इस चक्रव्यूह में न जाने कितने दरवाजे हैं? / संतोष श्रीवास्तव

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भूमंडलीकरण के बाज़ार में औरत की स्थिति उस चमकीले चेहरे जैसी है जो मेकअप की परत उतरते ही बुझा-बुझा नजर आता है। भूमंडलीकरण के साथ ही आए पश्चिमी प्रभाव ने शहरी महिलाओं के जीवन में रोजगार के नए अवसर अवश्य प्रदान किए हैं। लेकिन उसके साथ ही बढ़ा है सेक्स, हिंसा और उपभोक्तावादी मूल्यों का प्रतिशत। उपभोक्तावादी संस्कृति ने औरत को वस्तु बनाकर रख दिया है। अपनी कंपनी के प्रसाधन प्रचार के लिए औद्योगिक क्षेत्र औरत का बेजा इस्तेमाल कर रहा है। इनके विज्ञापनों में निहित संदेशों ने औरत की देह को एक लुभावने क्रीड़ास्थल में बदल दिया है। सारे सम्बंध मात्र देह से निकलकर देह पर ही समाप्त हो जाते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, प्रसाधन बनाने वाली कंपनियाँ, फ़िल्में, बदलता सामाजिक परिवेश इस मानसिकता को फैलाने में अपनी अहम भूमिका निभा रहा है। फ़िल्मों में प्रेम के शाश्वत सुंदर रूप को सेक्स और बलात्कार के जरिए दर्शकों को परोसकर उत्तेजना जगाना ही फ़िल्मों का मकसद रह गया है। धनिक वर्ग ग्लोबल संस्कृति का हामी है... यूज एण्ड थ्रो... इस्तेमाल करो और फेंक दो का झंडाबरदार... और ऐसी मानसिकता कि सबसे अधिक शिकार है औरत। उसकी ढकी देह लोगों को नहीं भाती। लाज तो औरत की आँख में होनी चाहिए इसलिए देह को वस्त्र मुक्त कर विदेशी बाजारों में परोसो... उससे देश समृद्ध होगा, विदेशी पूंजी आएगी। विश्व बाज़ार में भारत की साख बढ़ेगी। इस अभियान का सबसे अधिक कमाऊ स्रोत है विज्ञापन।

विज्ञापनों में स्त्री देह को जिस तरह प्रदर्शित किया जाता है, वह सर्वविदित है। सड़कों, चौराहों पर टंगे पोस्टरों में, ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों, स्टेशनों आदि पर लगे होर्डिंग्स में, टीवी चैनलों में हर पांच मिनट में परोसे जाने वाले विज्ञापनों में स्त्री देह नुमाइस बनकर रह गई है। विज्ञापन में दिखाई जा रही वस्तु पुरुष के लिए हो या स्त्री के... देह स्त्री की ही इस्तेमाल की जा रही है। मॉडल बनने के लिए उसे शरीर को चुस्त दुरुस्त रखना होता है, चेहरे को लुभावना आकर्षक। आज स्किन क्लीनिक जहाँ औरत अपने चेहरे की झुर्रियों, मस्सों, धूप से झुलसी त्वचा, अवांछित बाल आदि से छुटकारा पाती है वहीं सौंदर्य प्रसाधनों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करती है। खूबसूरत दिखने की शर्त केवल मॉडलिंग में ही नहीं है। फ़िल्मों में, एयर होस्टेस, रिसेप्शनिस्ट, कॉल सेंटर, बड़ी-बड़ी कंपनियों की सेल्स गर्ल आदि के जॉब में भी स्त्री का सुंदर होना अन्य शैक्षणिक योग्यताओं के संग एक अनिवार्य शर्त है। खुद को सुंदरता के मापदंड में सही उतारने की जद्दोजहद में वह सौंदर्य प्रसाधन का खुलकर इस्तेमाल करती है। इसी का फायदा उठाती हैं सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली कंपनियाँ। विज्ञापनों में उनकी भाषा पर गौर करें... आप भी पा सकती है लुभावनी, चमकदार, गोरी त्वचा... अपनाइए... आपकी झुर्रियाँ अब आपके वश में... पाइए नवयौवना जैसी त्वचा... आपके बाल कुदरत का करिश्मा... मजबूत, मुलायम, रेशमी अपरनाइए... शैम्पू और कंडीशनर... तन की दुर्गंध पुरुषों के बीच घटता आपका आकर्षण... दुर्गंध को दूर भगाइये... टल्कम पाउडर, परफ्यूम के इश्तेमाल से...

