इश्तिहारी शहीद / प्रेमचंद

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मेरी सादगी, मेरी सच्चाई, मेरा भोलापन मेरे लिए जी का जंजाल हो गया। आज चार सप्ताह हो गए, यह मुसीबत मैंने स्वयं अपने ऊपर ओढ़ ली और अब इससे पीछा छूटने का कोई उपाय दिखाई नहीं देता।

जब से मैं पेंशन लेकर रसूलाबाद आया, किताबें पढ़ने और ईश्वर का नाम लेने में समय बीतता था। शाम को कस्बे के रईस इकट्ठा होते और हँसी-मजाक में दो घड़ी बिताते। मुंशी रामखिलावन पोस्टमास्टर से अच्छी पहचान हो गई थी। यही साहब मेरी मुसीबत की जड़ हैं। जब मैं पहले-पहल यहाँ आया था तो मुंशीजी के सिर पर थोड़ा सा गंजापन था। आपके किसी दोस्त ने प्रेरित करके लाहौर के प्रसिद्ध दवाखाने इंडियन मैडीकल हाल की बाल उगाने वाली दवा की शीशी मँगवा दी। यद्यपि आप पूर्णतया सहमत नहीं थे और संकोच से यही कहते थे कि अब इस अवस्था में गंजेपन की क्या चिन्ता करूँ, तथापि एक सप्ताह पश्चात् ही साढ़े तीन रुपये की वी.पी.पी. आ टपकी और मुंशीजी ने अपने दोस्त की बात रखने को छुटा ली। कुछ महीनों के इस्तेमाल के बाद प्रभु कृपा से आपके सिर पर बाल उग आए। अब पोस्टमास्टर साहब इस दवा को बड़ी इज्जत की दृष्टि से देखने लगे और लोक-कल्याण के लिए हर छोटे-बड़े से इसकी चर्चा करने लगे। कोई आदमी एक पोस्ट कार्ड लेने गया तो आपने दवा की प्रशंसा का पोथा ही खोल लिया। अब वह बेचारा दुहाई दे रहा है कि आज तक मेरे खानदान में कोई गंजा नहीं हुआ और मुझे इस दवा की कभी आवश्यकता नहीं पड़ेगी, लेकिन आप आग्रह कर रहे हैं कि भाई सुन तो लो। न पैसे लौटाते हैं न पोस्ट कार्ड ही देते हैं। खैर, ये तो आए दिन की बातें हैं।

अब मेरा किस्सा सुनिए। एक दिन आप मुझसे कहने लगे कि न्याय की माँग है कि इस दवाखाने को एक सार्टिफिकेट दिया जाय। क्योंकि मेरा अनुभव व्यापक था और मैंने लम्बे समय तक तहसीलदार के पद पर अत्यन्त कुशलता के साथ कार्य किया था इसलिए वे इस सार्टिफिकेट को प्रमाणित कराने के लिए मेरे पास आए। मैंने भी इसे एक महत्त्वहीन बात समझकर पूरा घटना-क्रम लिखकर उसके अन्त में अपने हस्ताक्षर कर दिए। बस, मानो उसी दिन से एक नई बला मेरे सिर पर आन गिरी। अफसोस है, कैसी मनहूस घड़ी थी कि मैं आज तक इसके लिए पछता रहा हूँ।

