उच्च शिक्षा की गुणवता और जमीनी तल्ख़ हकीकत / कौशलेन्द्र प्रपन्न

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शैक्षिक विमर्श में गुणवता की बात जैसे ही शुरू होती वैसे ही हमारा इशारा शिक्षकों पर जाता है। गोया शिक्षा में जो भी घट रहा है उसमें शिक्षकों की अहम भूमिका होती है।दरअसल शिक्षा जगत में यदि कोई सबसे नीचले पायदान पर खड़ा कोई जीव है तो वह शिक्षक ही है। यह वह जीव है जिस पर हर किसी का जोर चलता है। बस इसी जीव की आवाज शिक्षा जगत में अनसुनी कर दी जाती है। इस जीव की हैसियत तो पूछिए मत, कभी इनके वेतन पर तो कभी इनकी निष्ठा पर भी सवाल उठते रहे हैं। शिक्षा में शिक्षकों की स्थिति हमेशा ही शोचनीय रहा है। प्रो कृष्ण कुमारअपनी किताब 'गुलामी शिक्षा और राष्ट्रवाद' में चर्चा करते हैं कि जिन कारकों ने शिक्षकों को एक कमजोर पेशागत पहचान और हैसियत बख्शी है, उनमें एक पाठ्यचर्या के मामले में उसका कोई हाथ न होना भी था।औपनिवेशिक व्यवस्था द्वारा लाए गए नौकरशाही में यह बात निहित थी कि पाठ्यचर्या और पाठ्यपुस्तकों से संबंधित सारे फैसले वरिष्ठ प्रशासकों द्वारा ही लिया जाता था। यदि गंभीरता से विचार करें तो यही सिलसिला न केवल प्राथमिक कक्षाओं में दिखाई देती है बल्कि उच्च शिक्षण संस्थानों में भी लगभग समान स्थितियां नजर आती हैं। भारत में न केवल उच्च शिक्षा बल्कि प्राथमिक शिक्षा दोनों की गुणवत्ता में कोई खास अंतर नहीं है। क्योंकि तमाम सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों की ओर से कराए गए सर्वेक्षण बताते हैं कि प्राथमिक स्तर पर बच्चों में अपनी कक्षानुसार पढ़ने-समझने और लिखने आदि कौशलों में बच्चे पीछे हैं।अपनी कक्षाऔरआयु के अनुसार उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता।यहां पढ़ने लिखने से तात्पर्य है बच्चे जिन पंक्तियों को पढ़ते हैं उसका मायेने नहीं समझ पाते।दरअसल पढ़नाऔर समझना दोनों युग्म में आया करती हैं।शिक्षा शास्त्र में पढ़ना अकेले नहीं आता। पढ़ना समझने के कौशल के साथ ही मुकम्मल होता है।असर की रिपोर्ट हो या डाईस की रिपोर्ट इन तमाम रिपोर्ट में सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों में दी जा रही शिक्षा की जमीनी हकीकत क्या है। इसओर ग्लोबल मोनिटरिंग रिपोर्ट जीएमआर 2013-14, 2014-15 पर नजर दौड़ांए तो पाएंगे कि सरकारी स्कूलों में कक्षा छहः में पढ़ने वाला बच्चा कक्षा दूसरी के स्तर की हिन्दी नहीं पढ़ पाता। यही हाल गणित का भी है।दूसरे शब्दों में कहें तो तमाम विषयों में बच्चे काफी दिक्कतों का सामना करते हैं।