औरत इस जादुई भाषा के जाल में फंसकर खुद को बदल डालने की तैयारी में जुट जाती है। पहले शादी के लिए वह खुद को रूपवान बनाया करती थी। अब नौकरी भी उसमें शामिल हो गई है। आखिर सौंदर्य धन से ही तो वह लक्जरी लाइफ जिएगी। जिसकी चाह आज हर आधुनिका के हृदय में गहरी जड़ें जमाए है। सुंदर बने रहने की चाह उसे मातृत्व के अपने अधिकार से भी वंचित रखती है। जिन उद्योगों में शरीर और चेहरा ही प्रोफेशन का आधार है वहाँ औरतें लंबे समय तक माँ नहीं बनती। शादी वैसे ही उनकी मांग कम कर देती है। तिस पर माँ बनना पूरे कैरियर का ही खात्मा है।

जो औरतें बदन प्रदर्शन और चेहरे के सौंदर्य के प्रदर्शन वाले जॉब में नहीं हैं वे भी अपने सौंदर्य और फिगर के लिए जागरूक हैं। यूं तो सदियों से औरत अपने को निखारती, सजाती रही है लेकिन तब घरेलू वस्तुओं से ही उसका सौंदर्य निखर जाता था। आज बाज़ार का सौंदर्य पर अधिपत्य है। वह औरत को सुंदर रहने के गुर सिखाते हुए औरत का ही इस्तेमाल कर डालता है। आज बाज़ार उसे अपनी उंगलियों पर नचा रहा है। सौंदर्य की इस उपभोक्तीय प्रसाधनिक, विकृत दैहिक कमनीयता कि अवधारणा ने औरत को घर से निकालकर बीच बाज़ार में खड़ा कर दिया है और मुक्त बाज़ार की धुन पर औरत कठपुतली की तरह नाचने को विवश है। विडम्बना यह है कि बाजारवाद के दलदल में फंसी औरत को अपनी कोई समझ और सामाजिक चेतना नहीं है। भव्यता, ग्लैमर व अर्थ की चकाचौंध में वह दैहिक सुंदरता को ही अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि मानती है या मानने के अप्रत्यक्ष दबाव में रहती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है कि सौंदर्य बाहर की कोई वस्तु नहीं है, मन के भीतर की वस्तु है। तब सवाल उठता है कि अगर सौंदर्य मन के भीतर है तो उसके लिए देह प्रदर्शन और कुछ खास दैहिक मापदंडों की ज़रूरत है? पिछले कुछ वर्षों से सौंदर्य स्पर्धाओं की बाढ़ आ गई है। शिक्षण संस्थानों से लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वे वार्षिक स्पर्धाएँ आयोजित होती हैं। सौंदर्य के ये ओलंपिक टूर्नामेंट्स औरत का सशक्तिकरण करते हैं या जीवन के विभिन्न स्तरों और आयामों पर उसको पहले से भी ज़्यादा पराधीन तथा विपणन का एक ब्रांड मात्र बनाकर रख देते हैं।

सौंदर्य के थिमक में डूबती उतरती औरत अपनी रंगत को गोरा करने के लिए स्किन क्लीनिक, ब्यूटी पार्लरों के चक्कर काटती है। शरीर को 32-24-36 के मापदंड में उतारने के लिए जिम, योगा क्लासेस, फिटनेस सेंटर जाती हैं। बिकनी और कम कपड़ों बस उतने ही जितने से कमर से जांघ तक और स्तन ढके रहें पहनने का अभ्यास शुरू कर देती है। खूबसूरती और नंगेपन की यह कवायद उसे सिर पर विश्वसुंदरी का ताज रखे होने की कल्पना में खोए रखती है। मकबूल फिदा हुसैन के चित्र सीता से शुरू होकर औरत के शरीर के नंगेपन तक पहुँचे थे और तूफान खड़ा हुआ था। हुसैन के घर में घुसकर चित्रों को फाड़ा गया था। जिस तरह परंपरा कि दुहाई देकर औरत के शरीर को ढंका जाता है उसी तरह आधुनिकता कि दुहाई देकर उसे उघाड़ा जाता है। परंपरा कहती है तुम हमारी हो और हमें ही तुम्हें देखने का हक है। आधुनिकता उसे सरे राह उघाड़ती है-तुम सार्वजनिक हो, सर्वजन के लिए हो। चौराहों पर और विश्व स्तर के बाजारों में तुम्हें नंगा करने का अधिकार हमें है।

आधुनिकता हर कदम प्रगतिशीलता कि चादर ओढ़ने की कोशिश करती है। आधुनिकता ने कुछ ऐसी व्यवस्थाएँ अवश्य बनाई हैं जो औरत को सिर्फ़ बोलने भर की इजाजत देती है। फैसले करने की औकात हासिल नहीं करने देती तो औरत बोलती तो है पर वही और उतना ही जैसा कि पुरुष चाहता है, समाज चाहता है, ताकतवर संस्थाएँ चाहती हैं। कुछ औरतें अपवाद भी हैं तो ऐसी औरतों को संस्कृति के संरक्षक नकारते भी हैं। अक्सर संधि-पत्र कोई और तैयार करता है और दस्तखत औरतों के होते हैं।

