इस बारःपाठकीय संवेदना से जुड़ी लघुकथाएँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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इस बारः कमलेश भारतीय ; प्रकाशकः तारिका प्रकाशन, अम्बाला छावनी; पृष्ठः 7; मूल्यः बीस रुपये (पेपर बैक), संस्करणः 1992

लघुकथा को बरसों से तरह-तरह के अन्तर्विरोधों का सामना करना पड़ा है। लघुकथाएँ रची नहीं, गढ़ी जाने लगीं। इन गढ़ी हुई रचनाओं में लघुकथा का पूरा फार्मूला उतार दिया गया ,सिवाय धड़कन के। लेखकीय हण्टर के आगे लघुकथा कान-पकड़ी भेड़ बन गई। इसकी प्रतिबद्धता पाठक के अतिरिक्त सबसे बनी रही। यही कारण है कि लगभग एक दशक तक ऐसी लघुकथाओं का बोलबाला रहा, जिनके पात्र लकड़ी की तलवारें भाँजते नज़र आते हैं। संवेदना की अनुपस्थिति के कारण ऐसी लघुकथाओं का अम्बार लगता रहा।

‘इस वार’ कमलेश भारतीय की 45 लघुकथाओं का संग्रह है। भारतीय का लघुकथा के किसी विशेष साँचे के प्रति आग्रह नहीं रहा है। सकारात्मक सोच और संवेदनशीलता इनकी लघुकथाओं के प्रमुख आधार रहे हैं। यही कारण है कि इनकी अधिकतर लघुकथाएँ पाठकों को सह-अनुभूति कराने में सक्षम हैं। रोजमर्रा के साधारण विषयों में से विचार-बिन्दु की तलाश पर इनका ध्यान गया है। संवेदनशील दृष्टि से अभिमंत्रित किया जा सकता है - नल द्वारा समुद्र पर तैराए गए पत्थरों की तरह। इन लघुकथाओं में जीवन-बोध की भीतरी पर्तें एक-एक कर खुलती हैं। साधारण-सी बात अन्ततः असाधारण लगने लगती है।

‘बदला हुआ नक्शा’, ‘मन का चोर’, ‘सर्वोत्तम चाय’, ‘सुना आपने’ और ‘जन्मदिन’ ऐसी लघुकथाएँ हैं, जो बिना किसी टीका-टिप्पणी के मन पर अपना प्रभाव छोड़ती हैं। साँप की तरह कुंडली मारकर बैठे नक्शे ने सब कुछ डँस लिया है। इसका स्थान टूटा-फूटा ही सही पर प्यार-भरा नक्शा कब ले पाएगा? ‘बदला हुआ नक्शा’ में लेखक की चिन्ता एक प्रेमी की चिन्ता तो है ही, साथ में उस प्रेमी की भी चिन्ता है जो आपसी प्रेम एवं सद्भाव को लौटाने के लिए छटपटा रहा है। ‘मन का चोर’ पति को उसके मन के कहीं और भटकाव का बोध कराती है, बिना किसी अपराध बोध के। मन की तहों में क्या-क्या छिपा हुआ है, लेखक इंगित भर कर देता है। फिर भी यह लघुकथा पति के प्रति वितृष्णा नहीं जगाती। मानव की सहज दुर्बलता को लेखक ने बहुत सादगी से पेश कर दिया है। ‘सर्वोत्तम चाय’ जीवन के किसी तर्क पर नहीं वरन् संवेदना की अतार्किक पृष्ठभूमि पर टिकी है। युवक का यह कथन - ‘सच, चाय सिर्फ चाय नहीं होती’ सच है। चाय बनाकर पिलाने वाले की आत्मीयता का स्पर्श ही प्रमुख होता है। मनोजगत् की इस तरह की अनुभूतियों पर बहुत कम लघुकथाएँ लिखी गईं हैं। ‘सुना आपने’ में लेखक ने आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति के कारण बढ़ते हुए अजनबीपन पर चिन्ता व्यक्त की है। ‘जन्म दिन’ में लड़कियों के प्रति उभरते उपेक्षाभाव का शमन किया गया है, बिना आक्रामक मुद्रा अपनाए, बिना आक्षेप लगा छोटे भाई की बेटी को जन्म दिन मनाने का आश्वासन देकर समाज की उपेक्षा -दृष्टि एवं समाज की बद्धमूल धारणा का उत्तर दिया है।

