उत्तराधिकारी / स्वाति तिवारी

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“मरने के बाद कितना निर्विकार लगता है चेहरा?”

“एकदम निर्मल पानी की तरह स्वच्छ। लगता है बस अभी उठेंगे और आवाज लगाएंगे- समर...”

जिज्जी की निर्मल आत्मा अपने भाई के निर्विकार चेहरे को पढ़ रही थी।

“हां, प्राणविहीन चेहरे निर्विकार ही होते हैं! विकार तो सारे जीवित अवस्था में ही फलते-फूलते हैं।” न चाहते हुए भी शब्द निकल ही गए थे मेरे मुंह से। जिज्जी ने अपनी गर्दन घुमाकर मेरी तरफ देखा और आंखों ही आंखों में मुझे चुप रहने का आदेश भी दिया। जानती हूं जिज्जी अपने भाई की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने देना चाहती। वे कभी नहीं चाहती थी कि मैं सार्वजनिक रूप से उनके मायके में आऊं और उनकी भाभी से बसे-बसाए जमींदारी कुटुंब में सेंध लगाऊं।

सामने रखा है चादर से ढका शव। शांत चेहरा। त्वचा की चमक अभी ज्यों की त्यों है। शायद ठाकुरों का खून मरने के बाद भी देर तक रगों में दौड़ता है- पानी नहीं बनता! अधखुली बड़ी-बड़ी आंखें मेरी ही तरफ देख रही हैं। एक पल को लगा अभी इशारा करेंगे, “इधर आओ, वहां क्या कर रही हो। कोई और आनेवाला है का?” जान-बूझकर पूछा गया यह प्रश्न कितना विचलित करता रहा मुझ पर पलटकर, केवल आंखें तरेरने के अलावा कुछ नहीं कह पाई कभी।

मन में एक बात बार-बार उठ रही थी कि आज तो मैं इस रहस्य को खेल ही दूं। जिज्जी हैं न हमारे संबंधों की गवाह। अपने मरे हुए भाई के सिर पर हाथ रखकर वे झूठ नहीं बोल पाएंगी। अगर आज चुप रही तो शायद अपने बच्चों के लिए न्याय नहीं मांग पाऊंगी कभी।

कितनी बार तुम्हारे चेहरे का स्पर्श किया था, ठाकुर रणवीर सिंह! तुम्हारी ठाकुरी मूंछें मेरे गालों को छील देती थीं कई बार। तब भी मैं खुश थी तुम्हारा साथ पाकर। जवान देह उस वक्त कितनी कसमसाती थी अपने ही बंधनों में बंधकर। बंधन खोलती भी तो देह की स्वतंत्रता का मोल करने वाला तो जिज्जी के आम के बाड़े में डले हिंडोले पर पड़ा चिलम में भरकर गांजा फूंकता खांसते-खांसते सारी रात वहीं काट देता था। कितनी बार हिंडोले से खींचकर खोली तक लाई उसको, पर हाड़-मांस के उस मरद की मर्दानगी में मर्द का स्पंदन था ही नहीं, वह वहीं पसर जाता खर्राटे भरता। चिलम-गांजे की गंध पूरी खोली में फैल जाती, तब धड़कता सीना ले गुस्से में पैर पटकती मैं ही अमराई के हिंडोले पर पहुंच जाती और हिंडोले की चरर-चूं फिर शुरू हो जाती। पड़ी रहती मैं खुले आसमान में, तारे गिनती अधूरी ख्वाहिशों की वेदना लिए।