सार्टिफिकेट पहुँचते ही दवाखाने ने उसे लाहौर के सभी दो-दो पैसे वाले अखबारों में मोटे-मोटे अक्षरों में छपवा दिया और जुल्म यह किया कि उसके साथ-साथ मेरा पता भी दे दिया। बस साहब, मैं भी उसी दिन से इश्तिहारबाजी को मानने लगा। कारखाने के मैनेजर साहब का धन्यवाद का एक लम्बा पत्र आया जिसमें उन्होंने मुझसे यह पूछा था कि मैं उनकी अन्य अनुभूत दवाइयों के सार्टिफिकेट देने के लिए क्या लूँगा। उनकी तैयार की हुई एक हाजमे की गोली थी। आपने मुझे एक धनराशि भेंट करने का आश्वासन दिया, यदि मैं यह लिखकर दे दूँ कि मेरे दोस्त का बिल्कुल सड़ा हुआ पेट इससे ठीक हो गया। यदि मैं यह लिख दूँ कि उनका मोम का तेल गठिया की रामबाण औषधि है तो वे मेरे साथ हर प्रकार का व्यवहार करने को तत्पर थे। जिस प्रकार मैनेजर साहब ने लिखा था, उससे ऐसा लगता था कि यदि मैं यह लिख दूँ कि उनका मंजन प्रयोग करने से एक बुढ़िया के अठारह वर्ष से गिरे हुए दाँत पुनः निकल आए हैं तो वे मुझे अपने कारखाने का साझीदार ही बना लेंगे। वे इसे मेरा कर्त्तव्य समझते हैं कि मैं उनके केशरंजन की एक दर्जन शीशियाँ अपने आत्मीय मित्रों को प्रयोग कराकर उन्हें इसके लाभ की सूचना दूँ। लेकिन मुझे इन सब सेवाओं से क्षमा माँगनी पड़ी।

केवल यही नहीं, दूसरे दवा-विक्रेताओं ने भी मुझ पर कृपा की। मुहम्मद अफजल एण्ड संस ने बाल उगाने के पाउडर की छह पुड़िया मेरे पास इसलिए भेजीं कि यदि मेरे कुछ और दोस्त गंजे हों तो वे इस दवा का प्रयोग करके देखें, दो सप्ताह में ही उनके बाल उग आएँगे। स्वदेशी कैमीकल वर्क्स ने रजिस्टर्ड ट्रेड मार्क वाली गोलियाँ पेड पार्सल के द्वारा भेजीं और बहुत अनुरोध किया कि मैं उनका प्रयोग करूँ। भगवान् न करे, यदि पोस्टमास्टर साहब के बाल फिर कभी गिर जायँ तो इसके प्रयोग से बिना बरसात की प्रतीक्षा किए बाल पुनः उग आएँगे और फिर कभी नहीं गिरेंगे। इस दावे के प्रमाणस्वरूप सौ रुपये का वांछित पुरस्कार भी लिफाफे में साथ ही भेजा गया था और इसके अतिरिक्त और बहुत से छपे हुए सार्टिफिकेट भी साथ में थे। एक रेलवे पार्सल में बहुत से इश्तिहार और दीवारों पर चिपकाए जाने वाले छह सौ पोस्टर अलग से आए। इन सब बातों से पता चला कि श्रीमानजी ने मुझे अपना आनरेरी एजेन्ट समझ लिया है। जरा यह उदारता तो देखिए - आपने मेरे माध्यम से जाने वाले आर्डर पर उचित कमीशन का भी वादा कर लिया। पचास वर्ष से बालों के सम्बन्ध में हर प्रकार का कार्य करने वाली बाल जिया कम्पनी ने भी अपने तेल की एक दर्जन नमूने की शीशियाँ भेजीं जिनसे मेरे दोस्तों के बाल थोड़े समय में ही निकल आएँ। वैदिक प्रचारक कम्पनी, जालन्धर के एजेन्ट स्वयं कष्ट उठाकर मुझसे मिलने आए और अपनी दवा की छह डिब्बियाँ दे गए कि मेरे दोस्तों तथा परिचितों में जो गंजे शेष रह गए हों, उन पर इस दवा का प्रयोग कर देखा जाय। मतलब यह कि मैं इन कृपाओं से इतना परेशान हुआ कि मैंने लाहौर के दैनिक अखबारों में छपवा दिया कि अब मेरे कोई दोस्त गंजे शेष नहीं रहे और इसलिए अब कोई साहब अपनी मूल्यवान दवाइयाँ मेरे पास परीक्षा के लिए भेजने का कष्ट न करें। लेकिन इस पर भी मुझे छुटकारा न मिला। वास्तव में जितने प्रकार के पत्र मेरे पास आए यदि मैं उन सबकी नकल करूँ तो एक भारी भरकम किताब तैयार हो जाय।

मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जिस दिन से पोस्टमास्टर साहब के गंजेपन के अनुभव अखबारों में प्रकाशित हुए, तब से इस कस्बे की डाक चौगुनी हो गई है। कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक का कोई भी गंजा न बचा होगा जिसने पोस्टमास्टर साहब के गंजेपन और स्वदेशी मैडीकल हाल की दवा के सम्बन्ध में मुझे कम से कम दो पत्र न लिखे हों। उन हजारों पत्रों से मुझे गंजों का ऐसा अनुभव हुआ है कि यदि किसी समय गंजों पर कमीशन बैठा तो मुझे विश्वास है कि वह मेरी ही अध्यक्षता में बनेगा।

एक सज्जन ने बहुत प्रेम-प्रदर्शन के पश्चात् जिज्ञासा की कि क्या पोस्टमास्टर साहब जन्मजात गंजे थे। दूसरे सज्जन जानना चाहते थे कि क्या उनका गंजापन वंश परम्परा से चला आता था, और यदि ऐसा था तो वह उन्हें दादा या नाना, किसकी ओर से उत्तराधिकार में मिला। और यह कि उनके खानदान की महिलाओं में तो गंजापन नहीं होता।

एक अंग्रेज डाक्टर कलकत्ता में बालों के सम्बन्ध में प्रयोग कर रहे थे। उन्होंने अंग्रेजी में एक चिट्ठी लिख भेजी जिसमें सिर का एक नक्शा भी बना हुआ था। पोस्टमास्टर साहब के जो बाल गिर गए थे, उस नक्शे में उन्हें पूरे करने का निवेदन था - गंजेपन के स्थान के किनारे पर कितने बाल छोटे होकर रह गए थे? प्रतिदिन कितने बाल गिरा करते थे? और कितने बाल बीच से टूटे थे? ये डाक्टर साहब बालों के सम्बन्ध में एक पुस्तिका लिख रहे थे। उसके लिए उन्हें इस प्रकार की जानकारियों की अत्यधिक आवश्यकता थी। यदि मैं उनके उत्तर लिखने का प्रयास करता तो अवश्यम्भावी था कि मेरे परिजनों को उपचार हेतु मुझे आगरा के लिए चलता करना पड़ता।

जिला झांसी से एक सज्जन ने पूछा कि क्या ये वही मुंशी रामखिलावन हैं जो उनके कस्बे में सन् 18९९ में पार्सल बाबू थे, उनके भी गंजापन था। और यदि ये वही सज्जन हों तो अभी तक उनके जिम्मे बकाया पन्द्रह दिन का मकान का किराया, जो कि सवा रुपये के हिसाब से दस आने होता है, वसूल करके डाक द्वारा या दस्ती भेज दूँ।

बनारस से एक सज्जन ने पूछा कि इन मुंशीजी के नाखून भी थे या नहीं। यदि नहीं थे तो बालों के साथ-साथ नाखून भी निकले या नहीं। एक पंडितजी ने कृपापूर्वक लिखा कि जब ईश्वर ने उन्हें बाल नहीं दिये तो उन्हें ईश्वरेच्छा के विरुद्ध बाल उगाने की क्या आवश्यकता थी। आप समझिए कि इन बातों से ईश्वर बहुत रुष्ट होते हैं। दूसरे यह कि गंजा भागवान और पुत्रवान होता है। फिर मेरे दोस्त ने ऐसी गलती क्यों की! तीसरे यह कि अब तो जो हुआ सो हुआ, अब वे इसके प्रायश्चित्त में प्रत्येक एकादशी को एक निर्धन ब्राह्मण को भोजन करा दिया करें और कभी ऊँट-गाड़ी की सवारी न करें।

