उत्तर मेला सुस्ताती किताबें / कौशलेन्द्र प्रपन्न

Gadya Kosh से
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किताबों का मेला संपन्न हुआ। मेले के बाद किताबें, प्रकाशक, लेखक, आलोचक, पाठक आदि सब सुस्ता रहे होंगे। किताबें तो खासकर। किताबों के बीच एक शोर, एक उत्साह ज़रूर कुलबुला रहा होगा कि किसको कितने पाठकों ने उलटा पलटा और किसे अपने साथ ले गए. जो खरीदी गईं, उनकी भी अपनी कहानी है। उनके पन्नों को कब मौका मिलेगा जब पाठक उन्हें पढ़ेगा। आलोचक पढ़कर उस पर कब और क्या लिखेगा यह भी दिलचस्प है। मेले के बाद शुरू होती है सच्ची कहानी किताब की। आलमारियों में पड़ी रहेंगी या हाथों में भी आएंगी। हाथ में तो आ गईं क्या वे शिद्दत से पढ़ी जाएंगी? किस लिए और किसके लिए पढ़ी जाएंगी? हर किताब को पाठक और आलोचक मिले यह ज़रूरी नहीं। क्योंकि हर साल, हर मेले में लाखों किताबें छपती और कहाँ चली जाती हैं पता भी नहीं चलता।

पुस्तक मेले में हर पांच कदम पर किताबों का लोकार्पण हआ करता है। लोकार्पण कहें या कवर देखाई पर चार पांच लोग हाथ बांधें खड़े हो जाते हैं। हर किसी की अपनी रूचि और पढ़ने की दिलचस्पी होती है। किसी के पास कहानी, कविता, उपन्यास की किताबें होती हैं तो कोई आलोचना, समीक्षा, निबंध परक किताबों से अपनी झोली भरता है। देखा गया है कि कविता, कहानी, उपन्यास की किताबें ज़्यादा खरीदी और बिकती हैं। इनकी तुलना में आलोचना, शिक्षा, निबंध आदि कम खरीदी जाती हैं। अव्वल तो यह विधा पहले से ही कोनों में सिमटी होती हैं उसपर प्रकाशक भी कोई खास ध्यान प्रयास नहीं करता। लघुकथाओं, कहानियों, चटकदार किस्म की किताबों और लेखकों को प्रकाशक दुल्हे, दुल्हन की तरह सजाता और प्रस्तुत करता है। यह विभिन्न प्रकाशकों के स्टॉल पर यह नजारा आम है। अपने-अपने प्रिय लेखकों उसमें भी जो चेहरे टीवी स्क्रीन पर आते जाते रहते हैं उन्हें बुलाकर बैठा लेते हैं। इसका एक लाभ तो उन्हें ज़रूर मिलता है कि पाठक उन चेहरों के साथ फोटो उतारने और उनकी किताब पर हस्ताक्षर लेने के लोभ में कम से कम उनके स्टॉल पर आते हैं। जब पाठक आ गया तो नजर भी दौड़ाता है। कम से कम जिन किताबों के बारे में सोशल मीडिया पर पढ़ा व देखा होता है। एक दो किताबें भी खरीद लेता है।

किताबों का मेला कई कोणों से खास होती हैं। एक तो एक ही छत के नीचे तमाम किताबें, लेखक, प्रकाशक, पाठक, आलोचक मिल जाते हैं। उनसे मिलने का सुख भी पूरा हो जाता है। साथ ही जिन्हें सिर्फ़ पढ़ा है उनसे बात करने का अवसर भी मिल जाता है। आलम तो यह भी होता है कि हर दूसरी तीसरी गली के बाद किसी स्टॉल पर अनायास या सायास दुबारा भी टकराते लेखक मिल जाते हैं। दिलचस्प तो यह भी है कि दिल्ली के कुछ लेखक पूरे मेले में पूरे दिन रहते हैं। वे किसी ने किसी स्टॉल, लेखक मंच, साहित्य मंच आदि पर बोलते बतियाते भी नजर आएंगे।

सवाल यह उठ सकता है कि यदि विश्व पुस्तक मेले में इतनी भीड़ आती है, किताबें खरीदती है तो फिर इस बात को रोना क्योंकर सुनाई देती है कि पाठक नहीं रहे। खासकर हिन्दी में पाठकों की कमी है। किताबें खरीदी नहीं जातीं आदि। दरअसल यह सवाल से ज़्यादा आत्म रूदन अधिक है। इस रूदाली में लेखक, प्रकाशक ज़्यादा है। उनके भी अपने निहितार्थ हैं। इसे समझने की आवश्यकता है।

