उदय प्रकाश की किस्सागोई का अद्भुत रूपक आख्यान / स्मृति शुक्ला

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उदय प्रकाश हिन्दी के ऐसे विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न कहानीकार हैं जिन्होंने कहानी के परंपरागत शिल्प को, तोड़कर यथार्थ को प्रस्तुत करने की स्वनिर्मित ऐसी अनोखी शैली ईजाद की जिसमें स्वप्न और जागरण और कल्पना के साथ तीव्र अनुभूति बोध था। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य में उदयप्रकाश को बुद्धिजीवी पाठकों के साथ आम पाठकों का एक ऐसा बड़ा वर्ग मिला जिसने इन कहानियों में वर्णित यथार्थ को अपनी समूची इन्द्रियों से अनुभूत किया और कहानियों से एक भावनात्मक रिश्ता कायम किया। कवि और कहानीकार उदयप्रकाश स्वयं एक विवेकवान गंभीर और पारदर्शी दृष्टि- सम्पन्न, बेवाक, आलोचक हैं। उदयप्रकाश के सभ्यता समीक्षक आलोचक रूप का स्पष्ट दिग्दर्शन उनकी पुस्तक 'ईश्वर की आँख' में संकलित वैचारिक लेखों में किया जा सकता है। उदयप्रकाश अपनी कहानियों में शिल्प के विविध प्रयोगों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने मेंगोसिल, मोहनदास, पीली छतरी वाली लड़की, तिरिछ और 'रामसजीवन की प्रेमकथा' जैसी अनेक लम्बी कहानियाँ लिखी, तो अनेक छोटी कहानियाँ भी लिखी हैं, जो छोटी होते भी लघुकथा के शिल्प से बाहर हैं।

उदयप्रकाश ने समाज के हाशिये पर पड़े असंख्य लोगों के जीवन यथार्थ उनके स्वप्नों-दु:स्वप्नों और जागरण की ठोस जमीन के पथरीले और अहसासों से कहानियाँ बुनी है। इन कहानियों के आख्यान में यथार्थ की अभिव्यक्ति है। उदयप्रकाश की प्रायः सभी कहानियाँ जितनी चर्चित हुई उतनी ही वाद-विवाद और संवाद का भी केन्द्र बनीं। इस लेख में उनकी केवल एक कहानी 'छप्पन, तोले का करधन' की विवेचना की गई है। 'तिरिछ' संग्रह में संगृहीत यह कहानी आज से लगभग तीस वर्ष पूर्व ज्ञानरंजन द्वारा संपादित 'पहल' के कहानी विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। आकार में दीर्घ इस कहानी की मूल कथा के भीतर एक कथा और साथ-साथ चल रही है जो पाठक को इतिहास के उस कृष्ण पक्ष में ले जाती है जब देश अंग्रेजों के अधीन था। औपनिवेशिक शोषण के साथ अंग्रेजों के अन्याय और अत्याचार भी कहानी की मूल प्रस्तावना के साथ रूपायित हुए हैं। कहानी में जो तीसरा तत्व है वह लोक का है। लोक में व्याप्त अंधविश्वास, टोना-टोटका, किसी व्यक्ति के विषय में बना लिये गए मनगढंत किस्सों के साथ एक बच्चे की कल्पनाशीलता उसके मानस में चलने वाली उधड़ेबुन और उसके भय जैसे अमूर्त भावों को कहानीकार ने सफलतापूर्वक मूर्त किया है। कहानी गाँव के कभी सम्पन्न रहे परिवार की घोर विपन्न स्थिति के दारुण सच को रूपायित करती है। उदयप्रकाश की अन्तर्दृष्टि, उनके जीवनानुभव, उनकी वैचारिक सम्पन्नता और इतिहास दृष्टि के साथ उनकी विशिष्ट कथन भंगिमा और अद्भुत किस्सागोई इस कहानी में समाविष्ट है। 'छप्पन, तोला करधन' कहानी का वाचक एक छोटा बच्चा है जिसके घर-संसार के वास्तविक यथार्थ के साथ-साथ दीवारों के भीतर एक और दुनिया चल रही है। इस भीतर के संसार की विचित्र और बारीक आवाजें बच्चे को सुनाई देती हैं। उसे यह भी लगता है कि उसका संसार और यहाँ की प्रत्येक गतिविधि उस भीतरी संसार के लिए हवा पानी और खाद का काम करती है।