भूमंडलीकरण ने जितने फैसले औरतों पर थोपे हैं उतने शायद किसी और ने नहीं। प्रगतिशीलता और आधुनिकता कि परिभाषा तो बाज़ार ने गढ़ी ही है, परंपरा और संस्कृति की परिभाषा भी अब वह गढ़ने लगा है। सौंदर्य स्पर्धाओं के प्रति हर रोज बढ़ता आकर्षण भी बाज़ार की ही देन है। सुना तो यह भी गया है कि विश्व स्तर की सौंदर्य प्रतियोगिताएँ विदेशी कंपनियों की साजिश हैं। देशी-विदेशी कंपनियाँ जो उदारीकरण के नाम पर भारत से करोड़ों डॉलर मुनाफा कमा रही हैं वे इन सुंदरियों का उपयोग अपना उथ्पाद बेचने में करेंगी क्योंकि भारत विदेशी सामान बेचने का एक बड़ा बाज़ार बना हुआ है।

सौंदर्य प्रतियोगिता का पक्षधर आधुनिकता का पर्याय माना जाता है और विरोधी परंपरा का रक्षक। इन दोनों के बीच विचारों, चर्चा, बहस की एक तीसरी धारा भी बहती है। यह धारा हमेशा ही अपने ज्ञान और विवेक से कोई न कोई नया तर्क गढ़ लेती है और औरत इस त्रिवेणी में आकंठ निमग्न करा दी जाती है। पहले सिर्फ़ यौन शुचिता कि कसौटी पर खरा उतरना होता था उसे, अब भूमंडलीकरण के दौर में बाज़ार की हर मांग के अनुसार परीक्षाओं में सफल होना होता है। परीक्षा चाहे शारीरिक सौंदर्य की हो, शारीरिक श्रम की हो या शारीरिक समर्पण की। जब बाज़ार में हर चीज बिक रही है तो सुंदरता क्यों नहीं?

विश्व सौंदर्य प्रतियोगिता के शहर लंदन में औरतों ने नारे लगाए थे-नारी काया बेचने की चीज नहीं है। मिस वर्ल्ड? हम पशु नहीं हैं। औरतों को उनके सौंदर्य और कमनीयता के आधार पर नहीं परखा जाना चाहिए। आयोजक इस मामले में भी सतर्क थे। वे शारीरिक सौंदर्य के साथ-साथ बुद्धिमत्ता को भी प्रमुखता देने लगे। परंतु प्रतियोगिता के दौरान जो सवाल पूछे जाते हैं क्या वे आंतरिक समृद्धि का परिचय देते हैं? जितने सवाल सतही उतने ही उत्तर भी कृत्रिम और फार्मूला बद्ध। अंतत: तो देह यष्टि ही निर्णायक होती है।

बाजार ने संस्कृति को, रस्मों को, रिवाजों तक को प्रदूषित किया है। आजकल ऐसे विवाह की कल्पना करना व्यर्थ है जिसमें डिजाइनर, सौंदर्य विशेषज्ञ, डेकोरेटर, केटरर, आॅर्केस्ट्रा और पेशेवर डांसर न हो। इनमें से बहुत सारे विभाग तो औरतों ने ही संभाल रखे हैं। वह शादी योग्य मंडप सजा देती है, बेहतरीन सुस्वादु व्यंजन पका देती है, दुल्हन का फ़िल्मी तारिकाओं जैसा मेकअप कर देती है, कपड़ों और गहनों की डिजाइन भी कर देती है। गीत गाकर नाच भी लेती है और इस सबके लिए वह पार्टी से डील भी कर लेती है। पार्टी थीम सिलेक्ट करके देती है। इन थीमों के बाकायदा कोर्सेज होते हैं। इंटीरियर डिजाइनर का पेरिस से कोर्स करके लौटी निशा भार्गव इस बात से प्रफुल्लित है कि उसके पास शादी, जन्मदिन पार्टी, विदाई समारोहों के लिए बेहतरीन थीम्स हैं। पायरेट्स आॅफ दि कैरिबियन थीम में वह शिप को पेंट करके उत्सव के योग्य बनाती है और पायरेट की तर्ज पर आई पैचेज और तलवारें बनाती हैं। इसी तरह रेड कार्पेट थीम, परीकथा कि थीम, अरेबियन थीम, हॉलीवुड थीम, आॅस्टिन पावर व मोरक्कन थीम भी बहुत ज़्यादा पॉपुलर हैं।

