इस शहर में मनोहर / प्रियदर्शन

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फणीश्वरनाथ रेणु का हीरामन अब गाँव में नहीं रहता, शहर चला आया है। बैलगाड़ी नहीं चलाता, कई दूसरे छोटे-छोटे काम करता है। उसका नाम इस कहानी में मनोहर है

एक ही जगह 5 घंटे तक खड़े रहने के बाद थक गया मनोहर। पहले तो यही सबसे आसान काम लग रहा था। जब सुना कि बस गेट पर खड़े रहकर आने-जाने वालों के कार्ड चेक करना है तो बाँछें खिल गईं। इतने भर काम के लिए 4000 रुपये मिलेंगे। ड्यूटी भी बस 10 घंटे। लेकिन आधे दिन में समझ में आ गया कि मेहनत करना आसान है, चुपचाप खड़े रहना मुश्किल। इतनी थकान तो काम करने में नहीं लगती, जितना खड़े रहकर सबको गुड मॉर्निंग बोलने में लगती है।

मनोहर ने जम्हाई ली। कंधे पर हल्का सा धौल पड़ा। शंकर साथ खड़ा था, ‘जम्हाई नहीं सिंघ जी। सिक्युरिटी मैन को एकदम तन कर खड़ा रहना पड़ता है। इसी बात का तो पैसा मिलता है हमलोग को।’

मनोहर तत्काल सतर्क हो गया। ‘नहीं-नहीं, जम्हाई नहीं...’ फिर खिसियाई हँसी हँसने लगा, ‘शंकर जी, यहाँ तो आधा दिन में टाँग दुखने लगी। पहले सोचते थे, बहुत आसान काम है।‘

शंकर अभ्यस्त निश्चिंतता के साथ बोला, ‘काम तो आसान ही है। पहले दिन दिक्कत होती है। धीरे-धीरे आदत पड़ जाती है। देखिएगा, अच्छा भी लगने लगेगा। बड़ा-बड़ा आदमी इस गेट से आता-जाता है। हम भी पहले दिन बिल्कुल सो गए थे।’

शंकर ने सही कहा था। आनेवाले दिनों में मनोहर भी आदी हो गया। एक जगह खड़े-खड़े पूरा दिन काट देना हालाँकि विचित्र लगता, लेकिन अब तकलीफ नहीं होती थी। कभी-कभी नींद आती, लेकिन उसे मालूम हो गया था कि ऐसे मौकों पर कैसे अपनी आँखें छुपानी चाहिए। फिर बड़े-बड़े लोग भी आते-जाते दिखे थे। शंकर ने ही बताया था, न्यूज चैनल का ऑफिस है। जो लड़कियाँ न्यूज पढ़ती हैं, वे यहाँ से आती-जाती हैं। मंत्री और अफसर भी बोलने आते हैं। मनोहर धीरे-धीरे चमत्कृत हो चला था। वाकई यह एक अलग दुनिया थी। उसकी बेरंग हताश दुनिया से अलग चमकते चेहरों वाली दुनिया, खिलखिलाहटों वाली दुनिया और सिगरेट के धुओं के बीच बनती दुनिया। दफ्तर में सिगरेट पीना मना था, इसले लोग बाहर आकर इसी हिस्से में सिगरेट सुलगाते। उसे हैरानी होती। कुछ लोग हर आधे घंटे पर नीचे चले आते और चुपचाप सिगरेट फूँकते रहते। कुछ के एक हाथ में सिगरेट होती दूसरे में मोबाइल। वे धीरे-धीरे, अपने-आप में मगन, न जाने कहाँ बातचीत किया करते। इन लोगों में लड़कियाँ भी होतीं - सीधी-सादी, सुंदर दिखने वाली ये लड़कियाँ सिगरेट फूँकती हैं, ये पहली बार देखकर वह सदमे में आ गया था। उसे लगा था कि जरूर इनके घरवालों को यह सब पता नहीं चलता होगा। हालाँकि शंकर ने बाद में समझाया था, ये बड़े लोगों की दुनिया इन छोटी-छोटी चीजों की परवाह नहीं करती।

उसे फिर भी अच्छा लगने लगा था। वह इन बड़े लोगों की दुनिया को कुछ करीब से देख रहा है। पूरी दुनिया को न सही, कुछ बड़े लोगों को। धीरे-धीरे वह उन्हें पहचानने भी लगा था। मसलन सुबह के वक्त शिखा मैम आतीं जो दिन में तीन-चार बार उतर कर सिगरेट पीतीं। शाम के वक्त नमिता पुरी कई बार तेजी से आती-जाती, लोगों से मिलती दिखती। वह देश की बहुत बड़ी पत्रकार है जिससे नेता लोग डरते हैं, ये उसे शंकर ने बताया था।

सबसे ज्यादा रोमांच उसे तब हुआ जब उसने रानी मुखर्जी और प्रियंका चोपड़ा को अपने दफ्तर में आते देखा। वे पास से तो बिल्कुल पहचानी नहीं जा रही थीं। प्रियंका चोपड़ा कुछ ज्यादा बच्ची लग रही थी तो रानी मुखर्जी कुछ ज्यादा बड़ी। लेकिन दूसरों को बताने के लिए उसके पास ऐसा अनुभव था जिससे उसके दोस्त सिर्फ ईर्ष्या कर सकते थे।

दोस्तों को तो नहीं, लेकिन उसने अपने 12 साल के बेटे को बताया था। त्रिलोकपुरी के एक तंग कमरे का उसका कुछ अँधेरा-सा बसेरा बेटे की अवाक मुस्कराहट से कुछ चमक-सा गया, ‘पापा, हमें भी बुला लेते। हम भी देख लेते।’

‘धत्त पागल, हमको थोड़े पता था, ऊ तो सामने आ गई और सबका हल्ला सुने तो समझ में आया कि हीरोइन लोग है।’ फिर तुरंत बड़प्पन ओढ़कर मनोहर ने जोड़ा, ‘और हमको का मतलब ई सिनेमावाली लड़की लोग से? हमरे यहाँ तो रोज टीवी पर न्यूज पढ़ने वाली लड़की लोग आती-जाती रहती है।’

बेटे ने फिर कुछ गरूर से अपने बाप को देखा जो इतनी अच्छी नौकरी करता है। मनोहर भी खुश हुआ कि खड़े-खड़े चाहे जितनी बोरियत हो, लेकिन उसकी नौकरी उसके बेटे को कुछ खुशी दे रही है।

इस खुशी का कुछ वास्ता इस तसल्ली से भी था कि अब आने जाने वाले लोग उसे पहचानने लगे हैं। सुबह से शाम तक वह भी सबको मुस्कुरा कर गुड मॉर्निंग कहता है, और सब उसको एक उदार मुस्कुराहट के साथ जवाब देते हैं। उसे उम्मीद थी कि जैसे वह सबको पहचानने लगा है, उसे भी सब पहचानने लगे हैं। कल को किसी मुसीबत में ये बड़े लोग उसकी मदद ही करेंगे। हालाँकि उसे पता नहीं था कि ये लोग उसका नाम जानते हैं या नहीं, लेकिन ये भरोसा था कि उसकी नीली कलफ लगी वर्दी में उसकी रोबीली दिखती कद-काठी को पहचानने में उन्हें मुश्किल नहीं होगी।

लेकिन इस दफ्तर ने उसे खुशी की जो असली सौगात दी थी, वह दूसरी थी। 10 बजे से ड्यूटी बजाते-बजाते जब साढ़े पाँच बज गए थे तब अचानक शंकर ने उसे आवाज दी थी, ‘मैं स्नैक्स लेकर आ रहा हूँ। फिर तू चले जाना?’ स्नैक्स? ये शब्द उसने शायद ठीक से सुना नहीं था या इसका मतलब उसकी समझ में नहीं आया था। बाद में मुँह पोछते लौट रहे शंकर ने समझाया कि यहाँ रोज शाम को नाश्ता बँटता है, जिसे स्नैक्स कहते हैं।’ बिल्कुल मुफ्त का। और ऐसा कि बाहर खरीदो तो कम से कम 50 का पत्ता निकल जाए।’ शंकर ने बताया था, ‘जाकर लाइन लग जाना, कार्ड दिखाना और खाने के बाद फिर ड्यूटी पर आ जाना।’

वाकई इस नाश्ते ने उसकी तबीयत खुश कर दी थी। इतना अच्छा नाश्ता तो किसी शादी ब्याह में ही मिलता है। और ये चॉकलेट के रंग का केक तो कमाल का था। हालाँकि खाते-खाते उसे बेटे की याद आई थी और नाश्ते का स्वाद कुछ फीका हो गया था।

