इस सुबह को नाम क्या दूँ / महेश कटारे

Gadya Kosh से
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रामरज शर्मा अभी अपना स्कूटर ठीक तरह से स्टैंड पर टिका भी नहीं पाए थे कि उनकी प्रतीक्षा में बैठा भगोना-चपरासी खड़ा हो, चलकर निकट पहुँच गया-”मालिक आपकी बाट देख रहे हैं ....बहुत जरूरी में ....मैं यहाँ चार बजे से बैठा हूँ।” भगोना ने सूचना, कार्य की गंभीरता और उलाहना एक साथ बयान कर दिया।

“क्यो ?” स्कूटर के सही खड़े होने के इत्मीनान की खातिर उसे जरा-सा हचमचाकर परखते हुए शर्मा जी ने पूछा।

भगोना कोई उत्तर न दे चुपचाप खड़ा रहा। वह चपरासी है-उसे तो सौंपी गई जिम्मेदारी की भरपाई करनी है। यहाँ नौकरी करते-करते वह समझ गया है कि वह इधर- उधर का न सोचे, न करे। क्या पता, कौन-सा ठीकरा फूटे और उसके सिर पड़ जाए ? चेरी को चेरी ही रहना है...तौनार-बधार के रानी तो हो नहीं सकती।

“ठीक है...देखता हूँ.....तुम शाम के लिए दूध लाकर रख देना....खाना मत बनाना !” कहकर डिग्गी में से थैला निकाल रामरज शर्मा ने भगोना को पकड़ा दिया-”सुनो ! कमरे में झाडू भी लगा देना, जो तुम अक्सर दूसरी सुबह के लिए छोड़ देते हो !” कह शर्मा जी मुस्कराए, तो भगोना भी मुस्करा दिया।

रामरज शर्मा उन्हीं पैरों हवेली की ओर हो लिये। मन में अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क थे- “ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी कि आज छुट्टी के दिन भी इंतजार में बैठे हैं ? मालिक द्वारा प्रतीक्षा उन्हें अक्सर किसी न किसी धर्मसंकट में डालती रही है। मालिक उनकी संस्था की प्रबंध समिति के मंत्री हैं अर्थात् प्रबंधक हैं। पूरी समिति उनकी अपनी है। उनके हलवाहे-चरवाहे तक प्रबंध समिति यानी कार्यकारिणी के सदस्य हैं। हालाँकि विधान के अनुसार रामरज शर्मा “प्राचार्य” भी सदस्य है, पर जो मालिक ने कहा, वही मत हलवाहों से लेकर लठैतों का। रामरज शर्मा ने कभी-कभार लठैतों को मत मोड़ने या अपना कोई मत बनाने के लिए उत्साहित भी किया है, जिसका अर्थ लठैत तो नहीं समझे, पर लठैतों के जरिए बात मालिक तक जरूर पहुँची है तथा किसी को स्वतंत्र मत रखने की सलाह देने का परिणाम मालिक हर बार रामरज शर्मा को प्रतीकात्मक रूप में या खुले-खुले समझा चुके हैं।

मालिक के यहाँ कोई नियम-कानून नहीं होता, इसलिए रामरज शर्मा का एक दायित्व वह रास्ता तलाशना भी होता है, जिसमें नियमानुसार नियम तोड़ा जा सके। कभी-कभार मामला ऐसा फँस जाता है कि रामरज शर्मा के हाथ में सिर्फ गिड़गिड़ाना रह जाता है- “मालिक ! आप जो कह रहे हैं वह तो ठीक.....पर ऐसा करने से मेरी नौकरी बन आएगी।”

मालिक का सीधा उत्तर होता है- “जब हम हैं, तो नौकरी कौन ले सकता है ? कोई अधिकारी खुट-पच्चड़ करो, तो हम देख लेंगे । हमें क्या अपनी संस्था की चिंता नहीं है ? अच्छा, हम लिखकर दिए देते हैं-ऑर्डर तो मानोगे ? ठीक !” और तब रामरज शर्मा पापी पेट और अपनी नपुंसकता पर मन ही मन लानतें भेजते हुए सफेद कागज पर काली या नीली कुछ ऐसी इबारत उतार लेते हैं, जो उनकी नौकरी बनाए रखने में सहायक हो सके। मंत्री जी बिना इबारत पढ़े उसके नीचे बैठ जाते हैं-ठाकुर राजेन्द्रसिंह ! इसके बाद रामरज शर्मा उर्फ प्राचार्य, हायर सैकेण्ड्री स्कूल झंगवा की जिम्मेदारी है कि वह मालिक के तात्कालिक व भविष्य के हितों की रक्षा करें।

रामरज शर्मा हवेली पहुँचे, तो पाया कि मालिक सचमुच बारादरी के आगे वाले चौतरे पर एक आरामकुर्सी में अधपसरे थे। उनसे पाँच हाथ की दूरी पर राइफल से सजा जीवनसिंह पटिया पर बैठा था। कार्यकारिणी सदस्य और हलवाहा नेतराम बगल में जमीन पर बैठा बीड़ी फूँक रहा था।

“मालिक, शर्मा जी आ गए !” नेतराम ने बीड़ी का ठूँठ जमीन पर रगड़ते हुए सूचना दी।

दो-तीन सीढ़ियाँ चढ़ रामरज ने अपनी ओर गर्दन घुमाते मंत्री जी को अभिवादन किया-नमस्कार मालिक साहब !” और यथासंभव दीनता के साथ प्राचार्य पद की गरिमा का समन्वय करते शेष सीढ़ियाँ चढ़ गए।

“अच्छा, आ गए शर्मा जी ? चलो ठीक है ! अरे भाई, इम्तहाज के समय में तो आप लोगों को हेडक्वाटर्रर पर ही रहना चाहिए। खैर ....घर-गिरस्ती भी देखनी पड़ती है...हम तो बड़ी चिंता में थे....आप आ गए, अब कोई चिंता नहीं। “मंत्री ने अपनापन प्रकट करते हुए सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने का संकेत किया।

इन कुर्सियों को देखते ही रामरज के मन में कोई काँटा-सा कसक जाता है। उन्होंने बड़े मन से ये सोफानुमा कुर्सियाँ विद्यालय के स्टाफ रूम के लिए खरीदी थीं। महीने-भर के भीतर-मंत्री जी के यहाँ कुछ ऐसे मेहमानों का आगमन हुआ, जिनके बैठने-बिठाने को गरिमामय बनाने केक लिए यही कुर्सियाँ उपयुक्त समझी गई। तब से दो साल बीत गए, कुर्सियाँ विद्यालय की ओर नहीं लौटीं। दो एक बार रामरज ने दबे स्वर में स्मरण दिलाया, तो मंत्री जी की चढ़ती भौहों के तेवर भाँप उन्होंने इश्यू रजिस्टर पर खानापूरी कर दीं।

