ईद मुबारक / वंदना शुक्ला

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प्यार दोस्ती में बहुत खामोश और आहिस्ता से दाखिल होता है पता ही नहीं चलता दुनियां की इस भरी भीड़ में ये चमत्कार किसी एक के साथ कब क्यूँ और कैसे हुआ?और जब तक कुछ होश आता है वो एक बैचेनी भरी कुलबुलाहट लिए ज़ेहन से ज़िंदगी तक पूरी तरह अपना कब्ज़ा जमा चुका होता है आदमी खुद से ही पराजित हो जाता है| फरहा और राघव हलाकि इस खुशनुमा शिकस्त की गिरफ्त में आ चुके थे लेकिन चाहते हुए भी वो इस विषय में खुलकर कहना तो दूर सपने भी नहीं देख पाते थे। सपनों के पूरा होने की खुशी से ज्यादा उनके टूट जाने का खौफ उन्हें ज्यादा सालता, वो सपने जिन्होंने अभी अन्खुआना शुरू ही किया था। बावजूद पर्याप्त एहतियात के धीरे धीरे उन की चाहत खुशबू की तरह उनकी अपनी सहेजी दुनियां से बाहर आने के रास्ते खोजने लगी और फिर उस दिन उन दौनों की एहतियात की कच्ची दीवार भरभराकर ओंधे मुहं गिर पडी जब राघव कॉलेज से लौटकर घर में घुसा। बाउजी ने उसे आवाज़ दी जो बरामदे के मोढ़े पर बैठे चाय पी रहे थे। राघव बाउजी के मंतव्य से अनभिग्य उन का कहा मान उन्हीं के पास रखी कुर्सी पर बैठ गया ऐसा अक्सर होता ही रहता था। माँ उसकी चाय पहले ही रख गईं थीं।

“आज तुम किस लडकी के साथ बैठे थे बस अड्डे पे?पिता जानकी प्रसाद पांडे ने पूछा था राघव से

प्रश्न अप्रत्याशित था और उत्तर होशोहवास खोये बगैर दिया जाने लायक

“हाँ कॉलेज की एक दोस्त है वो

“क्या नाम है?

फरहा...

मुसलमान है?

हाँ

क्यूँ?

क्या मतलब?

मुसलमान से दोस्ती?

हम दौनों तो बस का इंतज़ार कर रहे थे... ऐसी दोस्ती थोडा ही...

देख लो... ये ठीक नहीं

क्या?

रोज़ रोज़ उसके साथ यूँ दिखना

अरे पर बस तो वहीं से मिलेगी न?

लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे?

कैसी बात कर रहे हैं बाउजी...?अपने तमाम बिखरे एहतियातों की किरचों को एक और खिसकाते हुए राघव ने कहा। अब छः महीने ही तो बचे हैं इम्तहान के उसके बाद वो कहाँ और मैं कहाँ क्या पता?

ठीक है एकाध दफे और भी देखा है तुम्हे उसके साथ इसीलिये पूछ लिया। लेकिन बस दोस्ती तक ही रहना आगे मत बढना... .ये लोग बहुत कट्टरवादी होते हैं .ये तुम्हारी भलाई के लिए ही कह रहे हैं... बाउजी मौन हो गए। उन्होंने अपने डर के बीज राघव के ज़ेहन के आसपास छिड़क दिए थे अब, जबकि उसके अपने अनुमान बाबूजी के डरों से आगे भी कई मीलों तक फैले थे।

..कई आशंकाओं भरी पोटली में बाउजी ने अपनी चुप्पी की गाँठ लगा दी थी और राघव भी भीतर ही भीतर कुछ कम डरा हुआ नहीं था उसने भी अपने शेष डरों को अपने मन के बहुत अंदरूनी कोने में दबोच कर बिठा लिया था।... खुद से डर दूसरों से डर से ज्यादा डरावना होता है वो सोच रहा था क्या सचमुच उसने जो बाउजी से कहा हम दौनों के रिश्तों के बारे में ऐसा ही होगा?

आंगन में राघव और बाउजी की खाटें अगल बगल में बिछी हुई थीं| रात भर वो बाउजी से चुपके जागता रहा बंद आँखों के भीतर और बाउजी को भी उस रात प्यास कुछ ज्यादा लगी... बार बार उठकर खाट के बगल में रखे स्टूल पर से पानी भर कर पीते रहे।

(१)

आख़िरी साल की परिक्षा निकट आ रही थीं और फरहा और राघव दौनों की नाउम्मीदें क़यामत के रोज़ के करीब खिसक रही थी जिसके आगे सिर्फ अँधेरे थे। अपना लिखना पढना छोड़ बस अलविदा कहने के दिन की अनचाही प्रतीक्षा कर रहे थे वो। तभी एक दिन विस्फोट हुआ... आख़िरी तदबीर का... अपनी शंकाओं और घुटन का और राघव ने फरहा से कॉलेज से लौटते वक़्त रास्ते में बीच में पड़ने वाली उस टी शॉप पर मिलने के लिए कह दिया

वो आई उसी चाय की दूकान में। ग्राहकों के लिए कनात को घेरकर जो छोटे केबिन बना दिए गए थे उन्हीं में से एक में वो दौनों आमने सामने खड़े हुए थे। अचानक राघव को न जाने क्या सूझा उसने फरहा का हाथ पकड लिया। वो बुरी तरह सकपका गई।

शादी करोगी मुझसे?प्रश्न अप्रत्याशित था

ये क्या कह रहे हो राघव... .मैंने तो कभी सोचा ही नहीं इस बारे में?

