इस दुनिया के लोग / फ्रैंक ओ’ कूनर

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फ्रैंक ओ’ कूनर (जन्म-1903) एक आइरिश लेखक हैं। उन्होंने आज के आदमी को उसकी सम्पूर्ण संचेतना और मानसिकता के साथ चित्रित किया है।

हम बच्चों के लिए छुट्टी नाम की चीज ही नहीं होती थी। आज भी हमें इसका कोई अफसोस नहीं है क्योंकि जब हम बच्चे थे, तब हम खुद अपनी छुट्टियों के तरीके निकाल लेते थे। एक साल गर्मियों की छुट्टियाँ सिर्फ दो रातों के लिए हुईं-वे रातें, जो मैंने चुनी थीं। वे रातें अपने दोस्त जिनी के घर गुजारीं, जो मेरी गली से निकलकर सड़क के उस पार वाले घर में रहता था। उसके घरवाले कभी-कभी बाँतरी में बीमार पड़े एक रिश्तेदार को देखने चले जाते थे। तब जिमी को इजाजत मिल जाती थी कि वह अपने किसी दोस्त को बुला ले।

जिमी का घर बहुत बड़ा था। ड्योढ़ी तक पहुँचने के लिए बहुत-सी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती थीं। उसके घर का मुख्य दरवाजा हमेशा बन्द रहता था। सामने वाले कमरे में ही पियानो रखा रहता था। खिड़की में लगी मेज पर एक दूरबीन रखी रहती थी। सीढ़ियों की मियानी में सण्डास था, जो मेरे खयाल से सबसे सुन्दर जगह थी। दूरबीन को हम सोने के कमरे में उठा लाये। खिड़की से पूरी सड़क दिखाई पड़ती थी। एक सिरे पर पत्थरों की खान थी, उसके बाद छोटे-छोटे घरों का सिलसिला, फिर खुले हुए खेत और दूसरे सिरे पर जलता हुआ आखिरी लैम्प, जो आसमान की ओर सर उठाये था। सुबह उठते ही मैं खिड़की के काँच से झाँककर वह रहस्यमय दुनिया देखता, जो मुझे अपनी गली में नहीं दिखाई देती थी - पुलिसमैन, रेलवे के लोग और बाजार जाते हुए किसान।

जिमी मुझसे एक साल बड़ा था। वह गली के लड़कों से ज्यादा रब्त-जब्त भी नहीं रखता था। उसके अपने कुछ नफीस तरीके थे। कोई उससे बात करे, तो वह पैण्ट की जेबों में हाथ डालकर, दीवार से लगकर, खड़ा हो जाता और कुलीनों की तरह अदा से धीरे-धीरे मुसकराता था। मुझे लगता था, यह नफासत उसमें पियानो, दूरबीन वगैरह से आयी थी। अगर ये तामझाम हमारे यहाँ भी होता, तो मैं भी उतना ही नफीस हो जाता। होता यह था कि मैं एकाएक किसी को शिद्दत से पसन्द करने लगता था, फिर उसके माँ-बाप-बहनें भी मुझे आकर्षित करने लगते थे और मैं सोचने लगता था कि ऐसा घर-परिवार पाना भी कितनी बढ़िया बात है! लेकिन जब, मान लीजिए, इस घर-परिवार के बारे में मैं जिमी को बताता, तो वह उसी नफासत से मुसकराते हुए कहता, “हाँ, सुना है, हफ्ते-दो हफ्ते पहले नीलामी वाले वहाँ आये थे...”

हालाँकि नीलामी वगैरह शब्दों के मतलब मेरी समझ में न भी आएँ, पर बात के असर से बने-बनाये आकारों का वह रंगमहल धड़धड़ाकर गिर पड़ता था और मैं फिर से छला गया महसूस करने लगता था।

लड़कों-लड़कियों को लेकर भी यही होता था। कभी मैं किसी बड़े लड़के को लड़की के साथ मटरगश्ती करते देखता, तो जिमी उसी तरह कहता, “उसे आगा-पीछा सोच-समझ लेना चाहिए। वह बड़ी आफत का परकाला है।”