‘”हाँ मालिक ! क्या हुकुम है ? “ जबरिया मुस्कान के साथ रामरज शर्मा ने पूंछा।

प्रबंधक जी के चेहरे पर करूणा और सहानुभूति छलक आई-”अरे, वो अपने सक्सेना साहब हैं ना-केन्द्राध्यक्ष, अचानक बीमार पड़ गए। वैसे भी वह तो क्या कहते हैं...ब्लड प्रेशर के मरीज हैं। हमारी बात का मान रखते हुए ही यहाँ के लिए केन्द्राध्यक्ष बनकर आए थे। भले आदमी हैं-सब-कुछ आपके स्टाफ पर ही छोड़ दिया था कि नियमानुसार जो करना है, करो। सुनते हैं, कल की परीक्षा के बाद आपने उनसे कुछ कह सुन दिया था। अरे भाई ! वे बाहर केक आदमी हैं .......मेहमान हैं। आपके किसी लड़के ने कहीं नकल-वकल कर ली, तो कौन-सा पाप हो गया ? सक्सेना साहब पर दोष लगाने की क्या जरूरत थी ? अब ये नकल-वकल अकेले यहीं तो नहीं हुई....सब दूर चल रही है। लड़के पास होने के लिए ही तो पढ़ते हैं....फिर आप भी सहायक केन्द्राध्यक्ष हैं....ऐसी चीजों का ध्यान आपको भी रखना चाहिए।”

रामरज उनके चेहरे पर ऑंखें टिकाए सुन रहे थे। प्रबांक जी कहीं और देख रहे थे। रामरज उनकी इस आदत से परिचित है कि मालिक कमजोर के मर्म पर हल्की सी चोट कर उसे लाचार बना बिल्ली और चूहे का खेल खेलते हैं।

“मैं ठीक कह रहा हूँ ना ?” प्रबंधक जी रामरज की ऑंखों में झाँक उठे। रामरज समझ गए कि अब वह किसी भी क्षण उन पर कैसा भी वार कर सकते हैं।

मालिक, पूरी बात शायद आपको पता नहीं है। केन्द्र पर हर लड़के से दो हजार की वसूली हुई है। देने वालों को नकल की छूट है। कुछ लड़के गरीब हैं...दे नहीं सकते। उन्हें दबाया और परेशान किया जाता है। उनकी उत्तर पुस्तिका खराब करने की धमकी दी जाती है। आप जानते हैं कि इतना भ्रष्टाचार मैं नहीं सह पाता-इसलिए परीक्षा के समय मैं बाहर निकलता ही नहीं। मान लेता हूँ कि ऑंखों की ओट में कुछ भी होता रहे, पर कल कुछ लड़के मेरे पास आए थे... रो रहे थे। गरीब लड़के हैं....कैसा भी सही, मैं उनका मास्टर हूँ, संस्था का प्रधान हूँ। लड़कों के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारी बनती है ना ? सक्सैना तो धाँधली मचाए है !” रामरज ने भरसक विनम्रता के साथा सफाई दी।

प्रबंधक जी ने नाक का बढ़ा हुआ बाल झकाा मारकर उखाड़ा और उसे चुटकी में बत्ती की तरह बँटते अपनी ऑंखें जरा चौड़ी कर दीं- आपकी संस्था में कोई बाहर से आकर क्यों धाँधली कर लेगा ?”

“बाहरवाला आए, तो धाँधली ही कता है, क्योंकि उसे चले जाना है।” रामरज ने कार्य कारण का तर्क रखा।

“देखों शर्मा जी ! हम तो एक बात जानते हैं क वसूली सेस छूट या तो सबको मिले या किसी को नहीं। नियम सबके लिए बराबर होना चाहिए। इस साल तुमने गरीब कहकर दस छोड़े, तो अगले साल बीस खड़े हो जाएँगे। व्यवस्था ही भंग हो जाएगी। लड़कों को नकल के लिए तो केन्द्र चाहिए तो केन्द्र के लिए पैसा चाहिए। गलत काम से कोई सेंत-मेंत तो ऑंखें मूंदेगा नहीं ? हम तो यह जानते हैं कि आपको मेहमान का आदर करना चाहिए।”

रामरज मिसमिसाकर फूट पड़ना चाहते थे। पर जानतेथे कि इससे स्थिति तो बदलेगी नही, उल्टे उन्हीं की हानि होगी। इसलिए घूँट-सा भरकर बोले- “देखिए मालिक ! कुछ ऐसी-वैसी चींजे जब सरेआम होने लगती हैं, तो संस्था की साख गिर जाती है।”

“सुनो शर्मा जी ! इस तरह के भाषण 26 जनवरी और 15 अगस्त को बच्चों के सामने अच्छे लगते हैं। नेतागिरी और मास्टरी का ऐसा ही दस्तूर है, क्योंकि उन्हें सुनना है और तालियाँ बजानी हैं, फिर दो-दो लड्डू लेकर घर लौटना है। आप मास्टर लोग आधी मिठाई बच्चों में बाँटते हैं और आधी आपस में....है ना ? तो धाँधली यह भी है...हमने तो कभी आप लोगों को रोका नहीं। संस्था की साख वगैरह जो कह रहे हैं आप, वो तभी तो चढ़ेगी-गिरेगी, जब संस्था बनी रहे। संस्था को चलाए रखने के लिए आज के जमाने में हमें कैसे-कैसे निपटना, सुलझना पड़ता है-हमीं जानते हैं। आप लोग तो टहलते-टहलते स्कूल गए और घूमते-फिरते लौट आए, तनख्वाह पक्की। मैं आपको दोष नहीं दे रहा- जमाना ही ऐसा है। कुएँ में भाँग पड़ी है। मतलब यह कि कंपटीशन का जमाना है-वही दुकान चलेगी, जो ज्यादा सुविधा देगी।

शर्मा जी कसमसाए- “मालिक ! दुकान अच्छे माल से ज्यादा दिन चलती है।”

मंत्री जी ने बात लपक ली- “वही तो कहना है मेरा। बढ़िया चीज के लिए आदमी आपके पास क्यों आएगा ? अंग्रेजी स्कूलों की कोई कमी है ? तो अपना सब-कुछ छूट पर निर्भर है। देखो ! अपना कंपटीशन माल का नहीं, छूट का है। खैर, तुम्ही, मेरा मतलब, आप ही बताइए कि हमारी पहुँच के बिना चल जाएगी संस्था ? हम ग्रांट न निकालें, तो आप लोगों की तनख्वाह हो पाएगी ? मेरा कहना यही है कि सक्सेना जी हमारे काम में दखल नहीं दे रहे है, तो हमें उनके फटे में पैर क्यों फँसाना ? अभी वे ऊपर को लिख दें कि यहाँ नकल होती है, तो खत्म न हो जाएगा केन्द्र ? क्या कर लेगें आप ? और जब आप बिना केन्द्र के होंगे, तो कौन आएगा आपके पास ? ....मेरी बात समझ रहे है। ना शर्मा जी ! तो यह सक्सेना हमारे सिर पर 20-25 दिन रहेगा। इसे झेलो भाई !”