और घर पहुँचकर तो यह नाश्ता गुनाह लगने लगा था। क्योंकि जब उसने घरवालों को बताया कि उसे शाम को क्या-क्या खाने को मिला है तो घरवाली तो खुश हुई लेकिन बेटा मायूस। ‘पापा, मेरा भी मन कर रहा है खाने का।’ और ये मायूसी रुलाई में बदल गई जब माँ ने इतनी सी बात पर बेटे को थप्पड़ जड़ दिया। शायद घरवाली को एहसास था कि दिन भर खटकर 4000 रुपये कमानेवाला उसका शौहर जो स्वाद लेकर लौटा है, वह बेटे के इसरार से बदजायका हो जाएगा।

लेकिन इस थप्पड़ से चीजें सुधरी नहीं, बिगड़ गईं। बिना किसी शरारत के थप्पड़ खाने की कसक के साथ हिचकियाँ लेते बेटे को मनोहर ने ही सँभाला और चुप कराया था और वादा भी किया था कि वह उसके लिए ऐसी ही चीज ले आएगा।

लेकिन कहाँ से ले आएगा? अभी तो नौकरी शुरू ही हुई थी। वह दो-तीन दिन अनमना रहा। नाश्ता लेने जाता तो अनमनापन उदासी और अपराध-बोध में बदल जाता। कोई अच्छी सी चीज खाते हुए बेटे का खयाल आता। शंकर ने बताया था कि रात की ड्यूटी में यहाँ खाना भी मिलता है, ‘बिल्कुल फ्री - रोज चिकेन होता है और बाद में कभी मिठाई और हलवा भी।’

लेकिन यह शानदार खबर मनोहर को खुश न कर सकी। उल्टे उसने शुक्र मनाया कि उसकी रात की ड्यूटी नहीं लगती है, वरना ये खाना भी आत्मा को नहीं पचता।

आखिरकार मनोहर ने शाम का नाश्ता भी छोड़ दिया। हालाँकि जितनी भारी पहले दिन की ड्यूटी थी, उतना ही भारी पहली बार नाश्ता छोड़ना था। शाम को साढ़े पाँच बजे के बाद अचानक भूख लग आती। फिर बाकी साथी जाते और खुश होकर लौटते। इसके अलावा शंकर रोज पूछता कि आखिर वह जा क्यों नहीं रहा। शुरू के तीन दिन उसने पेट खराब होने का बहाना बनाया, एक दिन मन नहीं होने का और एक दिन नाश्ता पसंद न आने का।

आखिरकार उसने शंकर को सच बता दिया। सुनकर शंकर हँसने लगा। तब तक दोनों में आत्मीयता का धागा औपचारिक संबंधों और संबोधनों को पीछे छोड़ चुका था। ‘बुद्धू, इतनी-सी बात!’ शंकर ने कहा। फिर शंकर ने बताया कि यहाँ नाश्ते की प्लेट ही नहीं, पैकेट भी मिलता है। मनोहर चाहे तो पैकेट ले ले और उसे चुपचाप घर ले जाए। ‘हालाँकि किसी को बताना नहीं, चुपचाप ले जाना, वरना पता नहीं, लोग क्या सोचेंगे।’ शंकर ने खबरदार किया।

उस दिन मनोहर धड़कते दिल से कैंटीन में गया। उसने कैंटीन मैनेजर से कहा कि वो उसे पैकेट दे दे। मैनेजरी देख रहे लड़के ने उस पर उड़ती सी नजर डाली और उसके हाथ में पैकेट थमा दिया।

मनोहर की जान में जान आई। पैकेट पाकर उसे इतनी खुशी हुई जितनी शायद नौकरी पाकर भी नहीं हुई थी। पाली खत्म होने पर पैकेट को बहुत जतन से सँभाले वह आठ बजे निकला। बस की भीड़भाड़ में पैकेट दब या पिस न जाए, इस डर से उसने दो भरी हुई बसें छोड़ दीं। तीसरी बस आई तो बहुत सँभल कर चढ़ा। बस से उतर कर घर पहुँचा तो चेहरे पर जैसे कोई जंग जीत कर आने की खुशी थी। ‘मुन्ना कहाँ है?’ मनोहर के स्वर की उत्तेजना से पत्नी कुछ हैरान हुई, लेकिन पत्नी के जवाब से पहले बेटा हाथ में अपनी पुरानी किताब लिए निकल आया, ‘पढ़ रहा हूँ। पहाड़े याद करने हैं।’

लेकिन जवाब सुनने की मनोहर को फुरसत नहीं थी। उसने तेजी से पैकेट बढ़ाया, ‘ले, तेरे लिए ले आया हूँ।’

पत्नी ने देखा तो पूछना चाहा, शाम को खुद नहीं खाए क्या, लेकिन मनोहर के चेहरे की तृप्ति देखकर चुप हो गई। फिर उसने बेटे को देखा जो पैकेट को खोल चुका था। नरमी से कहना चाहा कि उसमें से कुछ पिता को भी दे दे, लेकिन फिर बेटे का खिला हुआ चेहरा देख वह भी खिल गई।

पति-पत्नी ने एक-दूसरे का चेहरा देखा - ऐसा कोमल चेहरा तो शादी के दिन भी उन दोनों का नहीं था। छोटा सा सुख इतना बाँधता है क्या?

इसके बाद यह रोज का सिलसिला हो गया। मनोहर के दिन अचानक शाम की प्रतीक्षा का नाम हो गए। इस बीच उसकी समझ में आ गया था कि जब पैकेट चाहिए तो देर से जाए। पहले प्लेट बँटती है, पैकेट बाद में तैयार होते हैं। पहले वह सहमे अंदाज में पैकेट माँगता, फिर धीरे-धीरे बेधड़क माँगने लगा। बेखबरी में उसे अंदाजा भी न रहा कि लोग उसकी हरकत पर निगाह रख रहे हैं। पहले लापरवाही से उसकी तरफ पैकेट बढ़ा देने वाला लड़का झुँझलाने लगा था। ‘ये साले खाते नहीं, घर ले जाते हैं। इनके लिए पैकेट बनाने का क्या मतलब है?’

उसके इस सवाल का जवाब देने वाला कोई नहीं था। कौन देता? एक पैकेट पर सबका हक है। जो चाहे ले जाए, जिसे खिलाए।

लेकिन मामला इतना आसान नहीं था।

हर जगह खुरपेंची करनेवाले निकल आते थे। हर जगह बेमतलब झुँझलाने वाले लोग बढ़ते जाते थे।

हर जगह खर्च कम करने की तरकीबें खोजी जाती थीं।

एक दिन कैंटीन में भी ये काम शुरू हो गया।

मैनेजर ने लड़के को तलब किया, ‘इतने पैकेट कैसे लग जाते हैं? लोग तो कम दिखते हैं।’

लड़का सहमा हुआ था, लेकिन उसके पास जवाब था, ‘एक-एक के कार्ड पंच करवाता हूँ। जो कार्ड नहीं लाते, उनसे साइन करवाता हूँ। लेकिन यहाँ तो सिर्फ ऑफिसवाले ही नहीं, बाहरवाले भी खा जाते हैं। ये गार्ड ऑफिस के लोग तो हैं नहीं, ये क्यों खाने चले आते हैं?’