लड़कियाँ, उनका आफत का परकाला होना-दोनों की तमीज मुझे उतनी ही थी, जितनी कि नीलामी की, पर जिमी के कहने का तरीका मेरे मन में इतना खुब जाता था कि मुझे लगता था कि महीन मीठी आवाजों, मामूली चीजों और बागों से आती शाम की गन्धभरी हवाओं द्वारा मैं फिर छला गया हूँ।

आज चालीस साल बाद भी मैं अपनी उस आसक्ति को माप सकता हूँ... कि मैं कहीं-न-कहीं जिमी की हस्तलिपि से इतना प्रभावित रहा हूँ कि उसका असर आज भी मेरे अक्षरों पर है।

और यही बात लड़के-लड़कियों को सूँघने की मेरी आदत पर भी लागू होती है। जैसा कि मैंने कहा, मैं उनके बारे में सिर्फ कल्पनाएँ किया करता था, पर जिमी था कि उनके बारे में ‘जानता’ था। बने-बनाये आकारों की दुनिया ने मुझे सुनने और सही-सही देखने लायक नहीं छोड़ा था, क्योंकि मैं बहुत भावुक था। छोटी-से-छोटी बात मुझे गुब्बारे की तरह फुला या बुलबुले की तरह फोड़ देती थी - सुबह में नहाये पेड़, गिरजे की धब्बेदार काँच की खिड़कियाँ, शाम की रोशनी में दबी नीली-नीली पहाड़ी गलियाँ और उन पर जगह-जगह चमचमाती हरी गैस बत्तियाँ, खाना पकने की महक या इत्र की कोई गन्ध... यहाँ तक कि कूड़े के ढेर से उठाये सिगरेट के खाली पैकेट की मदहोशी भरी महक-यह सब मुझे बरबस उस दुनिया के इस पार ही रखती थी। बने-बनाये आकारों की दुनिया के इस पार! पर जिमी, चाहे वह जन्म या रहन-सहन के कारण ही हो, हमेशा उस पार ही रहता था। मैं हमेशा उससे जानने को उतावला रहता था कि उस पार क्या है।

एक शाम मैं काफी उत्तेजित होकर कुछ बात कह रहा था, तो उसने बड़े मामूली तरीके से कहा, “कभी जब घरवाले चले जाएँ, तो तुम किसी रात मेरे घर आ जाओ... तब मैं तुम्हें कुछ दिखाऊँगा।”

“क्या दिखाओगे?” मैंने उत्सुकता से पूछा।

“वो, जो नये मियाँ-बीवी पड़ोस में आये हैं!” जिमी ने आँख के इशारे से अपने पड़ोसी घर की ओर इशारा करके कहा, “कभी गौर से उन्हें देखा है?”

“नहीं,” मैंने निराशा से कहा था।

“नये... नये शादीशुदा हैं!” जिमी ने कहा, “उन्हें यह भी अन्दाज नहीं है कि उन्हें हमारे घर से देखा जा सकता है। अपनी ऊपरवाली कोठरी से उनका सोनेवाला कमरा पूरा-पूरा दिखाई पड़ता है।”

“तो वे क्या करते हैं?”

“ओह हो...” धीरे से हँसकर जिमी ने कहा, “सब करते हैं। देखना!”

“देखा जाए?” मैंने जरा ज्यादा अनमने मन से कहा, “जितना दरअसल मैं था नहीं, देखना मुझे अनुचित भी नहीं लग रहा था।”

लेकिन बने-बनाये आकारों की दुनिया के पार उतर जाना ही मेरे लिए काफी नहीं था। उन्हें पहचानना भी था। इसीलिए मैकार्थी के सामने वाले लैम्प-पोस्ट के नीचे मैं तब तक शाम मँडराता रहा, जब तक मैंने उन नये मित्रों को पहचान नहीं लिया। पहले मैंने आदमी पहचाना, क्योंकि वह बँधे वक्त पर काम से लौटते उसके साथ एक अधेड़ आदमी और होता था। पर वे दोनों कुछ देर बतियाते थे।

तीसरी शाम मैंने उसकी बीवी देखी - वह कुछ कर रही थी। उन्हें बातें करते देखकर वह आकर खड़ी हो गयी थी। वह एक पुराना स्वेटर बाँहों में लपेटे थी, जैसे कि खेतों की तरफ से आनेवाली पहाड़ी हवा से बचाव कर रही हो। उसका पति मौज में उसके कन्धे पर हाथ रखे हुए था।