तो सोचने के लिए ही तो कह रहा हूँ फरहा... तुम भी मुझसे इश्क करती हो जैसे मैं तुमसे यदि ये मेरी गलतफहमी है तो मैं वाकई अपनी इस बदतमीजी के लिए शर्मिंदा हूँ और तुमसे माफी मांगता हूँ...

वो नीची गर्दन किये सोचती रही

ज़रा भी हिम्मत नहीं सच...हौसले पस्त हैं फिर भी देखती हूँ कोशिश करके...

घर लौटते वक़्त वही रास्ते थे वही दुकानें और सडकों पर दौड़ते वैसे ही रोज़ की तरह वाहन लेकिन फरहा के दिल में मचे तूफ़ान से बेखबर... आज उसे ये सब चीज़ें एक अजीब तरह से डरा रही थीं।

“अम्मी आपसे कुछ बात करनी है... रात में जब अम्मी उसके बालों में तेल लगा रही थीं तब उसने अपनी बची खुची हिम्मत बटोरकर उनसे कहा

हाँ कहो

लेकिन जो फरहा ने कहा अम्मी का शक उसके आसपास भी नहीं फटका था अभी तक लिहाजा वो भीतर से कांप ही उठीं

ये क्या कह रही हो... दिमाग खराब हो गया है क्या तुम्हारा?अपनी पसंद का लड़का वो भी काफिरों के खानदान का ... ना ना ये तो नामुमकिन है... अपनी जुबां से भी ना निकालना बिटिया कहर ही हो जाएगा

अम्मी खुदा के लिए ऐसे ना कहो कुछ तो रहम करो हम पर... वो बहुत ज़हीन लड़का है निहायत शरीफ और भरोसेमंद... आदतें भी कोई बुरी नहीं शराब सिगरेट तो वो छूता भी नहीं हम जानते हैं उसके घर में भी कोई पाबंदी नहीं होगी उसके वालिदेन बहुत सीधे लोग हैं यकीन करो अम्मी।

हम क़ुबूल भी कर लें लेकिन घर के मर्दों को कौन समझायेगा... पुराने शहर वाले अपने मामू और चाचू को तो तुम जानती ही हो काट कर फेंक देंगे जुबां भर से निकाल दिया तो?वो बोलीं

आप अब्बू से कहिये न?

अब्बू तो मान जायेंगे लेकिन और लोग?

और फिर ‘और लोगों’ से जैसी की उम्मीद थी साफ़ इनकार हो गया। सब कुछ उम्मीद के मुताबिक ही हो रहा था। फरहा ने कॉलेज आना बंद कर दिया पता पडा वो बीमार हो गई है। हिंदी फिल्मों की तरह उसे घर से निकलना बंद कर दिया गया और इम्तहान भी वो बुरखा पहन किसी घरवाले के साथ ही आती थी जो उतनी देर बाहर चौकसी करता बैठा रहता। ये राघव और फरहा की ज़िंदगी के सबसे बुरे दिन थे। इम्तहान ख़त्म हो चुके थे दो महीने भी बीत चुके थे न फरहा का कोई पता न राघव को अपने भविष्य का। खैर जीना कभी कभी मजबूरी हो जाता है और तब हालातों से समझौता करने के सिवा कोई चारा भी नहीं बचता। छः माह बीत चुके थे और घर में एक खुशी का नन्हा सा शिशु पैदा भी हो चुका था राघव की नौकरी एक बैंक में लग गई थी लिपिक के पद पर। मुहल्ले भर में लड्डू बंटे|

कुछ दिन हुए राघव को नौकरी ज्वाइन किये हुए। राघव के दिल में उदासी के घने कोहरे से अनभिग्य घर भर अभीभूत था इस उपलब्धि पर। उनके सपने साकार हो रहे थे जो राघव की ज़िंदगी से जुड़े थे लेकिन राघव जैसे एक मशीन में तब्दील हो चुका था बस घर से बैंक और बैंक से घर... यूँ भी ज्यादा बोलने की आदत रही नहीं उसकी कभी। मन के भीतर अफ़सोस और फरहा की यादों समेत कई तहखाने बन चुके थे... अँधेरे निस्पृह और खामोश...जिनके भीतर उसका अकेलापन चुपचाप आहें भरा करता।

उस दिन जब वो बैंक से घर आया तो अम्मा ने बताया कि किसी का फोन आया था तुमसे मिलना चाहते थे

नाम क्या था?जूते के बंद खोलते हुए उसने अनमने मन से कहा

अब्दुल लतीफ़ या कुछ ऐसा ही बता रहे थे

वो जैसे अपने कानो पर यकीन ही न कर सका

किसका एक बार फिर कहो

कोई मुस्लिम थे नाम शायद ऐसा ही कुछ था

नंबर बताओ राघव ने कहा

उस नंबर पर कोई दमदार आवाज़ थी उन्होंने कहा -’मिलना चाहते हैं तुम्हारे पिता से...।

जी ज़रूर .राघव ने कहा

बात ‘कल’ शाम उनके आने पर तय हो गई। रात भर राघव सो न सका। “

“बाउजी ठीक ही तो कह रहे थे... बहुत कट्टर होते हैं ये लोग... अब कल क्या होगा जब वो आएंगे और हमें धमकाएंगे... बाबूजी अम्मा पर क्या बीतेगी?..