उपभोक्ता संस्कृति ने विश्व पर्यटन, इंटर कांटिनेंटल होटल की बढ़ती मांग, विश्वव्याप्त भारतीय रेस्तरां, कसीनो, बार, कैबरे हाउस, क्रूज और महंगी-सस्ती उड़ानों को आम आदमी तक पहुँचा दिया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों और निजी कंपनियों में कार्यरत औरत मर्द यह नहीं देखते कि वे दिन के चौबीस घंटों में से पंद्रह-सोलह घंटे जिन विशालकाय शॉपिंग मॉल्स, डिपार्टमेंटल स्टोर, शॉपर्स हैवन, पंचसितारा होटल, कॉल सेंटर आदि में आकर्षक वेतन की लालच में गुजार देते हैं वे वास्तव में उनके श्रम का शोषण करते हैं। महिला कर्मियों का तो दोहरा शोषण होता है। श्रम का भी और देह का भी। इसके खिलाफ आवाज न उठाना उनकी बेबसी है। वे इस उपभोक्तावादी संस्कृति की आदी होती जा रही हैं। अब विश्व पर्यटन की ओर उनके कदम भी उठ चुके हैं... वे भी विदेश भ्रमण के दौरान कसीनो खेलती हैं, क्रूज की सैर करती हैं और इंटरकॉन्टिनेंटल होटलों का आनंद लेती हैं। अब तो कई अंडरवर्ल्ड के लोग भी इस व्यवसाय से जुड़ गए हैं। वे हनीमून कपल के भ्रमण के दौरान होटलों के कमरों में कैमरे लगाकर बेडरुम के सीन शूट करते हैं और उनकी ब्लू फ़िल्म की सीडी बनाकर बाज़ार में बेचते हैं। अकेली औरत को सेल्स गर्ल के रूप में अपने व्यापार का जीता जागता, चलता फिरता विज्ञापन बनाकर घर-घर भेजते हैं।

औरत को पता ही नहीं चलता कि कब, कैसे उसका इस्तेमाल किया गया या उसके श्रम का शोषण किया गया। लुभावने वेतन की भूलभुलैया में वह भटककर रह जाती है। साधारण महिलाएँ सामान बेचती हैं तो असाधारण... मसलन फ़िल्म अभिनेत्रियाँ, विश्व सुंदरियाँ इन कंपनियों की ब्रांड एंबेसडर बनाई जाती हैं। सब कुछ इतना अधिक मोहक और आकर्षक होता है कि औरत समझ नहीं-नहीं पाती कि उसका इस्तेमाल वस्तु की तरह किया जा रहा है। वह उपभोक्ताओं की भोग लिप्सा को जगाने का एक ब्रांड मात्र बनकर रह गई है।

तेजी से बदलते पश्चिमी रहन-सहन ने लोगों के दिलों में अमेरिका, इंग्लैंड, चीन और जापान के बाजारों से उतारी गई कीमती वस्तुओं की अपने देश में बढ़ती बिक्री के क्रेज को इतना बढ़ा दिया है कि वे दहेज में इन्हीं चीजों की मांग करने लगे हैं। उच्च वर्ग तो वैसे भी समाज में अपना रुतबा सिद्ध करने के लिए बेटी को सब कुछ देता है पर मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग दहेज की विभीषिका में सबसे अधिक पिसता है। ज़िन्दगी भर की कमाई महंगे उत्पादनों की खरीदारी में कपूर-सी उड़ जाती है। कर्ज के भारी बोझ तले उसकी महीने भर की कमाई कराह उठती है। दहेज न देने की स्थिति में या शादी के समय दहेज में मांगी गई वस्तुओं को बाद में देने का वादा अगर झूठा सिद्ध होता है तो उसे बेटी की ज़िन्दगी से हाथ धोना पड़ता है। दहेज हत्या या तलाक आज आम बात हो गई है। बेटियाँ पहले भी बोझ समझी जाती थीं, आज इक्कीसवीं सदी के क्रांतिकारी माहौल में भी जबकि औरतें अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक महीनों रहकर लौट रही हैं, बेटियाँ बोझ ही हैं। यही वजह है जो कोख में ही इस कोंपल को कुचल दिया जाता है। गर्भजल परीक्षण के वैज्ञानिक तरीके ने कोख में ही बेटियों की हत्या में बाढ़ ला दी है। समाज का संतुलन डगमगा गया है। प्रति एक हजार पुरुष के पीछे 890 औरतें... तब क्या पांडव युग की पुनरावृत्ति करेगा समाज?