मैनेजर लड़के की बात से सौ फीसदी सहमत था। लेकिन ऊपरवालों का आदेश उसके पास था, लड़के के पास नहीं। उसे साफ कहा गया था कि यहाँ सिर्फ स्टाफ नहीं, वे सब खाएँगे जो कंपनी के लिए काम करते हैं। चाहे ठेकेदार के आदमी हों या सिक्युरिटी गार्ड्स हों।

मैनेजर ने लड़के को समझाया, ‘देख, उन लोगों को रोकना ठीक नहीं न। सब कंपनी का काम करते हैं। लेकिन ये नजर रख कि कोई ज्यादा पैकेट तो नहीं ले जाता। किसी के दुबारा साइन तो नहीं हो जाते।’

बस, लड़के की पुरानी झुँझलाहट जाग गई, ‘यहाँ तो लोग खाते ही नहीं, घर भी ले जाते हैं। ये सिक्युरिटी गार्ड्स देखिए। सबके सब पैकेट माँगते हैं। क्योंकि उन्हें घर ले जाना है। या फिर बाहर बेच देना है। ये बेईमानी करते हैं।’

यहाँ मैनेजर ने लड़के से बहस नहीं की, कि वे बेईमानी करते हैं या नहीं। बस, प्वाइंट उसकी समझ में आ गया। ना, इन लोगों को रोकना होगा।

‘जो पैकेट माँगे, उसे बता दे कि यहाँ खाने के लिए नाश्ता मिलता है, घर ले जाने के लिए नहीं। बल्कि ठीक से ह़ड़का दे कि वे दुबारा न आएँ।’

बस, लड़के को यही चाहिए था। मैनेजर का हुक्म मिल गया था।

उस दिन शाम हुई, नाश्ता हमेशा की तरह टेबल पर सजा। लोग हमेशा की तरह साढे पाँच बजते कतार में खड़े हो गए। हमेशा की तरह जब कुछ शांति हुई तो लड़के ने पैकेट बनाने शुरू कर दिए।

पैकेट उन लोगों के लिए, जो साफ-सुथरे कपड़ों में आते हैं और प्लेट हो या पैकेट, लेकर चल देते हैं।

फिर उसकी घड़ी आई।

मनोहर को आते देख उसकी भौंहें तन गईं।

मनोहर को उसने जान-बूझ कर प्लेट बढ़ाई।

मनोहर ने कहा, उसे पैकेट चाहिए।

इसके बाद के उत्तर के लिए मनोहर तैयार नहीं था।

यह उत्तर नहीं, एक तरह से हमला था, ऊँची और कर्कश आवाज में, ‘पैकेट तुझे क्यों चाहिए? जब प्लेट दे रहा हूँ तो क्या दिक्कत हो रही है? बाहर ले जाकर बेचता है क्या?’

मनोहर बिल्कुल सहम गया। ये तीन वाक्य ऐसे थे जैसे किसी ने गाल पर तीन तेज थप्पड़ जड़ दिए हों। वाकई उसका चेहरा लाल हो गया। उसके पीछे कई लोग खड़े तमाशा देख रहे थे।

उसकी हिम्मत टूट चुकी थी। बस लड़खड़ाती आवाज में सच बोल पाया, ‘बेचता नहीं हूँ, बच्चे के लिए ले जाता हूँ।’

‘बच्चे के लिए ले जाता हूँ!’ आवाज अब भी उतनी ही कर्कश बनी हुई थी। ‘साले, मैं क्या जानूँ। क्या करते हो। बेचते हो या बच्चे को खिलाते हो। और बच्चे को खिलाते हो तो बाहर से खिलाओ। सैलरी मिलती है न? फिर कंपनी को चूना क्यों लगाते हो? लो ले जाओ, कल से खुद खाना हो तो आना, वरना पैकेट के लिए मत आना।’

थरथराते मनोहर की हिम्मत भी न पड़ी कि वह पैकेट के लिए इनकार कर सके। उसने झुकी हुई निगाहों से पैकेट लिए और लड़खड़ाता हुआ-सा निकला। पता नहीं, कोई उसे देख रहा था या नहीं, लेकिन उसे लग रहा था कि हर कोई उसकी पीठ पीछे उस पर हंस रहा है।

उस दिन बाद के दो घंटे कैसे कटे, उसे पता नहीं चला। एक-एक लम्हा सूई की तरह चुभता रहा। एक-एक लम्हा किसी ब्लेड की तरह छीलता रहा। एक-एक लम्हा किसी हथौड़े की तरह पड़ता रहा। एक ही लम्हे में उस पर न जाने कितने इल्जाम लग चुके थे - वह चोर है, झूठा है, कैंटीन का सामान बाहर बेचता है, कंपनी को चूना लगाता है। वह बुरी तरह परेशान और घबराया हुआ था। कहीं ऊपर शिकायत हो गई और उसकी नौकरी चली गई तो? इसके आगे वह सोच नहीं पा रहा था।

रोज की तरह वह आठ बजे निकला। जो पहली बस दिखी बैठ गया। हाथ में पैकेट था, लेकिन वह पिस रहा था, दब रहा था, उसे परवाह नहीं थी।

रोज की तरह 45 मिनट बाद घर पहुँचा।

रोज की तरह पत्नी ने दरवाजा खोला और बेटे ने पैकेट।

लेकिन रोज की तरह उसके चेहरे पर खुशी नहीं थी।

पत्नी ने भी पहचान लिया बेटे ने भी।

‘क्या हुआ?’ पत्नी ने किसी आशंका से पूछा।

उसने हल्का बनाते हुए टालने की कोशिश की, फीकी हँसी हँसता हुआ बोला, ‘आज आखिरी बार पैकेट ला रहा हूँ। कल से बंद।’

‘क्यों?’ दोनों की आवाज लगभग एक साथ आई।

क्यों? इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब उसे भी नहीं मालूम था।

वह सोच भी नहीं पा रहा था कि उस कैंटीनवाले लड़के ने उसके साथ यह सलूक क्यों किया।

वह नरमी से मना कर देता। वह उसे अलग से समझा देता। लेकिन उसने सीधे उसे बेइज्जत किया।

यह गरीब होने की सजा थी? यह क्या था?

उस बरताव की याद आते ही फिर उसने खुद को सँभालकर कुछ कहना चाहा।

लेकिन आँख भर आई और उसके पहले गला भर आया।

और वह रोता, उसके पहले उसका बेटा बुक्का फाड़कर रो पडा। उसने अपने पिता को इस तरह कमजोर पड़ते कभी नहीं देखा था।

जब बाप-बेटे भर आए हों तो पत्नी सूखी कैसे रहती। वह भी बिलख उठी।

आँसुओं का ज्वार थमा तो मनोहर ने बताया, उसे क्या-क्या सुनना पड़ा है।

कहा, आगे से वह कैंटीन जाएगा ही नहीं।

बेटे ने भी जोड़ा, वह ऐसा खाना खाएगा ही नहीं।

माँ ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसकी आँखें बता रही थीं कि अचानक बड़े हो गए बेटे और छोटे हो गए बाप पर उसे कुछ गरूर सा हो आया है।

तीनों ने एक-दूसरे को देखा। कहा किसी ने नहीं, अपने-अपने ढंग से सबने सोचा, छोटा सा दुख इतना बाँधता है क्या?

हीरामन अब भी कसमें खाता है, लेकिन जानता है कि कसमें टूट जाएँगी। दरअसल उसका पूरा वजूद टूटने की किरचा-किरचा दास्तानों से बना है।

मनोहर ने कसम खा ली थी- वह आगे से नाश्ता नहीं लेगा। हालाँकि यह कसम बहुत सारी वजहों से टिकी नहीं।

जिस लड़के ने उसे कैंटीन में बेइज्जत किया था, वह एक दिन आकर माफी माँग गया। शायद उसे एहसास हो चुका था कि अपनी ढिठाई या रंज में उसने एक भले आदमी का दिल दुखाया है। यही नहीं, एक दिन वह अपनी तरफ से उसे पैकेट पहुँचाने भी चला आया।

मनोहर ने पहली बार सख्ती से मना किया, फिर शंकर के समझाने पर ना-नुकुर करता हुआ मान भी गया।

रात को पैकेट लेकर घर लौटा तो पत्नी हैरान हुई, बेटा भी। बेटे ने खाया भी, लेकिन उस दिन उसने राज खोला कि ये नाश्ता उसे कुछ खास रुचता नहीं, ‘पैकेट तो बड़ा सुंदर होता है, लेकिन पता नहीं, कैसी-कैसी चीजें होती हैं जिन्हें खाने का मन नहीं करता।’

बहरहाल, धीरे-धीरे नाश्ते का प्रसंग पीछे छूट गया। इसलिए भी कि एक और बड़ा प्रसंग चला आया। इतना बड़ा कि मनोहर को काफी कुछ सोचने की नौबत आ गई। पहले वह शंकर के साथ दरबानी करता था, लेकिन कंपनी ने शंकर को कहीं और लगा दिया। अब उसकी जगह एक लड़की आ गई थी - लड़की नहीं, पूरी मेहरारू, जिसका काम उसके साथ पूरी ड्यूटी में खड़े रहना था। कंपनी में आने-जाने वालों को चेक करने का नया फरमान आया था और लड़कियों को चेक करने के लिए एक महिला की जरूरत थी।