शर्मा ने त्वरित गणित में पाया कि इस समीकरण में सिध्दान्त बराबर रोटी, रोजी और सुविधावाले अंक हैं। एक के क्रांतिकारकी गुणा या भाग से इसके परिणाम पर कोई अंतर नहीं आने वाला। अत: सम्मानपूर्वक हथियार डालने का प्रस्ताव रखना ही उचित लगा-”ठीक है, मालिक ! मैं कल से अवकाश लिये लेता हूँ।”

मंत्री जी के चेहरे पर कुछ रौनक झलकी-”आप पढ़े-लिखे लोगों में यही तो खामी है-किसी चीज को गलत कहते हो और गलत को रोकने से भाग खड़े होते हो। सही आदमी को गलत का मुकाबला करना चाहिए ना ? ....भला बुरा जैसा भी केन्द्राध्यक्ष है, वह गया, तो उसकी गैर-हाजिरी में चार्ज उप केन्द्राध्यक्ष को ही सँभालना पड़ेगा ना ? ... मैंने उन्हें भरोसा दिलाया है कि शर्मा जी थोड़े सिध्दान्त वगैरहवाले होने से कड़े जरूर है, पर आदमी भले हैं। चोर हो या साहूकार, किसी को फँसा नहीं सकते। तभी तो सक्सेना साब केन्द्र की सरकारी रकम तक बिना रसीद और लिखा-पढ़ी के दे गए हैं आपके लिए।”

शर्मा ने मन ही मन गाली बकी- साले, लाख की बिना लिखा-पढ़ी वाली रकम डाकार गए और कायदे की दो चार हजार वाली सौंपकरर हरिश्चंद्र हो रहे हो ! इसमें से कोई इधर उधर कर भी ले, तो दो-चार सौ से ज्यादा क्या कर लेगा ? और यही तो वह चाहते हैं कि डाके डाल मुहरें खुद समेंटे और कौड़ियों के छींटे छिड़क दूसरों को भी दागी बना संघाती कर लें। पर शर्मा करें तो क्या ...? नाक की नकेल तो इन्ही के हाथों में है....जरा भी पुट्ठे आड़े-टेड़े किए तो वह झटका लगेगा कि नकलोहू बगरता दिखेगा।

शर्मा को गुमसुम देख मंत्री जी अपनापे से पोता फेरा-”देखो, हम जानते हैं कि आप ईमानदार हैं। तभी तो भरोसा है हमारा कि सब सँभल जाएगा।”

शर्मा चुप रहते हुए स्वयं को किसी आगत संगट के लिए तैयार करने लगे। मालिक जब भी कठोर से कोमल होते हैं, तब मानो भली करेंगे राम' कहकर सूली पर चढ़ाने का कोई उपक्रम होता है। यह तो स्पष्ट था कि अगले तीन प्रश्नपत्र ही कठिन हैं, जिन्हें सफलतापूर्वक निकाल लें-जाने के लिए युध्द और प्रेम की मिसाल पर हर चीज़ जायज मानी जाती है और जायज होने के चोर तर्क भी होते ही हैं, पर सबसे बड़ा तर्क लाठी के हाथ में होने का है। स्पष्ट था कि अगले कठिन मोर्चे, जिसमें साम-दाम-दंड-भेद सभी कुछ भरपूर अपनाया जाना है और इसी मुकाम पर सक्सेना दाम समेट, शर्मा को साम अथवा दंड भेद के हवाले कर गया है। इन्हीं दिनों में नकल रोकने वाले उडनदस्ते भी अधिक सक्रिय होते हैं- संचालक, संयुक्त संचालक या कहो कलेक्टर आ धमके ! उड़न दस्ते के साथ आने वाला चपरासी भी अपने को कलेक्टर से कम नहीं समझता। गरीब मास्टर क्या करे ? जो भी हो, अजगरों की इस घाटी में घुसना ही है, क्योंकि ठीक पीछे शेर गुर्रा रहा है। विनय या प्रबोध से अब कुछ होना-जाना नहीं है।

मंत्री जी ने वास्कट की जेब से लिफाफा निकाल शमा्र की ओर बढ़ाा दिया-”यह चार्ज वाला कागज है। रकम बाबू के पास है...जब तक केन्द्राध्यक्ष नहीं लौटते, आप ही सर्वेसर्वा हैं-काला पीला कुछ भी करने के लिए। “मंत्री जी मुस्कराए ।

शमा्र जाल में फंसे कबूतर की तरह फड़फड़ाकर रह गए। ऐसी नौकरी पर लात न मार पाने की कायरता का राग हमेशाा की तरह फिर उनके मन में बज उठा। सुबह का हौलनाक दृश्य अभी से उनकी ऑंखों के आगे था, जबकि वह पुलिस-गार्ड सहित 35-40 कर्मचारियों की सेवा-पुस्तिका और लगभग 400 परीक्षार्थियों की उत्तर-पुस्तिका पर कुछ रिमार्क लिखने के अधिकार से सम्पन्न होंगे और कुछ भी सच लिख देना उनके लिए किसी भी हद तक खतरनाक साबित हो सकता है। खुद शर्मा सहित सब जानते हैं कि वह किसी के विरूद्ध नहीं लिख सकते...क्योंकि वह उस भीड़ के बीच होगे, जिनके पास जैसे भी हो, सुविधा पाने केक तर्क की आक्रामकता है।