हजरत ‘हकीर’ लखनवी ने मेरे दोस्त के बाल उगने की प्रसन्नता में एक कसीदा लिखकर मेरे पास भेजा। हजरत नूर ने गंजेपन के हकीम से पूछा कि क्या जले हुए सिर पर भी पुनः बाल निकल सकते हैं। पटना के एक सज्जन ने तो हद ही कर दी। आपने अपने विवाह का छपा हुआ निमन्त्रण-पत्र और जन्म-पत्री ही भेज दी। अजीमाबाद से एक हकीम साहब ने लिखा कि यदि मैं दो हजार रुपये उनके पास अमानत के रूप में जमा कर दूँ तो वे अपनी अनुभूत दवाइयों के इश्तिहार दें और नफे में भागीदार बनाएँ। जिन्होंने अपने घोड़े के बाल बहुत अधिक कटवा दिए थे, ऐसे एक सज्जन ने मुझसे उपचार पूछा कि कब तक बाल पुनः निकल सकते हैं और यह कि पोस्टमास्टर साहब की दवा से लाभ होगा या नहीं। डिप्टी झमक लाल साहब ने पूछा कि उनकी कुतिया के बाल गर्मी में गिर जाते हैं और जानवरों पर इस दवा का क्या प्रभाव होता है।

एक सज्जन का बच्चा गलती से इस दवा को पी गया और इसलिए उन्होंने मुझसे यह पूछा कि बच्चे के पेट के अन्दर तो बाल नहीं निकलेंगे और उसका दम तो नहीं घुटने लगेगा। उन्होंने मुझसे सलाह भी माँगी कि यदि उसे बालसफा की एक शीशी पिला दें तो कैसा रहे ताकि बाल निकलने के साथ-साथ ही साफ भी होते चलें।

कम मूछों वाले जवानों के एक हजार तीन सौ बयालीस पत्र आए जिन्होंने यह पूछा कि क्या इस दवा से उनकी मूछें बढ़ जायँगी। एक सज्जन को मूछों की कमी के कारण पुलिस का एक पद नहीं मिलता था। उन्होंने बहुत अनुनय-विनय की कि जैसे भी सम्भव हो, उनकी मूछों के लिए किसी भी मूल्य की कोई दवा देखकर भेज दी जाय। कई हजार नौजवानों ने पूछा कि क्या इस दवा के प्रयोग से उनकी पत्नियों के बाल कमर तक पहुँच सकते हैं?

दूर-दूर के स्थानों से हजारों आदमी मुझसे मिलने और मेरी राय माँगने आए। सच पूछिए तो उन सभी ने मेरी बोलती बन्द कर दी। खाना-पीना, उठना-बैठना, मेल-जोल, स्नान-ध्यान सब हराम हो गया। मतलब यह है कि जिस समय देखिए कोई न कोई सज्जन आए डटे बैठे हैं। जहाँ कहीं बाहर जाता वहाँ भी यह बला मेरे साथ-साथ ही रहती। एक बार की बात है कि मैं एक आत्मीय के विवाह में एक दूसरे शहर में गया। वहाँ भी सारे शहर के गंजे मेरे दर्शनों को आए।

एक सज्जन ने तार देकर मुझसे पूछा कि क्या मुंशी रामखिलावन साहब दवा का प्रयोग करने से पहले सुबह-शाम, दोनों समय अपना सिर पानी से धोया करते थे। और यह कि वे दवा की मालिश किसी नौकर से कराते थे या स्वयं करते थे। एक दिन मैं हजामत बनवा रहा था। मेरी नाक पकड़े हुए नाई उस्तरा साफ कर रहा था कि एक सज्जन दौड़ते हुए आए। पता चला कि आप स्नान कर रहे थे कि आपके सिर के दो बाल हाथ में आ गए। बस फिर क्या था, उस समय से ही खाना-पीना सब हराम है और इस होने वाले गंजेपन के भय से दुखी हैं। और, मुझसे उपचार पूछने के लिए लगभग दो सौ मील से आ उपस्थित हुए और मुझे हकीम का विरुद दे दिया।

