इस रात की सुबह नहीं / सुरेश कुमार मिश्रा

Gadya Kosh से
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'शरणार्थी' यह इस सदी का सबसे भयानक शब्द है। इसकी पीड़ा हमारी आत्मा तक को हिलाकर रख देती है। मैं आपको शरणार्थी शब्द का अर्थ बताना नहीं चाहता। इसके लिए आप स्वयं विद्वान व समझदार हैं। इसके अर्थ से शब्दकोश भरे पड़े हैं। इसकी व्याख्या करती महान विद्वानों की पुस्तकें बाज़ार में उपलब्ध हैं। दुख केवल इस बात का है कि बाज़ार में जो नहीं है, वह है-उनकी पीड़ा का समाधान। इस शब्द का अर्थ यदि आपको समझना है तो आपको एक दिन के लिए अपना घर छोड़ना पड़ेगा। ऐसी जगहों पर भटकना पड़ेगा जहाँ अपना कोई नहीं है। भूख, प्यास की पीड़ा से बिलबिलाता, तड़पता आपका शरीर कराह उठेगा। ऊपर से छत न होने के कारण धूप, बारिश, सर्दी, हवा कि मार अलग से झेलनी पड़ेगी। बीमार पड़ने पर आपको कोई देखने वाला नहीं होगा। इतना सब कुछ झेल गए तो आपकी जिजीविषा को नतमस्तक प्रणाम करता हूँ। यदि मर गए तो आपको कचरे की गाड़ी में डालकर कचरे के ढेर में डाल दिया जाएगा। फिर आगे का परिणाम तो जानते ही हैं कि क्या होगा। होगा क्या? अरे साहब! आपके बदन को कुत्ते, चील, गिद्ध और कीड़े-मकौड़े नोच-नोचकर खा लेंगे। कल्पना कीजिए कितती नरकीय यातना होगी यह। पता है यह सब क्यों हुआ? क्योंकि उसके पास कोई अपना कहने वाला नहीं था। कोई खाने को पूछने वाला नहीं था। कोई देखने वाला नहीं था। इसी भयावह स्थिति को झेलनेवाला शरणार्थी कहलाता है। कहने को तो वह किसी की शरण में जाता है, लेकिन उसे दुत्कार दिया जाता है। दुत्कारने की यह प्रक्रिया बदस्तुर जारी रही तो समझ जाना आपके आगे एक और विशेषण लग जाएगा और वह है- 'घुमक्कड़' शरणार्थी।

शरणार्थी कहलाना सबसे बड़ी पीड़ा है। यह अपमान है। साहब कोई भी घर यूँ ही नहीं छोड़ता। जब घर शार्क का मुंह बन जाए तो क्या करेगा। उन्हें कुछ बातें पता हैं जो सच हैं। उन्हें नहीं पता कि वे कहाँ भटक रहे हैं, वे कहाँ से गायब हो रहे हैं, वे अनजान हैं और उनकी अच्छाइयों की कद्र करने वाला कोई नहीं है। उनका शरीर आग से नहीं शर्म से जलता है। वे आतंकवादी नहीं हैं, बल्कि आतंकवाद का शिकार होने वाले पहले शिकार हैं। यह हमें नहीं भूलना चाहिए कि अन्याय कहीं भी हो, लेकिन वह हर जगह न्याय के लिए ख़तरा ही होता है। शरणार्थी केवल अपना देश ही नहीं छोड़ते बल्कि वे अपने पीछे मीठी-मीठी यादें, दुख-सुख और मिट्टी की सुगंध भी छोड़ते हैं। उन्हें पता है कि उनका जीवन अब ऐसी गहरी अंधकार वाली रात में बीतने वाला है, जिसकी कोई सुबह नहीं है।

शरणार्थियों का भी अपना एक मूल देश होता है। अंतर केवल इतना होता है कि वे जिसे अपना देश मानते हैं उसे सत्ता, परिस्थितियाँ, वहाँ के लोग सिरे से खारिज कर देते हैं। वे सुबह से लेकर रात तक घर, समाज, देश के निर्माण में, अपना खून-पसीना एक कर देते हैं। उनकी यह मेहनत प्रायः किसी को नज़र नहीं आती। उन्हें तो अपने देश (जिसे वह मूल मानता है) की प्रगति में हाथ बटाने का एक अलग ही आनंद मिलता है। उन्हें देखकर कौन कह सकता है कि ये वही शरणार्थी हैं जिन्होंने हमेशा अपने देश की सुनी और देश के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर किया। देश या समाज किसी को उनके लिए समय ही कहाँ था। समय़ उनके लिए होता है जिन्हें अपना माना जाता है। साहब शरणार्थियों का कोई देश नहीं होता।

सच तो यह है कि शरणार्थी कभी किसी के नहीं होते। इसीलिए हर देश उन्हें बोझ मानता है। उनसे छुटकारा चाहता है। किंतु शरणार्थी हैं कि वे देश पर बहुत भरोसा रखते हैं। उन्हें विश्वास है कि वे वहाँ से खदेड़े नहीं जाएँगे। मगर हालात बदलने में समय ही कितना लगता है। उनकी स्थिति उन पत्तों की तरह होती है जो कांटे पर गिरे या फिर कांटा उन पर, नुक़सान तो उन्हीं का होना है। एक फरमान से उन्हें देशनिकाला कर दिया जाता है। उन्हें भरोसा ही नहीं होता कि उनका अपना देश उनके साथ ऐसा धोखा भी कर सकता है। बरसों की मेहनत, लगन, सेवा सब एक पल में टूट जाता है। मातृभूमिक का साथ छूट जाता है। सदैव एक ही प्रश्न उन्हें खाये जाता है कि देश ने उन्हें धोखा क्यों दिया? क्या कोई कमी थी उनके व्यवहार में? क्यों? इस क्यों का समाधान देश के पास नहीं होता, बस वह अपने किये का आँख मूँदकर समर्थन करता है।

भारत के कश्मीरी पंडित से लेकर सीरिया, अफगानिस्तान, दक्षिण सुडान, म्यानमर, कांगो, सोमालिया, फिलिस्तिन जहाँ कहीं के भी शरणार्थी हों, हैं तो इंसान ही न! उन्हें भी भूख, प्यास लगती होगी। मारने पर पीड़ा होती होगी। वे भी हमारी तरह साँस लेते होंगे। फिर क्यों उनके साथ इतना अमानवीय बर्ताव? सच तो यह है कि वे अपने मन को, तड़प को, पीड़ा को और अपने साथ हुए विश्वासघात को जीतने की ज़िद में रहते हैं। जिस देश के साथ उनकी मधुर यादें हैं, उन यादो पर 'शरणार्थी' वाला पर्दा ओढ़ा दिया जाता है। वे अपने विश्वास को कभी कम नहीं होने देते। हो सकता है कि उनके देश ने उनसे धोखा किया है, पर वे अब भी अपनी मातृभूमि को जान से ज़्यादा चाहते हैं। पता नहीं उनकी जिंदगियों में फिर से मातृभूमि का प्यार कभी मिल पायेगा भी या नहीं। या फिर शरणार्थी वाले तमगे के साथ ही इस दुनिया को अलविदा कह देंगे।