हिन्दी साहित्य-जगत् में उदय प्रकाश का अविर्भाव उस समय हुआ जब देश में अत्यंत तेजी से परिवर्तन आए थे। लग रहा था मानो विकास के परों पर सवार होकर पूरा समाज उड़ रहा था। परिवर्तन की इस तीव्र बयार में बहुत सारी जरूरी चीजें और नैतिक मूल्य छूट रहे थे, आस्थाएँ टूट रही थीं। यह ऐसा दौर था जब साहित्य और साहित्यकार के सामने भी अनेक चुनौतियाँ थीं। यह ऐसा समय था जिसमें गति थी और गति अवरोध भी था। उदय प्रकाश ने अपने समय के इस विपर्यय को पहचाना और उसे अपनी कविताओं और कहानियों में इस अंतर्विरोध को अभिव्यक्त किया। उन्होंने आख्यान में विवरणों, ब्यौरों, इतिहास कल्पना, स्वप्न और फैंटेसी का प्रयोग करके यथार्थ को एक ऐसी शैली में प्रस्तुत किया जिससे पाठक को लगा कि वह किसी इन्द्रजाल में बँधा है और मानों सच को कल्पना में देख रहा है। उनकी कहानियों में पाठक को वर्तमान को इतिहास में देख सकने कि सुविधा है और इतिहास को वर्तमान में देखने की आजादी है। उदय प्रकाश की कहानियों में उनकी विचारधारा, उनकी प्रतिबद्धता तथा अन्यायी ताकतों के प्रतिरोध का स्वर अनुगुंजित होते हैं। कहानीकार के पास एक ऐसी भाषा है, जो थकती नहीं है निरंतर गतिशील रहते हुए नेत्रों के सामने दृश्य बिम्ब रचती है। उन्होंने कहानी के कथ्य और शिल्प में प्रचलित मुहावरों को, तोड़ा है और अपनी एक मौलिक कथा-शैली विकसित की है।

उदय प्रकाश की कहानियों की यह खासियत है कि मूल कथानक के साथ अनेक सामाजिक, राष्ट्रीय और राजनीतिक मुद्दे भी कहानी की आंतरिक संरचना में कभी सांकेतिक रूप से, तो कभी बहुत स्पष्ट से गुँथे हुए होते हैं। इन्हें पकड़ना देखना और परखना आलोचक और पाठक का काम होता है क्योंकि यदि इन्हें अनदेखा किया, तो कहानी की केन्द्रीय संवेदना तक नहीं पहुँचा जा सकता।

उदय प्रकाश व्यापक रचना दृष्टि सम्पन्न साहित्यकार हैं। अपने समय के क्षण-क्षण बदलते यथार्थ, समय के दबाव, पूँजीवाद, भ्रष्टाचार, राजनीति के अपराधीकरण और मनुष्य के बाह्य और आंतरिक कार्यव्यापारों को वे अत्यंत सूक्ष्मता के साथ अपने आख्यानों में अभिव्यक्त करते हैं। उनकी कहानियाँ बहुस्तरीय होती हैं। वे अपनी कहानियों में यथार्थ के साथ स्मृति, सूचना, मिथक और लोक के साथ नॉस्टेल्जिया, फैंटेसी और जादुई यथार्थवाद जैसे तत्त्वों का भी प्रयोग करते हैं।

मुक्तिबोध की कहानियों की तरह उदय प्रकाश की कहानियों में भी मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग का एक बड़ा तबका पूरी प्रामाणिकता के साथ मौजूद है। 'छप्पन, तोले का करधन' कहानी परंपरागत शिल्प के साँचे में ढली हुई कहानी नहीं हैं। उदयप्रकाश की स्वनिर्मित शिल्प प्रविधि में यह कहानी ढली है। कहानी की कथा को विकसित करने में उनके बचपन के अनुभवों की अहम् भूमिका है। उदय प्रकाश बचपन से ही तरह-तरह के भयावह और डरावने सपने देखते रहे हैं। उनके कथा शिल्प का जादुई यथार्थ उनकी इसी सपने देखने की प्रवृत्ति से जन्मा है। उदय प्रकाश की कहानी 'छप्पन, तोले का करधन' एक औपान्यासिक फलक की कहानी है। प्रथम दृष्टया यह कहानी एक ऐसे परिवार की कहानी है, जो कभी सम्पन्न रहा होगा लेकिन अब धीरे-धीरे निर्धनता की दीमक ने इस परिवार को खोखला कर दिया है।