ठाकुर रणवीर सिंह आज इतने साल तुमसे संबंध रहने के बावजूद तुम्हारी मृत देह मुझे अंदर से तोड़ भी रही है और जोड़ भी रही है- तोड़ इसलिए रही है कि मैं ठकुराइन की तरह तुम्हारा गम सबके सामने नहीं मना सकती... पत्नी न कहलाने की पीड़ा तुम नहीं समझोगे ठाकुर... पर मैं टूटकर भी जुड़ी हुई हूं। मेरे माथे पर सिंदूर ज्यों का त्यों है। मेरे पास दो नन्हें ठाकुर हैं जिनके चेहरे की बांछें अभी से तुम्हारी तरह लगने लगी हैं। पत्नी होकर भी ठकुराइन ने बेटियां ही जनी थी तुम्हारा वीर्य मेरे अंदर ही जाकर वंशवृक्ष उगा पाया था.. और इस मायने तो मैं ठकुराइन से ऊंची ही रही ना? बड़े गर्व से कहते थे न ठाकुर रणवीर सिंह! ठाकुरों की शान उनकी हवेली होती है। आज तुम्हारी इस ऊंचे बुर्जवाली हवेली पर दीया धरने वाला कोई नहीं। तुम्हारे नाम का दीया मेरी खोली के बाहर मेरा बेटा ही धरेगा ठाकुर रणवीर सिंह।

तुम्हारी जिज्जी तुम्हारे चेहरे को निर्मल, निर्विकार कह रही है... पर ठाकुर रणवीर सिंह मुझे लग रहा है तुम्हारा चेहरा असहनीय वेदना से भरा हुआ है। तुम्हारे हाथ बार-बार फड़क उठते हैं अपने बेटों को कलेजे से लगाने के लिए। लोगों की बातें तुम्हारे भी कानों में पड़ रही होंगी। जितने लोग उतनी बातें। पर सबसे बड़ा आश्चर्य मुझे ही हो रहा है लोगों की बातें मुझे विचलित कर रही हैं- शायद तुम्हारी आत्मा को भी कर रही होंगी। कहते हैं मरने के बाद आत्मा देह के आसपास और दस दिन तक घर के दरवाजे पर ही खड़ी रहती हैं। गरुड़ पुराण का पाठ इसीलिए रखा जाता है। तभी तो लोग मरने वाले के घर जाकर उसकी अच्छाइयों को याद करते हैं- तो तुम भी यहीं कहीं किसी कोने में अ.श्य बैठे लोगों की बातें सुन रहे हो न ठाकुर! आश्चर्य इस बात का है कि ठकुराइन इन बातों से विचलित नहीं है। एक .ढ़-आत्मविश्वास से भरा भाव उनके चेहरे पर है। उनका चेहरा मैंने ऐसे समय एकदम करीब से देखा जब लोग दयनीयता की हद तक घबरा जाते हैं। जानती और समझती भी हूं यह पल उस स्त्री के लिए असहनीय वेदना का ही है पर जाने क्यूं ठकुराइन के चेहरे पर उसके भीतर की वेदना की जगह भीतर की निश्ंिचतता उठकर बाहर आ रही है। क्या ठाकुरों की स्त्रियां भी अंदर से इतनी सशक्त होती हैं? तुम तो इतने सशक्त नहीं थे तभी तो परस्त्री की देह को देखते ही कमजोर पड़ते चले गए। हां, तुमने मुझे भी अपनी बलिष्ठता के अंश दिए थे। तुम्हारे शरीर की कठोरता से टकराकर मेरे कोमल अंग कितने तरंगित हुए थे। तुम बांके जवान से कम नहीं थे। ठाकुर, तुम्हारी बड़ी-सी लाल पगड़ी को अपना घूंघट बनाती मैं तुम्हारे गर्म होठों को अपनी पलकों पर अभी भी महसूस कर सकती हूं। तुम्हारे चेहरे पर झलकते पसीने की बूंदों को सीप के मोती की तरह अपने होठों से समेटा है मैंने। मेरे आंचल में दुबकता तुम्हारा वो शिशु-सा मचलता चेहरा मुझे कितनी तृप्ति, कितनी संपूर्णता का अहसास दे गया। पर मैं अभागी तुम्हारे नाम का दुख नहीं मना सकती... क्या यही मेरे किए की सजा है?