भारतीय दण्ड विधान के अनुसार बलवे में कोई एक नामजद नहीं होता और संख्या-बल के राजनीतिक नियम किसी हत्या व बलात्कार तक को उचित ठहरा सकते हैं। आक्रमण का तर्क व्यक्ति के दादे, परदादे, दसदादे या सौदादे के द्वारा कुछ कहे गए या किए गए तक से जोड़ा जा सकता है। तात्कालिक लाभ की इस चौपड़ पर शर्मा नाम की गोटी को हर हाल में पिटना है तथा पिटने के पूर्व निश्चित भविष्य के साथ, महत्वपूर्ण गोटी की ऐंठवाली विदूषक भूमिका निभाते हुए कल के दृश्य में उपस्थित होना है। दूसरी गोटियों की ऑंखों में उसके प्रतिर् ईष्या का विद्रूप उपहास होगा या करूण उपेक्षा। शर्मा स्वयंवर में जुटे धुनर्धरों के सिर के ऊपर घूमती ऐसी मछली है, जिसकी ऑंख को किसी न किसी बहाने बिधना है।

मंत्री जी के हाथ से लिफाफा ले शर्मा खड़े हो चुपचाप सीढ़ियाँ उतर गए। अपने कमरे पर पहुँच उन्होंने स्वयं को आराम कुर्सी के हवाले कर दिया। भगोना चपरासी ने पानी का गिलास लाकर दिया और स्टोव पर चाय चढ़ाने चला गया। भगोना को कागजी दाँव-पेंच की बारीकी तो नहीं मालूम, पर इतना समझ गया है कि उसके साहब को बधिया करने के ब्यूह रचे जा रहे हैं।

उम्र में शर्मा से बड़ा होने के कारण वह समझाना भी चाहता है कि जिस पटरी पर दुनिया दौड़ रही है, तुम भी ढरको, सुबह-शाम राम का नाम लेते हुए ठकुरसुहाती पढ़ो और मजे करो, पर इनके माथे में जाने कौन-सा कीड़ा कुलबुलाता रहता है। ये कानून, ये नियम, इतना पढ़ा-लिखा होने पर भी नहीं समझते कि जिंदगी नियम-कानूनों से नहीं, व्यवहार से चलती है। भगोना कुछ नहीं कह पाता। जानता है कि साँड द्वारा रगेदे जाने की खींझ बछड़े पर उतरेगी।

“सुनो ! बाबू जी को बुला लाना!” भगोना ने शर्मा का आदेश सुना।

“जी, फिर पूछा- कल गणित का पेपर है साब ?

“हाँ, क्यो ....? तुम्हें गणित में क्या दिलचस्पी है ? “ शर्मा ने थोड़ा हँसकर मन का बोझ हल्का करने की चेष्टा की।

“कुछ नहीं ! इसलिए कहा कि इसी पर्चे के लिए ज्यादा मारामारी होती है।”

“होती है, तो होने दो। होनी को कौन टाल पाता है ? “ शर्मा ने भगोना के साथ स्वयं को भी दिलासा दिया।

“हाँ साब ! सो तो है।” भगोना इस तरह सिर हला उठा, जैसे पूरा भरोसा न होने के बावजूद उसे काटने के लिए कोई सर्वकालिक तर्क न होने की दशा में इस अर्ध्दसत्य को स्वीकार करने की विवशता हो। इसी समय बाबू जी ने आकर नमस्कार किया।

“लो भगोना, तुम्हारे जाने की जरूरत नहीं रही। ये खुद आ गए।” कहकर शर्मा ने बाबू को कुर्सी पर बैठने का संकेत किया।

“सर ! वो केन्द्राध्यक्ष कैश दे गए हैं....आप सँभाल लें...कल के लिए डयूटी-चार्ट भी तैयार करना है...किस टीचर को किस कक्ष में रखा जाए ?” बाबू ने बैठते ही टुकड़ो-टुकड़ों में नोटशीट बोल दी।

“डयूटी-चार्ट तैयार तो कर लिया होगा न आपने ? शर्मा ने टटोलती नज़रों से बाबू की ओर देखा।

“सर ! वो कच्चा तैयार किया है .... मंत्री जी ने कहा था कि नवावबसिंह बनवा देगें, सो उनके साथ बैठकर....फाइनल तो आप ही करेंगे। दस्तखत आपका होना है।” बाबू ने कैफियत बताई।

नवाबसिंह का नाम और सूरत आते ही शर्मा की नस तड़क उठी। इस आदमी की आचार-संहिता में कुछ भी अकरणीय नहीं है, बशर्ते किसी दूसरे को हानि हो। स्वयं मंत्री जी को यह बहुत शातिर ढंग से धोखा दे चुका है। उस समय मालिक इसे संस्था से निकालने पर आमादा थे और शर्मा ने इसे बाल-बच्चों का हवाला देकर बचाया था, क्योंकि एक गुण तो मालिक में है कि जो उनकी प्रजा में शुमार हो, मुँह में तिनका दाब ले, उसकी जान बख्श देते हैं।

“सर ! कल वैसे भी मुसीबत वाला पेपर है। लड़के मानेंगे नहीं।” बाबू जी की आवाज़ में बाढ़ में उफनती नदी तैरकर पार करने की बाध्यता जैसी घबराहटल थी।

“आप तो अपना रिकॉर्ड टन्न रखिए....बस !”

“साब ! लड़के बेइज्जती कर सकते हैं, आपकी....और....”

शर्मा कुर्सी पर सीधे हुए-”देखो बाबू जी ! मैं एक परिणाम पर पहुँचा हूँ कि मास्टर एक निरीह नौकर है। उसे इज्जत-विज्जत जैसी भारी चीजों का बोझ अपने कंधों पर नहीं लादना चाहिए। वह थानेदार नहीं है कि डंडा, कानून और शरीर के जोर पर इज्जत को खाद-पानी देता रहे। यह मान लो कि हम नौकरी कर रहे हैं। मालिक को राम मानो और जैसे वह चाहें, वैसे रह लो। इस बीच क्या ऑंधी-तूफान आता है...देखते हैं।” शर्मा ने मुस्कराहटल से वातावरण हल्का बनाने का प्रयास किया।

बाबू फिर भी आश्वस्त नहीं हुआ-”दिक्कत यह है साब कि स्टाफ खुद नकल कराता है। कुछ लड़के स्टाफवालों के हैं, कुछ कार्यकारिणी वालों के। वो पुलिस-जीप में आनेवाला डिप्टी का लड़का है ना ! कल के लिए उसने गणित वाले शर्मा जी को सूट का कपड़ा दिया है।”

“ठीक है यार !....कल की कल देंखेगे। खामखा अभी से मगजमारी क्यों करें ? कैश अपने पास ही रखिए। भुगतान कैसा भी हो, रसीद जरूर लगाते चलना।”

बाबू के जाने के बाद रेडियो खोलकर शर्मा जाने क्या-क्या सोचते रहे। दूध पीकर सोने की किश्तवार कोशिश करते हुए रात काटी और सुबह नित्यप्रति के अनुसार नहा-धोकर विद्यालय पहुँच, नाक की सीध चलते हुए अपने कार्यालय में घुस गए।

पर्यवेक्षणवाले लगभग सभी शिक्षक उपस्थित थे। डयूटी-चार्ट पर निगाह डालते हुए शर्मा ने आवाज5 में अतिरिकत कड़क भरकर पूछा-”आप लोगों ने अपने-अपने कक्ष नोट कर लिये ?”