'छप्पन, तोले का करधन' जितनी पारिवारिक कहानी है उतनी ही सामाजिक और राजनीतिक कहानी भी है। अपने परिवार की क्रूरता और अमानवीयता को झेलकर, पल-पल मृत्यु के करीब जाती दादी की कारुणिक कहानी है 'छप्पन, तोले का करधन'। उदय प्रकाश की अनेक कहानियों में मृत्यु है और ऐसा इसलिए है कि आठ-नौ वर्ष की उम्र में नदी में तैरना सीखते हुए उदय प्रकाश ने मृत्यु से सीधा साक्षात्कार किया है। नदी में डूबकर बच जाने के उस घटना का उल्लेख करते हुए उदय प्रकाश लिखते हैं-" उस एक घटना के बाद मृत्यु हमेशा मेरे आसपास रही है।

यदि कहानी 'छप्पन, तोले का करधन' की बात की जाए, तो इसमें भी दादी की मृत्यु के पूर्व और पश्चात घर की स्थितियों के ब्यौरे हैं, पूरे परिवार का दादी के खिलाफ मोर्चा खोलना और शत्रु जैसा व्यवहार करना और अकेली दादी का अपनी ही परिजनों से आखिरी समय तक कभी मौन रहकर प्रतिरोध करना। दादी कभी खाना ना खाकर, तो कभी कचरे के ढेर पर बैठकर प्रतिरोध करती है दादी का यह प्रतिरोध बच्चे को दिखता है, बच्चा उसे महसूस भी करता है। बच्चा अनुभव करता है कि रात में अँधेरा बहुत होता है दूसरे घरों से कही ज्यादा घना जिसमें घर की सारी दीवारें डूब जाती हैं। दूसरे घरों से ज्यादा 'गाढ़े अंधेरे' का मतलब है कि इस घर की आर्थिक स्थिति और परिस्थितियाँ दूसरे घरों से ज्यादा खराब हैं निराशा का घटाटोप ज्यादा सघन है। लोकजीवन में बिल्ली का विलाप करना अशुभ माना जाता है। घर की दीवारों का खोखला होना धीरे-धीरे कमजोर और बीमार घर का विनाश की ओर पहुँचना ये सभी एक नष्ट होते परिवार की त्रासद कथा के संकेत हैं। उदयप्रकाश की यह कहानी पाठक को अपनी ओर खींचती है और बार-बार पढ़े जाने की माँग करती है। हम जितनी बार कहानी का पाठ करते हैं कहानी में नये-नये अर्थ प्रकट होते हैं, नये संकेत सूत्र मिलते हैं जिनसे कहानीकार के असल मनतव्य तक पहुँचने में मदद मिलती है।

कहानी का प्रारंभ एक दृश्य और घ्राण बिम्ब के मिले-जुले वातावरण की सृष्टि से होता है जिसमें रात में घर में गाढ़े अँधेरे की और हवा में दो तरह की गंध के घुलने की बात है। पहली है केवड़े की गंध और दूसरी मछलियों से भरे तालाब के पानी की गंध या हवा में किसी सड़ती हुई चीज की गंध। इस वातावरण निर्मिति के बाद जिक्र आता है अँधियारी कोठरी का। कोठरी सँकरी और जमीन के नीचे धँसी हुई थी। जिसमें एक भी खिड़की नहीं थी। इस कोठरी में दादी शीशम की पुरानी खाट पर लेटी रहती थी। दादी इस कमरे से कई-कई महिनों बाद निकलती थीं। वे कमरे के किसी कोने में ही निवृत्त होती थीं, क्योंकि अँधियारी कोठरी की बंद गाढ़ी हवा में अमोनिया की तीखी गंध मौजूद होती और दादी के शरीर से भी ऐसी ही गंध आती थी। बच्चे की अम्मा जब दादी को देखकर आने को कहती हैं, तो बच्चा अँधियारी कोठरी में जाकर दादी-दादी पुकारता है। दादी घर्राती हुई आवाज में 'हूँ' कहती हैं। बच्चे को अँधेरे में जलती हुई दो कंजी आँखे दिखती हैं, जो बिल्ली की आँखों से एकदम मिलती हैं। कहानी में उदय प्रकाश एक बच्चे की कल्पनाओं को अभिव्यक्त करते हैं। गाँवों में भूत-प्रेत, जादू, टोना-टोटका की कहानियाँ प्रचलित होती हैं। ये कहानियाँ बाल मन पर गहरा असर डालती हैं। कहानी में बच्चा महसूस करता है कि रात में घूम-घूमकर विलाप करती काली बिल्ली और कोई नहीं बल्कि दादी हैं, जो रात में पूरे घर की टोह लेती हैं। बच्चे को उसकी चाची ने बताया था कि कई साल पहले जब दादी जवान थी और बहुत सुन्दर थी, तो उनकी दोस्ती गाँव की एक नाइन से हो गई थी। दादी ने उसी से आधा-अधूरा टोना सीखा था। लेकिन किसी-किसी पर टोना उलटा पड़ जाता है। दादी के साथ भी यही हुआ। उनकी सुंदर कोमल देह जिससे गर्मियों की रात में बेले की गंध-फूटती थी वह देह एकदम बदल गई। टोना उलट जाने से उनका सुंदर रंग पहले तांबई और फिर कत्थई हो गया। उनके तेरह बच्चों में से सिर्फ पिता जी, जसीडीह वाली बुआ और चाचा ही बचे थे।

