उनकी वापसी / रूपसिह चंदेल

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बस-स्टॉप से उनकी ससुराल सात मील दूर थी. जाने का कोई साधन नहीं था, पैदल के अतिरिक्त. रास्ता ऊबड़-खाबड़, ऊंचा-नीचा और कहीं-कहीं बेहद धूलभरा. मई की दोपहर और आकाश से टपकते अंगारे. चारों ओर दूर-दूर तक फैले ठुंठियाए खेतों में चेहरे को झुलसा देने वाली गर्म हवा बौखलाई-सी दौड़ रही थी.

सिर को तौलिए से बांधकर मैं एक योद्धा की भांति भुलभुलाई धूल और तपती ऊंची-नीची धरती को नापता हुआ तेजी से कदम घसीटने का प्रयत्न कर रहा था. लू से बचने के लिए पैंट की जेब में प्याज की दो गांठें पत्नी ने ठूंस दी थीं. मैं थोड़ी-थोड़ी देर में बैग से थर्मस निकालकर कुछ घूंट पानी हलक के नीचे उतारता जा रहा था. रास्ता एक गांव के बीच से होकर निकलता था. निपट तपती दोपहरी में वह गांव चौपालों में दुबका पड़ा था.

मन चाह रहा था कि मैं भी किसी चौपाल में दोपहर गुजार दूं. इजाजत चाहने पर शायद कोई मना भी नहीं करता, लेकिन 'शर्ट' की जेब में पड़ा उनका पत्र उस बात की अनुमति नहीं दे रहा था-- दो वर्षों बाद मिला था. लिखा था, 'पत्र पाते ही चले आओ. मैं घोर संकट में हूं.'

और मैं रात की गाड़ी पकड़कर चल पड़ा था. रातभर ट्रेन में नींद न आ पायी थी. सोचता रहा था उनके बारे में. वे मेरी सगी बहन न थीं. पड़ोस में रहती थीं, अपने ताया के साथ. सीधी-सादी, कम बोलने वाली, प्रतिक्षण काम में लगी रहने वाली. फिर भी ताई-ताया की नजरें उनके प्रति कभी सीधी नहीं रहती थीं. सप्ताह में कम-से कम एक बार उनकी ताई कोई-न कोई बहाना निकालकर उन्हें जब तक पीट न लेतीं, उन्हें चैन न मिलता.

वे दोपहर में कभी-कभी अपनी ताई-ताया से छिपकर खेलने मेरे घर आ जातीं. हम दोनों तब तक खेलते रहते, जब तक उनकी ताई की कर्कश आवाज हमारे कानों से न टकराती.

"परकासो---- कहां मर गयी करमजली !" उनकी ताई चीखती तो वे सहमकर मेरी मां से चिपट जातीं. मां उन्हें बहुत चाहती थीं. उनके सिर पर हाथ फेरती हुई कहतीं, "चिन्ता मत कर, बेटी--- मैं तेरी ताई को कह देती हूं कि तू अनु के साथ खेल रही है."

वे तब भी सहमी ही रहतीं; क्योंकि वे जानती थीं कि मां के कहने से उस समय ताई कुछ नहीं बोलेंगी, लेकिन बाद में उन्हें मारेंगी जरूर. यही नहीं, तीन-चार दिन तक वे खेलने के लिए घर से निकल भी न पाएंगी.

और वही होता. ताई उन्हें किसी-न किसी ऎसे काम में लगा देतीं कि न वह काम खत्म कर पातीं, न निकल ही पातीं. लेकिन जब भी मौका पातीं, सीधे मेरे घर आ पहुंचतीं. पड़ोस में एकमात्र मेरा घर ही था, जहां वे खेलने जातीं. वे बोलतीं कम जरूर थीं, लेकिन हर क्षण मुस्कराती रहती थीं. उम्र में मुझसे चार-पांच साल बड़ी थीं, इसीलिए मैं उन्हें पहले परकासो दीदी और कुछ दिनों बाद केवल दीदी कहने लगा था. मेरे कोई बहन नहीं थी इसलिए उम्र के बढ़ने के साथ हमारा यह रिश्ता काफी प्रगाढ़ होता गया था. आज वे किस संकट में पड़ गई हैं, समझ नहीं पा रहा था.