माना जाता है कि उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालयी शिक्षा की बुनियाद प्राथमिक शिक्षा हुआ करती है।यदि प्राथमिक शिक्षा यानी बुनियादी शिक्षा की जमीन को मुआयना करें तो पाते हैं कि अभी भी हमारे देश के तकरीबन 80 लाख सरकारी आंकड़ों के अनुसार किन्तु हकीकत में विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं के अनुसार यह संख्या सात करोड़ से भी ज़्यादा है।वहीं जो बच्चे स्कूल में जा रहे हैं उन्हें किस तरह की शिक्षा मिल रही है उसकी विश्वसनीयता और गुणवता किस स्तर की है। यह एक चिंता की बात है कि खुद शिक्षा का अधिकारअधिनियम 2009 को भारत में स्थान लेने में तकरीबन सौ वर्ष का समय लगा। माना जाता है कि 1910 में गोपाल कृष्ण गोखले ने सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा का अधिकार मिले, की आवाज उठाई थी किन्तु वह आवाज अनसुनी ही रह गई. गांधीजी ने भी 1932 में शिक्षामंत्रियों के सम्मेलन वर्धा में यह मुद्दा उठाया था लेकिन तब भी यह मसला राजनीति के हत्थे चढ़ गया। यह जानना भी दिलचस्प होगा कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम को संविधान में स्थान 2002 में 86वां संशोधन के बाद मिला। हालांकि अभी आरटीईको अभी पांच वर्ष ही हुए हैं क्योंकि यह 1 अप्रैल 2010 में लागू हुआ था और इस वर्ष यह पांच साल का तय समय सीमा पूरा हो चुका है। लेकिन आज भी हमारे लाखों बच्चे स्कूलों से बाहर हैं और जो स्कूल आभी रहे थे उनमें से बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों में लड़कियों की संख्या ज़्यादा है।

उच्च शिक्षा यानी विश्वविद्यालयीए शिक्षा और उसकी गुणवत्ता की बात पर नजर डालें तो निराशा होती है।जहां हम प्राथमिक शिक्षा में पिछड़ते नजरआ रहे हैं तो उच्च शिक्षा में भी लगभग यही स्थिति दिखाई देती है। हाल में ही द टाईम्स हाईयर वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2015-16 के अनुसार भारत के विश्वविद्यालों की गिनती 200 से 300 के बीच होती है।दूसरे शब्दों में हमारे विश्वविद्यालय इस योग्य भी नहीं हैं कि विश्व स्तर पर गिनी जाने वाले संस्थानों में हमारे संस्थान काफी पीछेहैं। यदि हमारे संस्थान शामिल भी होते हैं तो उनमें आईआईसी और आईआईआईटी हैं। यदि हमें मानविकी संस्थान की बात करें तो तमाम भारतीय विश्वविद्यालय कहीं दौड़ में भी नजर नहीं आते।उसमें भी गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, लाल बहादुर संस्कृत विद्यापीठ आदि की स्थिति और भी शोचनीय है। जब दिल्ली विश्वविद्यालय एवं तमाम केंद्रीय विश्वविद्यालय इस सूची में नीचे से अपनी जगह सुनिश्चित करते हैं।

उच्च शिक्षण संस्थान ख़ासकरअपने यहाँ शोध, पठन-पाठन के लिए जाने जाते हैं।जब हम विभिन्न उच्च शिक्षण संस्थानों में शोध, शिक्षण और विभागीय स्थिति पर नजर दौड़ाते हैं तो जमीनी तल्ख़ हकीकत से रूबरू होते हैं जिससे हम मुंह नहीं मोड़ सकते। एक ओर चीन के विश्वविद्यालयों में एक अकादमिक सत्र में 22, 000 पीएचडी स्कॉलर देश को देता हैं वहीं भारत में यह संख्या महज 8, 000 है। एक बारगी तर्क किया जा सकता है कि हम संख्या नहीं बल्कि गुणवता में विश्वास करते हैं इसलिए संख्या की बजाए शोध की गंभीरताऔर महत्ता पर ध्यान देते हैं।इस लिहाज से भी हमारे शोध कमतर ही निकलते हैं। कम से कम मानविकी विषयों को लेकर तो यह बात कही जा सकती है कि जिस किस्म की शोध प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं उसकी उपादेयता महज पन्नों में नजर आती हैं। इतना ही नहीं हमारे यहाँ उच्च शिक्षा में होने वाले शोधों के स्तर और उसकी सामाजिक उपादेयता एवं दरकार हमेशा ही शंका के घेरे में रहे हैं। यह बेबुनियाद भी नहीं हैं क्योंकि यदि कालिदास के साहित्य में वनस्पतिऔर जीव जंतु, प्रसाद के उपन्यास में नारी चित्रण, प्रेमचंद की कहानियों में दलित विमर्श सरीखे विषय ऐकांतिक विमर्शऔर एक कल्पित दुनिया का सृजन-सा लगता है। यदि शोध का सामाजिक सरोकारों वाले शोध न के बराबर हैं।