उदयप्रकाश ने एक छोटे बच्चे की अनुभूतियों के स्फुरण से कहानी का प्रारंभ किया है। कथानक आगे बढ़ने से कहानी में अनेकानेक संदर्भ खुलने लगते हैं। दादी, जो पहले बहुत सुन्दर थीं बाद में तांबई और कत्थई होती चली गईं। दादी के रंग में यह बदलाव परिस्थितियों की मार से उत्पन्न हुआ था। अंग्रेजों की क्रूरता, अन्याय और दमन ने एक सम्पन्न परिवार की जमीनें और खेत कुर्क कर लिये थे और उस परिवार के मुखिया को घर से पलायन करना पड़ा तब दादी ने ही अत्यंत विषम परिस्थितियों में विकट संघर्ष करके अपने बच्चों का पालन-पोषण किया। सच्चाई यह थी कि निर्धनता और परिस्थितियों की मार ने दादी के रूप-रंग को एकदम बदल दिया था लेकिन गाँव में टोना-टोटका की बात प्रचलित हो गई थी। कहानी में ऐसे संकेतात्मक अनेक वाक्य हैं जिनके भीतर अनकहे भाव और विचार दबे पड़े हैं। एक गंभीर पाठक को कहानी पढ़ते हुए इन दबे-ढके भावों और कथनों को सतह पर लाना होता है। उदयप्रकाश 'छप्पन, तोले का करधन' में अंग्रेजों के औपनिवेशिक शोषण के बाद आजाद भारत के उन हालातों को भी सामने लाते हैं, जो पूँजीवादी जनतंत्र के कारण प्रकट हुए है। पूँजी और सत्ता के निर्मम चरित्र केवल समाज में नहीं है वरन परिवार में भी घुस गए हैं जिन्होंने ऐसे अमानवीय पात्रों को जन्म दे दिया है जिनकी संवेदनशीलता काठ हो चुकी है, जो धन (छप्पन, तोले का करधन) के लालच में अपनी बुजुर्ग माँ को तरह-तरह की अमानवीय यातनायें दे रहें है।