वैसे संकट उनके साथ बचपन से ही लगे रहे हैं. जब वे बहुत छोटी थीं--- दूध-पीती बच्ची, तब उनके पिता चल बसे थे. मां ताई-ताया की प्रताड़ना सहकर भी उनके साथ रहने के लिए मजबूर थीं, क्योंकि उनके मायके में कोई भी नहीं था. दुधमुंही दीदी को छाती से चिपकाए उनकी मां खेतों में काम करने जाती. उन्हें किसी झाड़ी की छाया में लिटाकर वह दिन भर काम करती रहतीं. मां ने मुझसे बताया था कि नन्ही दीदी पैर चला-चलाकर खेला करतीं ---- झाड़ी पर आ बैठी चिड़ियों से गूं-गा बतियाया करती थीं और जब भूख लगती, चीख-चीखकर मां को बुला लेती थीं.

दीदी मुशिक्ल से पांच-छह साल की हुई थीं कि एक दिन मां भी उन्हें ताई-ताया को सौंपकर पति के पास चली गई. मां के आंखें बन्द करने के तुरन्त बाद ही ताई ने उनके नन्हें कोमल हाथों को लगा दिया था बर्तन मांजने और झाड़ू लगाने में. अपनी ताकत भर दीदी बर्तन ठीक से ही मांजती, लेकिन ताई को उनकी सफाई पसन्द न आती और दीदी पर दो चार हाथ पड़ ही जाते. हर दिन दो-चार हाथ खाती हुई ही वे बड़ी हुई----इतनी बड़ी कि मेरे घर खेलने आना भी बन्द कर दिया. मैं भी आठवीं पास कर हाईस्कूल में पहुंच गया और साइकिल से पांच मील दूर के इण्टर कॉलेज में जाने लगा. दीदी ने खेलने आना तो बन्द कर दिया था, लेकिन मां से मिलने वे प्रायः आ जाया करतीं. कुछ देर बैठतीं और मेरी पढ़ाई के बारे में पूछ लेतीं. उनकी खुद भी पढ़ने की इच्छा रही थी. एकाध बार घर में कहने पर ताया चीखकर बोले थे, "लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज हमारे वंश में कभी नहीं रहा---- तू पढ़कर क्या मुंशीगिरी करेगी.?"

दीदी मन मारकर रह गई थीं.

पढ़ाई की बात चलने पर रुआंसे स्वर में वे कहतीं, "चार अच्छर पढ़ लेती तो चिट्ठी तो लिख सकती थी. लेकिन......" वे बेहद उदास हो जातीं.

एक दिन मां ने बताया, दीदी की शादी की बात चल रही है. शायद जल्दी ही तय हो जाएगी. मैं उस दिन सोचता रहा---"दीदी अब चली जाएंगी. एकमात्र दीदी--- सगी से भी अधिक, मैं किससे बातें किया करूंगा? किसे दीदी कहा करूंगा?' हमारे यहां आज भी लड़कियों --विशेषकर गांव की लड़कियों की नियति शादी ही है. वह कभी न कभी होनी ही थी और उन्हें जाना ही था.

दीदी का अब मेरे घर आना लगभग बंद हो गया था. कभी-कभार ही उनके दर्शन हो जाया करते थे. कुछ दिन बाद वे भी बन्द हो गए. वे पूरी तरह चहारीदीवारी के अन्दर रहने लगीं. कहीं न आने-जाने का उनके ताया का सख्त आदेश था. वे उनकी शादी दूर के गांव में तय कर आए थे--- एक किसान परिवार में. लड़का दोजहा था-- दीदी से पन्द्रह साल बड़ा. इधर-उधर दूसरों से सुनी बातों के आधार पर मां ने बताया था कि पहली पत्नी से शायद उसे एक पांच साल का लड़का भी है. मां दीदी के ताया को हल्की-सी गाली देती हुई भर्राए गले से बोली थीं, "करम फूट गए, उस बे मां-बाप की बच्ची के. बूढ़ा-खूसट बच्ची की जायदाद समेटने के लिए उसे दूर-दराज एक दोजहे के गले मढ़ने जा रहा है."