“हाँ, के संकेत में सब के सिर हिलने पर शर्मा की घूमती दृष्टि गणित वाले शर्मा के ऊपर जा टिकी-”आपकी डयूटी आठ नबर में है ?”

“जी सर !” उत्तर मिला।

डयूटी-चार्ट पर लाल स्याही का गोल घेरा बनाते हुए शर्मा बुदबुदाए-”आठ नंबर में हिन्दीवाले वाले कुशवाह जी रहेंगे और फील्ड डयूटी पर। किसी परीक्षार्थी को प्रश्न समझने में कोई कठिनाई आती है, तो आप ही समझा सकेंगे। हम लोगों में कोई और तो मैथेमेटिक्स जानता नहीं है, सो आप यह ध्यान रखें कि किसी लड़के को कोई शिकायत न हो।”

शर्मा को कुछ भी समझ में न आया कि शिकायत न होने का क्या मतलब है ? आठ नंबर में उसकी भूमिका पहले से तय थी। उसने विरोध किया-”आठ नंबर कमरे में डयूटी के िलिए मुझसे मंत्री जी ने कहा है। उसमें वी0आई0पी0 स्टूडैंट्स के रोल नम्बर है।” गणित वाले शर्मा के स्वर में प्रच्छन्न धमकी थी।

“वी0आई0पी0 से आपका क्या मतलब है ?” शर्मा ने डाँट के अंदाज में पूछा।

गणित शर्मा दबक तो गए, पर अपने साथी शिक्षकों के चेहरे पढ़ते हुए “साझा कार्यक्रम” पर सहमति के प्रस्ताव की तरह कहा- “सर ! आप बेकार ही उठा-पटक कर रहे हैं। इस तरह नकल नहीं रूकी यहाँ पर। बुरी लेगे या भली, मैं तो साफ-साफ कहता हूँ कि आप दिखावा कुछ भी करते रहे, करना आपको वही पड़ेगा, जो मंत्री जी चाहेंगे। आप उनके विरूध्द नहीं रह सकते।”

गणित शर्मा ने चुनौती फेंककर अपने प्रधान का आंतकिर भय सरे आम करवा दिया था। वह दो दिन के लिए केन्द्र का हीरो था। प्रश्न-पत्र हल करने का पूरा दारोमदार गणित शर्मा और फिजिक्स वाले अस्थाना पर ही था। शेष शिक्षक पर्चियों को इधर-उधर करने के अतिरिक्त गणित के मामले में अधिकांश लड़कों की तरह बुध्दू थे। इस दूर-दराज जगह पर अन्य किसी गणितज्ञ की इतनी शीघ्र व्यवस्था संभव न थी। स्टाफ के लोग तमाशे की प्रतीक्षा में थे कि प्राचार्य रामरज शर्मा अपनी खाल किस तरह बचाते हैं।

शर्मा ने न गंभीरता कम की, न अपना पारा नीचा-किया-”किस बेवकूफ ने आपसे कह दिया कि मैं मंत्री के विरूध्द हूँ ? मैं उन्हें आपसे ज्यादा जानता हूँ, समझे ? मंत्री जी की इच्छा है कि लड़को को सुविधा मिले....सो मिलनी चाहिए....बस। आप गणितवाले हैं....जिम्मेदारी आपकी है कि कोई लड़का शिकायत न कर पाए।

हवा में उड़ते गणित शर्मा पिचकते हुए नीचे की ओर आने लगे-”देखिए साब ! इन गोल-मोल बातों में हमें लेना-देना नहीं है। हमें तो साफ-साफ बताइए कि आज नकल होनी है या नहीं ? और तीन सौ लड़को को मैं अकेले कैसे सँभाल पाऊँगा ?”

“कम से कम सो यानी तीन कमरे अस्थाना जी की जिम्मेदारी में भी रहने चहिएँ।” अबकी बार रामरज शर्मा ने गणित शर्मा को बुरी तरह झिड़क दिया-”आपको मालूम है कि अस्थाना जी का प्रमोशन डयू है। जरा-सा रिमार्क उनके कैरियर को चौपट कर सकता है। मैं इस वर्ष उन्हें दंद-फंद से दूर रखना चाहता हूँ, ताकि....खैर, स्वयं अस्थाना जी तुम्हें सहयोग करें, तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती है ? रामरज शर्मा ने अस्थाना की ओर देखा।

प्रमोशन अस्थाना की दुखती रग थी और वह इस-उस से कई बार चर्चा कर चुके थे कि अपने ही स्वार्थ के लिए लड़ना आदमी को शोभा नहीं देता। अत: उनके प्रमोशन के लिए प्राचार्य यानी रामरज शर्मा को मंत्री से भिड़ना चाहिए, जो कि वह नहीं भिड़ते....जो कि उनकी कायरता है। अस्थाना ने रामरज शर्मा के चेहरे को निगाहों की कसौटी पर कसने का प्रयास किया, पर इतना समय नहीं था। अत: प्रत्युत्पन्नमति के प्रकाश में समीकरण्ा रख, स्वर की यथासंभव दीनता से बोल-”सर- ! मैं तो इन दिनों के लफड़े से बचने के लिए अवकाश लेना चाहता था.... आपने ही स्वीकृत नहीं किया। नकल वगैरह या किसी भी बेईमानी को मेरी आत्मा स्वीकार नहीं कर पाती। मैं तो आज ही “मेडीकल लीव” लेने के लिए तैयार हूँ।”

निशाना सही था। रामरज आश्वस्त हुए, पर उन्होंने अपनी कड़क और गंभीरताा की लाइन ऐंड लेंग्थ बनाए रखकर कहा- “नहीं ! आपको अपने दायित्व का निर्वाह करना ही है। आप काम कीजिए....इस तरह की दीन भी सलामत रहे और दुनिया भी खुश । हम सबको इसी तरह अपनी छोटी-बड़ी हैसियत बनाए-बनाए रखनी है।”

इसी बीच बाबू जी आ खड़े हुए-”सर, थाने से पेपर लेने कौन जाएगा ? दीवान जी तैयार खड़े हैं। आने-जाने में आधा घंटा लगेगा...जबकि पहली घंटी का समय हो गया है।”

रामरज शर्मा हड़बड़ाकर खड़े हो गए-”अरे ! फिर तो देर हो गई। किसे भेजना है ? लाओ, अधिकार-परत्र पर हस्ताक्षर कर दूँ।”

“आप नाम बताएँ, तभी तो तैयार होगा !” बाबू ने झल्लाहट प्रकट की।

शर्मा पुन: उसी कुर्सी पर बैठ गए-”उफ ! दस मिनिट और गए इस लिखा-पढ़ी में। लाओ मैं ही लिख देता हूँ...और अस्थाना जी, आप चले जाइए। एक सिपाही और लेना। आपके कक्ष में साथ वाले मास्टर जी बाँट लेंगे उत्तर-पुस्तिकाएँ....ठीक ?”