घर के अन्य सदस्यों के व्यवहार के कारण बच्चे के मन में यह बात घर कर गई थी कि दादी उस घर की शत्रु हैं। दादी को भी इस बात की खबर थी। वे जानती थी कि सिर्फ रामे (बच्चे के पिता जी) के अलावा उनकी बात घर का कोई और सदस्य नहीं समझता। कहानी की सबसे निर्दय पात्र चाची हैं, जो निःसंतान है और चाचा उन्हें छोड़कर कही चले गए हैं। उनके विषय में कहानीकार ने लिखा है कि चाची के दिल की जगह पर लकड़ी का टुकड़ा लगा है। कठकरेज चाची दादी से दुव्र्यवहार करती है। दादी जिन्हें चावल खाना कभी पसंद नहीं था उन्हें दिनभर में केवल एक बार जस्ते के दुचके-पुचके भगौने में दाल-भात चटनी दी जाती है और कभी-कभी गुस्से में चाची उस खाने के ऊपर मिट्टी डाल देती थी, जिसके कारण दादी कई-कई दिन तक खाना नहीं खाती थी। दादी महिने दो महिने में जब कोठरी से बाहर निकलती, तो पूरे घर में एक खलबली मच जाती थी। उदय प्रकाश ने इस कहानी में दादी का ऐसा शब्द-चित्र निर्मित किया है, जो दादी की आंतरिक और बाह्य छबि को मूर्त कर देता है-"दादी किसी बूढ़े गिद्ध की तरह दिखाई देती, जिसके सिर और गर्दन के सारे रोएँ झड़ जाते हैं और एक पतली, बीमार झुर्रियों भरी गर्दन और नंगी खोपड़ी वहाँ बचती है। इस खोपड़ी के भीतर का दिमाग अपने अंतिम समय की सारी आवाजों को धीरे-धीरे सुनता रहता है।" छोटे बच्चे को अपनी दादी पर दया आती है। लेकिन वह यह भी मानता है कि दादी पूरे घर की शत्रु हैं। उनके पास एक छप्पन, तोले का करधन है जिसे उन्होंने घर के किसी कोने में छिपा रखा है। दादी यह करधन दे दें, तो घर की आर्थिक स्थिति सुधर सकती है और घर को नष्ट होने से बचाया जा सकता है। करधन न देने के कारण पूरा घर दादी का शत्रु बन गया है। अम्मा बताती हैं कि यह करधन दादाजी ने दादी को दिया था। छप्पन, तोले का करधन महज एक पारिवारिक शत्रुता की कहानी नहीं है, ना केवल वृद्ध दादी की लाचारी की कहानी है बल्कि यह कहानी उस औपनेवेशिक शोषण की भी दास्तान है जिसे हम लगभग दो सौ वर्षों तक झेलते रहे हैं। अंग्रेज जिन्होंने न केवल भारतीयों को तरह-तरह की यातनाएँ दी थीं, हमारा आर्थिक शोषण किया, देश में तरह-तरह के विभेदों को जन्म दिया, देश में फूट कराई और हमारे पशु-पक्षियों और पर्यावरण को भी क्षति पहुँचाई थी। उदयप्रकाश ने इस पारिवारिक कहानी में भारतीय इतिहास और वृहत्तर सामाजिक संदर्भ संश्लिष्ट कर इसे बहुअर्थीय कहानी बना दिया है। बच्चे के दादा को प्रकृति, पर्यावरण, चिड़ियों, बत्तखों और पनडुब्बियों से आत्मीय लगाव था। अम्मा बताती थी कि दादा जी को चिड़ियाँ पालने का शौक था। गाँव के तालाब के हर बत्तख से उनकी पहचान थी। "गाँव के उसी तालाब में जिसमें दादा के सारी बत्तखों, पनडुब्बियाँ मतावर, टिटिहरी, बगुले और जाने कौन-कौन-सी चिड़ियाँ रहती थीं। अंग्रेज अफसर अपने गोरी मेम के साथ आकर बत्तखों को मारकर ले जाता था। दादा कभी-कभी तालाब से आकर लौटते और बुदबुदाते-" आज गोरे ने मोहन, सायरा और दोजी को मार डाला"। एक दिन उन्होंने जब अंग्रेज अफसर को शिकार करने से रोका और ललकारकर कहा कि इस तालाब के पक्षियों को मारना जुर्म है ये सभी मेरी पालतू मुर्गियाँ हैं। यह सुनकर अंग्रेज अपनी मेम के साथ चुपचाप चला गया। लेकिन दूसरे दिन दादा के सारे खेत कुर्क कर लिये गए, जानवर हाँक ले गए और गाँव को बागी गाँव घोषित कर दिया गया। उदयप्रकाश दिखाते हैं कि एक भारतीय को अंग्रेजी सत्ता का प्रतिरोध करना कितना भारी पड़ गया। यहीं से इस सम्पन्न परिवार की आर्थिक स्थिति गड़बड़ा गई और परिवार विपन्नता के गर्त में समाता चला गया। उदय प्रकाश ने भारतीय इतिहास की सबसे जघन्य और क्रूरतम घटना 'जलियाँ वाला बाग हत्याकांड और बत्तखों के हत्याकांड को एक ही दिन घटित होते दिखाया है। बच्चे की माँ के मुख से कहानीकार ने कहलवाया है कि जिस दिन अंग्रेज अफसर ने गुस्से में पागल होकर तालाब की बत्तखों पर धाँय-धाँय गोली दागी थी उसी दिन पंजाब में जलियाँवाला बाग में निहत्थे भारतीयों पर गोलियाँ चली थीं। यहाँ उदय प्रकाश यह बताना चाहते हैं कि अंग्रेजों के अत्याचार पूरे देश में बढ़ते जा रहे थे। कहीं वे गुस्से में पागल होकर बत्तखों और चिड़ियों को मार रहे थे, तो कहीं निरीह जनता को गोलियों से भून रहे थे। बच्चे के दादा ने इस अंग्रेज अफसर को मारकर अपनी चिड़ियों की मौत का बदला ले लिया था लेकिन पच्चीस वर्ष भूमिगत रहकर उन्हें इस विद्रोह की कीमत चुकानी पड़ी थी। कहानी में दर्ज है-" बंदूक चली और कारिंदों ने देखा। पूरा आसमान चीखती हुई चिड़ियों से भर गया। तभी उन्होंने देखा कि इस बार ऊपर से मरी हुई मुर्गाबियाँ नहीं गिरीं, अंग्रेज अफसर की लाश गिरी। "इसके बाद दादा नीचे उतरे अपनी बंदूक का धुआँ साफ किया, चिड़ियों के देख मुस्कुराए, उन्हें अलविदा कहा और फरार हो गए।" पच्चीस साल तक दादा भूमिगत रहे। गाँव में कोई कहता कि वे साधु हो गए, कोई कहता डाकू बन गए, कोई कहता वे जर्मनी चले गए, रूस चले गए, समुद्र में तैरकर उन्होंने अंग्रेजों के जहाज के पैंदे में छेद कर दिया। कोई कहता कि वे मुठभेड़ में मर गए और कोई कहता उन्हें अंग्रेजों ने फाँसी दे दी। दादा के जाने के बाद दादी ने अकेले अपने तीन बच्चों को पाला पोसा। अन्यायी सत्ता का प्रतिकार करने की सजा पूरे परिवार ने उठाई। दादा ठीक पच्चीस साल बाद दीपावली के ठीक एक दिन पहले लौटे यह वही साल था जब देश को आजादी मिली थी; लेकिन दादा उसी साल बीमार हो गए। अंग्रेजों का प्रतिकार करने वाले दादा जैसे हजारों लोग आजादी मिलने के बाद भुला दिये गए। उनके संघर्ष को स्वार्थी और खुदगर्ज राजनेताओं ने किनारे कर दिया। इस कहानी में' छप्पन, तोला का करधन' एक रूपक है। एक परिवार कथा के बहाने से देश की गुलामी अंग्रेजों की तानाशाही आम भारतीयों द्वारा उनका विरोध करना और उसकी सजा उठाना अर्थात स्वतंत्रता के पूर्व का इतिहास कहानी में प्रतिबिंबित है, साथ ही स्वतंत्रता के बाद का इतिहास और आजादी के बाद देश में जो हुआ, वह भी दर्ज है। बुआ का कहना है कि आजादी के बाद वे सारे लोग बीमार होकर मरने लगे जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई थी। कहानी में सांकेतिक रूप से कहा गया है कि देश की आजादी में जिन्होंने त्याग किया आजादी के बाद वही उपेक्षित किये गए। पच्चीस साल बाद लौटे दादा को तालाब की किसी बत्तख ने नहीं पहचाना क्योंकि पुरानी बत्तखें खत्म हो चुकी थीं। बत्तखों की नई पीढ़ी के लिए वे अजनबी थे।