लेकिन मां के या किसी और के सोचने से दीदी की शादी टलनी नहीं थी. महीना-तारीख -दिन सब पहले ही निश्चित कर आये थे उनके ताया. और एक दिन आतिशबाजी और बैंडबाजों की आवाज गांव में गूंज उठी थी, जिसने दीदी की सिसकियों को बेरहमी से दबा दिया था. एक काले, बदसूरत-से आदमी के साथ गुलाब-सी सुन्दर दीदी एक-एक कर अग्नि के फेरे लेने लगी थीं---- आजीवन एक सूत्र में बंध जाने के लिए.

दीदी की शादी करके उनसे पूरी तरह से छुट्टी पा ली थी उनके ताया ने. एक प्रकार से भुला ही दिया था उन्हें. उनकी शादी के कुछ दिन बाद ही मैं पढ़ने के लिए शहर चला गया. दो साल तक उनके बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं चला--वे कैसी हैं, सुख में या दुख में! दो साल बाद एक दिन मां को किसी से पता चला कि वे बहुत कष्ट में हैं. पति उन्हें मारता -पीटता और घर से लेकर खेतों तक का काम करवाता है. मां ने उनकी खबर लेने के लिए किसी तरह उनके ताया से पता लेकर उन्हें तीन पत्र लिखवाए. लेकिन उत्तर नहीं आया. 'आता भी कैसे? दीदी पढ़ी-लिखी होतीं तो अवश्य अपने बारे में दो शब्द लिख भेजतीं. लेकिन----' मां कहती और आंखें गीली कर लेतीं.

गर्मी की छुट्टियों में मां ने जिद की उन्हें देख आने को. मुझे जाना पड़ा. भटकता-पूछता किसी प्रकार रेलवे स्टेशन से सात मील की पैदल यात्रा करके पहुंच गया था उनकी ससुराल रहमतपुरा. उस दिन भी निपट दोपहर थी. घर के सारे लोग इधर-उधर जमीन पर ढेर थे, लेकिन दीदी बेझर (जौ-चना) कूटकर साफ करने में व्यस्त थीं पसीने से तर-बतर.

♦♦ • ♦♦

पति से दीदी ने मेरा परिचय दूर के रिश्ते के भाई के रूप में करवाया था. मैं दो दिन रहा था तब. उन दो दिनों में ही बहुत कुछ समझने को मिला था. दीदी ने दुखी स्वर में कहा था, "ताया ने पता नहीं किस जनम का बदला लिया है मुझे यहां ब्याह कर. ये सब कसाई हैं --- निरे कसाई. जरा-जरा सी बात में रुई की तरह धुनने लगते हैं. लड़के को सिर चढ़ा रखा है. वह और मेरे खिलाफ उनके कान भरता रहता है. कई बार तो मन करता है कि किसी कुएं-तालाब में कूद जाऊं-----." वे और अधिक दुखी हो उठी थीं.

उसके बाद एक-एक कर बारह वर्ष बीत गए. पढ़ाई समाप्त कर मैं नौकरी में आ गया और दिल्ली में पोस्ट हुआ. अपनी शादी में दीदी को लेने गया था. बहुत मिन्नतें करने के बाद उनके पति इस शर्त पर उन्हें भेजने को राजी हुए थे कि मैं शादी के तुरन्त बाद उन्हें वापस पहुंचा जाऊंगा. दीदी गांव में सबसे मिलीं, बहुतों के घर भी गईं, लेकिन अपने ताया के घर झांकने भी नहीं गईं.

दीदी के प्रति मां का लगाव पहले की अपेक्षा कुछ अधिक ही बढ़ गया था. उनके जाने के बाद मां कई दिनों तक उदास रही थीं यह कहते हुए, "फिर पहुंच गई बेचारी कसाइयों के घर---- कितना दुष्ट है उसका पति---- कहता है बच्चे पैदा करने के लिए तेरे साथ शादी नहीं की. की है अपने सुख और बेटे की देख-भाल के लिए---- भाग फूट गए बच्ची के!"