अस्थाना से “जैसा आप कहें' सुनते हुए रामरज शर्मा अधिकार-पत्र लिखने में लग गए और कक्ष-प्रवेश की घंटी बजवा दी।

“नमस्कार शर्मा जी !”

शर्मा ने देखा कि बलवीरसिंह हैं। बलवीरसिंह लंबी-चौड़ी कद-काठी वाले, इसी गाँव के सम्पन्न परिवार से जुड़े शिक्षक हैं। उनका विद्यालय शहर में है, किन्तु परीक्षा-कार्य में सहयोग करने का आदेश लेकर इन दिनों गाँव आ जाते हैं और फसल-कटाई, खलिहान आदि की साज-सँभार कर लेते हैं। खानदानी प्रभाव तथा नकल कराने में मुक्त सहयोग की वजह से वे इन दिनों छात्रों में खासे लोकप्रिय रहते हैं-”आज की क्या व्यवस्था है साब ? सुना है, सक्सेना साब यहाँ का घी पचा नहीं पाए...बीमार हो गए हैं ?” बलवीरसिंह ने चुटकी लेते हुए पूछा।

सीनाजोरी वाले अधिकार के साथ चोरी करवाने वाले बलवीरसिंह की उपस्थिति में शर्मा सुलग उठते हैं। उन्हें केन्द्र के आसपास भी नहीं देखना चाहते, पर विवशता है। किसी प्रकार कुछ भी तो नहीं बिगाड़ सकते बलवीरसिंह का। उल्टे बलवीर ही चाहें तो उनकी शिकायत करवा दें, धुनवा दें....चाहे तो स्वयं धुन दें। शर्मा पर दबाव बनाने के लिए उन्होंने यह बात उड़ाई है कि “चूँकि शर्मा ब्राह्मण हैं और यहाँ 85 प्रतिशत छात्र हरिजन तथा पिछड़े वर्ग के हैं, अत: शर्मा नहीं चाहता कि लड़केर् उत्तीण होकर आगे बढ़े।” अगड़ा-पिछड़ा वाला हथियार इन दिनों ऐसा प्रभावी हुआ है कि शर्मा स्वयं को उस घिरे हुए भयभीत कुत्तो की भाँति अनुभव करते हैं, जाो अपने समाजवादी सिध्दान्तों की दुम पिछली टाँगों के बीच लेकर, पेट से चिपका, दाँत दिखा खोखियाताा हुआ किसी तरह बच भागने का अवसर ढँढता है। उसके चारों ओर तनी हुई पूँछों का गुर्राता हुआ झुंड होता है।

“आज हमसे कहाँ सेवा लेंगे श्रीमान् ?” शर्मा ने बलवीर की आवाज़ सुनी।

दबी हुई पूँछ में कुछ ऐंठन भरकर शर्मा बोले-”आपके लिए दसों दिशाऐं खुली हैं, ठाकुर साहब !”

चौड़े हुँह की हँसी के साथ बलवीरसिंह ने वार किया-महाराज ठाकुर बोले या चमार, सब लीला आपकी है / यह गाँव ठाकुरों का है, स्कूल ठाकुरो का है, फिर भी प्रिसिंपल आप हैं। ठाकुरों में दिमाग कहाँ होता है ?”

बलवीर के व्यंग्य से शर्मा का ब्राह्मण चोटिल हुआ, ठाकुर साहब ! दिमाग को तो लट्ठ के सामने हाथ बाँधकर खड़ा रहना पड़ता है। जमीन आपकी लाठी-बंदूकें आपके पास। राजा, साहूकार सब आप ही तो हैं ! सोने पे सुहागा के कि आप सिर्फर ठाकुर नहीं रहे...मंडल ठाकुर बन गए हैं। सो पशु सहित बड़ नाम तुम्हारा। हमारी बुध्दि तो आपका झाड़ू-पोंछा करनेवाली एलची है साहब !”

“हाँ साब ! एलची तो कमिश्नर, कलेक्टर भी है, जिनके हाथ में हुकूमत है। सब पदों पर पंडित एलची-पचासी पर पंद्रह की हुकूमत । खैर, छोड़िए, बुरा लग रहा है आपको। आप तो आज की व्यवस्था के बारे में हुकुम कीजिए।” बलवीर उपहास के भाव में आ गए।

शर्मा ने फैली-बिगड़ी व्यवस्था का गोलमाल खुलासा किया-”व्यवस्था वही है, जो चली आ रही है। सक्सेना जी किनारे हाो गए, तो शर्मा जी रखवाली पर आ गए। लठैत रगेद रहे हैं...भैंस हाँफ रही है।”

बाबू जी आ गए- “घंटा बजवाऊँ साब ?”

“प्रश्नपत्र आ जाने दो, तभी बजवाना। थोड़ी-बहुत देर से अपने देश में क्या अंतर पड़ता है ? काँपी वगैरह का रिकॉड देख लो। नोटिस चिपकवा दो कि जो कोई अनुचित साधनों का प्रयोग करते पाया जाएगा, उसे छोड़ा नहीं जाएगा। सब काम शांतिपूर्वक अंदर ही होना चाहिए। आइए, मैं समझाता हूँ।” शर्मा जी बाबू के साथ बाहर निकल लिये।

प्रश्न-पत्र आने, खुलने और वितरण की औपचारिकताओं में आधा घंटा जाया हुआ। फिर भी आज की सजा के ढाई घंटे शेष थे। शर्मा जी मैदान के बीच पड़ी कुर्सी पर आ बैठे। केन्द्र के आसपास भाईयो, चाचाओं, पिताओं, मित्रों व भिन्न-भिन्न प्रकार के संबंधियों की भीड़ जुट चुकी थी। पीछे की खिड़कियों, रोशनदानों से प्रश्नपत्र का सामना करने के प्रचुर साधनों की झोंक शीतयुध्द की तरह गति पकड़ रही थी। लोगों में जाने कैसे यह बात फैल गई कि शर्मा अनुचित साधनों के लिए सहमत हैं, पर यह अंदर और चुपचाप चलना चाहिए। बाहर के बवंडर से वह डरता है। केन्द्र के कक्षों में फुसफुसाहट-भीर लूट का आलम हो गया। कोई कुंजी, किताब भीतर पहुँचते ही पुर्जे-पुर्जे हो बँट जाती।