इसलिए सीमा आ गई और वैसी ही ड्रेस में उसके साथ खड़ी रही। सिर्फ खड़ी रही। एक घंटा, दो घंटे, चार घंटे। डरी-सहमी और सकुचाई सी। कुछ न बोले। उसकी तरफ देखे भी नहीं। और तो और, लड़कियों को देखकर भी झेंप जाए। खासकर जिन लड़कियों की ड्रेस कुछ ज्यादा भड़कीली लगे, उनकी तरफ तो उसकी आँख भी न उठे।

लेकिन उस दिन मनोहर को थकान हुई ही नहीं। वह देखता और देखता रहा। सीमा बहुत सुंदर नहीं थी। साँवली थी। चेहरा भी सख्त था। लेकिन फिर भी वह एक महिला थी। अनजान महिला। सहमा हुआ वह भी था, लेकिन यह एक अलग तरह का डर था। कुछ ऐसा न हो जाए जिससे सीमा उसके बारे में कोई गलत राय बनाए। पूरे दिन उसने सुरती तक नहीं फाँकी। बाथरूम जाने के लिए भी बहाना कोई और बनाया। बाथरूम में खयाल आया कि सीमा को भी तो ऐसी जरूरत महसूस होती होगी। उसे दया भी आई।

लेकिन उस दिन तो मनोहर को मालूम भी नहीं था कि उसका नाम सीमा है। पहला दिन तो बस चेहरा देखते गुजरा। चेहरा देखते नहीं, चेहरा छुपाते। आमने-सामने खड़े होने के बाद भी दोनों एक-दूसरे को नहीं देख रहे थे। जब आने-जाने वाले ज्यादा होते तो यह पता नहीं चलता, लेकिन दोपहर को आधे-आधे घंटे एक-दूसरे से नजर बचाने में गुजर जाते। शाम को नाश्ते का समय आया तो मनोहर ने चाहा कि उसे बता दे। लेकिन वह न खुद जा पाया न सीमा को बता पाया।

अगले दिन मनोहर ने शाम को सहमते-सहमते बताया, ‘जाइए, नाश्ता ले लीजिए।’ वह उसे कुछ हैरान-सी देखती रही, फिर उसने धीरे से पूछा, ‘किधर?’ मनोहर ने हाथ से इशारा कर दिया, फिर अचानक याद करके बताया, ‘कार्ड देना होगा।’

दस मिनट बाद सीमा लौटी तो अचानक तृप्त लग रही थी। चेहरे पर संकोच था, लेकिन वह सहमी हुई नहीं थी। इस बार बोलने की बारी उसकी थी, ‘आप भी खा आइए।’

मनोहर के लिए यह छोटा-सा वाक्य भी बहुत बड़ा था। वह झटपट गया और पैकेट लेकर लौट आया। हालाँकि उसे मालूम था कि इस शाम के नाश्ते में बेटे की दिलचस्पी नहीं बची है। लेकिन उसे बताना था कि वह घर का कितना खयाल रखता है। सीमा ने उसके हाथ में पैकेट देखा तो फिर हैरान हुई। वह अपने संकोच में पूछ नहीं पाई, लेकिन मनोहर ने बताया, ‘बेटा के लिए ले जा रहा हूँ। खुद खा लेना अच्छा नहीं लगता।’

सीमा का पहले से सख्त चेहरा अचानक बहुत निरीह हो गया। शायद पहली बार उसने कोई चीज अपने बेटे और पति से पहले खा ली थी। ‘मालूम नहीं था, नहीं तो हम भी घर ले जाते।’ आवाज में पछतावा था। मनोहर को अच्छा नहीं लगा। उसे लगा कि उसने इस बेचारी का जायका खराब कर दिया है। फौरन बोला, ‘नहीं, नियम तो नहीं है, लेकिन हम लोग चुपचाप ले जाते हैं, कैंटीन वाला भी जानता है।’ उसे नहीं लगा कि सीमा को इससे भी तसल्ली हुई है।

अगले दिन वह आई तो उसे शाम होने का इंतजार था। मनोहर उसकी बेताबी पढ़ रहा था और मुस्कुरा रहा था। बीती शाम की बातचीत ने उनके बीच का परदा हटा दिया था और अब आधे-आधे घंटों का खालीपन सन्नाटे में नहीं, एक-दूसरे की सूचनाएँ जुटाने में जा रहा था।

मनोहर को पता चला, सीमा का पति ऑटो चलाता है। लेकिन पीता नहीं है, सीमा ने इस पर जोर दिया था। इस बात पर भी कि उसी के कहने पर वह ये नौकरी कर रही है। ‘बेटे के स्कूल जाने की उमर हो गई है। उसकी फीस और पढ़ाई का खर्चा यहाँ की कमाई से निकल जाएगा।’ सीमा ने बताया कि उसे रमेश ने बताया था - रमेश, यानी सीमा का पति। इसके पहले वह कभी घर से नहीं निकली थी, बहुत डर लग रहा था, किसी तरह हिम्मत बाँध कर आई। मनोहर पहली बार कुछ खुलकर हँसा, ‘अपने डर रहे हैं और पूरा बिल्डिंग का रखवाली कर रहे हैं।’ सीमा भी हँसने लगी, ‘रखवाली नहीं, बस चेक करना है सबको। बस ऐसे ही।’

ये बातचीत चलती जा रही थी और मनोहर के लिए नौकरी मनोहर होती जा रही थी। अब उसे पहले की तरह झल्लाहट और ऊब नहीं होती थी। घर जाता तो गुनगुनाता हुआ जाता। घर से आता तो साफ कपड़ों का खयाल रखके आता। हालाँकि दफ्तर जाकर फौरन दरबानी वाली ड्रेस पहननी पड़ती, लेकिन अगर कभी सीमा उसे उसके मुचड़े हुए कपड़ों में देख ले तो क्या सोचे?

सीमा सुंदर नहीं थी, लेकिन सीमा थी, शंकर नहीं थी। मनोहर के लिए बस इतना ही काफी था। नहीं, वह कोई सीमा का दीवाना नहीं हो गया था। उसे अपनी उम्र और हैसियत - सबकुछ का अंदाजा था, सीमा की सीमा और शराफत का भी। उसे मालूम था कि अगर उसने ऐसी-वैसी कोई बात सोची और सीमा को समझ में आ गया तो मुस्कुराहट और गपशप का यह नया बना पुल सीधे नीचे आ गिरेगा। जबकि ऐसा पुल जिंदगी में उसे बस पहली बार मिला था। वह जाने-अनजाने सीमा की बहुत सारी छोटी-छोटी जरूरतों और मुश्किलों का खयाल रखने लगा था।

सीमा भी सहज हो रही थी। एक दिन उसने कहा था, ‘आप लोग अच्छे लोग हैं। नौकरी करने का सब डर चला गया। नहीं तो क्या-क्या सुनते थे यहाँ के बारे में।’

‘क्या सुनते थे?’ मनोहर ने जान-बूझ कर पूछा। ‘पता नहीं, तरह-तरह की बात।’ सीमा ज्यादा बता नहीं पाई। यह बात समझ में आई कि दफ्तर में आनेवाली ऊँचे घरों की लड़कियों से उसके पति ने उसे सावधान किया था, ‘देखते नहीं, सिगरेट पीती हैं, कैसे-कैसे कपड़े पहनती हैं... पता नहीं, और क्या-क्या करती होंगी’, अपने संकोच और सहमे हुए गुस्से के बीच धीरे-धीरे सीमा ने कहा था।

मनोहर को अच्छा नहीं लगा। उसे तो ये भली लड़कियाँ लगती हैं। अंग्रेजी बोलती हैं और कभी-कभार उससे बात करने की नौबत आती है तो कितनी इज्जत से, अंग्रेजी स्टाइल में, मनोहर जी पुकारती हैं। उससे रहा नहीं गया। ‘नहीं, ऐसा नहीं है। सब अच्छी लड़कियाँ हैं। भले घरों की। अब फैशन ही ऐसा हो गया है तो क्या बोलिएगा।’

बाद में सीमा को भी लगने लगा था कि ऐसा नहीं है। ये भले घरों की लड़कियाँ हैं। हालाँकि इनका सिगरेट पीना उसे कभी अच्छा नहीं लगा, न ही ज्यादा खुले कपड़े पहनना। लेकिन छोटे-छोटे बालों वाली, चमकती आँखोंवाली, टी-शर्ट और जींस पहननेवाली ये लड़कियाँ उसे अच्छी लगने लगीं। खासकर एक दुबली-पतली सी लड़की रोज टहलती हुई सिगरेट पीती और चलते-चलते उसका हाल-चाल पूछ लेती। एक बार तो उसने सीमा के टिफिन से रोटी और अचार निकालकर खा लिया था। सीमा संकोच में पड़ गई थी। ऐसी सुंदर और अमीर लड़की को ऐसी सूखी रोटियाँ कैसे दे दे। लेकिन उस लड़की को जैसे कोई फर्क नहीं पड़ा था। उसने बड़े सहज ढंग से पूछा था, ‘आपको आंटी कहूँ या दीदी? जब कुछ खास बनाइए तो मेरे लिए जरूर रखिएगा।’