एक बार मुझे सूचना मिली कि किसी समय मुझ पर बहुत कृपालु रहे जौनपुर के कमिश्नर मिस्टर एडम्स साहब बहादुर शाम की गाड़ी से मेरे कस्बे के स्टेशन से होते हुए जा रहे हैं। मुझे उनकी कृपाएँ याद थीं और भैया के सम्बन्ध में भी स्मरण कराना था, इसलिए मैं उनसे भेंट करने स्टेशन को गया। रेल पर लोगों ने मेरी खुशबू सूँघ ली। फिर क्या था, सैकड़ों यात्रियों ने मुझे घेर लिया। कोई सज्जन कुछ पूछते हैं, कोई सज्जन कुछ और मुझे साहब से भेंट नहीं करने देते। इस बखेड़े से मेरा पूरा उद्देश्य, जिसके लिए मैं इतनी दूर से आया था, व्यर्थ हो गया और मैं दाँत पीसकर रह गया। हाय! मैंने कैसे बुरे समय में सार्टिफिकेट को प्रमाणित किया था कि यह बला किसी क्षण भी पीछा नहीं छोड़ती।

किसी समय मैं घर से बाहर निकला। कोई सज्जन पूछ रहे हैं कि हजरत, बालों के लिए पगड़ी बाँधना लाभदायक है या टोपी पहनना। और टोपियों में कौन सी टोपी को वरीयता दी जाय। यदि कोई व्यक्ति तुर्की टोपी पहनने का अभ्यस्त हो और फिर एकदम बिना सूचना के फैल्ट कैप पहनने लगे तो उसके बाल गिरने लगे। यदि मोटे कपड़े की टोपी पहनने वाला महीन कपड़े की टोपी पहनने लगे, तो इसमें किसी प्रकार के भय की तो बात नहीं है। एक सज्जन रात को दो बजे की गाड़ी से जाने वाले थे। स्टेशन जाते समय मेरे मकान से गुजरे। मुझे जगाया, मैं बाहर आया। दुआ-सलाम के बाद आपने पूछा कि रेल की यात्रा में रात के समय टोपी पहने रहें या उतारकर रख दें। इसके पश्चात् कहा कि मैं उनकी टोपी को तोलकर देख लूँ कि वह उनके दिमाग के लिए भारी तो नहीं है क्योंकि आपको स्मरण होता है कि कभी किसी अखबार में आपने टोपी के वजन और स्मरण-शक्ति के सम्बन्ध में कुछ पढ़ा या सुना था। आपने यह भी कहा कि मेरी टोपी में ऊपर की ओर छेद नहीं है और अब नये प्रकार की टोपियाँ आई हैं, जिनमें छेद होते हैं। इसलिए मैं भी अपनी टोपी में छेद कर लूँ या लखनऊ के प्रसिद्ध टोपी वाले मियाँ नजफुद्दीन से छेद करा लूँ। मैं आश्चर्यचकित था कि क्या उत्तर दूँ। अन्ततः राम-राम करके घड़ी देखकर आपने कहा कि अब गाड़ी का समय निकट है, मैं फिर कभी कष्ट दूँगा। मैंने इत्मीनान की साँस ली कि जान बची लाखों पाए।

किस्सा यह है कि अब मेरी जान पर आ बनी है। अफसोस, मेरी जान का बीमा नहीं हुआ है अन्यथा मैं आत्महत्या कर लेता। अब तो जान देने में पेंशन की चिन्ता होती है। मैंने साढ़े चौंतीस साल बहुत सख्त अधिकारियों की देख-रेख में काम किया है, बहुत से मोर्चे जीत चुका हूँ लेकिन यह बला सिर से किसी प्रकार भी टाले नहीं टलती। आह, मेरी भलमनसाहत मेरे गले पड़ी और अब मेरी जान संकट में है। यह मुसीबत अब बिल्कुल असहनीय है। मैंने नौकरों को बार-बार समझाकर कहा और बर्खास्त कर देने की भी धमकी दी कि प्रत्येक व्यक्ति से पहले काम पूछ ले तभी मुझे उसकी सूचना दे। और यदि उसके गंजापन हो या बालों की चर्चा करे तो उसे किसी मूल्य पर भी मकान में न घुसने दे, चाहे वह कितना ही आत्मीय क्यों न हो।