भूमंडलीकरण के इस व्यापक विस्तार को संचालित करता है विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने पूरे विश्व के बाजारों में जो घुसपैठ मचाई है उसका आधार है उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीय मुक्त व्यापार। शिक्षा के क्षेत्र में विश्व बैंक की अहम भूमिका है। विदेशों में शिक्षा के लिए विश्व बैंक लोन देता है। शिक्षा के बड़े-बड़े केंद्रों की भारी फीस को उच्च वर्ग तो वहन कर लेता है पर निर्धन वर्ग की लड़कियाँ ऐसी शिक्षा से वंचित रह जाती हैं। यह वर्ग अगर लोन लेता भी है तो लड़कों की पढ़ाई के लिए। लड़कियों को आज भी पराया धन समझने की प्रवृत्ति उनकी योग्यताओं को घोंट कर रख देती है। निजी संस्थानों की शिक्षा भी महंगी है जबकि वहाँ छात्राओं के लिए अधिक संभावनाएँ हैं। कई तरह के जॉब उफयोगी कोर्स इन संस्थानों में सिखाए जाते हैं। व्यक्तित्व को निखारने का प्रयास किया जाता है। सरकारी शिक्षा संस्थानों में फीस कम है, छात्रवृत्ति है, पुरस्कार है, पर शिक्षा कि तरफ ध्यान कम है। इसीलिए सरकारी संस्थानों में पढ़ी लड़कियाँ कुंठाग्रस्त, डरी, सहमी-सी रहती हैं। उनके व्यक्तित्व का ठीक से विकास नहीं हो पाता, योग्यताएँ उभर नहीं पातीं।

भूमंडलीकरण के तहत औरतें श्रम शोषण का भी शिकार हैं। दैनिक मजदूरी करने वाले मजदूर वर्ग में महिला मजदूर के मुकाबले वेतन कम मिलता है जबकि वह श्रम में बराबर की हिस्सेदार है। ग्रामीण औरतें अधिकतर खेती, पशुपालन, हाथकरघा, वस्त्र उद्योग, लघु उद्योग, कपास की छंटाई-धुनाई और नमक बनाने के व्यवसायों से जुड़ी हैं। यहाँ उनका श्रम शोषण सबसे अधिक है। काम का समय अधिक, वेतन कम और जी-तोड़ मेहनत। यदि वह आर्थिक संकट से गुजर रही है तो ऐसी औरतें उद्योगपतियों के लिए सहज उपलब्ध हैं। सामाजिक, आर्थिक दबाव उन्हें सस्ते में श्रम बेचने को बाध्य करता है। कई बार वे इन क्षेत्रों में यौन शोषण, बलात्कार की भी शिकार होती हैं बल्कि ऐसी घटनाओं की दर में लगातार वृद्धि के ही आंकड़ें हैं। आधी-आधी रात तक काम करके उद्योगपति द्वारा दी सुरक्षा के बावजूद भी औरतें असुरक्षित हैं। मगर वे क्या करें? तेजी से बदलती जीवन शैली उन्हें अपने लिए सोचने का मौका कहाँ देती है? वे हर वक्त डिमांड पर रहती हैं... कार्यक्षेत्र में भी और घर में भी। निर्यात के क्षेत्र में विभिन्न उथ्पादनों की बढ़ती मांग ने जहाँ युवा लड़कियों को रोजगार के अवसर दिए हैं वही श्रम और यौन शोषण की खाईयाँ भी मुंह बाए हैं। घर बैठे आमदनी के लुभावने पैकेज औरत के फुरसत के घंटों को भुनाकर उसका श्रम शोषण कर अपनी शर्तों पर उसे वेतन और माल बेचने की निश्चि अवधि देते हैं। उसे पता ही नहीं चलता कि घर बैठे का यह आरामदायक पैकेज उसका कितना अधिक श्रम हर ले गया और कितना कम वेतन थमा गया।

आज अमेरिका कि आँख भारतीय बाज़ार पर लगी है। पहले तो राष्ट्रपति बइस ने भारतीयों को पेटू कहा और इसी को निरंतर बढ़ती महंगाई का कारण भी बताया। अब वह भारत से उनकी कृषि हड़पना चाहता है। कृषि के अमेरिका जैसे शक्तिशाली, समृद्ध देश के हाथ में जाते ही हमारी अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी और भारत भयंकर कर्ज में डूब जाएगा। उसके अनुसंधान कार्यों में बाधा आएगी। कृषि से जुड़ी औरतें जिनकी संख्या बहुत अधिक है और जो जैविक और परंपरागत तथा मशीनी उपकरणों से होने वाली खेती में समान रूप से जुड़ी हैं बेरोजगार हो जाएंगी। भुखमरी, बदहाली उन्हें या तो आत्महत्या का रास्ता सुझाएगी या देह व्यापार का। अगर हालात के आगे घुटने टेकने के बजाय औरतें भूमंडलीकरण और बाजारवाद के खिलाफ आवाज उठाएँ तो शायद समस्या गंभीर रूप न ले। लेकिन गैर सरकारी संस्थाएँ औरतों के इस हक के लिए उन्हें संगठित करने के स्थान पर उंगली पकड़ कर चलाती हैं ताकि वे खुद फलफूल सकें। यही रवैया तो विदेशी कंपनियों को भारतम ें जड़ें जमाने का मौका दे रही हैं। ऐसी कंपनियों को महिला श्रम ही अधिक लचीला और अपने काबू में रखने योग्य बना रहा है। भूमंडलीकरण को ऐसे श्रमिक चाहिए जिन्हें वह अपनी मर्जी से रख सके और अपनी मर्जी से निकाल सके। ऐसी कठपुतलियाँ औरत ही होती हैं।