सीमा के लिए यह बहुत बड़ी बात थी। अगले ही दिन वह हलवा बनाकर ले आई थी। सिर्फ उस लड़की के लिए नहीं, मनोहर के लिए भी। आखिर वह भी तो उसका बहुत खयाल रखता है। मनोहर भी खाकर खुश हुआ। और लड़की तो उस पर फिदा थी, ‘दीदी, आप मेक अप क्यों नहीं करती हो? ये बाल छोटे करा लो। तुम पर खूब फबेंगे। स्वीट हो आप। सब मर-मिटेंगे।’

सीमा लजाई भी, हँसी भी। मनोहर उसे देख रहा था, इतना सख्त चेहरा इतना कोमल भी हो सकता है। सीमा इसलिए भी लजा रही थी कि सारी बात मनोहर सुन रहा था। लड़की जब चली गई तो दोनों ने एक-दूसरे को देखा। लजाई हुई सीमा बस इतना बोल पाई, ‘पगली है, पता नहीं, क्या-क्या बकती रहती है।’

‘बोली तो ठीक।’ मनोहर ने पहली बार सरहद पार की थी, हालाँकि सहमे हुए ढंग से ही, और बोल कर डर गया था। सुनकर सीमा भी हैरान रह गई थी। मनोहर जी भी ये सब सोचते हैं?

मनोहर ने फौरन बात सँभाली, ‘नहीं-नहीं, छोटे बाल का फैशन है न, इसलिए बोले।’

उस दिन और कोई कुछ नहीं बोला। सब अपनी-अपनी ड्यूटी निभाते रहे। अगले दिन से सब ठीक हो गया तो मनोहर ने चैन की साँस ली।

लेकिन अगले हफ्ते मनोहर ड्यूटी पर पहुँचा तो जैसे जादू हो गया था। सामने एक छोटे बालोंवाली लड़की खड़ी थी। सीमा कहाँ गई? अरे, ये तो सीमा ही है? मनोहर हैरान रह गया। और सीमा तो बिल्कुल उससे आँख मिलाने में मरी जा रही थी। उसने बाल कटवा लिए थे। जरूर चेहरे पर भी कुछ करवाया होगा। धीरे-धीरे वह सहज हो पाई, ‘लगा कि सब तो कटवाते ही हैं, तो हम भी कटवा लिए।’

‘क्या बोले रमेश जी? सीमा के पति से मनोहर की मुलाकात तो नहीं थी, लेकिन उसका जिक्र इतनी बार आ चुका था कि वह अनजान भी नहीं लगता था। सीमा इस सवाल पर चुप लगा गई। मनोहर ने भी टोकना ठीक नहीं समझा। उसे अपनी बीवी का खयाल आया। अगर वह बाल कटवा ले तो? और अचानक उसे किसी अनिष्ट का अंदेशा हुआ।

अनिष्ट की खबर उसे तीन दिन बाद मिली। उस दिन ड्यूटी पर पहुँचा तो उसे एक नई लड़की मिली। उसे लगा, सीमा ने फिर मेकअप किया क्या? लेकिन नहीं, ये वाकई नई लड़की थी, रूखी सी, अपने-आप में मगन।

शाम को टहलता हुआ शंकर आया। ‘तुझे पता है, पंगा हो गया है?’ मनोहर कुछ समझ नहीं पाया। ‘सीमा ने नौकरी छोड़ दी है। उसके पति ने छुड़ा दी है।’ शंकर बेलौस बता रहा था, ‘उसके पर निकल आए थे। पिछले हफ्ते उसने बाल कटा लिए थे। न जाने किसके लिए हलवा बनाकर लाई थी। तुझे भी खिलाया था क्या?’

मनोहर स्तब्ध था। इतनी सी बात पर ऑटोवाले ने नौकरी छुड़ा दी। इतनी तारीफ करती थी अपने पति की। कमबख्त ऐसा शक्की निकला।

शंकर ने उसकी पीठ पर हाथ मारा। ‘अरे तू इतना परेशान क्यों है? एक गई तो दूसरी आ गई। वो भी तुझे खिलाएगी हलवा।’

मनोहर का मन बुरी तरह खराब हो गया। शंकर को जवाब देने की इच्छा भी नहीं हुई। शंकर भी समझ गया, उसका मजाक गलत जगह लगा है। उसने फौरन जोड़ा, ‘अरे, इतना भर मजाक का हक तो है।’

मनोहर फिर भी चुप रहा। न जाने उसे क्यों लगता रहा कि सीमा की नौकरी छुड़ाने में उसका भी हाथ है।

ये सैलरी का दिन था। सैलरी लेने के लिए सिक्युरिकी एजेंसी के ऑफिस जाना पड़ता था। ड्यूटी खत्म कर वह पहुँचा। दफ्तर के बाहर अचानक चिहुंक सा गया। एक जानी-पहचानी सी औरत खड़ी थी। छोटे-छोटे बाल थे उसके। यह सीमा थी। एजेंसी की वर्दी में नहीं साड़ी में। चेहरे पर सख्ती की जगह मायूसी थी।

सीमा ने भी उसे देख लिया। लेकिन वह मनोहर के पास नहीं आई। सीमा के साथ एक मर्द खड़ा था। मनोहर ने समझ लिया, यही रमेश होगा, वह ऑटोवाला जो पीता नहीं है।

सीमा ने पैसे लिए। अपने ऑटोवाले के साथ चल दी। चेहरे पर कोई भाव नहीं था। मनोहर ने पैसे लिए। वह बहुत देर वहीं खड़ा रहा। इस उम्मीद में कि शायद सीमा किसी बहाने आए। लेकिन सीमा नहीं आई।

घर पहुँचा तो पत्नी राह देख रही थी, ‘बोले थे, पैसा लेकर जल्दी आ जाएँगे। इतना देर कहाँ लगा दिए थे?’ मनोहर ने जवाब नहीं दिया तो वाकई घबरा गई, ‘तबीयत ठीक है न?’

मनोहर ने सिर हिलाया। फिर सिर झटका। दूसरी कसम खा ली, आगे से किसी औरत के हाथ का बनाया हलवा नहीं खाएगा। उसे बाल कटाने की सलाह नहीं देगा।

छोटे-से परिवार का छोटा-सा सुख। अनजान-सी औरत से अनकहा-सा प्रेम। यह सब क्यों छूट जाता है? इस बड़े शहर में बड़े लोगों के बीच उसका हर सपना क्यों टूट जाता है? हीरामन जानता नहीं, लेकिन जमाना उसे बता देता है।

शंकर सही निकला, जिसने कहा था कि एक जाएगी तो दूसरी हलवा खिलानेवाली आ जाएगी। धीरे-धीरे मनोहर सीमा को भूल गया। अब उसकी जगह आशा थी। आशा भी सीमा जैसी ही थी – साँवली, सामान्य, अपने में सिकुड़ी हुई। आशा ने कभी हलवा नहीं खिलाया। लेकिन उसके साथ भी मनोहर के दिन ठीक बीतने लगे। सीमा चुप रहनेवाली थी और आशा बोलनेवाली। शुरू का संकोच टूटने के बाद वह हर आने-जाने वाले पर टिप्पणी करती। आशा के साथ मन लगने लगा।

मन लगने की वजहें और भी थीं। धीरे-धीरे शंकर को एहसास हो चला था कि वह जिस दफ्तर में काम करता है, वहाँ बहुत बड़े लोग आते-जाते हैं। मंत्री-संतरी सब उनसे डरते हैं। थाना-पुलिस, कचहरी-अस्पताल, कहीं उनका काम नहीं रुकता। ‘एक बार बोल दो तो वो आपके सारे काम करा देते हैं।’ ये जानकारी उसे आशा ने ही दी थी। आशा का मर्द जब बहुत बीमार था तो इसी दफ्तर के एक बड़े साहब ने उसे एम्स में जगह दिलवाई थी। वरना एम्स में आजकल बेड मिलता किसको है?