लेकिन उस दिन जब मैं बैठक में आया तो एक सज्जन एक घंटे से डटे हुए बैठे मिले। आपने बहुत सम्मान के साथ प्रणाम किया। मेरा माथा ठनका लेकिन मुझे चाहे-अनचाहे बैठना पड़ा। अब श्रीमान् उठे और सब दरवाजे और खिड़कियाँ बन्द करके धीरे से बोले कि कोई सुनता तो न होगा। मैं घबराया कि यह व्यक्ति अवश्य ही मेरी हत्या करने आया है। मैं भी अपनी जान से ऊब चला था फिर भी मैंने यह कहना आवश्यक समझा कि भाई ठहर जाओ, मैं अपने वसीयतनामे पर हस्ताक्षर कर लूँ। इसके उत्तर में उसने अपनी टोपी मेरे पैरों में रख दी और मुझसे वादा करा लिया कि मैं उसके किस्से की चर्चा किसी से न करूँ। इस शपथ-सौगन्ध के पश्चात् उसने अपने सिर से नकली बाल उतार डाले और तब मुझे पता चला कि उसके सिर पर एक भी बाल नहीं था। वह कहने लगा कि इन नकली बालों से उसे बहुत कष्ट होता है लेकिन नौकरी के कारण यह ढोंग बनाया है और उपचार के लिए आपकी सलाह लेने आया हूँ। उसने अपनी जेब से एक आतशी शीशा निकालकर मुझे दिया, दो रुपये भी भेंट किए और कहा कि इस दूरबीन से मेरा सिर देखकर बताइए कि कहीं यह असाध्य तो नहीं है। मैंने उसको मुंशी रामखिलावन के पास भेजा और इस प्रकार इस अटल बला को अपने सिर से टाला।

अब श्रीमान्, मुझको अफसोस के अतिरिक्त अपने भाग्य पर रोना आता है। ईश्वर की सौगन्ध, अब कभी मुझसे ऐसी गलती नहीं होगी। मैं अपनी वसीयत में शर्त लगा जाऊँगा कि मेरे कुनबे में कभी कोई व्यक्ति किसी भी दवा को प्रमाणित न करे अन्यथा ब्रह्मज्ञानी मित्र इस ईश्वर के बंदे को भी पागल बना देंगे। अब चाहे स्वयं हजरत ईसा मसीह ही क्यों न कहें, लेकिन इस पापी से पुनः इसे प्रमाणित करने की गलती नहीं होगी। जिस मुसीबत में मैं स्वयं अपनी मूर्खता से आ फँसा हूँ, उसे मैं मात्र लोक-कल्याण की दृष्टि से सार्वजनिक कर रहा हूँ ताकि देश के अन्य निर्दोष व्यक्ति इस बला से सुरक्षित रहें।

पोस्टमास्टर साहब और दवा विक्रेताओं को मैं इसके अतिरिक्त और क्या कहूँ कि भगवान् भला करें।

शेष कृपा!

[साहित्येतिहास साक्षी है कि जब-जब किसी रचनाकार पर लेखकीय प्रतिबन्ध आरोपित हुए हैं तब-तब छद्म लेखकीय नामों के अन्तर्गत रचनाएँ प्रकाशित कराने में संकोच नहीं किया गया। प्रेमचंद का एक छद्म नाम ऐसा भी है जिसके अन्तर्गत उनकी प्रथम रचना उस समय प्रकाशित हुई जब प्रेमचंद के नाम की धूम मची हुई थी। यह छद्म नाम है ‘बम्बूक’ और इस नाम के अन्तर्गत उनकी प्रथम कहानी ‘जमाना’ के अप्रैल-मई 1915 के संयुक्तांक में ‘इश्तिहारी शहीद’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी।]