उन्हें यों देखकर पहली बार मुझे पछतावा हुआ कि मैं क्या तय कर चुका हूँ जिन्हें जानते हो, या जिनका कोई वजूद आपके लिए हो, उन्हें लेकर कुछ भी किया जा सकता है। मेरे साथ मुश्किल यह थी कि मैं जिन्हें जरा पहचानने भी लगता था, उनके प्रति भावना अख्तियार कर लेता था, और इस जोड़े के प्रति वैसा ही रुख पैदा हो गया था। मुझे वे अजूबा लगे, शायद जो मुझे भी उसी रुख से देखते। मैं जगा रहा। सोचता रहा कि उन्हें एक और पत्र क्या लिखा जाए कि वे आगाह हो जाएँ। इस मामले में पड़ा-पड़ा मैं अपनी लेखनपटुता की आग में सुलगता रहा।

खत मैंने नहीं लिखा। डर था कि खत के खलनायक को ये पहचान लेंगे और नायक मुझे। और हुआ यह कि मैं इस कुण्ठा को लेकर माँ-पिताजी पर सुलगने और उन्हें अपने मूड का शिकार बनाने लगा। यह मूडीपना भी खोखला था, एक शनिवार की रात को जब माँ ने मुझे रात को पहनने वाले कपड़े तह करके दिये तो मैं आँसू नहीं रोक पाया। खुद मेरे घर में उस रात कुछ ऐसा था, जिसने मुझे बुरी तरह झकझोर दिया था। पिताजी टोपी लगाये दीवार वाले लैम्प के नीचे बैठे अखबार पढ़ रहे थे। माँ शाल लपेटे आग के पास कुर्सी डाले सुन रही थीं... उन्हें यों देखकर मुझे लगा कि वे दोनों भी उसी बने-बनाये आकारोंवाली के अंश हैं, जिसे मैं तोड़-फोड़ देने की योजनाएँ बना रहा हूँ। चलते समय जब मैंने गुडनाइट कहा, तो मुझे लगा कि मैं जैसे उनसे भी ‘अलविदा’ कह रहा हूँ।

जिमी के घर पहुँचकर मैं उबर आया। हमेशा यही होता है कि मैं सहसा अपने प्रति अनमना हो जाता हूँ... पियानो, दूरबीन और वह बाथरूम-सब जैसे मेरी पहुँच के अन्दर सहज परिधि में आ जाते हैं। मैंने पियानो पर शान से एक राग बजाया। पर उस दिन जिमी ने उसे ही बजाया, तो मुझे फिर अपने आकार और उसकी श्रेष्ठता का आभास हुआ।

हम ऊपर सोने चले गये। जिमी के पास लेमन चूस थे। उन्हें उसने ‘उस मौके’ के लिए रख छोड़ा -”शायद हमें इनकी जरूरत पड़ जाए, जब वह सब चल रहा होता है।” करीब पन्द्रह मिनट हम बतियाते रहे। फिर उठे, रोशनी बुझायी, ओवर कोट लिये हुए उस कोठरी में जाकर जम गये। जिमी टार्च लाया था।

उसके आठ-दस फीट नीचे, एक खिड़की उजागर होने लगी थी। मैंने कहा, “ये लोग परदा क्यों नहीं लगा लेते?” मेरा दिल बुरी तरह धड़कने लगा।

“जब मैकार्थी ने अपने लिए नहीं लगाया, तो किरायेदारों को क्या लगाकर देगा?” जिमी ने सहजता से कहा।

हम इस तरह बैठे थे, जैसे सिनेमा शुरू होने का इन्तजार कर रहे हों। जिमी ने मुझे लेमन चूस दिया। हम थोड़ी देर उसे चूसते रहे। मैं अँधेरे और उस घटना की रहस्यमयता से डरा हुआ था।

करीब आधे घण्टे बाद असली आहट हुई। जिमी ने धीरे-से मेरी बाँह दाबी - “शायद अपना जोड़ा आ गया!” मैं भीतर-ही-भीतर घबराने लगा कि न आया हो, तो अच्छा था। तभी अँधेरे के समुद्र में एक हलकी-सी रोशनी चमकी और वह पूरा कमरा रोशनी से भर गया। मैंने पहचाना - वही आदमी था। कमरा साधारण-सा था। फूलदार कागज दीवारों पर चिपका था - बिस्तर के सिरहाने दीवार पर माता मरियम की तस्वीर।