...काल्पनिक द्रश्य जैसे उसके सुकून के एकांत में आकर धडाधड गिर रहे थे न जाने कहाँ से? “ देखो तुम्हे आख़िरी बार ताकीद कर रहे हैं कि अब फरहा से मिलने जुलने की कतई कोशिश ना करना वर्ना तुम जानते नहीं हो कि हम क्या करेंगे?” कभी कुछ उनकी बिरादरी के लोग बाबूजी को हडकाते “संभाल लो अपने साहब जादे को वर्ना हम से बुरा कोई ना होगा?... कभी चार पांच लोग आते और आते ही लाठियां बरसाना शुरू कर देते उसके सर पर... वो उकडू अपना सर पकडे ज़मीन पर बैठा है और उस पर लाठियां बरस रही हैं... राघव हडबडाकर उठ बैठा। पानी पीया और धीरे से दरवाजा खोल बाहर आकर खड़ा हो गया। गली सुनसान थी... दो एक कुत्ते पूंछ दबाये इधर उधर कुछ सूंघते से डोल रहे थे। एक ने उसे देख लिया और उसके पैरों के पास आकर पूंछ हिलाकर अपनी उम्मीद जताने लगा। कुछ देर बाद नाउम्मीद होकर वहां से चला गया। राघव वापिस घर के भीतर आ गया। सांकल चढ़ा अपने बिस्तर पर आकर बैठ गया। उसका मन हुआ इसी वक़्त बाउजी को जगा दे और उन्हें पूरी बात बता दे माफी मांगते हुए उनसे कोई रास्ता निकालने को कहे। पूरी रात पसोपेश और उद्विग्नता में बीती। कई बार दिमाग में ये भी आया कि फरहा को फोन लगाकर मांजरा बताये लेकिन फिर लगा खामोख्वाह उसकी जान पर बन आयेगी।

सुबह हुई जो दोपहर तक सरक आई... ना कोई फोन न सन्देश... .

लेकिन इंतज़ार और बैचेनी के पल आखिरकार ख़त्म हुए। वो दो लोग थे जो उनके घर आये हाफिज अली और उनकी पत्नी रजिया बेगम फरहा के माता पिता|जैसा सोचा था उससे बिलकुल उलट... बहुत सीधे सहज दौनों... . |बाउजी ने उनका खुलकर स्वागत किया और अपना अनमनापन छिपा गए।

“बेटा, फरहा ने खाना पीना छोड़ दिया है किसी से बोलती भी नहीं घरवालों को तो अपनी इज्ज़त प्यारी है लेकिन हमें अपनी बच्ची... उनकी ऑंखें झुर्रियों के बीच चमकने सी लगीं थी पनीली होकर...वो अपनी बेटी की ज़िंदगी मांग रहे थे उनसे

अरे ये तो बहुत फ़िक्र की खबर है अंकल... बताइये मैं क्या कर सकता हूँ आप के लिए और फरहा के लिए...राघव बैचेन हो उठा

बेटा उससे निकाह कर लो... हम सब नाते रिश्तेदारों से निपटेंगे... लेकिन हमें अपनी बेटी को बचाना है हमारे पास उसके अलावा है ही क्या?अब मैं भी रिटायर हो चुका हूँ उसकी अम्मी भी बीमार रहती है अपनी आँखों के सामने उसका खुशहाल परिवार देख लें बस यही चाहते हैं... फरहा के पिता गिडगिडा रहे थे और राघव उन्हें हर तरह से सुकून देना चाहता था

“ये मज़हब धर्म की बातें और उसूल ज़िंदगी से बढ़कर थोड़े ही हैं... हम आम रिआया सिर्फ इंसानियत और सुकून से वास्ता रखती है और यही चाहती है... . उन्होंने बाउजी की और देखते हुए कहा

खौफ और परेशानियों के बीच हुए निकाह में गिने चुने लोग शामिल हुए। निकाह हफीज खान यानी फरहा के पिता के घर सिर्फ पांच मेहमानों की मौजूदगी में पढ़ा गया... करीम पुर से आये फरहा के बाबा हकीमुल्लाह खान जो स्वतंत्रता संग्राम में अपनी हिस्सेदारी कर चुके थे और एक तरक्की पसंद इंसान थे, उनकी बीवी रहमानी और फरहा के रिश्ते के एक चाचा जो हफीज साब के दोस्त भी थे और उनकी बीवी उनके अलावा मौलवी साब। उसके बाद पूजा जानकी नाथ पाण्डेय यानी राघव के घर हुई थी यहाँ भी पंडित के आलावा गिने चुने लोग उपस्थित थे। । राघव और फरहा अपनी बेइंतिहा खुशियों के साथ एक दूसरे की खूबियाँ अपने घरवालों को नहीं बता पा रहे थे और घरवाले हज़ारों शंकाओं के बीच घिरे डरे हुए से सभी रस्मों रिवाजों को निपटा रहे थे

फरहा राघव के घर आ गई उन दौनों ने पहले ही दिन ये समझौते किये कि वे किसी के धर्म में विघ्न नहीं बनेंगे और एक दूसरे के परिवारों का सम्मान करते हुए बहुत सहजता से जीवन यापन करेंगे।

फरहा ने अपनी समझदारी और काबीलियत से जल्द ही सबको अपना मुरीद बना लिया जिनमे सबसे पहले थे अम्मा और बाउजी। उनकी सारी की सारी नाउम्मीदियाँ उम्मीदों में बदलती जा रही थीं जो उनके उत्फुल्ल चेहरों और कार्य कलापों में स्पष्टतः दिखाई देती थीं। और राघव... वो तो सातवें आसमान पर था जैसे... बेहद ज़हीन ख़ूबसूरत और सबसे ज़रूरी अपनी मनपसंद साथी को पाकर वो खुशी से सराबोर हो चुका था।