न केवल भारत बल्कि चीन, जापान, कोरिया, वियतनाम और अफ्रीकी देशों में भी कारखानों, कृषि उद्योगों और बड़े बजट के उद्योगों में बहुत अधिक मालिक की मर्जी से चलती, उनके मन मुताबिक कार्य करती, यौन शोषण सहती, कम वेतन पाती औरतें कई वर्षों तक वैसी ही पीड़ित स्थिति में रहकर अपनी घरेलू दुनिया में लौट आती हैं। थकी-हारी इन उम्रदराज औरतों की सारी योग्यता भूमंडलीकरण चूस लेता है। सफलता के सारे द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं। हालांकि भमंडलीकरण के कारण अब परिवार के लोग औरतों के गाँव से शहर में नौकरी के लिए भेजने में आनाकानी नहीं करते। उनकी शादी भी कम उम्र में नहीं करते और बच्चे भी अधिक पैदा नहीं करते जिससे जनसंख्या वृद्धि और बाल विवाह जैसे मसलों पर अल्प रोक तो लगी ही है।

विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की देख-रेख में चलाए गए कार्यक्रमों के कारण समाज कल्याण पर सरकार कम ध्यान दे रही है। लिहाजा छोटे-बड़े उद्योगों के लिए मिलने वाली सब्सिडी या तो कम या नहीं के बराबर मिलने के कारण औरतें बेरोजगार हो गई हैं और उन्हें सब्सिडी की खास सुविधा से वंचित होना पड़ रहा है। सरकार की तरफ से यह खास सुविधा औरतों के लिए रखी गई है।

यदि इस चीज का आकलन किया जाए कि भूमंडलीकरण ने औरत को आजाद किया या नहीं तो आंकड़ें बतलाते हैं कि चहुं ओर से फैले भूमंडलीकरण से इस जाल में पिंजरे से निकली चिड़िया को फंसाने के तमाम गुर मौजूद हैं। सबसे पीड़ादायक बात तो ये है कि भूमंडलीकरण ने पितृसत्तात्मक परंपरा को और भी मजबूती प्रदान की है। एशियन रिजनल एक्सचेंज फॉर न्यू आॅल्टरनेटिव ने अपने गंभीर अध्ययन से पाया कि भूमंडलीकरण ने औरतों को रोजगार के नए अवसर तो प्रदान किए हैं क्योंकि उसे नारी श्रम की आवश्यकता थी लेकिन कार्यक्षेत्र में उशकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है बल्कि वह घर और बाहर की अपनी दोहरी भूमिका को आज भी निभा रही है। जिन्हें अधिक आर्थिक संकट नहीं है वे अपनी सारी कमाई महंगे सौंदर्य प्रसाधनों, फैशन के कपड़ों, जूतों पर खर्च कर डालती हैं। मोबाइल, फास्ट फूड, समंदर का किनारा और बाइक आज के समय की मांग है वरना वे तेजी से बदलते आधुनिकीकरण से दूर छिटक जाएंगी। गरीब औरतों को विभिन्न क्षेत्रों में मिलने वाली सब्सिडी में कटौती की जा रही है। महंगाई के कारण घर के बजट के दबाववश वे ओवरटाइम और पार्टटाइम जॉब में ढकेली जा रही हैं जहाँ उनका मनमाना श्रम शोषण किया जा रहा है। अपराधी सरगना मुंह उठा रहे हैं और कमजोर औरतें उनके हत्थे चढ़ रही हैं।

चीन जैसे देशों में अस्सी के दशक के अंत में औरतों के लिए पुरुषों की ओर से नारा था गो होम औरतों घर वापिस जाओ। पत्र-पत्रिकाओं में भी ऐसे लेख छपने लगे जिनमें घर परिवार को मान्यता देने का महत्त्व औरत को समझाया गया। जापान के परमाणु विस्फोट के बाद तेजी से बदलते परिवेश और औद्योगिक विकास का कारण यही है कि वहाँ औरतें घर का कोई तनाव पुरुष को नहीं देती इसलिए पुरुष देश के हित में अधिक से अधिक श्रम दे रहा है। विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए बने निर्यात संवर्धन क्षेत्र में चीनी सरकार ने महिलाओं के दर तरह के खुले शोषण की छूट दे दी है। उन्हें प्राकृतिक रूप से कमजोर बता कर यह सुझाव दिया कि अगर 5 से 10 प्रतिशत औरतों को नौकरी से निकाल दिया जाए तो शहरी बेरोजगारी दूर हो जाएगी।