कहानी में दर्ज है कि दीपावली की रात दादा ने दादी को छप्पन, तोले का करधन दिया था। दरअसल यथार्थ में दादा ने दादी को कोई करधन नहीं दिया था वे ख्वाब में शायद ऐसा देखते होंगे और दादी ने भी ख्वाब में उस करधन को लिया होगा। ठीक उसी तरह जिस देश की जनता ने आजादी का ख्वाब देखा था, देश को आजादी भी मिली पर वास्तव में आम आदमी की स्थिति बद से बदतर होती चली गई। कहने को, तो लोकतंत्र है देश में लेकिन जाल पूँजीतंत्र का फैला हुआ है। स्वतंत्रता के बाद अधिकतर ऐसे लोग सत्ता पर काबिज होते चले गए, जो अवसरवादी और स्वार्थी थे। ये ऐसे लोग थे जिनके हृदय में मानवीयता और संवेदना के लिए कोई जगह नहीं थी, इनके हृदय काठ के थे। ये भीतर ही भीतर देश को खोखला कर रहे थे। पूँजी और ताकत के बलबूते पर गरीबों का शोषण कर अपनी एक दूसरी दुनिया रच रहे थे। उदय प्रकाश ने यह बात घर के सम्बंध में कही है कि-" अम्मा इस बात को जानती थी कि घर की दीवारें भीतर-भीतर खोखली हो चुकी हैं, वहाँ पर एक-दूसरा ही जीवन संसार चल रहा है। यह संसार चूहों और कई रंगों के विचित्र ऐसे ही अदृश्य प्राणियों का संसार था। जिसे हम कभी भी देख नहीं पाते थे। वहाँ का अपना अलग ही नियम रहा होगा। हमारा बाहर का संसार उस दूसरे संसार के लिए खाद और हवा की तरह था। हम सब घर के खत्म होने के बारे में जानते थे। यह कभी भी अचानक घट सकता था। वर्चस्ववादी, सर्वसत्तावादी, पूँजीवादी शोषकों के संसार को फलने-फूलने के लिए खाद पानी गरीबों से ही प्राप्त होता है। धीरे-धीरे इस वर्ग को खोखला करते रहते हैं और उनकी दुनिया समृद्ध होती रहती है। (, तोले का करधन, पेज नं.51)