फरहा के रिश्तेदार अभी भी काफी खफा थे कईयों ने हाफिज साहब के घर मेल –मुलाकात भी बंद कर दी थी। उनके मित्र और कई रिश्तेदार उन्हें एक गुनाहगार की तरह देखते जिन्होंने अपनी बेटी को जान बूझकर काफिरों के हाथो में सौंप दिया था।

“अल्लाह...हमारी औलाद होती तो कबका क़त्ल कर दिया होता हमने तो... या फिर, बरखुरदार आपने तो खुदा को नाराज कर अपनी जगह दोज़ख में पक्की करा ली है... अब चाहें हज करें या पाँचों बखत के नमाजी हो जाएँ कोई फर्क नहीं पड़ता... सज़ा तो तयशुदा है खुदा के घर में “जैसी बातें वो आते जाते सुनते और खामोशी से पीते रहते। ये सब बातें उनकी जान से प्यारी बेटी से ऊपर नहीं थीं।

“बहुत दिनों से नहीं आयीं अम्मा घर... आओ ना कहो तो ऑटो रिक्शा भिजवा दें या राघव को स्कूटर लेकर भेज दें लिवाने “मालती यानी राघव की माँ ने जब उसकी नानी से कहा तो नानी कुछ देर मौन रहीं फिर बोलीं

“नाहीं बिटिया... ना आ सकत... एक मुल्ला की छोरी ते ब्याह दियो है तुमने अपनों लरिका... तुम औरन ने तो कछु सोची नहीं पन हमें तो रहनो ही है ना नाते रिश्तेदारों के बीच?..और हाँ तुम भी ना अइयो इहाँ बाबूजी भोत गुस्से में हैं... नानी ने कहा और फोन रख दिया।

दो महीने बीत चुके थे शादी को... |इन दो महीनों में राघव और फरहा के माता पिता अपने संयुक्त परिवार के दिलों से कई मीलों दूर छिटक गए थे किसी बिलकुल तनहा टापू पर । सभी अपने अपने सुखों दुखों के साथ जी रहे थे और नए और बदले हालातों में तालमेल बिठाने की कोशिशें कर रहे थे।

(२)

फ़रहा के निकाह के बाद पहली ईद थी... हफीज मियां और उनकी बीवी रजिया का दिल बेटी से मिलने को बेताब हो रहा था। लेकिन बिना रिश्तेदारों से मशविरा किये बल्कि इजाज़त लिए उसे यहाँ लाना नामुमकिन था। सो उन्होंने एक राह निकाली। करीम पुर की पुश्तैनी हवेली में रहने वाले अपने बुजुर्ग ताऊ हकीमुलला साब जो वहां के पुराने रहवासी,तरक्की पसंद और इज्ज़तदार आदमी थे और फरहा की शादी के चश्मदीद गवाह भी उनसे दरख्वास्त की और पूरी अपनी मंशा बताई। वे खुशी खुशी मान गए।

ईद के दो दिन पहले हाफ़िज़ खान और उनकी बीवी व् राघव और फरहा अपने अपने घरों से हकीम साब के यहाँ करीम पुर पहुँच गए| ये मुस्लिम बाहुल्य इलाका था। पुरानी बावड़ियाँ, कच्चे पक्के मकान, गलियां और उनके इर्द गिर्द छोटे या दुमंजिला माचिस के डिब्बे जैसे घर जिन के चेहरे टाट या सस्ते कपडे के परदे से ढंके हुए थे। बाहर के कच्चे रास्ते की संकरी कच्ची जगह पर बंधे बकरे बकरियां और बंद ठहरे हुए नालों और कीचड़ की मिली जुली बदबू तैर जाती और पूरी गली महक उठती। इन्ही तंग गलियों में से गुज़रते हुए जाना होता था हकीम साब की हवेली तक जो आसपास के छोटे घरों /दडबों के बीच क़ुतुब मीनार की तरह खडी थी अपने इतिहास को अपने बुर्जों,कंगूरों और पीतल की कीलों जड़े मोटे और पौराणिक मज़बूत दरवाजों को समेटे।

ये भी एक संयुक्त परिवार था और हकीम साब इस घर के मुखिया थे घर में उनकी ही चलती थी। फरहा यहीं पैदा हुई थी लिहाजा सभी लोग उसे अपनी बेटी की तरह मानते थे सभी ने जी खोलकर उसका स्वागत किया। खाना पीना हुआ सब लोग सो गए। अलसुबह अफरा तफरी मची हुई थी पूरे शहर में... किसी ने शहर मौलवी के बकरे को मार दिया था और उसे बोटी बोटी करके उन्हें के दरवाजे पर फेंक दिया था। मुहल्ले के सभी हिन्दू रातो रात भाग गए थे या भगा दिए गए थे। पूरे इलाके में कर्फ्यू लगा दिया गया था। हिन्दुओं को ढूंढ ढूंढ कर मारा जा रहा था... मुसलमानों के सर पर खून सवार था। राघव को फरहा के घरवालों ने एहतियात के मद्दे नज़र कमरे के भीतर बंद कर दिया था। मोहल्ले में किसी को कानों कान खबर नहीं थी कि राघव भी फरहा के साथ आया हुआ है यहाँ