कई एशियाई देशों में फौज आधुनिकीकरण की वाहक बनकर सामने आई है। फौज ने कट्टरपंथियों के संग हाथ मिला लिया है। पाकिस्तान का महिला विरोधी हुद्द अध्यादेश केवल फौजी तानाशाही में ही पारित हो सकता था। मलेशिया में औरतों से कारखानों में काम लिया जाने लगा साथ ही राज्य ने पुरुषों को महिला विरोधी इस्लामिक परिवार कानून मानने वाले केलतान प्रदेश में जाकर एक से ज़्यादा शादियाँ रचाने की खुली छूट दे दी। श्रमिक औरतों की धार्मिक शिक्षा का इंतजाम कारखानों के अंदर ही किया जाने लगा। इंडोनेशिया के आधुनिकीकरण में प्रमुख भूमिका निभाने वाली फौज ने औरतों को घर और परिवार के दायरे में कैद करने की मुहिम चलाई। महिला मुक्ति की भाषा बोलने वाला आधुनिक समाज किस कदर पितृसत्ता के दायरे में औरत को कैद कर रहा है यह गौरतलब है। वह औरत को विकास के पायदान पर तो चढ़ा रहा है पर उसकी लगाम पूरे तौर पर पितृसत्तात्मक समाज के हाथों में है।

सवाल उठता है कि क्या बाज़ार पितृसत्ता कि जकड़न में थोड़ा लचीलापन ला सका है? उसने उन लाखों महिला श्रमिकों को अपनी सत्ता में कुछ यूं घेरा है कि बाज़ार तो फल फूल रहा है और श्रमिक औरत पिस रही है। ए. दोर्किन ने अपने विश्लेषण से यह सिद्ध किया है कि-बाजार ने किस तरह से औरत को प्राइवेट से निकालकर पब्लिक में लाकर उसका वस्तुकरण करने का अभियान शुरू कर दिया है।

कई ऐसे देश हैं जहाँ औरतों की तकनीकी शिक्षा कि व्यवस्था नहीं है। मलेशिया और बांग्लादेश इसके उदाहरण हैं। श्रीलंका में महिला शिक्षा का स्तर ऊंचा है पर औरत की तकनीकी शिक्षा या प्रशिक्षण पर सरकार तवज्जो नहीं देती। भारत में औरतों के लिए इसके अवसर अधिक हैं पर परिवार और समाज का प्रोत्साहन नहीं मिलता। बैंकिंग उद्योग में औरतें हैं, पर उनका प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले कम है।

औरतों की कार्यालय और घर की दोहरी भूमिका ने चीन के बाज़ार जमकर खोले है। काम के बोझ से घर में उत्पन्न तनाव की वजह से वे फेंग शुई के चक्कर में पड़कर घर को लाफिंग बुद्धा, ड्रेगन, कछुआ, फाउंटेन, बम्बू से भर देती हैं। ज्योतिषियों के ऊंट-पटांग वक्तव्यों से पत्रिकाएँ रंगी पड़ी हैं। चैनलों पर अब ये ज्योतिषी और वास्तइसास्त्री ही छाए हैं। फेशनेबुल युवतियाँ ब्रेकफास्ट न्यूज के समय आगाह कर देती हैं कि आज का दिन कैसा गुजरेगा। लकी कलर और लकी नंबर क्या है? औरत को इस नई भविष्यदृष्टा तकनीक ने बहुत अधिक प्रभावित किया है। महिला पत्रिकाओं में इस सबकी जानकारी तो रहती ही है... साहित्यिक पत्रिकाओं को छोड़कर तमाम व्यावसायिक अखबारों, पत्रिकाओं में बाज़ार अपने उत्पादन का इश्तहार इस रूप में दे रहा है कि भारतीय संस्कृति प्रदूषित हो चुकी है इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। ब्रा और पेंटी के इश्तहार में औरत की कमनीय देह पर सिर्फ़ ब्रा और पेंटी ही है। ब्रा से आधे स्तन अपनी ठोस गोलाइयों में बाहर झांक रहे हैं। पेंटी से नितंबों का आकार और चिकनी सुडौल जांघें, चेहरे पर छाए बालों को हाथों की सेक्सी अदा से समेटती युवती को देख सेक्स के लिए आजाद पुरुष क्या सिसकारी भरने से चूकेगा? आईस्क्रीम के विज्ञापन में कौन को जीभ से सेक्सी अदा से चाटती, जूतों, सैडिलों के विज्ञापन में अधनंगी औरत के यौनांगों को सैंडिल की नुकीली हील छूती और तमाम औरत सम्बंधी विज्ञापनों में सबसे भद्दा विज्ञापन उन पैडों का जिसमें नीली बूंदे पैड में गुम होती नजर आती हैं। क्या यह भारतीय अस्मिता कि सौदेबाजी नहीं है? नाओमी वुल्फ जो अमेरिकी लेखिका है और जिसकी पुस्तक ब्यूटी मिथ आज चर्चा का विषय है, विज्ञापनों में औरत की बनाई गई छवि का विवरण देती हुई लिखती है पत्रिका के अगले पेज पर उशका मुंह खुला है। वह अफने जीभ से लिपस्टिक को चूमने जा रही है। एक पेज के बाद औरत बालू पर चौपाए की तरह उकड़ू बैठी है। उसके नितंब हवा में हैं। उसके सिर पर तौलिया है। आंखें बंद हैं, मुंह खुला है। यह एक औसत अमेरिकी पत्रिका का हवाला है, फ्रांसीसी लांजरी यानी औरतों के अंतर्वस्रों के ब्रांड लिली के एक विज्ञापन में एक औरत एक नंगी देह को देख रही है जिसकी आंखें बंद हैं। ओपियन नामक परफ्यूम के लिए एक नंगी औरत जिसके नितंब और कमर खुले हैं बिस्तर से चेहरे के बल जमीन पर गिरती है। टाइटन फव्वारे के लिए एक नंगी औरत जिसकी कमर धनुषाकार उठी है, अपने हाथ ऊपर फेंकती है। जॉग ब्रांड की स्पोटर्् ब्रा के लिए एक नंगी स्त्री देह गर्दन से कटी है। ऐसे तमाम विज्ञापन औरत के विरुद्ध अपराध को बढ़ावा देते हैं। कामुकता का निर्माण करते हैं।

