध भाव जताते जवाब दिया.

‘नुक्सान नहीं हुआ ठीक है... पर मत देकर फायदा भी क्या हुआ? आपने तो खोटा सिक्का चलाया ही... मेरा मतलब गलत प्रत्याशी को वोट दिया... .मुझे भी विवश किया... वो तो भारतीय नारी हूँ इसलिए पतिव्रता धर्म का पालन करते आपके पाप का भागी बनी... वरना... ’

‘वरना क्या?’

‘वरना मैं बताती कि किसे देने में फायदा है और किसे देने में नुकसान ... सारी दुनिया चुनाव में पैसा बनाने सोचती है... और आप हैं कि देश बनाने की सोचते हैं... देश बनाना है तो पहले खुद को बनाओ- विधायक... सांसद... मंत्री... दावा है कि ये बनते ही आप देश-वेश सब भूल जायेंगे... .बस कुछ याद रहेगा तो केवल... पैसा... पैसा और पैसा... घोटाला... घोटाला... और घोटाला... ’

मैंने ताली बजाई और कहा – ‘बहुत अच्छे यार... तुम्हें तो सचमुच अच्छा ज्ञान है राजनीति का... इलेक्शन का... अगले चुनाव के लिए कोशिश करूँ क्या?’

‘मैं खड़ी हुई तो सोच लो... जिंदगी भर के लिए बैठ जाओगे... मंत्री बनके घर में थोड़ी बैठी रहूंगी... दाढ़ीवाले की तरह मैं भी विमान और चापर में उडूगी हवा में... ’

‘अब ज्यादा मत उडो यार... .चलो मान लिया - इलेक्शन का तुम्हे अच्छा इल्म है... अब पते की बात बताओ कि किसे वोट दिया... किस पार्टी पर विश्वास जताया? ‘मैंने डिबेट ख़त्म करने की मंशा से पूछा.

‘त्तीरछाप में तीर मारा है... ’ उसने हौले से कहा.

‘क्या? “ त्तीरछाप “? तुम्हारा दिमाग तो ख़राब नहीं... ये तो कोई निर्दलीय होगा... कौन खड़ा था इसमें? मैंने आश्चर्य से पूछा.

‘अरे... दिमाग सही है इसलिए तीर पर मारा... ’

‘पर दिन रात तो दाढ़ीवाले के गुण गाती थी... कहती थी... इनकी लहर है... ’

‘हाँ कहती थी... पर उसने अपनी सफ़ेद दाढ़ी की तरह सबको पका दिया/... टी.वी. आन करने में डर लगने लगा था... बच्चे तो टी.वी. से वैराग्य ही ले लिए... इसलिए समय रहते मैंने सही फैसला लिया और तीर पर मत दे दिया... ’

‘तीर पर ही क्यों? फैन था... कुर्सी थी... दो पत्ती थी... हल था... सूरज था... .नगाड़ा था... टोपी थी... टार्च था... सिलाई की मशीन थी... ’ मैंने रहस्य जानना चाहा.

‘वो क्या है कि इन पर जो खड़े थे, उनके पास एल.जी. ए. सी. की डीलरशिप नहीं थी... ’

‘क्या मतलब? ‘मैं चौंका.

‘हाँ ठीक कह रही हूँ... कब से कह रही हूँ कि गर्मी काफी बढ़ गई है... एक ए. सी. लगवा दो... पर आप हर साल की तरह ये साल भी निकाल देते... इसलिए... ’

‘अच्छा... समझ गया... तो तुमने वोट देकर ए. सी. ले ली... ’ मैं खुश हुआ.

‘ले ली नहीं... लगवा लिया... जाकर देखो... बेडरूम में कितनी ठंडक है... ’

‘मान गए यार... ... चलो. ए. सी. के पैसे बचे... ’ मैं प्रफुल्लित हुआ.

‘ बचे नहीं श्रीमान... ... पैसे तो देने ही पड़ेंगे मगर बेहद आसान किश्तों में... . वे जीत गए तो एकदम मुफ्त... कुछ नहीं देना होगा... पर ऐसा मुमकिन नहीं लगता... आसान किश्त ये है कि अभी गर्मी के चार महीने कोई किश्त नहीं भरना... केवल बाक़ी के महीनों ही देना होगा... वो भी अगले साल से... .तो बताओ... राजनीति तुम्हें आती है कि मुझे?... बताओ... इलेक्शन का इल्म मुझे ज्यादा है कि तुम्हें?

मैंने हाथ जोड़ कहा- ‘तुम्हें भागवान... तुम्हें... ... मैं तो उल्लू का पट्ठा हूँ राजनीति में भी... और घर में भी... ’