जैसे तैसे दिन बीता रात हुई। सभी लोग डरे सहमे से अपने घरों में दुबक गए। ये घर सबसे ज्यादा डरा हुआ था जिसने अपने भीतर किसी काफिर को छिपा रखा था।

रात के एक बजे अचानक...... दरवाजे पर खटखटाहट हुई... सभी के दिल कांप गए... |फरहा के दादा हकीमुल्ला खान ने घर में मौजूद बच्चों खवातीनों और राघव को कमरों में बंद कर सांकल लगा दी और खुद जब तक आँगन पार कर बाहर दरवाजे तक आते तब तक दरवाज़े की थाप थपेड़ों में बदल चुकी थी जैसे दरवाज़ा तोड़ ही दे रहे हों। घरवालों की जान ऊपर की ऊपर नीचे की नीचे... .सब के दिल ज़ोरों से धडक रहे थे। सभी को घर की औरतों से ज्यादा राघव की फ़िक्र थी और फरहा तो सदमे में ही आ गई थी... ना तो बोल पा रही थी और ना ही रो पा रही थी बस राघव का हाथ कसकर पकडे कोने से सट कर खड़ी हुई थी वो। हकीम साब की पत्नी रहमानी बी हाफीज़ साहब और उनकी बीवी रजिया के साथ खुदा से रहम की भीख मांग रहे थे। हकीम साब घर के बुजुर्गवार थे और आज भी माशाल्लाह लम्बे चौड़े और दो चार को तो यूँ ही उठाकर पटक देने का माद्दा रखते थे। सो उन्होंने एक पिस्तौल हाथ में ले ली जिसका लाइसेंस दो बरस पहले ही लिया था जब ऐसे ही हालात बावरी मस्जिद के वाकये के वक़्त हो गए थे। हकीम साब ने बहुत एहतियात से दरवाज़ा खोला..दरवाज़े पर कुछ जाने पहचाने और कुछ अनजान से नौजवानों के गुस्से में उफनते चहरे थे

“हकीम साब... .ज़रा तलवारें तो दीजिये कुछ कम पड़ गई हैं उन नामुराद काफिरों को आज अपनी मर्दानगी दिखानी ही पड़ेगी . उन लोगों ने मुल्ला साब की मस्जिद को नुक्सान पहुँचाया है... आगजनी भी की है। अगली गली की ताबिश की दूकान जलकर राख हो गई है... हमारे एक भाई को उन्होंने जलती आग में धकेल दिया है...

.”ये मुहम्मद आसिफ था बक्फ बोर्ड का एक कारिन्दा और बेहद कट्टरवादी... “ हकीम साब हालाकि इस कार्यवाही के सख्त खिलाफ थे और यदि मजबूरी नहीं होती तो वे उनकी ये मांग कतई पूरी ना करते लेकिन उन्होंने दो तलवारें उन्हें दे दीं और ज़ल्दी से किवाड़ बंद कर दिए

आधी रात होने को थी... बाहर रह रह कर चीखने चिल्लाने का शोर तूफ़ान की तरह उठता और फिर शांत हो जाता।

(३)

हकीम साब रात देर तक पलंग पर मसनद की टेक लगाये बैठे रहे बाहर से गोलियों और चीख चिल्लाहटों की आवाजें आ रही थीं। फज़र की नमाज़ का वक़्त भी होने को था अचानक उन्हें न जाने क्या सूझा। उन्होंने मोबाईल पर एक नंबर मिलाया

“नजीब... तुमसे काम था बेटा आ सकते हो क्या

हाँ हाँ घर पर ही... अभी... इसी वक़्त...काम बेहद ज़रूरी है

हाँ बेटा जानते हैं हम कि हालात बेहद खराब हैं ये भी जानते हैं कि ये कुफ्र ये ज़लज़ला ज़ल्दी थमने वाला नहीं है... कर्फ्यू भी लगा है लेकिन तुम बेहद समझदार और ज़हीन इंसान हो इसीलिये तुम पर भरोसा किये हैं और सबसे बड़ी बात तुम पुलिस महकमे के अफसर ही हो इसलिए तुम पर ना कोई शक करेगा और ना रोकेगा

अच्छा... किस इलाके में ड्यूटी है तुम्हारी?

चलो ठीक है जीप है ही तुम्हारे पास... लेकिन बेटा कोशिश करना कि अकेले ही आओ... काम कुछ ऐसा ही है... हाँ कॉन्स्टेबल के साथ आ सकते हो

शुक्रिया... हाँ ठीक है आधा घंटे में आ जाओ लेकिन बस ख्याल रखना कि सुबह होने से पहले

शुक्रिया बेटा

हकीम साब के चेहरे पर निश्चिंतता के भाव आ गए

नजीब हकीम साब का शागिर्द था उसे स्कूल में हकीम साब ने तालीम दी थी तब से पुलिस महकमे का एक बड़ा अफसर बनने तक उसका आना जाना मुस्तकिल था। यूँ भी हकीम साब की समाज में बुजुर्गियाना हैसियत थी और नजीब तो उन काबिल और समझदार शागिर्दों में से एक था जो बच्चे से लेकर बूढ़े और औरतों को इज्ज़त देने के लिए जाना जाता था। हकीम साब के लिए तो मरने मिटने को तैयार... वो इस सच को गाहे ब गाहे क़ुबूल भी करता था कि समाज में उसकी जो हस्ती है रौब दाब है वो हकीम साहब की तालीम का ही नतीज़ा है।