नग्नता कि कला यानी पोर्नोग्राफी एक ऐसी कला है जिसने औरत की आजादी के साथ अपनी सभी सीमाएँ लांघ लीं। प्लेब्वॉय ने औरत के आॅर्गाज्मिक चेहरे बेचने शुरू किए। औरत के ऐसे आॅर्गाज्मिक चेहरे प्लेब्वॉय छाप पोर्न फोटोग्राफी ने तैयार किए। पोर्न फोटोग्राफी को चाहिए एक सुगठित कमनीय नारी देह जिसे वह चकाचौंध भरे बाज़ार में उतार सके, तो बाज़ार ने ही डाइटिंग और कॉस्मेटिक इंडस्ट्री का प्रलोभन भी दिया। सुंदर दिखना हर नारी का अधिकार है। इसके साथ नारी मुक्ति भी हो तो सोने पर सुहागा। वुल्फ लिखती हैं कि अमेरिका में लगभग 33 अरब डॉलर का सौंदर्य प्रसाधन उद्योग है तथा 20 अरब डॉलर का डाइटिंग उद्योग। इसी तरह लगभग 30 करोड़ डॉलर वाला कॉस्मेटिक सर्जरी उद्योग है। हिन्दुस्तान के आंकड़े भी कुछ ऐसा ही योग दिखला रहे हैं।

भूमंडलीकरण ने जहाँ एक ओर औरत को चमकती दमकती, ग्लैमर से भरी लाल कार्पेट की दुनिया दी है वहीं दूसरी ओर समृद्ध औद्योगिक घरानों की पति के व्यवसाय में हाथ बंटाती, ब्रांड एम्बेसडर बनी कार्पोरेट जगत की औरतें हैं। उच्च मध्य वर्ग बाज़ार में उतारे गए फास्ट फूड, जंक फूड, कॉस्मेटिक्स, नूडल्स, पीज्जा, खरीदती बच्चों को दूध और फ्रूट जूस की जगह कोल्ड ड्रिंक्स और कुरकुरे पकड़ाती मांएँ हैं, मीडिया और प्रिंट मीडिया से जुड़ी फर्राटेदार अंग्रेज़ी और टूटी-फूटी हिन्दी बोलती मुट्ठीभर कमर की, सींक-सी लंबी नवयुवतियाँ हैं और रोज सुबह शाम घर और कार्यालय की चक्की में पिसती, बस के धक्के खाती, बॉस और पति को श्रम और मुस्कराहट से खइस करती, भागती, दौड़ती, हांफती, थकती औरतें हैं और कारखानों, भवन निर्माण में श्रम का शोषण कराती, कुपोषण, गरीबी, बीमारी, अंधविश्वास और अशिक्षा कि मारी औरतों की बड़ी-सी जमात है।

भूमंडलीकरण के चक्रव्यूह के और कितने दरवाजे हैं जिन्हें औरत को पार करना है? कब तक वह जीवन के हर क्षेत्र में धड़ल्ले से इस्तेमाल की जाती रहेगी? औरत की नियति ईश्वर ने न जाने किस कलम से लिखी है जो टूटती ही नहीं जबकि मौत की सजा सुनाने के बाद न्यायाधीश अपनी कलम तोड़ देता है।