शंकर को भी तसल्ली हुई थी। जब आशा को इतने मददगार मिल गए तो वह तो और भी पुराना है। उसे तो सब जानने लगे हैं। वह नमिता मैम भी, जिन पर फिल्म बन रही है। वो भी उसे पहचानती हैं। देखकर रोज कायदे से सिर हिलाती हैं। किसी मदद की जरूरत पड़ेगी तो जरूर करेंगी।

मदद की जरूरत पड़ भी गई। उसने अखबार में पढ़ा था कि अब प्राइवेट अंग्रेजी स्कूलों में भी 14 साल के कम उम्र के बच्चों को मुफ्त पढ़ाया जाएगा। उसका बेटा तो 12 साल का ही है। सरकारी स्कूल में जाता है, लेकिन अगर स्कूल बदल जाए तो कितना अच्छा हो? अचानक परिवार ने कई सपने देख डाले थे। खासकर बेटे ने, कलफ लगी धुली पैंट और चमचमाते जूतों के, जिसका इंतजाम उसके लिए सरकार करेगी।

मनोहर ड्यूटी पर आने से पहले सुबह-सुबह स्कूलों के चक्कर लगाने लगा। लेकिन स्कूल थे कि गेट के भीतर दाखिल होने नहीं दे रहे थे। वह जाता और बार-बार लौट आता।

तभी उसे खयाल आया, अपने साहब लोगों की मदद लेने का। दो दिन फिर भी उसकी हिम्मत नहीं पड़ी किसी से बात करने की। एक शाम उसने निकलते हुए नमिता मैम को टोका, ‘मैम, मेरा एक काम है।’ नमिता मैम अचानक चौंक गईं, ‘हाँ-हाँ, बताइए।’

‘मेरा बेटा का किसी स्कूल में ऐडमिशन कराना है।’

‘कितने साल का है?’

‘बारह का।

‘बारह का है और स्कूल नहीं जाता?’

‘नहीं-नहीं,’ मनोहर ने बात सँभाली, ‘जाता है। सातवीं में पढ़ता है। लेकिन हम चाहते हैं उसका स्कूल बदल जाता। अब तो प्राइवेट स्कूल में भी गरीब बच्चों को पढ़ाने का कानून बन गया है।‘

इतना लंबा वाक्य बोलते-बोलते सहम गया मनोहर। लेकिन जवाब में मिला बस एक हूँ।

उसने फिर हिम्मत की, ‘हमलोग तो स्कूल के भीतर भी नहीं जा पाते। आप कहीं बोल देतीं तो कुछ हो जाता।’

‘देखती हूँ,’ इस संक्षिप्त जवाब के साथ आगे बढ़ गई नमिता मैम के परफ्यूम की पीछे छूटी खुशबू के बावजूद मनोहर ने कुछ घुटता हुआ-सा महसूस किया। क्या उसे नहीं बोलना चाहिए था?

अगला पूरा हफ्ता इंतजार में गुजर गया। नमिता मैम आतीं-जातीं, लेकिन उससे कुछ न कहतीं। उन्होंने यह भी नहीं पूछा था कि कौन-से स्कूल में एडमिशन चाहिए। अब मनोहर धीरे-धीरे पछताने लगा था। बड़े लोगों से अपने संपर्क की डींग उसने फालतू घर में हाँकी थी। पत्नी अब ताने देगी। लेकिन पत्नी को ताने देने का खयाल नहीं था, अपने बच्चे की फिक्र थी। वह हर रोज पूछती, ‘मैम ने कुछ कहा?’ दो दिन मनोहर ने झूठ बोल दिया, दिखी ही नहीं, फिर एक दिन अपने भूल जाने का बहाना किया। आखिरकार हार कर उसने अपने हाथ खड़े कर दिए, ‘वे तो कुछ बोलतीं ही नहीं, लगता है, करना नहीं चाहतीं।’

लेकिन पत्नी ने हाथ खड़े नहीं किए थे। उसने सामने से नहीं, टीवी पर नमिता मैम को देख रखा था। जब निठारी के बच्चों की खबर दे रही थी तो उनके चेहरे पर कितनी तकलीफ थी। इतनी अच्छी औरत भला उसके बच्चे का खयाल नहीं रखेगी? वह तो नमिता मैम को सामने से भी देखना चाहती थी।

इसी इच्छा से अचानक निकला एक नया सुझाव। ‘चलिए एक दिन हमलोग भी चलते हैं। हम लोगों को सामने देखेगी तो मना नहीं कर पाएगी।’

मनोहर एकबारगी हड़बड़ा गया। उसे खयाल आया कि वह इन लोगों को बैठाएगा कहाँ? फिर बेटे के सामने अपनी वर्दी का रौब दिखाने और वहाँ खड़े होकर दरबानी करने में अंतर है। उसने फौरन कहा, ‘नहीं-नहीं, तुम लोगों को ऑफिस जाकर क्या करना है। वहाँ तो बैठने की जगह भी नहीं होती।‘

लेकिन अब बेटा भी मचल गया था। वह भी इन बड़े टीवी वालों को देखना चाहता था। बड़े स्कूल में पढ़ने की चाहत जितनी थी, उससे कम नशीला यह खयाल नहीं था कि उसके एडमिशन के लिए नमिता मैम सिफारिश करेंगी। उसने भी जोड़ा, ‘हम लोग बाहर खड़े रहेंगे।’

मनोहर धर्मसंकट में पड़ गया। वह किसी भी हाल में इन लोगों को ऑफिस नहीं ले जाना चाहता था। लेकिन पत्नी की दलील से एक उम्मीद उसके भीतर भी उग आई। क्या पता वाकई बेटे की सूरत देखकर नमिता मैम कोई रास्ता निकाल दें।

उस शाम पत्नी और बेटे ने अपने सबसे अच्छे कपड़े निकाले। पत्नी ने अपनी पुरानी साड़ी और बेटे ने अपना स्कूल ड्रेस। 40 मिनट बाद दफ्तर के बाहर पार्किंग के पास खड़े वे अपने पति और पिता मनोहर को अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद देख रहे थे। पत्नी ने पहली बार महसूस किया, एक जगह खड़े होकर ड्यूटी देना आसान काम नहीं है। भीतर पछताई कि कभी-कभी वह ताना क्यों मारती रही। बेटे ने भी पहली बार महसूस किया कि पिता जितने बड़े हैं, उनसे भी बड़े लोग हैं। घर में आम तौर पर सख्त रहनेवाले और सिर्फ पढ़ाई की बात करने वाले पिता अलग हैं और यहाँ खड़े पिता अलग हैं। घर पर साधारण कपड़ों में भी पिता के चेहरे पर जो रौब रहता है, वह यहाँ इस वर्दी में भी नहीं है।

लेकिन इन महसूस न की जा सकने वाली मायूसियों से कहीं ज्यादा बड़ी चमक मनोहर के ऑफिस को करीब से देखने की थी। गेट से आती-जाती खूबसूरत लड़कियों को देख मनोहर की पत्नी हैरान थी। कैसे कपड़ों में सब काम करती हैं। कुछ के कंधे खुले दिखते हैं, कुछ की पीठ उघड़ी दिखती है तो कुछ के घुटने तक साफ नजर आते हैं। उसे लगा कि इतनी सुंदर लड़कियों को देखने के बाद जब उसके पति घर पहुँचते होंगे तो उसे देखकर पता नहीं, उन्हें कैसा लगता होगा। अचानक उसने अपने बेटे को देखा तो सकुचा गई। बेटा सोचता होगा कि माँ इन लड़कियों के आगे कहाँ टिकती है।

लेकिन बेटे को यह सब सोचने की फुरसत नहीं थी। उसे एक से एक चमकती गाड़ियाँ चमत्कृत कर रही थीं। पिता के ऑफिस में इतनी तरह की गाड़ियाँ हैं, यह उसे मालूम ही नहीं था।

माँ-बेटे ने एक-दूसरे को देखा। तभी सामने से तेजी से चलता हुआ मनोहर आता दिखा। करीब आकर फुसफुसाया, ‘देख, गाड़ी आ गई उनकी।’ दोनों ने हैरानी से देखा। सामने रुकी एक चमचमाती कार से खुशबू का एक झोंका उतरा। नमिता मैम थीं, हालाँकि दोनों को पहचानने में एक लम्हा लगा। टीवी पर तो अलग दिखती हैं, यहाँ अलग हैं। खुशबू जितनी प्यारी थी, खुद नमिता मैम उतनी प्यारी नहीं थीं।

मनोहर दोनों को साथ लेकर तेज चलता हुआ उनके सामने पहुँच गया, ‘मैडम जी।’

मैडम कुछ हैरान हुईं, ‘क्या है?’