“बाहर आ जाइए सब लोग... अब कोई डर नहीं... हमने नजीब को बुला भेजा है वो आने ही वाला है .अब कोई हमारा बाल भी बांका नहीं कर सकता

हकीम साब ने कमरों की सांकलें खोल दीं और सब लोग बाहर आ गए

बेगम... सभी को खाना परोसिये... बस इस एहतियात के साथ कि घर के दरवाज़े खिड़कियाँ बंद रखे जाएँ उन्होंने अपनी बीवी रहमानी से कहा

अब आहिस्ता आहिस्ता घर से खौफ के बादल छंट रहे थे। हवेली की चाहरदीवारी मुस्तैद और खामोश थी जबकि भीतर की गतिविधियों में सुगबुगाहट होने लगी थीं। दमघोंट सन्नाटों की दीवारें चटक रही थीं। बावर्चीखाने से धीरे धीरे खुशबुएँ उड़ने लगीं... खवातीनों मर्दों की आवाजें भी फुसफुसाहटों के साथ नमूदार होने लगीं हल्की फुल्की खिलखिलाहटे भी।

शुक्रिया बाबा जान... .हम बता नहीं सकते कि आज आपने हमें हमारी ज़िंदगी की कितनी बड़ी सौगात बख्श दी है नहीं तो क्या होता न जाने राघव का उन लोगों को पता चल जाता तो..सोचकर रूह कांप जाती है सच।... हम ज़िंदगी भर नहीं भूलेंगे आपका ये अहसान... फरहा ने कहा तो उसे हकीम साब ने गले से लगा लिया

हम जिंदा हैं न मेरी बच्ची तब तक कोई हमारी औलादों को हाथ नहीं लगा सकता... लेकिन अब तुम्हारा और दूल्हे मियाँ का यहाँ रहना ठीक नहीं हमने बंदोबस्त करवा दिया है तुम्हारे जाने का नजीब आ रहा है वो खुद तुम दौनों को हिफाजत से तुम्हारे घर तक पहुँचवा देगा।

जी दुरुस्त बाबा जान... फरहा ने उसी शायस्तगी से कहा

अब ज़ल्दी ज़ल्दी तुम लोग कुछ खा पी लो सुबह होने में अभी वक़्त है कल से किसी ने कुछ नहीं खाया है। अब घर जाकर तुम लोग ईद मनाना अब्बू के घर... वहां माहौल ऐसा नहीं होगा... .

जी बाबा जान

रात के तीन बजने को थे जब नजीब आया उसे हकीम साब ने अपने कमरे में बुलवा लिया और सब बातें समझा दीं।

“माशाल्लाह तुम तो खासी बड़ी हो गई फरहा खातून...नजीब ने फरहा को देखकर कहा तो वो शरमा गई और मुस्कुराते हुए बस इतना ही कहा “आप भी तो ज़नाब कितने बदल गए... “नजीब और फरहा दसवें दर्जे तक एक ही स्कूल में पढ़े थे।

तय हुआ कि राघव को बतौर एहतियात नजीब खुद अपनी गाडी में ले जाएगा जबकि अन्य लोग दूसरी गाडी में कॉन्स्टेबल की निगरानी में जायेंगे। रात के सुन्न सन्नाटों में जीपें चल पडीं कुछ दूर जाकर वो अलग अलग रास्तों पर हो गईं। फरहा ने जब कॉन्स्टेबल से पूछा तो उसने बताया कि ऐसा एहतियात के लिए ही किया गया है।

(३)

दूसरे दिन दोपहर होने को आई पर उन लोगों के पहुँचने की खबर नहीं मिली। शहर भर में हडकंप मचा हुआ था। हकीम साब बार बार फोन मिलाते रहे कभी नजीब को कभी बेटी दामाद को और कभी अपने भतीजे हाफ़िज़ को और नो रिप्लाई देखकर फिर हाथ बांधे टहलने लगते आँगन में इधर से उधर। तभी फोन की घंटी घनघना उठी उन्होंने दौड़कर फोन उठाया

एक घबराई हुई आवाज़ गूंज रही थी उसमे

हकीम साब... एक मर्द की लाश मिली है नहर के पास की झाड़ियों में लोग बाग़ बता रहे हैं कि किसी हिन्दू की है उम्र कोई पच्चीस छब्बीस बरस है...किसी ने कहा कि कल रात को हकीम साब की हवेली से दो गाड़ियां गई थीं

हकीम साब को लगा कि उनकी साँसें रुक रही हैं...

बरखुरदार कौन हैं आप...... खैर जो भी हैं अल्लाह के वास्ते ज़रा ज़ल्दी और पूरा वाकया बताइये

बस इतना ही जानते हैं खान साब हम... और फोन कट गया

हकीम साब ने ज़ल्दी से शेरवानी और टोपी पहनी और स्कूटर उठाकर नहर की और चल दिए। अभी दोपहर थी और कर्फ्यू में थोड़ी देर की ढील दी गई थी। नहर उस पुराने शहर की कोई नदी रही थी जो अब नहर कहाती थी और अब तो नाम ही नहर था असल में थी अब एक गंदा मटमैला नाला ही जिसमे पूरे इलाके की गन्दगी बहती थी। ये छोटी मोटी पहाड़ियों और झाड़ियों से घिरी हुई थी। नहर के आसपास की पथरीली और ऊबड़ खाबड़ ज़मीन पर लोग छत्तों की तरह छितराए हुए थे आपस में बातचीत करते हुए। हकीम साब को देखते ही उन लोगों ने उन्हें अदब से सलाम किया और फिर उस लाश के बारे में बताने लगे कुछ दूरी पर जो पडी हुई थी और उसके इर्द गिर्द कुछ पुलिस वाले भी खड़े थे।