फिर वह औरत आयी। आदमी अब टाई खोल रहा था। उसकी बीवी ने जूते उतारे और बिस्तर के पास पड़ी कुर्सी पर बैठकर मोजे उतारने लगी। वह बराबर अपने पति से कुछ बात किये जा रही थी।

आदमी ने मोजे उतारकर शायद अपने पैर की किसी चोट को देखा। औरत ने थोड़ा झुककर देखा और अपनी स्कर्ट के बटन खोलने लगी। फिर सर से नाइट ड्रेस पहनकर उसने भीतर-ही-भीतर अपने कपड़े उतार दिये। उतरे हुए कपड़े उसने एक तरफ फेंक दिये। औरत ज्यादा सलीकापसन्द नहीं लग रही थी। आदमी हर काम सलीके से कर रहा था।

औरत बिस्तर पर आ गयी। पर मैं ताज्जुब से भर गया, जब मैंने देखा कि उसने माता मरियम की तस्वीर को आँखों-ही-आँखों में देखकर क्रास बनाया, फिर दोनों हाथों से चेहरा ढक लिया और बिस्तर में बैठे-बैठे ही झुककर प्रार्थना पढ़ने लगी। मैंने निराशा से जिमी की ओर देखा, पर वह निश्चिन्त बैठा था। आदमी ने पैण्ट सरकायी। पैजामे के बटन कायदे से बन्द किये और वह भी आकर वहीं बीवी के पास घुटने मोड़कर बैठ गया और प्रार्थना करने लगा। वह जरा तनकर बैठा था। मानो परमात्मा से बराबरी से बात कर रहा हो। औरत ज्यादा झुकी हुई थी।

आदमी ने बीवी के पहले प्रार्थना समाप्त की, क्रास बनाया और धीरे-से बिस्तर पर पसर गया। लेटते हुए उसने घड़ी देखी।

इसके बाद औरत ने प्रार्थना समाप्त की, वह बिस्तर से उतरी और सबकुछ अँधेरे में डूब गया। ऐसा लगा कि वह खिड़की, जिससे हम ताक-झाँक कर रहे थे। एकाएक जादू से कहीं खो गयी। सामने एक सपाट काली छाया रह गयी।

जिमी धीरे से उठा। टार्च से उसने मुझे रास्ता दिखाया। बिस्तर पर पहुँचकर उसने बत्ती जलायी। जिमी के चेहरे पर वही सहजता विद्यमान थी, जैसे जो कुछ वह दिखा सकता था, उसने दिखा दिया था। उसकी सहजता को देखकर मैं प्रार्थना करती औरत की बात भी नहीं कर पाया... यद्यपि मुझे यह निश्चित रूप से लग रहा था कि प्रार्थना करती उस औरत की छवि मैं मरते समय तक नहीं भूल सकूँगा। शायद मैं जिमी को बता भी न पाता कि उस क्षण मेरे भीतर कितना-कुछ एकाएक बदल गया था... मुझे लगा था कि उन दोनों को देखते हुए किसी ने हमें देखा था, क्योंकि हम देखनेवाले नहीं रहे थे, खुद देखे जा रहे थे। हमने बत्ती बुझा दी।

मेरा दिल हुआ कि प्रार्थना कर लूँ, पर मैं वह भी नहीं कर पाया। अँधेरे में अपनी आँखें हथेलियों से दबाकर लेटा रहा... मुझे लगा कि मैं जिमी की तरह कभी नफीस आदमी नहीं बन पाऊँगा... ‘मैं सब जानता हूँ’ वाले सन्तोष की एक मुसकान भी नहीं अपना पाऊँगा, क्योंकि आकारों की इस दुनिया के पीछे से एक अनन्त मुझे घूरता हुआ दिखाई पड़ता है।

“कभी-कभी बेहतर नजारा भी होता है,” जिमी की आवाज अँधेरे में उनींदी-सी आयी, “आज की रात से उसका अन्दाज मत लगाना!”

अमरीकी