‘आपने कहा था स्कूल के लिए, यही है मेरा बेटा।’

नमिता पुरी ने नजर घुमाई। एक सहमा-सा लड़का और उससे भी सहमी- सी एक औरत उनके सामने खड़ी थी। उन्हें अचानक झल्लाहट हो आई। पहले जरूरी मीटिंग है और फिर बुलेटिन की तैयारी करनी है। तिस पर ये स्टुपिड अपने पूरे परिवार को लेकर चला आया है। जैसे वे स्कूल चलाती हों। वह तो इस आदमी का नाम तक नहीं जानतीं।

झल्लाहट दिल में ही नहीं रही, मुँह पर चली आई, ‘आप लोग कमाल करते हैं। टाइम भी नहीं देखते। पूरे घर को उठाकर ले आए हैं। आप समझते हैं, मैं किसी स्कूल की प्रिंसिपल हूँ?’ हालाँकि बोलते-बोलते अपने सामने खड़े कातर चेहरों को देख उन्हें कुछ अफसोस हुआ, ‘ऐप्लिकेशन लिखकर दे दीजिएगा। नाम, पता, क्लास सब ठीक से लिखिएगा। बोलती हूँ किसी को।’

लेकिन यह दिलासा सुनने लायक नहीं रह गया था मनोहर। अपने से कई साल छोटी इस लड़की के हाथों पत्नी और बेटे के सामने हुई इस बेइज्जती ने उसकी जुबान ही नहीं सिल दी, उसका पूरा जेहन कुंद कर दिया था। वह अपनी पत्नी और बेटे से आँख नहीं मिला पा रहा था। वे दोनों भी उसे देखने से बच रहे थे।

बड़ी मुश्किल से उसने खुद को सँभाला। कहा, देखते हैं, अब क्या करेंगे। बैठो तुम लोग। थोड़ी देर में ड्यूटी खत्म करके चलते हैं।

वह फिर दरबानी पर लग गया।

घर से चलते वक्त उसने सोचा था, बेटे को कैंटीन ले जाकर दिखा देगा और नाश्ता लेकर खिला देगा। लेकिन उसने यह नहीं किया।

उसने सोचा था, अपने साथ काम करने वाली आशा से पत्नी को मिला देगा। उसने यह नहीं किया।

उसने सोचा था, बाद में निकल कर वे सब कहीं एक साथ चाय पिएँगे। उसने यह भी नहीं किया।

उसने खाई बस एक कसम - तीसरी कसम - आगे से वह किसी बड़े आदमी को अपने काम के लिए नहीं बोलेगा।

फिर उसने अपने बेटे का चेहरा देखा। उसे मालूम था, यह कसम टूट जाएगी। वह फिर दीन-दुखी सा नमिता पुरी के सामने खड़ा होकर उनकी खुशामद करेगा। आखिर उन्होंने ऐप्लिकेशन देने के लिए कहा तो है।

हीरामन कसम खाता है तोड़ने के लिए। बार-बार हारता है और फिर खड़ा होने की कोशिश करता है। बार-बार टूटती है हसरत, लेकिन वह टूटता नहीं है। मगर कब तक?

घर पहुँचते-पहुँचते मनोहर की मायूसी गुस्से में बदल चुकी थी। नमिता पुरी के डर और दफ्तर की सार्वजनिकता ने अपमान के जिस दंश को सिर उठाने नहीं दिया था, वह अब फुफकार रहा था। वह बदला लेना चाहता था। लेकिन किससे लेता? नमिता पुरी से ले नहीं सकता था। तो क्या अपनी बीवी और बच्चे से? जाने-अनजाने उसने यही किया। उस रात जब सब खाने बैठे तो उसने साफ कर दिया था कि बेटे को पुराने स्कूल में जाना होगा। वह उनकी खातिर और बेइज्जती नहीं करा सकता।

‘सरकारी स्कूल से भी तो पढ़के बच्चा लोग तरक्की करता है, अखबार नहीं देखते हो?’ पूछते-पूछते उसे खयाल आया कि अखबार तो उसके घर आता ही नहीं है। वह दफ्तर में पड़ा मुचड़ा-सा अखबार पलट लेता है। उसी अखबार में उसने पढी थी एक फलवाले के बेटे की कहानी, जो अपने पिता की मदद भी करता था और पढ़ाई भी - और यह करते -करते अफसर बन गया था। तब इस खबर में उसने अपने बेटे का अक्स देखा था। लेकिन अभी की घड़ी उम्मीद की नहीं, प्रतिशोध की थी। उसने अपने बेटे को दिलासा देने की कोशिश में जैसे चुनौती दे डाली थी। बेटा चुपचाप सुनता रहा था। कैसे बताता कि मामला उसके लिए तरक्की करने का नहीं, अच्छे कपड़े पहन कर, चमचमाते जूते पहन कर, बड़े बच्चों के स्कूल में जाने का है। और यह खयाल उसे जितना डराता है, उतना ही रोमांचित करता है। दरअसल वह ये बताने की हालत में भी नहीं था कि बड़े स्कूल में पढ़ने का यह पिता का ही बोया हुआ सपना था जिसने उसके भीतर ऐसी जड़ जमाई कि उसे अपना पुराना सरकारी स्कूल अच्छा नहीं लगने लगा था।

बहरहाल, इसके बाद दो दिन तक किसी ने बड़े स्कूल में पढ़ाई की बात नहीं उठाई। सबको नमिता मैम का गुस्सा याद था। फिर तीसरे दिन पत्नी ने दबे लहजे में टोका, ‘नमिता मैम को अर्जी दे आइएगा?’ मनोहर ने एकबारगी दाँत पीसे। उस दिन कहा था न? लेकिन उस दिन और इस दिन में फर्क था। और फिर बेटे का कातर चेहरा सामने था। उसने सिर हिलाया और खाना खाने लगा। पत्नी के लिए इतना ही काफी था। आखिर पति की चुप्पी भी उसकी बात मान लेने जैसी थी।

अगले दो दिन नमिता मैम दिखती रहीं, वह कुछ कहना चाहता रहा और चुप रह जाता रहा। कहने से पहले उसे अर्जी लिखवानी थी। लेकिन उस दिन नमिता मैम के बरताव के बाद वह इतना डरा हुआ था कि किसी और से अर्जी के लिए भी कहते हिचक हो रही थी। एक बार उसे खयाल आया कि किसी और से कहे। जो दुबली-पतली सी लड़की सीमा के साथ गपशप किया करती थी, वह अब भी सिगरेट पीती घूमती और अब आशा से बातें करती। उसे भी देखकर मुस्कुरा देती। क्या वह उसे टोक कर देखे? कम से कम वह नमिता मैम की तरह पेश नहीं आएगी। और अगर इस बार भी ऐसा कुछ हुआ तो कम से कम उसके परिवारवाले उसकी बेइज्जती के गवाह नहीं होंगे।

दरअसल उसकी असली टीस यही थी। डाँट-फटकार उसने पहली बार सुनी हो, ऐसा नहीं था। बेइज्जती उसके लिए नई चीज नहीं थी। कभी कंट्रैक्टर, कभी मालिक और कभी-कभी तो बस का कंडक्टर भी उसे उसकी औकात याद दिलाता रहता था। लेकिन यह पहली बार हुआ था कि घरवालों के सामने उसे एक पढ़ी-लिखी लड़की ने फटकारा था। यह एक ऐसी फटकार थी जो उसकी सामाजिक औकात से ज्यादा उसके निजी वजूद को छील गई थी।

लेकिन कुछ करना तो होगा ही। बेटे की पढ़ाई का सवाल है। तो उसने फिर हिम्मत की। नमिता मैम को टोक ही दिया। इस बार मैम का रुख पहले जैसा नहीं था। हालाँकि बहुत दोस्ताना भी नहीं था। वह भौंहें तिरछी कर सुनती रही थी। फिर उन्होंने अपनी डायरी निकाली और फिर उसके बेटे का नाम, क्लास और उसका अपना नाम नोट किया। फिर उन्होंने कहा कि वे दो-तीन दिन में देखेंगी।

यह तिनका भी मनोहर के परिवार की डूबती उम्मीदों के लिए बहुत बड़ा था। मनोहर ने उसी शाम घर जाकर पत्नी और बेटे को खुशखबरी दी। पत्नी का कई दिनों से उदास चेहरा खिल उठा। बेटा तो अचानक चहकने लगा, ‘वहाँ स्कूल में खूब मन लगाकर पढ़ेंगे।’

पिता ने बेटे का चेहरा देखा तो डर गया। कहीं इस खुशी को नजर न लग जाए। लेकिन माँ मगन थी, बेटे का चेहरा देखकर तृप्त थी। वह इस लम्हे के आगे सोच और देख नहीं रही थी। ऐसे सपनों की घड़ियाँ उसकी जिंदगी में होती ही कितनी हैं?