मेरे दिल्ली वापस लौटते समय मां ने कहा था, "कभी-कभी परकासो के पति को खत लिख दिया कर आदरपूर्वक जिससे उसे यह न लगे कि परकासो को पूछने वाला कोई है ही नहीं. जालिम मूढ़ है उसका पति---- बेटा, जरा सोच-समझकर खत लिखा करना."

और मैं साल में कम से -कम दो पत्र अवश्य लिख देता था---- कभी दीदी के नाम तो कभी उनके पति के नाम. कभी-कभी उनके उत्तर भी आ जाते थे. प्रायः दीदी ही उत्तर लिखवा भेजती थीं, "सरब श्री सर्वोपमा जोग लिखी---- यहां सब राजी-खुशी है. तुम्हारी राजी-खुशी सदा भगवान से नेक मनाया करती हूं---- " से शुरू होकर पत्र में खेत-खलिहान, बाग आदि के समाचार होते और अंत में उर्मिला के लिए ढेर सारा प्यार और आशीष होता.

लेकिन उनका यह पत्र संक्षिप्त और पहले के पत्रों से भिन्न था. और यह मेरे किसी पत्र के उत्तर में नहीं था. वे अवश्य किसी कठिनाई में हैं. मेरे कदम कुछ और तेज हो गए. जूतों के अन्दर तलवे जलने लगे थे, और शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था.

♦♦ • ♦♦

दीदी के सिर और हाथ में पट्टियां बंधी थीं. स्पष्ट था कि उनके साथ पशुवत व्यवहार किया गया था. उन्हें देख क्षणांश के लिए मन उत्तेजित हुआ, लेकिन अपनी स्थिति का ज्ञान होते ही शांत हो गया और सोचने लगा, 'हम किस आधार पर यह दावा करते हैं कि स्वतंत्रता के बाद यहां क्रान्तिकारी सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन हुए हैं---- जब कि यहां की सामान्य नारी आज भी दलित है, शोषित है, उपेक्षित और पीडित है.'

शाम को उनके पति से मैंने बात की, "दीदी की तबीयत कुछ खराब लगती है. अगर इज़ाजत दें तो कुछ दिनों के लिए मैं उन्हें दिल्ली ले जाऊं."

मेरी बात सुनते ही वे फट पड़े, "ले जाओ अपनी बदजात बहन को. मैं इसे फूटी आंखों भी नहीं देखना चाहता---- साली जुबान चलाती है."

"तो क्या तुम्हीं को भगवान ने जुबान दी है." खम्भे की ओट से दीदी का स्वर सुनाई पड़ा. मैं स्तम्भित उस ओर देखने लगा. यह आश्चर्यजनक परिवर्तन देख रहा था उनमें. शायद बर्दाश्त की भी कोई सीमा होती है.

"ज्यादा चबर-चबर की तो नटई पर पैर रखकर जुबान खींच लूंगा---- मादर-----कहीं की!" उनके पति क्रोध से कांपने लगे थे.

"जरा हाथ तो चला कर देखो---- अच्छा न होगा."

दीदी विद्रोहियों की भांति तनकर खड़ी हो गई थीं. पति आगे बढ़े, लेकिन मैं बीच में आ गया और उन्हें किसी प्रकार समझाकर बाहर ले गया. वे सिर पर हाथ रखकर बैठ गए और बोले, "भाई, तुम इसे कल सुबह ही ले जाओ. तुमने देख लिया न इसका रंग-ढंग. अगर यह दो -चार दिन यहां और रही तो मैं कुछ अनर्थ कर बैठूंगा."

दीदी तो पहले ही तैयार थीं. बोलीं, "मैं भी अब यहां नहीं रहना चाहती, अनूप. जिन्दगी भर वापस न आने की कसम खाकर जाना चाहती हूं."