तुम्हारे बीज ने मेरे अंदर ठकुराइन से ज्यादा ठसक भर दी थी। एक बार आंखें खोलो ठाकुर, देखो, अपने उत्तराधिकारियों को। क्या मैं इनका हक मांग सकती हूं ठकुराइन से... एक बार हमारे भविष्य का सोचते तो तुम। क्या ये तुम्हारे उत्तराधिकारी होकर भी जिज्जी की आम की बाड़ी में कंचे-गिल्ली खेलते कच्ची केरी की तरह धूप में पकेंगे। तुम इन्हें इनकी सही जगह तक पहुंचाकर तो जाते। अब तक मेरे लिए जीवन सतत और बहती अंतर्धारा था। इसीलिए आमबाड़ी के उस चौकीदार के पानी में खारापन नहीं होने के बावजूद मैं उसके साथ जीवन जी रही थी। दाल-रोटी पकाते और आमबाड़ी के तोते उड़ाते। पर तुमने मुझे जीवन का अर्थ दिया। जीवन को सार्थकता दी रतिदान देकर। हां! स्त्री पूरी ही तब होती है जब उसकी कोख में चाहत का बीज पड़ता है। पर दुर्भाग्य मेरा... मैं तो तुम्हें रोकर श्रद्धांजलि भी नहीं दे सकती।

तुम पत्नी के प्रति एक गर्व से भरे क्यूं रहते थे ठाकुर? जबकि तुम पत्नी के प्रति वफादार नहीं रहे थे। तब भी पत्नी का नाम तुम्हारी मूंछों पर ताव देता था। कितनी बातों का रहस्य पहेली की तरह अबूझा ही रह गया। कितनी बातों का दर्द मुझे साल रहा है। अभी इसी भावुक समय में। तुम खाट-पलंग से नीचे कभी नहीं बैठे पर आज तुम्हारी देह इस तरह जमीन पर नहीं रखनी चाहिए थी ठकुराइन को। मैं तुम्हें तुम्हारे उसी मान-सम्मान से देखना चाहती हूं रणवीर सिंह, हां! एक बार, सिर्फ एक बार शायद आखिर बार... मैं तुम्हें संपूर्ण रूप से स्पर्श करना चाहती हूं- आंखों में जब्त करना चाहती हूं उस देह के सौंदर्य को। हां, मैं सदा के लिए तुम्हें अपने अंदर महसूस करना चाहती हूं। थरथराते कंठ से तुम्हें बार-बार पुकारना चाहती हूं ठाकुर रणवीर सिंह। पर कौन इजाजत देगा? 'चल उठ, कौशल्या।' जिज्जी ने हाथ पकड़कर झकजोरा था।

“जिज्जी बाईसा ठाकुर मरे नहीं हैं देखो। अधखुली आंखों की चमक।” रुलाई का रुका बांध जिज्जी के कंधे लगकर फूट ही पड़ा था। कब से रोके थी इसे मैं... मौत के इस सन्नाटे में। पर अब कितना कुछ पिघल रहा था कलेजे में। भय-शोक! विलाप! विरह! चिंता! जाने कितने अपरिभाषित अहसास थे मन में।

“रोने से ठाकुर भाई की आत्मा को कष्ट होगा, कौशल्या। शरीर नश्वर है सभी को त्यागना है।” देख मुझे, मेरा तो भाई था वो। पर पिता, पति, जवान बेटा और अब भाई खोते हुए जैसे आंखों का पानी ही सूख गया है। चल हट, यहां गाय के गोबर से लीपना है। अर्थी की तैयारी यहीं होगी न।” जिज्जी की सांत्वना के शब्दों में पहली बार कोमलता का भाव था, पर ठकुराइन की आंखें जिज्जी को इशारा कर रही थीं, इसे अंदर ले जाओ।