घंटा-बजा- यानी एक-तिहाई समय समाप्त हो गया। अधिकांश कॉपियाँ खाली रहीं, कोरी की कोरी। बिना श्रम किए पा जाने के भरोसे परीक्षाा के लिए कोई तैयार ही नहीं की गई थी। सही उत्तारवाले पृष्ठ सामने थे, पर उनका लाभ उठाए, जाने का कौशल नहीं था। उन्हें तो बना-बनाया चाहिए था- शुरू से अंत तक।

परीक्षा-कक्षों की बेचैनी, व्याकुलता, हड़बड़ी तथा शोरगुल को अनदेखा, अनसुना करते केन्द्राध्यक्ष शर्मा कुर्सी पर गुमसुम बैठे थे। कभी-कभी ऑंखें बंद कर पीछे सिर टिका लेते, तो सोए-से दिखते । कभी बैठे-बैठे सारस की तरह सिर घुमा आसपास का जायजा ले लेते। वह केवल समय पूरा करना चाहते थे। गणित शर्मा को उन्होंने पास बिठा रखा था।

फट-फट फटक, फटक फट फट की दनदनाती आवाज़ के साथ प्रवेश द्वार पर वजनी एन्फील्ड़ मोटर-साईकिल चमकी और मैदान में अपनी भरपूर आवाज़ घोषित करती हुई सीधे कार्यालय के सामने जाकर रूकी। केन्द्र तथा केन्द्राध्यक्ष की सरेआम अवहेलना से रामरज शर्मा रोष से भर उठे, किंतु यह इलाके का थानेदार था जिसे संस्था के मंत्री भी मान देते हैं। कमर में पिस्तौल लटकाए थानेदार के पीछे मार्क थ्री से सज्जित प्रधान आरक्षक था। दोनों को सिंह-ध्वनि के साथ कार्यालय में प्रवेश करते और तुरन्त निकलते देखते रहे शर्मा। थानेदार गलियारे में टहलने लगा। उसकी अजब-सी ऐंठ शर्मा को खल रही थी। बिना केन्द्राध्यक्ष की अनुमति के थानेदार को भीतर घुसने का कोई अधिकार नहीं था, पर अधिकार उसकी कमर सेस लटका था और वही सच था। शर्मा ने ऑंखे बंद कर लीं।

“सर ! अभी तक कुछ नहीं हो पाया....मास्टर साब, प्लीज !” कोई लड़का शायद गणित शर्मा से कहा रहा था।

“मैं क्या करूँ ? इनसेस कहो ना-प्रिंसिपल साब से......”

गणित शमा्र की झुँझलाई आवाज़ पर रामरज शर्मा ने ऑंखें खोलीं। गणित शर्मा की बगल में केन्द्र का सुपरिचित चेहरा अर्थात् डिप्टी साहब का पुत्र खड़ा था। केन्द्राध्यक्ष द्वारा घूरकर देखें जाने पर लड़के ने स्वर में थोड़ी विनय भरी-”सर, बहुत टफ पेपर है।”

लड़के के हाथ में प्रश्नपत्र और उत्तरपुस्तिका भी थी जो वह साथ में नहीं ला सकता था। तीन-चार लड़के भी उस कक्ष से बाहर निकल आए थे। आगे घटने वाले दृश्य के प्रति उत्सुकता से भरे शिक्षक दरवाज़ों पर खड़े हो गए थें।

“तो ...? “ शर्मा ने सहजता बनाए रखकर डिप्टी-सुत से पूछा।

“सर ! हमें हेल्प चाहिए। ऐसी ही परीक्षा देनी होती, तो कहीं भी चले जाते, यहाँ धूल क्यों फाँकते।

“क्या यहाँ किसी ने पढ़ने-लिखने से तुम्हें रोका ?” शर्मा ने पूछा।

“कह दूँ, तो बुरा लगेगा आपको ....साफ है कि आप नहीं चाहते कि हम लोग परीक्षा मेंर् उत्तीण हों और आगे बढ़े। देखिरए सर ! मैं साफ कहे देता हूँ कि आप हमें रोक नहीं सकते। राजी से हो, तो अच्छा....वरना हम -गैर राजी करेंगे। एक बात समझ लीजिए सर ! अगर भम्भड़ शुरू हो गया तो .............? लड़का उत्तेजित हो उठा था-”हमारा क्या है ? हम तो फेल होते रहे हैं.........ओर हो लेगें, पर आपके लिए बहुत मुश्किल हो जाएगी।” लड़के ने झुंड का प्रतिनिधि बनकर शर्मा के आगे आदि से अंत की चेतावनी टाँग दी।

पल-पल कर समय काटते शर्मा अंदर से सिहर गए-”देखो भाई ! तुम जो सोचते हो गलत है। मैं तुम्हारा या दूसरों का शत्रु नहीं हूँ। मुझे केन्द्र का संचालन करना है। व्यवस्था बनाए रखनी है। उसके कुछ नियम हैं....समझे ?”

“हम नियम तोड़ने की कब कह रहे हैं ? थोड़ा सहयोग चाहते हैं ....जरा-सी छूट।” वह अड़ गया था।

“छूट की तो कोई सीमा नहीं होती। आगे वह मनमानी हो जाती है।”

शर्मा द्वारा समझाने के लिए प्रयोग किए जा रहे इस समय में छात्रों व शिक्षकों का एक छोटा-मोटा झुंड आसपास सिमट आया था। आतुर व अनजान लड़के जरा-से उकसावे पर हमला बोल सकते थे। शर्मा ने चिंतामग्न हो अपना माथा रगड़कर कहा, “इतनी छूट तो तुम्हें दे ही रखी है कि बना हो-हल्ला, जो करना है, करो।”

“इतने से काम नहीं चल रहा है। हमें तो सिरे से हल किया हुआ चाहिए।” कोई भीड़ से बोला।

शर्मा ने झुंड पर निगाह फेंकी। शायद सब वही चाहते थे कि चाहे जैसेस हो, बिना श्रम किए तुरत परिणाम मिले।