इस बार भी पुस्तक मेले में हजारों किताबें आईं। कुछ को लोकार्पित होने का मौका भी मिला। लेकिन अभी भी कई किताबें ऐसी रह गईं जिन्हें पाठकों का इंतजार ही रहा। जैसा की पहले लिखा जा चुका कि शिक्षा, बाल साहित्य, डायरी, यात्रा-वृतांत आदि की किताबें उपेक्षित ही रहीं। बाल साहित्य के नाम पर बाल कविताएं, कहानियां ही नहीं होंती। न केवल बाल मंडप में कुछेक नाटक, कथा वाचन से बाल साहित्य को प्राण वायु मिलने वाली है। प्रकाश मनु, दिविक रमेश, शेरजंग गर्ग, क्षमा शर्मा, रमेश तैलंग आदि नामों की सूची में और लेखकों के नाम जुड़ने होंगे।

पुस्तक मेले के बाद किताबों की एक दूसरी यात्रा शुरू होती है। इस यात्रा में लेखक और प्रकाशक की भूमिका खासा महत्त्वपूर्ण होती है। वह यात्रा समीक्षा की होती है। विभिन्न अखबारों, पत्रिकाओं में छपने वाली समीक्षाओं में लेखक अपनी किताब की समीक्षा भी छपाना चाहता है। कई बार दोस्तों से अनुरोध कर समीक्षाएं लिखवाता है तो कई बार स्वयं प्रकाशक किताबें अखबारों, पत्रिकाओं को भेजता है। संपादक अपनी रूचि पसंदगी और लेखकीय गुणवत्ता को तरजीह देते हुए किताबें समीक्षकों को भेजे देता हैं। यहां भी कई किताबें संपादकों की आलमारियों में अपनी पारी का इंतजार करती रहती हैं। वे किताबें कितनी सौभग्यशाली होती हैं जिन्हें समीक्षाओं की नजर से गुजरने का मौका मिल पाता है।

चलो कि अब मेला खत्म हुआ। बिखरी रहेंगी कुछ यादें, कुछ पन्ने, कुछ बातें, कुछ कड़वाहटें आस पास। कुछ किताबें निराश करेंगी तो कुछ को बार-बार पढ़ने की इच्छा होगी। कुछ चेहरे सुखद और अपनेपन के भाव वाले होंगे तो कुछ को देख कर ही खिन्नता होगी। लेकिन हैं तो वे भी इसी मेले का हिस्सा जिसे भूल नहीं सकते।

किताबों को मेला हर बरस लगेगा। लेखक, प्रकाशक, पाठक भी हांेगे लेकिन संभव है इस बार जो पाठक-दर्शक की भूमिका में थे वे अगले साल लेखक की श्रेणी में खड़े मिलें। इसलिए किसी को भी कमतर नहीं मानना चाहिए. संभावनाएं और सपनों को दबा नहीं सकते। इस बार जिन्हें उपेक्षा मिली। प्रकाशक ने जिसे लेखक नहीं माना हो सकता है वही किसी और प्रकाशक का प्रिय लेखक के तौर पर उभरे। आज लोग प्रोफेशनली लेखक भी बनाने में गुरेज नहीं करते। अधिकार रहे हैं अब चाहते हैं कि उन्हें लोग लेखक के तौर पर भी जानें, मानें तो प्रकाशक उपलब्घ हैं। आपकी सामाजिक पहुँच और पद आपको लेखक बनने में मदद कर सकता है। आपकी किताब की प्रतियां भी खूब बिकेंगी। आपकी किताब पर बोलने, लिखने वाले भी बिन मांगे मिलेंगे। बस शर्त यह है कि आप एक बार लिखने की इच्छा तो बताएं। आप नहीं लिख सकते तो भी कोई बात नहीं लिखने वाले भी मिल जाएंगे। वे लेखक पर्दे के पीछे होगा सामने होंगे आप।

उत्तर मेला किताब कथा यही तो है कि हर लेखक प्रकाशक मेले के बाद क्या पाया, कितना पाया और क्या पाना शेष रह गया इसका हिसाब-किताब लगाएंगे। पाठक भी जब मनन करेगा तो उसे कुछ तो हासिल ज़रूर होना चाहिए कि जिन किताबों को खरीदा है वह कितना लाभकरी है। क्या केवल नाम देख-पढ़कर किताबें खरीद लीं और बाद में उसे पढ़ेगा या नहीं? काफी हद तक यह निर्भर करता है कि लेखक ने जिस कंटेंट को उठाया है उसके साथ उसने न्याय किया की नहीं। क्या कंटेंट को छू कर आग निकल गया या उसकी गंभीरता को बरकरार रख सका आदि। किताबें निश्चित ही बोला करती हैं। वे बोलती हैं कि हम जिस समय में जी रहें हैं वह डिजिटल युग है। हजारों हजार पन्ने एक छोटे से डिवाइस में रखी और पढ़ी जा सकती है। सहेजने की क्षमता और संग्रह भी बढ़ी है क्या ऐसे दौर में मुद्रित किताबें बचेंगी या उनका स्वरूप नई चाल तकनीक में ढल जाएगी।