फिर करीब हफ्ता भर बीत गया। इस दौरान नमिता मैम ने उसे कई बार देखा। लेकिन वह अक्सर नजर बचाकर निकल जाया करती। वह इंतजार करता कि वे कोई अच्छी खबर देंगी। वे नहीं देतीं। वह घर लौटता तो घर पर पत्नी और बेटा इंतजार करते कि वह कोई अच्छी खबर देगा। वह नहीं देता।

धीरे-धीरे उसने झूठ बोलना शुरू कर दिया। नमिता मैम लगी हुई है। नमिता मैम ने आज बताया कि उनकी बाल भारती में बात हुई है। नमिता मैम ने दो दिन बाद बताने को कहा है। नमिता मैम विदेश चली गई हैं। नमिता मैम कह रही थीं कि प्रिंसिपल मना कर रही थी, लेकिन वह समझा लेगी। नमिता मैम ने आज उससे बहुत देर बात की। नमिता मैम ने उससे बेटे की पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछा।

लेकिन एक दिन वाकई नमिता मैम बात करने चली आईं। हालाँकि उनके पास देर तक बात करने की फुसत थी न बेटे की पढ़ाई के बारे में पूछने का खयाल। बस वे रुकीं और हमदर्दी भरे लहजे में बोलीं, ‘मनोहर जी, इस साल नहीं हो पा रहा है, अगले साल देखती हूँ कहीं।‘

मनोहर का कलेजा मुँह को आ गया। वह रोज नए स्कूल के सपने देख रहे बेटे और पत्नी को कैसे बताएगा कि उसे नमिता मैम ने टाल दिया है। उसने झूठ बोलने का सिलसिला जारी रखा। हालत ये हो गई कि उसे रोज नए झूठ सोच कर रखने पड़ते थे। वह भी तरह-तरह के। कभी घरवालों की उम्मीद बड़ी हो जाती तो वह एक झूठ से झटका दे देता। कभी बेटे की मायूसी गहरी होती लगती तो वह दूसरे झूठ से उबारने की कोशिश करता। कभी बीवी नाराज होती तो वह खुशामदी झूठ बोल देता। कभी वह ज्यादा सपने देखने लगती तो वह झूठे अंदेशे जताने लगता।

लेकिन इस खेल से वह भी थक गया था और उसके अनजान घरवाले भी। बल्कि उसे लगने लगा था कि अब घरवाले भी उसका झूठ पकड़ने लगे हैं। क्योंकि अब उसके हर झूठ पर सवाल बढ़ते जा रहे थे। कभी जिस घर में उसके इशारे भी आदेश मान लिए जाते थे, वहाँ अब वह जो दावे करता, उन पर भी सवाल थे।

इस बात से उसे जितनी ज्यादा चिड़चिड़ाहट होती, उससे ज्यादा घबराहट होती। अब तो उसका घर लौटने का मन भी नहीं करता था। पहले जितनी फुर्ती से ड्यूटी खत्म कर नाश्ते का पैकेट दबाए घर लौटता था अब उतने ही अनमनेपन से वापस जाता। बीच में कभी शंकर के यहाँ चला जाता, कभी पुराने दोस्तों के यहाँ। वह मनाता कि उसके घर पहुँचने से पहले बेटा सो चुका हो।

उसे वह पुराना ठेका भी याद आने लगा था जहाँ उसने शादी के बाद जाना छोड़ दिया था। एक दिन वह वहाँ पहुँचा तो कोई जान-पहचान वाला नहीं मिला। ठेके पर बैठकर दारू पी भी तो मजा नहीं आया। पहले सबकुछ भूल कर मस्त हो जाने वाली बात बची ही नहीं थी। उल्टे उस पर झल्लाहट हावी होती गई। आखिर ऐसी बड़ी बात क्या है? क्यों बेटे को इतना बड़ा स्कूल चाहिए? अच्छा भला पढ़ रहा है। मेहनत करेगा तो यहाँ भी तरक्की कर लेगा। दूसरे छुपे हुए डर भी तर्क बन कर सामने आने लगे। बड़े स्कूल में फीस और ड्रेस मिल भी जाए तो बाकी खर्चा तो होगा। वह उन्हें कैसे पूरा करेगा? उसने तय किया कि घर जाकर वह बड़े स्कूल का भूत उतार देगा।

उसने सोचा था कि अगर आज उसे किसी ने स्कूल के लिए टोका तो वह उन्हें बुरी तरह डपट देगा। लेकिन किसी ने कुछ नहीं पूछा। उसका चेहरा देख पत्नी और बेटा दोनों सहम गए थे। इस बात से उसका गुस्सा और तेज हो गया। उसे अचानक यह भी याद आया कि आजकल बेटा बड़े स्कूल की जितनी बात करता है, पढ़ाई उतनी ही कम करता है। उसका ज्यादा ध्यान टीवी देखने में रहता है। बेटा अब भी टीवी ही देख रहा था। इस बात से फिर उसका गुस्सा भड़क उठा, ‘तू आजकल टीवी ही देखता रहता है क्या? पढ़ता कब है?

‘पहले स्कूल का हो जाता तो पढ़ते...’ सहमी हुई आवाज में ही बोल रहे बेटे को मालूम नहीं था कि उससे गलती हो गई है। वाक्य पूरा होने से पहले उसका गाल दो तेज तमाचों से लाल हो चुका था।’ तू अंग्रेजी स्कूल में ही पढ़ेगा? नहीं तो पढ़ेगा ही नहीं?’ उसे रोने का मौका भी ठीक से नहीं मिल पाया कि दो और तमाचे गाल कर पड़ गए, ‘नहीं हो रहा है तो मैं कहाँ से करा दूँ? साली नमिता मैम को फुरसत ही नहीं है बात करने की, वह एडमिशन कराएगी? रोज मैं तुम लोगों को नया-नया किस्सा कहाँ से सुनाऊँ?’

यह आज की दारू भर नहीं थी, कई दिनों से जमा हुआ गुस्सा था जो नमिता मैम पर नहीं, मासूम बेटे पर निकल रहा था। घबराई हुई पत्नी बच्चे और उसके बीच आ खड़ी हुई, ‘इसे मत मारिए, इसे काहे मार रहे हैं? आपसे नहीं हो रहा है तो इसका का गलती है?’

बेटे के इस बचाव और पत्नी के इस प्रतिरोध ने मनोहर को और झल्ला दिया। दारू और गुस्से के बावजूद इतना विवेक बचा हुआ था कि उसने पत्नी पर हाथ नहीं उठाया। लेकिन गुस्से में उसने खाट के पास पड़ी हाँडी पर लात मार दी। पका हुआ गरम चावल जमीन पर बिखर गया।

दोनों विस्फारित नजरों से उसे देख रहे थे। मनोहर को इतने गुस्से में पहले किसी ने नहीं देखा था। लेकिन अब गुस्से की जगह पछतावा था जो मनोहर के भीतर सिर उठा रहा था। दारू कहीं सूख गई थी, गुस्सा कहीं बह गया था। वह खाट पर लेट गया। एक घंटे लेटा रहा। दो घंटे लेटा रहा। एक रुलाई उसके भीतर उमड़ रही थी जिसे रोकना मुश्किल हो रहा था। दूसरी तरफ पत्नी और बेटा अपनी सुबकियों के बीच अपने बिस्तर पर करवट बदल रहे थे। पत्नी ने फर्श साफ कर दिया था, लेकिन खाना किसी ने नहीं खाया था।

यह कसम खाने की बारी थी। कई कसमें खाने लायक थीं - वह दारू नहीं पिएगा, बेटे को बड़े स्कूल का सपना नहीं दिखाएगा, नमिता मैम से बात नहीं करेगा, कल सुबह बेटे और पत्नी से माफी माँगेगा।

लेकिन उससे कोई कसम खाई नहीं गई। भूखे सोए बेटे और भूखी सोई पत्नी के करीब लेटा अपने-आप में रोता रहा मनोहर।