हकीम साब तेज़ी से उस लाश की और गए चेहरे पर कीचड़ और खून के धब्बे थे शरीर के कपडे फटे और लहू लुहान थे चेहरा समझ में नहीं आ रहा था। आशंकाएं बहुत जिद्दी और क्रूर होती हैं, न चाहते हुए भी वो मन के सुकून के किसी कोने में ठस कर बैठ जाती हैं और टीसती रहती हैं... कभी कभी तो उत्पात मचा देती हैं दिल में... घबराहट में हकीम साब की याद करने की तमाम कोशिशें नाकाम हो रही थीं कि कल राघव ने कौनसे रंग के और क्या कपडे पहने हुए थे... लेकिन उनकी इस शंका पर नजीब की भलमनसाहत तुरंत ही अपना नर्म हाथ रख देती और हकीम साब एक बार फिर भटक जाते सवालों के जंगल में मन ही मन।

बस इतना ही पता चल पाया था कि ये कोई हिन्दू था जो पुलिस मुठभेड़ में मारा गया। फोन की घंटी बज रही थी... उनके भतीजे हाफ़िज़ का फोन था

“चचा, फरहा और हम लोग तो घर पहुँच चुके हैं लेकिन दामाद जी अभी तक नहीं पहुंचे हैं यहाँ वो नजीब साब के साथ दूसरी जीप में थे।... फरहा का बुरा हाल हो रहा है रो रोकर... हकीम साब की आशंका एक कदम और बढ़ गई और उनके हौसले कई गुना पस्त हो गए

लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया।

“जनाब... अब ज़ल्दी से घर तशरीफ़ ले जाएँ कर्फ्यू बंद होने का एलान हो चुका है एक पुलिस वाला उनसे कह रहा था जो उनके दिल के कोहराम से बिलकुल अनभिग्य था।

खैर उसके बाद हकीम साब पुलिस चौकी, अखबार के दफ्तर सब जगह का चक्कर लगा वापिस घर लौट आये। अफवाहों और सच्चाइयों के बीच एक खबर ये भी आकाश में धुंए की लकीर सी उठ रही थी कि मरने वाला आदमी करीम पुर के किसी घर का मेहमान था जो कल ही आया था... अब तो कोई शक ही नहीं रह गया था उन्हें । घर में अपनी बीवी रहमानी को उन्होंने अपना शक बताया और वो दौनों अस्पताल आ गए। लाश को फिलहाल अस्पताल की मोर्चरी (मुर्दाघर)में रखा गया था।

तुम यहाँ बैठो मैं डॉक्टर से मिलकर आता हूँ... उन्होंने पत्नी से कहा और एक केबिन में घुस गए जिसके आगे डॉक्टर रोहित बजाज का बोर्ड लगा हुआ था। डॉक्टर अधेड़ और गंभीर किस्म का आदमी था

डॉक्टर... एक लाश को लाया गया है सुबह... पोस्टमार्टम के लिए

हाँ अभी सी एम् ओ का फोन आया था... शाम तक होगा उसका पोस्टमार्टम

कोई परिचित है?डॉक्टर ने कागज पर कुछ लिखते हुए ही पूछा

जी हाँ हमारा दामाद है... कल आये थे वो लोग यहाँ ईद मनाने... अभी अभी शादी हुई थी..

कोई लफडा था?

हाँ

क्या

वो हिन्दू था उन दौनों ने पसंद से शादी की थी...

ओह... अचानक डॉक्टर के मुंह से निकला

लड़का क्या करता था?

बैंक में नौकर था बेहद ज़हीन और सीधा साधा...... हकीम साब ग़मगीन हो उठे

होता है... .कभी कभी ऐसा भी... ठीक है देखते हैं कहकर डॉक्टर उठ गए

डॉक्टर साब, लाश देखना चाहते थे एक बार... हकीम साब ने कुर्सी से उठते हुए डॉक्टर से कहा

सौरी जनाब, अभी नहीं दिखा सकते आपको। पुलिस की तरफ से ये आदेश है हमें... |कहकर डॉक्टर चले गए।

हकीम साब भी बाहर निकल आये

शाम को जब हकीम साब दुबारा अस्पताल आये तो बहुत अन्दर की बात पता चली वो ये थी कि उस हिन्दू युवक को जो यहाँ किसी के यहाँ मेहमान बनकर आया था उसे कट्टरपंथी कहकर पुलिस द्वारा बुरी तरह पीटा गया था और जब इससे भी संतुष्टि नहीं मिली उन दरिंदों को तो उसे गोलियों से भून दिया और इस पूरी घटना को पुलिस ने मुठभेड़ का नाम दे दिया था। डॉक्टर रोहित बजाज पर गलत रिपोर्ट जारी करने का दबाव था फिलहाल वो रिपोर्ट देकर घर चले गए हैं