अगले दिन चलते समय वे न तो पति से बोलीं और न ही सौतले बेटे से. चुपचाप पिछौरी ओढ़ निकल पड़ी थीं घर से.

दिल्ली आते ही उन्होंने आदत के मुताबिक घर का अधिकांश काम अपने सिर ओढ़ लिया. उर्मिला कुछ अस्वस्थ भी रहती थी---- सातवां महीना चल रहा था उसका. दीदी सुबह नाश्ता बनातीं. पम्मी को उठातीं, स्कूल जाने के लिए तैयार करतीं और उसे बस में चढ़ाने भी जातीं. फिर दोपहर उसे लेने जातीं. उनका आगमन अकस्मात हुआ था, लेकिन इससे उर्मिला को बहुत राहत मिली थी.

और जब उर्मिला ने बेटे को जन्म दिया तो दीदी की खुशी का पारावार न रहा. तीन दिन बाद जब उर्मिला अस्पताल से वापस घर आयी, दीदी ने पड़ोस की औरतों को इकठ्ठा कर लिया. किसी के यहां से ढोलक भी मांग लायी थीं और ढोलक पर उनके सोहर बजने लगे थे---

"हुए मेरी जान लौकुश बन में हुए, जो घर होती सास कौसिल्या--------"

उन्होंनें उर्मिला को चार महीने तक काम छूने नहीं दिया. कहतीं, "तुम्हारा काम सिर्फ मुन्ने को सम्भालना है."

पम्मी उनसे इतना हिल गई कि उनसे ही खाना खाती और उन्हीं के पास सोती.

दीदी को आए लगभग दस महीने बीत गए थे. एक दिन पत्र आया, उनके सौतले बेटे का मेरे नाम. लिखा था, "बापू सख्त बीमार हैं---- हालत अच्छी नहीं है." दीदी उस समय पम्मी के साथ 'अक्कड़-बक्कड़ बम्बे भो---- 'खेल रही थीं. पत्र हाथ में देख पूछ बैठीं, "कहां से आया है?" "आपकी ससुराल से." मैंने कहा और पढ़कर उन्हें सुना दिया. सुनते ही उनके चहरे पर उदासी की पर्त जम गई. बिना कुछ कहे वे किचन में चली गईं. पम्मी उनके पीछे-पीछे जा पहुंची, "बुआ, आप मुझसे नालाज हो गईं?"

"नही बेटे, तुम चलो, मैं अभी आती हूं."

थोड़ी देर बाद वे वापस आयीं तो मुझे लगा जैसे वे किचन में कुछ काम करने के बाहने रोती रही हैं.

रात में उन्होंने तबीयत ठीक न होने का बहाना कर खाना नहीं खाया. आधी रात के बाद अचानक नींद खुलने पर मुझे दीदी के कमरे से सिसकने की आवाज सुनाई दी, लेकिन उसे भ्रम समझकर मैं फिर सो गया.

सुबह नियमपूर्वक उठकर उन्होंने पम्मी को तैयार कर स्कूल भेज दिया. उर्मिला को नाश्ता दिया और मेरा नाश्ता लेकर मेरे पास आ बैठीं. मैं नाश्ता करता रहा और वे मेरे चेहरे की ओर रह-रहकर देखती रहीं. क्षण भर बाद मैंने पूछ ही लिया, "दीदी, आप कुछ----."

"हां, अनूप---- मैं कुछ कहना चाह रही थी----."

"हां-हां, कहो न!"

"तुम आज रात की गाड़ी से मुझे वहा पहुंचा दो."

"क्या कह रही हैं आप? आपने तो वहां कभी----"

मैं आगे कुछ कहता इससे पहले ही वे बोलीं, "अनूप, वे हृदयहीन हैं और हो सकते हैं, लेकिन मैं तो नहीं------ अगर उन्हें कुछ हो गया तो----- नहीं, अनूप, वे सारी बातें गुस्से के साथ ही खत्म हो गईं." उनकी आंखें गीली हो आयी थीं.

मैं विस्मित उनके चेहरे की ओर देखता रह गया.