उजागर सा रहस्य और एक अधिनियम / जयप्रकाश चौकसे

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उजागर सा रहस्य और एक अधिनियम
प्रकाशन तिथि : 30 जुलाई 2019


व्यवस्था के कामकाज की जानकारी अवाम को मिल सके इसलिए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दौर में आरटीआई अधिनियम संसद में पारित हुआ था, परंतु वर्तमान सरकार ने इस नियम में कुछ काटछांट कर दी है। सरकारें अपने कामकाज पर एक परदा गिराए रखना चाहती हैं। आम आदमी के अधिकार कम हो रहे हैं और रोबोकरण की प्रक्रिया जारी है।

मेरी एक मित्र विगत 1 वर्ष से एक किताब लिख रही हैं, जिसमें कश्मीर के उन युवा लोगों के संघर्ष की कथा है जो देश के अन्य भागों में स्थित उच्च शिक्षा संस्थान में अध्ययन कर रहे हैं। उन्हें इस तरह देखा जाता है मानो वे विदेशी घुसपैठिए हों। याद आती है शूजित सिरकार की फिल्म 'पिंक'। चार युवतियों पर अमीरजादे को चोट पहुंचाने का मुकदमा चल रहा है। इस फिल्म में बचाव पक्ष के वकील की भूमिका अमिताभ बच्चन ने अभिनीत की थी। उनके इस प्रयास को उनके अभिनय इतिहास में मील का पत्थर माना जा सकता है। अमिताभ बच्चन अभिनीत पात्र दो फ्रंट पर लड़ रहा है। अदालत में युवतियों का बचाव कर रहा है और उसके घर में उसकी बीमार पत्नी धीरे-धीरे मृत्यु की गोद में समा रही है।

बहरहाल, इस फिल्म में सरकारी वकील केवल एक युवती से पूछता है कि वह किस प्रांत से आई है। उसके नाम से ही जाहिर है कि वह उत्तर पूर्व के प्रांत से आई है। हमारा पूरा सामाजिक व्यवहार कश्मीर व उत्तर पूर्व के प्रांतों में जन्मे लोगों के प्रति आक्रामक है। कुछ इस तरह की सोच सतह के नीचे प्रवाहित है कि देश का मध्य भाग ही भारत है और शेष सभी भागों के लोग घुसपैठिया और आतंकवादी हैं। मणिरत्नम की शाहरुख खान और मनीषा कोइराला अभिनीत फिल्म 'दिल से' में भी मनीषा अभिनीत पात्र का दिल्ली में 26 जनवरी की परेड में विस्फोट करने का इरादा है और इस कार्य के लिए उसको प्रशिक्षण दिया गया है। जैसे 'मद्रास कैफे' में आत्मघाती बम बनी महिला राजीव गांधी की हत्या करती है।

यह फिल्म एआर रहमान के संगीत के लिए भी याद की जाती है। संगीत समीक्षक हेमचंद पहारे, 'गुरु', 'बॉम्बे', 'ताल' और 'दिल से' के बाद भी एआर रहमान की प्रतिभा को अस्वीकार की मुद्रा में ही सुनते रहे हैं। व्यवस्था के सारे कार्यकलाप और छिपे एजेंडे को भी अवाम जानने का अधिकार रखता है। कांवड़ियों की टीशर्ट पर 'हिंदू राष्ट्र' अंकित है। यकीनन किसी संगठन द्वारा यह प्रायोजित है। यह दुखद है कि तमाम धर्म यात्राओं को राजनीतिक प्रचार का माध्यम बनाया जा रहा है। इतिहास बताता है कि शासक हथियार से नहीं डरता परंतु किताबों से भयाक्रांत रहते हैं। कार्ल मार्क्स और साथियों के 'मेनिफेस्टो' से लोग थरथराते हैं। हिटलर की 'मीन कैम्फ' समय की करवट के नीचे कुचल गई।

उपन्यास 'शैडो ऑफ विंड' में वाचनालय के अधिकारी का बेटा किशोरावस्था से उम्रदराज होने तक एक लेखक के जीवन के विषय में जानना चाहता है। उसकी इस खोज यात्रा में कठिनाइयां भरी पड़ी हैं। इसी तरह 'इरविंग वैलेस के उपन्यास 'द सेवन मिनट्स' में एक किशोर पर एक पुस्तक के प्रभाव में आकर दुष्कर्म का मुकदमा कायम किया गया। दरअसल, उस प्रकरण में किताब का प्रभाव ठूंसा गया है ताकि किशोर को दंड से बचाया जा सके। बचाव पक्ष के लिए जरूरी है कि किताब के लेखक को गवाही कक्ष में खड़ा किया जाए। मुद्दा है कि क्या लेखक ने पैसा कमाने के लिए सुनियोजित ढंग से अश्लीलता की रचना की है? क्या उसका मकसद सिर्फ सनसनी फैलाना था? क्या वह अपने अनुभव से उन किशोरों को कुंठा मुक्त, भय रहित करना चाहता था, जिनके यौन संबंध का हव्वा खड़ा किया जाता है?

इस रोचक मुकदमे में नियुक्त जज को इस प्रकरण के बाद उच्चतम न्यायालय में स्थान मिलने वाला है, जो उसकी महत्वाकांक्षा रही है। जज अपने उज्जवल भविष्य को ठुकराकर स्वयं गवाह कक्ष में खड़ा होकर स्वीकार करता है। यह किशोर जीवन की सबसे विकट दुविधा है। यह किताब उस काल्पनिक भय से मुक्त करा सकती है। व्यवस्था किताबों से भयभीत है। किताबें उनकी सबमरीन को ध्वंस कर सकती हैं।

दरअसल किताब विगत समय को अपने में समाए हुए, भविष्य का संकेत दे सकती है। किताब समय की दीवार पर लिखी न मिट सकने वाली इबारत है। व्यवस्था चाहती है कि शहर की दीवारें अपच दूर करने की दवाओं और नपुंसकता दूर करने वाले काल्पनिक नुस्खों के विज्ञापन चस्पा करने के काम ही आती रहें। हमने प्राचीन महत्वपूर्ण ग्रंथ खो दिए हैं। जर्मनी के मैक्समुलर भवन में वे सुरक्षित हैं। हमारी सामूहिक बौद्धिक संपदा विदेश में सुरक्षित है। 'राइट टू इंफॉर्मेशन' को भी इसलिए बदला जा रहा है क्योंकि वह गुप्त जानकारी खोल देता है।