तुम्हारे नाम का दीपक अपनी पूरी लौ के साथ जल रहा है। जिज्जी ने अगरबत्तियां और जला दी हैं। नई पगड़ी, नए कपड़े सब तैयार हैं ठाकुर, पर यह सब उस यात्रा के लिए है जहां तुमने मृत्यु को वरा है।

मेरा सपना तो अधूरा ही रह गया कि तुम लाल मारवाड़ी लहरिएदार साफे में आकर मेरा वरण करोगे। कटार भी रख रही है जिज्जी तुम्हारे साथ। हां, यह वही कटार है जिससे तुमने मेरी खोली के बाहर लटकी आम की डाली काटकर मेरे टपरे पर फेंकी थी मजाक करते हुए, “लो कौशल्या!” मैंने तुम्हारे दरवाजे पर तोरण मार दिया, अब तुम मेरी हुई।”

मैं तुम्हारी हो गई थी ठाकुर। मेरे टपरे का वो हकदार तब जाने कहां गायब हो जाता था। झूले की चरर-चूं तब तक बंद रहती थी जब तक तुम उधर होते थे। शायद जिज्जी उसे दूसरे खेतों पर भेज देती थी। जानते हो ठाकुर वो भी आया है तुम्हें विदा देने। क्या पता, अंदर से खुश होगा कि उसकी जिंदगी से तुम हमेशा के लिए चले गए हो या हो सकता है वो तुम्हारे सम्मान में ही आया हो अहसान का कर्ज उतारने। कहा भी था मैंने उससे कि “अहसान मानो ठाकुर का, उसने तुझे नामर्द की पगड़ी बंधने से बचा लिया। ये बच्चे तेरे ही नाम से तो पल रहे हैं तेरे घर का चिराग बनकर।”

तब से उसने फिर कभी नहीं पूछा कि ठाकुर आमबाड़ी में बार-बार क्यों आता है। उसने आंखों से जो भी कहा हो पर जबान से कुछ नहीं कहा। हां, इतना जरूर कहा था, “चल कौशल्या, तेरे हाथ की रोटी तो मिल रही है वरना तू घबराकर भाग जाती तो?” तब शायद अंदर ही अंदर वह खीझा, अकुचाया और अपमानित भी हुआ होगा पर एवज में ठाकुरों की मर्दानगी भरे दो पुत्रों ने उसकी पीठ का घोड़ा बना उसके कंधों पर बैठ कच्ची अमिया तोड़ उसके कंधों को पितृत्व के भार से भर दिया था शायद। बच्चे उसके जीवन की ललक बन गए हैं। रोटी के दो निवाले भी बच्चों के बगैर गले के नीचे नहीं उतार पाता है। बच्चे भी उसी के सिरहाने अगल-बगल सोते हैं- अब वह हिंडोले पर रात नहीं काटता। खोली में अपने बच्चों को किस्से-कहानियां सुनाता है। दहाड़ मारते हुए किसी के रोने की आवाज ने मेरी तिंद्रा भंग की, “कौन आया है यह?”

“ठाकुर बा की बड़ी बेटी है।”

“ओह! नाक-नक्श तो ठाकुर जैसे ही हैं।”

“हां, बच्चे तो मां-बाप पर ही जाते हैं।”

“चलो, सब खड़े हो जाओ, समय हो गया है। बिटिया की ही बाट जोह रहे थे सब।” मंदिर के पुरोहितजी ने यह कहते हुए गंगाजल के छीटे मारते हुए मंत्रोच्चार शुरू किया। पर एक प्रश्न था जो वहां गेंद की तरह उछल रहा है। कभी कोई तो कभी कोई हेरफेर से पूछ रहा है...

“ठाकुर को अग्नि कौन देगा?”