हकीम साब तो वैसे ही दुखी और बेहद परेशांन थे जब उन्होंने ये सुना तो उनका खून खौल गया। लाहोल विला कुव्वत...नजीब...?इतना नीच?..वो तो ख्वाब में भी नहीं सोच सकते?... आदमी किस क़दर बनावटी हो चुका है कितना ज़हर भरा है उसके भीतर और ऊपर से... !उन्होंने आनन् फानन में अपने एक मित्र जो एक स्थानीय अखबार का संपादक था को फोन पर सारी घटना बताई फिर उन्होंने कलेक्टर ऑफिस में फोन करके इस घटना के बारे में जानकारी दी। अब छिपाने से भी क्या फायदा था जब दामाद मार ही दिया गया था लिहाज़ा वो पुलिस चौकी गए और वहां नजीब की नामज़द रिपोर्ट लिखाई और उसमे ये भी कि उनका हिन्दू दामाद राघव पाण्डेय बेहद ज़हीन और सीधा साधा इंसान था और पुलिस अफसर नजीब जिस पर उन्हें बेइंतिहा भरोसा था उसी के साथ कल रात बतौर एहतियात उन्होंने अपने दामाद राघव को भेजा था खैरियत से उसके ठिकाने पहुंचा देने के लिए और उसी नजीब ने अपनी कट्टरवादिता के चलते राघव को हिन्दू होने के जुर्म में मुठभेड़ का नाम देकर वहाशियाने तरीके से मार दिया। “ इतने पर भी हकीम साब को सुकून नहीं मिला और अपने एक वकील मित्र के साथ वो फिर से नहर के इलाके में गए जहाँ रात में उनके दामाद का क़त्ल हुआ था वहां इंसानियत का हवाला दे उन दो चश्मदीद गवाहों को तैयार किया गवाही देने को जो पहले ना नुकुर कर रहे थे पर हकीम साब की गुजारिश पर गवाही देने को तैयार हो गए।

हकीम साब बुरी तरह आहत थे एक असोची क्रूर सच्चाई उनके सामने बेशर्म सी खडी थी। सच यही था कि ईद मनाने आयी उनकी नई ब्याहता पोती बेवा हो चुकी थी जिसका ज़िम्मेदार उनका सबसे भरोसेमंद शागिर्द ही था बल्कि वे खुद... ये सच वो बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। ना एहतियात के तौर पर उस रात नजीब को बुलाते ना फरहा और राघव को सुरक्षित घर पहुंचवाने की बात सोचते। इससे तो अच्छा था वो दो दिन बंद घर में ही बिता देते किसी को कानों कान खबर भी नहीं होती और राघव की ज़िंदगी बच जाती। लेकिन अब ये सब सोचने से क्या फायदा?जो होना था वो तो हो ही गया। आज उन्हें पहली बार ये अहसास हुआ कि पार्टीशन के वक़्त बेहतर होता कि वो जिद्द पे ना अड़ते और पकिस्तान ही चले गए होते अपने अपनों के साथ कम से कम अपनी जवान पोती के बेवा हो जाने के इस कलंक से तो बच जाते। उनकी बीवी रहमानी तो रो रोकर बावली हुई जा रही थी... हाय मेरी फूल सी बच्ची... खुदा उन दरिंदों को खून के आंसू रुलाये जिसने उस बच्ची का सुहाग लूट लिया उसके बेक़सूर शौहर को मौत की नींद सुला दिया...

वो बौराई सी बडबडा रही थी और हकीम साब गम की थकान के बोझ से लुटे पिटे दीवान पर निढाल पड़े थे ऑंखें मींचे... या अल्लाह बुढापे में ये दिन भी देखने थे... .!

फोन की घंटी बजी जा रही थी... दो बार पूरी घंटी बजकर बंद हो चुकी थी तीसरी बार फिर घनघना रही थी पर हकीम साब को तो जैसे होश ही नहीं था। जानते थे कि राघव के बारे में पूछ रहे होंगे क्या ज़वाब देंगे वो उन्हें कि वो क्यूँ नहीं पहुंचा घर अभी तक...कैसे बताएँगे उन्हें कि वो अब इस दुनियां में नहीं।

फोन की घंटी लगातार और बार बार बजी जा रही थी। घर में काम करने वाली नाजो ने आकर फोन का रिसीवर उठा लिया

हेलो... .जनाब हकीमुल्ला खान साब के यहाँ से बोल रही हैं मोहतरमा?वहां से एक औरत का स्वर सुनाई दिया

जी हां... फरमाइए क्या कहना है

ज़रा हकीम साब को फोन दीजिये

नाजो ने कुछ देर सोफे पे निढाल पड़े हकीम साब को देखा और फिर उनकी बीवी रहमानी को जो लस्त हो चुकी थी रो रोकर और अब आँखों को मूंदें दीवान पर पडी हुई थीं

जी हकीम साब की तबीयत नासाज़ है कुछ

ठीक है उनसे कहिये फरहा का फोन था

फरहा बीवी?...नाजो ने दोहराया

फरहा का नाम सुनते ही हकीम साब उठ बैठे। नाजो से रिसीवर लेकर बहुत ग़मगीन से बोले

जी बिटिया... हम बोल रहे हैं आपके बाबा... हमें अफ़सोस है बिटिया...

अरे किस बात का अफ़सोस बाबा जान... हमने तो आपको शुक्रिया देने के लिए फोन किया था और ये खबर पहुँचाने के लिए कि राघव सही सलामत पहुँच गए हैं दिल्ली... .नजीब को बेहद परेशानियों का सामना करना पडा अल्लाह उनके खानदान को बरक्कत बख्शे... ईद मुबारक आप सभी को...

हकीम साब कभी अपने हाथ में कांपते फोन के रिसीवर को और कभी अपनी सिसकती हुई बीवी रहमानी को देखे जा रहे थे...।