दादी का छप्पन, तोले का करधन इस घर को गरीबी के अथाह सागर में डूबने से बचा सकता था। दादी पूरे घर की दुश्मन इसीलिए थी; क्योंकि सभी को लगता था कि वे करधन को दबाए बैठी हैं और किसी को देना नहीं चाहतीं; लेकिन वास्तविकता यह है कि दादी के पास कोई करधन नहीं था। वे बच्चे के पिताजी रामे से कह चुकी हैं कि जब तुम्हारे पिता जी फरार हुए थे, तो मेरे पास सिर्फ दस, तोला सोना था। मैंने तुम लोगों को पाला-पोसा बड़ा किया। चार, तोला सोना बचा था, तो दोनों बहुओं को बराबर-बराबर दे दिया। दादी ने रोकर कहा था कि अभी, तो कोठरी की देहरी पर दाल-भात मिल जाता है। 'करधन हो न हो वह मेरे लिए और तुम सबकी आस के लिए जरूरी है। "बच्चे के पिता जी भी यह बात जानते थे कि करधन नहीं है क्योंकि वह इस सच्चाई को जानते हैं कि पिता फरार होने के बाद कलकत्ते में ईंट के भट्टे पर काम करते थे वे जर्मनी या रंगून कहीं नहीं गए थे। पूरा परिवार दादी की उपेक्षा करता है और एक दिन' हाय दित राम, हाय दित राम'बोलते हुए दादी की कारुणिक मौत हो जाती है। दादी के पास जो पूँजी मृत्यु के बाद मिली थी, वह थी, कुछ फटे चिथड़े, गुड़ के दो ढेले, जो अब मिट्टी हो चुके थे, दो चार सूखे काले अमरूद, एक थैली में काठ का छोटा-सा घोड़ा और एक काली गेंद। एक गरीब वृद्धा की कुल जमा पूँजी यही थी, लेकिन परिजनों को अब भी कहीं मन में आस थी कि शायद' छप्पन, तोले का करधन' अधियारी कोठरी में हो। दादी की मृत्यु के दसवें दिन पिता जी सब्बल से अँधियारी कोठरी खोद रहे थे। सबको लग रहा था कि करधन मिलने से सुख के दिन वापिस लौट आयेंगे। लेकिन आधी रात तक खोदने के बाद कुछ नहीं मिला।" छप्प-छप्प कुदाल चलाते हुए पिता किसी विनाशकारी प्रेत की तरह लग रहे थे। " दीवार के उस तरह के संसार से कुछ रहस्यपूर्ण आवाजें आ रही थी कुछ चीजें गढ़ी और कुछ, तोड़ी जा रही थीं। बालक को लगता है कि अंधेरे में दो कंजी आँखें जल रही हैं और काली बिल्ली विलाप कर रही है। यहाँ आकर कहानी समाप्त हो जाती है। काली बिल्ली का विलाप वस्तुतः दादी का ही आर्तनाद है। धन के लालच में पिता ने अपने घर की बुनियाद को ही खोद डाला है और धूल मिट्टी में सने हुए वे स्वयं एक प्रेत की मानिंद लग रहे है।