समाज और राजनीति की विकृतियों पर लेखक ने इस ढंग से प्रहार किया है कि चोट खाने वाले को इसका पता धीरे-धीरे चलता है। ‘मनीप्लांट और मैं’ की धनपशुता तथा ‘विश्वास’ में टूटते विश्वास का स्थान-प्लीज करने का एक मात्र साधन-धन हमारी सामाजिक संरचना को उलट-पुलट कर दे रहे हैं। पाठक जब इन लघुकथाओं पर गहराई से सोचता है, तो उसे ठेस पहुँचती है - पाँव के दुखते अँगूठे पर बार-बार लगने वाली ठसक की तरह। अपने खोखले अस्तित्व को बनाए रखने के लिए समाज और छद्म राजनीति, सामाजिक हितचिन्तकों को नेस्तनाबूद करने में कसर नहीं छोड़ते। ‘सपनों की मौत’ इसका सशक्त उदाहरण है। न्याय के पथ पर चलने वाले लोग हर युग में प्रतिगामी शक्तियों के लिए खतरा बने हुए हैं। ‘इतनी-सी बात’ में लेखक द्वारा जोड़ी गई पंक्ति में ‘बोझ’ शब्द अपना व्यंग्यार्थ बहुत गहरे तक छोड़ जाता है। लेखक को शर्म का जो बोझ महसूस हो रहा था, वह अधिकारी के लिए मिली रिश्वत के लिए था। अधिकारी बेहिचक रिश्वत की रकम स्वीकार कर लेता है। यही परिस्थिति लेखक के लिए शर्म के स्थान पर दूसरी प्रकार का ‘बोझ’ बन जाती है। यह बोझ-टूटते हुए मूल्यों की चिन्ता का है।

‘मज़ा’ में खबरों से जुड़ी रोचकता की क्रूर मानसिकता पर प्रश्नचिह्न है। ‘असलियत’ में राजनीति के हस्तक्षेप का दुष्परिणाम है। यह हस्तक्षेप न होता, तो नौकरशाही का हस्तक्षेप होता। जन सामान्य के लिए दोनों ही अहितकर है। ‘दुखवा मैं कैसे कहूँ’ में विभाजन की पीड़ा के साथ अपनी जड़ों से कटने का मानसिक संताप मार्मिक ढंग से उकेरा गया है। ‘मेरा बुढ़ापा खराब कर दिया’ बूढ़े का यह कथन भीतर तक छील जाता है। विभाजन के बाद फिर उजड़ने की आशंका का भयानक दौर बहुत तकलीफदेह है। दूसरी ओर ‘पड़ोसी धर्म’ में ध्वस्त होती आस्थाओं के बीच आशा की एक लौ उजाला करने के लिए कटिबद्ध है। ‘आग और आग’ ने बेकारी के कारण आदमी को बदलती प्राथमिकताओं को चित्रित किया गया है। आजीविका की धक्कामुक्की ने मानवीय प्राथमिकता को पीछे धकेल दिया है। इस कथा में पतनोन्मुख स्थिति पाठक को चिन्तित करती है। ‘तलाश’ में शिक्षा की निरर्थकता पर व्यंग्य है, तो साथ में अच्छा रोज़गार पाने की दीन छटपटाहट की विवशता भरी हुई है। ‘रखवाले’ में उन तथाकथित रखवालों को बेनक़ाब किया गया है जो समाज की छाती पर चट्टान बनकर खड़े हुए हैं।

विषयवस्तु की दृष्टि से कमलेश भारतीय की ये लघुकथाएँ आज की विभ्रम की स्थिति में चौराहे का दीया सिद्ध होती हैं। लेखक ने कई लघुकथाओं का समापन लेखकीय टिप्पणियों के साथ किया है। ‘महत्त्व’, ‘निशान’ और ‘एक मासूम सवाल’ में प्रश्नात्मक टिप्पणी लघुकथा की तीव्रता को कम करती है। सोचने की प्रक्रिया में ‘जागृति’, ‘मनीप्लांट और मैं’ लघुकथाएँ प्रभावित हुई है। ‘बदला हुआ नक्शा’ और ‘इतनी-सी बात’ में अन्तिम टिप्पणी से लघुकथाएँ और अधिक सशक्त हुई है। भाषिक प्रयोगों में कुछ प्रयोगों से बचा जा सकता था ,जैसे - कही थी, अपनी अखबार, भाई की इंटरव्यू, वे खिसिया, पत्नी रोज राज को पूछे आदि।

अपने अलग तेवर के कारण यह संग्रह पाठकों को कुछ सोचने पर बाध्य करता है। कोई भी लघुकथा-अपने शिल्प में साधारण होते हुए भी निरुद्देश्य नहीं है।

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