“चलो, यही मान लिया जाए, तो हमारे पास इतने लोग कहाँ हैं कि सबके हिस्से में हल पहुँच सके ? अकेले ये शर्मा जी हैं....पैसे और दादागिरीवाले इन्हें कब्जे में लेकर लाभ उठा लेंगे। आप लोगों में गरीब और कमजोर भी तो हैं, जो ऊधम नहीं मचा सकते, लड़-भिड़ नहीं सकते। मगर मैं तुम्हें रोकूँगा नहीं.............क्योंकि तुम मानने वाले नहीं इस समय। ये हैं गणित वाले...इनसे जो चाहे, जैसे चाहो, करवा लो। अगर कुछ हो जाए, तो मैं जिम्मेदार नहीं....ध्यान रहे कि यहाँ से बाहर भी इस केन्द्र को देखने-परखने वाले हैं, और उनके हाथों में हम सबको बनाने-बिगाड़ने की शक्ति है.....”कहकर शर्मा मैदान से उठ भीतर की ओर चले गए।

उनके जाते ही गणित शर्मा की खींचातानी होने लगी। पहले लाभ उठाने के लिए लड़क उन्हें अपने-अपने कक्ष की ओर खींचने लगे। गणित शर्मा कोई सुझाव देने की कोशिश कर रहा थां पर “लूट सके, तो लूट' के हल्ले में गणित शर्मा द्वारा दी जा रही व्यवस्था की भी कोई सुनवाई न थी। व्यक्तिगत लाभ,र् ईष्या तथा मनभावन बातों के माध्यम से लोकप्रिय बनकर इच्छाएँ सुलगाने में उसका भी हाथ था और इस समय वह अपने ही द्वारा हवा दी गई लपटों से घिर गया था। खींचातानी बेहूदगी में बदलने से परेशान गणित शर्मा गला फाड़कर चिल्लाया-”अगर तुम लोग मेरी बात नहीं सुनते, तो मैं किसी का कोई प्रश्न हल नहीं कर पाऊँगा....नहीं करूँगा।”

लड़के अचानक झम्म हो गए। अंदर डरे-दुबे से रामरज शर्मा सुन रहे थे कि परीक्षा-कक्षों का हल्ला बीच मैदान में पहुँच गया है। बाबू ने सूचना दी कि स्थिति खराब हो गई है।

“दरोगा कहाँ है ?” शर्मा ने पूंछा।

“वह गार्डरूम में चाय पी रहा है।” कहकर बाबू खिड़की से बाहर झाँकते हुए ऑंखों-देखा हाल सुनाने लगा-”सर, गणित शर्मा का हाल बेहाल है। जो लड़के अभी तक शांत से भीतर थे, वे भी भम्भड़बाजों में शामिल हो रहे हैं.....कुछ हैं, जो दूर ऊँचे-नीचे स्थानों से तमाशा देख रहे हैं....प्रश्नपत्र, काँपियाँ फाड़कर उछाली जाने लगी हैं।, सर !”

अब रामरज शर्मा को न रोक सके और कुर्सी से उठ, तेजी से बाहर की ओर लपके कि बाबू ने बाजू से थाम लिया।

“कहाँ जहा रहे हैं सर ? लड़के पगलाए हुए हैं- कुछ भी कर सकते हैं । वे आपसे पहले ही रूष्ट हैं।”

रामरज दयनीय हो उठे-”कुछ तो करना पड़ेगा बाबूजी ! किसी को तो यह बाढ़ रोकने की जोखिम उठानी होगी....नहीं तो अपनी डूब में वह सब-कुछ ले लेगी।”

“आप अकेले क्या कर लेंगे ?” कहता हआ बाबू उन्हें बलपूर्वक भीतर घसीट ले गया और उसके संकेत पर चौकीदार ने साँकल चढ़ा दी।

द्वार के किवाड़ों पर पत्थरों के साथ नारे बजने लगे- “प्रिंसीपल मुर्दाबाद !....खूसट शर्मा, हाय-हाय ! ....हरिश्चंद्र की औलाद, बाहर निकल ! जो हमसे टकराएगा, मिट्टी में मिल जाएगा ! हम अपना अधिकार माँगते, नहीं किसी से भीख माँगते।”

उत्तेजना व अवशता से रामरज शर्मा की छाती में हूक-सी उठी। वह पीड़ा से बिलबिला उठे। बाहर नारों तथा हुड़दंग का दौर जारी था। संस्था के दरवाजे-खिड़कियाँ तरह-तरह के आघातों से हिलकर अपनी जगह छोड़ने लगे थे। वे कहीं से भी टूट-उखड़ सकते थे।

चेहरे की ऐंठन को काबू में करते शर्मा बोले, “वे इमारत की तोड़-फोड़ कर रहे हैं, बाबूजी ! और रो पड़े।

बाबू बेहद घबरा गया। बाहर की मारामारी में उपचार की व्यवस्था कैसे करे ? शर्मा अब छटपटाने लगे थे। बाहर एक बार फिर जोर का शोर हआ। उसी में दस्ता आ जाने की सूचना मिली, तो रामरज शरमा को फर्श पर लिटा बाबू ने द्वार खोला। मैदान में हथियारबंद पुलिस के कुछ सिपाही लड़कों को खदेड़ रहे थे। निरोधी दस्ता पर्याप्त रक्षकों के साथ आया था। इसलिए चंद क्षणों में केन्द्र को अपने कब्जे में ले लिया।

कार्यालय में घुसते एक चुस्त-दुरूस्त वर्दीधारी ने पूछा-”केन्द्राध्यक्ष कहाँ हैं ?”

बाबू ने फर्श पर पसरे पसीने से तरबतर आदमी की ओर संकेत कर दिया। जूट के फर्श पर चित्ता पड़े शर्मा की धौंकनी चल रही थी-ऑंखें छत की ओर तनी थीं। रूक-रूकर ऐसी कराह निकलती, जैसे कहीं शूल चुभ रहा हो।

“जब इनमें कुव्वत नहीं थी, तो केन्द्राध्यक्ष क्यों बने ?” अधिकारी ने भुनभुनाते हुए प्रश्न दागा।

“खुद नहीं बनते। इन्हें बना दिया गया है।” बाबू ने स्थिति स्पष्ट की।

“ठीक है-इन्हें आहिस्ता से उठवाकर मेरी गाड़ी में रखवाओं । लगकता है, दिल का दौरा पड़ा है। “ फिर बाबू झुककर रामरज शर्मा के कान में कहने लगा-”केन्द्र को फोर्स ने अपनी सुरक्षा में ले लिया है- थोड़ी हिम्मत बाँधिए....देखिए, सब ठीक हो जाएगा। हम आपको अस्पताल पहुँचा रहें हैं....खतरे की कोई बात नहीं है।”

रामरज शर्मा के होंठ थरथराए। अधिकारी का संकेत पा उन्हें हाथों पर उठा लिया गया।