इस कहानी के शिल्प की बात करें, तो इसमें अद्भुत किस्सागोई है। उदय प्रकाश का कहना है कि "असल में जब इतिहास में स्वप्न, यथार्थ में कल्पना तथ्य में फैंटेसी और अतीत में भविष्य को मिलाया जाता है, तो आख्यान में लीला शुरु होती है और एक ऐसी माया का जन्म होता है, जिसका साक्षात्कार सत्य की खोज की एक यात्रा ही है, इसलिए हर लीला और प्रत्येक माया उतनी ही सच होती है जितना स्वयं इतिहास।" 'छप्पन, तोले का करधन' कहानी में भी स्वप्न हैं यथार्थ में कल्पना तथ्य में फैंन्टेसी है।

'छप्पन, तोले का करधन' कहानी में उदयप्रकाश के बचपन के कुछ निजी अनुभव, पीड़ाओं के दंश मृत्यु की आहटें और मृत्यु के बाद का सन्नाटा, भयावहता और विपन्नता के चरम पर पहुँचे एक परिवार के धीरे-धीरे विनष्ट होने की त्रासदी सभी कुछ मिलकर एक ऐसा वितान रचते हैं जिसकी ज़द में एक अकेला परिवार नहीं है अपितु बृहत्तर समाज आ जाता है। अनेक सामाजिक, आर्थिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक संदर्भों को अपने में समेटे यह कहानी अपने शिल्प की विशिष्टता के कारण हिन्दी की श्रेष्ठ कहानियों में शुमार है।

उदय प्रकाश की प्रायः सभी कहानियों में यथार्थ को माया और लीला की तरह ही प्रस्तुत किया गया है। समाज का सच फैन्टेसी में ढलकर अभिव्यक्त होता है। राजेन्द्र यादव ने उदय प्रकाश की कहानियों पर मार्केज का प्रभाव माना है लेकिन उदय प्रकाश ने अपने लेखन पर किसी कहानीकार के प्रभाव के आरोप को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इस बात का खंडन करते हुए उन्होंने लिखा है-दुर्भाग्य से ऐसा खूब हो रहा है। 'टेपचू' लूशुन की 'आह क्यू' की नकल प्रचारित की गई। 'तिरिछ' माक्र्वेस की 'क्रॉनिकल ऑफ अ डेथ फॉर टोल्ड' की। 'और अंत में प्रार्थना' दूरदर्शन पर दिखाई दो फिल्मों का काढ़ा। ऐसे लोग, स्पष्ट है ईमानदार नहीं हैं। यह तत्त्व वही है, जो निराला की कविताओं को टैगोर की रचनाओं की नकल कहते हैं। 'छप्पन, तोले करधन' जब 'पहल' में प्रकाशित होकर चर्चित हुई, तो एक तत्व ने बाकायदा लिखित तौर पर यह प्रचारित किया कि यह बिहार के किसी कहानीकार की कहानी का उल्था है। "(और अंत में प्रार्थना-उदय प्रकाश का आत्मकथ्य, पृ.21) 'छप्पन, तोले का करधन' कहानी का हिन्दी में अनुवाद सारा राय ने किया और आज से बीस वर्ष पूर्व इस कहानी का अनुवाद सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् लोठार लुत्शे ने किया है। उदय प्रकाश ने अपनी कहानियों के शिल्प पर लगे आरोपों को सिरे से खारिज किया है। उन्होंने अपने लेखन के साथ हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास 'बाणभट्ट की आत्मकथा का जिक्र करते हुए लिखा है- "इतिहास में आख्यान या यथार्थ में कल्पना के संश्लेष की यह पद्धति किसी मार्क्वेस-बार्खेस की नहीं, हजारी प्रसाद द्विवेदी की और मेरी है।" अपनी कहानियों के शिल्प विषय में उदय प्रकाश कहते हैं-" मैंने एक नहीं कई तरह की कहानियाँ लिखी हैं। कई-कई रूपों, शिल्प-शैलियों, संरचनाओं और आकारों की कहानियाँ। कुछ कहानियाँ बहुत लम्बी हैं। लगभग उपन्यास की सरहदों को छूती हुई।" निश्चय ही उदय प्रकाश कहानी छप्पन, तोले का करधन एक ऐसी कहानी है, जो एक मेटाफर रचती है। पाठकों को कहानी के नये आस्वाद से परिचित कराती है। किस्सागोई की परंपरा को पुनर्जीवित करती यह कहानी इतिहास और हमारे समय की तमाम क्रूरताओं और अमानवीयताओं को मार्मिक ढंग से प्रकट करने वाली एक सशक्त कहानी है।


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