कभी नाम आता छोटे चचेरे भाई का, तो कभी दामाद कुंवर धर्मवीर का। मन बार-बार बोलते चुप हो जाता कि ठाकुर की संतान है बेटे हैं। जब कंडे को उठाने का वक्त आया तो ठकुराइन की आवाज ने सबको चौंका दिया था। “कौशल्या के बड़े बेटे को मैं गोद लेती हूं, वही देगा ठाकुर को मुखाग्नि।”

“क्या?”

“हां!”

“क्या अनर्थ कर रही हो ठकुराइन! जानती हो इसका अर्थ?” ठाकुर मॉसाब लकड़ी की टेक ले खड़ी हो गई थी।

“ठाकुर अपनी वसीयत में लिख गए हैं कि मैं ठकुराइन सुभद्रा देवी पत्नी ठाकुर रणवीर सिंह जब भी जिस किसी बच्चे को गोद लूंगी वही सुभद्रा देवी का दत्तक पुत्र होगा और वही मेरी ठाकुर हवेली का उत्तराधिकारी भी बनेगा।”

“अगर कौशल्या तैयार हो तो मैं उसके बड़े पुत्र जयसिंह को समाज के सामने आज से दत्तक पुत्र मानती हूं।”

मैं सकते में आ गई थी ठाकुर रणवीर सिंह। आश्चर्य का ठिकाना ही नहीं था। क्या यह चमत्कार था? अब तक मैं अपने बच्चों को तुम्हारा उत्तराधिकारी बताने को आतुर थी पर अचानक ठकुराइन के इस वार से आहत अपने बेटों को अपनी देह से सटाए खड़ी रह गई। क्यों अब नहीं चाहती मैं कि ये तुम्हारी हवेली के उत्तराधिकारी कहलाएं? मेरे अंदर की मां जागृत हो उठी थी शायद। “नहीं ये मेरे बच्चे हैं ठकुराइन, ये ठाकुरों के बाड़े में बंधे बैल नहीं हैं कि जब तुम चाहे इधर से उधर बांध लो।”

“ये बच्चे मेरे और आमबाड़ी के चौकीदार रतनसिंह के बच्चे हैं- हमारे जीवन का आसरा... इन्हें किसी हवेली का उत्तराधिकारी नहीं बनना।”

रतन ने दोनों बेटे अपने कंधे पर बिठा लिए थे। 'चल, कौशल्या घर चलते हैं।' कहते हुए।

अब जिज्जी उठ खड़ी हुई थी, “कौशल्या, ठकुराइन को तेरे सहारे की जरूरत है। देख, सुख के तो सब साथी होते हैं जो दुःख में साथ दे, वही सही अर्थों में अपना होता है। ठकुराइन पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा है, उसे तेरी सहायता चाहिए। एक ही बेटा तो मांग रही है वह। एक तो तेरा और रतन का ही रहेगा न।”

“तो क्या मेरा एक बेटा राजा बनेगा और एक रंक?”

“नहीं! कौशल्या, ऐसा नहीं होगा सिर्फ एक के माता-पिता का नाम बदलेगा। पालन-पोषण दोनों का एक साथ एक जैसा इसी हवेली में, तू और रतनसिंह ही करेंगे।”

“मैं आज से हवेली का पिछला हिस्सा रतनसिंह को देती हूं। तुम दोनों यहीं आकर रहोगे। अपने बच्चों के साथ।” ठकुराइन ने यह कहते हुए ठाकुर की अर्थी के पास अपने चूड़े-बिच्छे उतारकर रख दिए। अब मेरी बारी थी। ठाकुर तुम्हारे प्यार को याद कर मुझे भी तुम्हें कुछ देना था। मैंने रतनसिंह को देखा उसने दोनों बेटे तुम्हारे चरणों के पास खड़े कर बच्चों को आदेश दिया था, “छोरो अपने धरमपिता ठाकुरजी का पाव लागो।”

जिज्जी के चेहरे पर भावों का एक युद्ध समाप्त हुआ। तुम्हें तुम्हारे ही बेटे ने मुखाग्नि दी।