उन्नीस सौ चौरासी (कहानी) / मुकेश मानस

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1


शीशे के सामने खड़े होकर मैंने खुद को जांचा, बाल कंघी किये और अपना झोला उठा लिया -

“अच्छा मौसी, अब मैं चलूं।”

“अभी थोड़ी देर और रुक, तेरे मौसा आते ही होंगे। उनसे मिलकर जाइओ।” मौसी के चहरे पर नाराजगी के चिन्ह उभर आये।

“नहीं मौसी, बहुत देर हो गयी हैं फिर मौसा जी के आने का समय भी तो पक्का नहीं है। उनसे अगली बार मिल लूंगा।” मैंने पुन: हाथ जोड़ दिये।

“ओह हो, बड़ा साहबों की तरह बतियाने लगा है।”

“नहीं, यह बात नहीं, मैं मां को कहकर नहीं आया हूँ। नहीं पहुँचा तो चिन्ता करेगी।“

मैं चलने लगा तो मौसी ने जबरदस्ती दस रुपये कमीज की जेब में रख दिये। दरवाजे तक छोड़ने आयीं। जाने क्या सोचकर मैं झुका और उनके पैर छू लिये।

“संभलकर जाइओ, अच्छा।” करूणामयी हो उठीं।

मैं उस संकरी-सी गली में तेजी से चलने लगा। अंधेरा सचमुच घिर आया था। लोग थके-मांदे अपने घर लौट रहे थे।

बड़ी सड़क पर आकर मैं भौचक्का-सा रह गया। बस-अड्डा सुनसान था। कुछ लोग उदास चेहरे लटकाये अड्डे पर बैठे थे। वहीं बगल में कुछ लोगों का जमघट लगा था। यह एक लाटरी बेचने वाले की मेज थी, जिस पर कुछ रखा था। उसके चारों तरफ लोग झुके हुए थे। मैं बड़े आश्चर्य से उधर देख रहा था। एक सज्जन उस जमघट में से चेहरे पर खौफ के भयावह क्रास लिये मेरी तरफ आये... कुछ पल तो मैं उस व्यक्ति का चेहरा पढ़ता रहा, फिर उससे पूछ बैठा – “क्या हुआ?”

उसने उत्तर नहीं दिया, मगर उसके चेहरे पर खौफ का रंग कुछ गाढ़ा हो गया। “ क्या हुआ, भाई साहब?” मैंने अपना सवाल फिर दुहराया।

“बहुत बुरा वक्त आ गया है।”

उसने इतना ही कहा और एक आह भरी। मैं उससे और स्पष्टता की आशा कर रहा था। इसी बीच बस आ गयी। मुझे केद्रीय टर्मिनल से दूसरी बस पकड़नी थी। मैं दौड़कर उस बस में चढ़ गया। बस में पहले ही काफी भीड़ थी। मैं जगह बनाता हुआ पिछली सीटों की तरफ खड़ा हो गया। मेरे आसपास में लोग बड़े चुपचाप खड़े थे। मैं हैरान था। उनके चेहरों पर भी वैसे ही क्रास थे जैसे उस आदमी के चेहरे पर थे।


2

लोग-बाग सुबह से शाम तक मशीनों के साथ अपने आपको घिसकर घर की तरफ लौट रहे हैं। दिन-भर की थकन और ऊब तो उनके चेहरे पर होनी ही चाहिए, पर घर लौटने की खुशी भी आंखों में चमकनी चाहिए। यहाँ ऐसा कुछ नहीं था। लोगों के होंठों पर गहरी निराशा और आंखों में खौफ का साफ चित्र था। ‘बहुत बुरा वक्त आ गया है’ - मेरे भीतर गूंज रही थी यह बात। अचानक बस तेज चिंचियाहट के साथ रुक गयी। कुछ लोगों ने बस को चारों तरफ से घेर लिया, सबके हाथ में डंडे थे। रूखे-रूखे चेहरों पर टिकी आंखें उबली-सी दिखाई दे रही थीं।

“इस बस में कोई जूड़ी तो नहीं...? अगर हो तो नीचे उतर आये।”

मैं अनायास ही इधर-उधर झांकने लगा। मेरे आस-पास एक बुजुर्ग, दो दफ्तरी, एक कालेज की लड़की और एक मजदूर-सा आदमी खड़े थे।

“सुना नहीं क्या, अगर इस बस में कोई जूड़ी हो तो नीचे उतर आये।” आवाज़ में तल्खी बढ़ने लगी। कोई कुछ नहीं बोला। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था।

“हम दस तक गिनेंगे, कोई सरदार इस बस में हो तो नीचे उतर आये वरना हम पूरी बस तोड़ डालेंगे।”

बस के चारों तरफ अनगिनत लोग खड़े थे। उनमें से कोई एक गरज रहा था पर उसकी सूरत दिखाई नहीं दे रही थी। इस धमकी के बाद भी कोई कुछ नहीं बोला।

“चल ओए, बस ले जा।” उनमें से किसी एक ने ड्राइवर से कहा। ड्राइवर ने गीयर लगाया और एक्सीलेटर दबा दिया। मैं देख रहा था कि मेरे पास खड़े बुजुर्गवार बुरी तरह कांप रहे थे। बस के चलते ही कुछ आवाजें गूंजीं - “भगवान का लाख-लाख शुक्र है।”

“या खुदा खैर कर।”

बस थोड़ी ही दूर गई थी कि उस पर पत्थरों की बारिश होने लगी। एकाएक शोर मचाता हुआ एक हुजूम बस के आगे खड़ा हो गया। ड्राइवर को हारकर बस रोकनी पड़ी। एक सख्त चेहरे वाले लड़के ने ड्राइवर का कालर पकड़कर उसे नीचे खींच लिया और पीटने लगा।

“सब-के-सब नीचे उतर जाओ।” आवाज गूंजी।

एक-एक कर सारे यात्री नीचे उतर गये। वह सख्त चेहरे वाला बस में चढ़ा और एक सीट के नीचे से उसने किसी को खींचा। फिर वह उस पर लात-घूंसे जमाता रहा। वह एक सरदार नौजवान था। उसके हाथ में टिफन था। उसका चेहरा लहूलुहान हो चुका था। नाक में से खून बह रहा था। उस सख्त चेहरे वाले ने उसे नीचे उतारकर हुजूम के हवाले कर दिया।

“चलो, सब-के-सब बैठ जाओ।” आवाज गूंजी। सब-के-सब जितनी तेजी से हो सकता था, बस में चढ़े। उस सख्त चेहरे वाले ने उस सरदार नौजवान को सड़क के बीचोंबीच खड़ा कर दिया... बस भागने लगी। मैं पिछली सीट पर लगे शीशे से देख रहा था। तभी सड़क की दायीं पटरी पर हुजूम में से एक क्रास भरे चेहरे वाले आदमी के दो हाथ उभरे। उन हाथों में एक बन्दूक थी... मैंने देखा, सरदार नौजवान ने दोनों हाथ उठा दिए... उसके होंठ ‘नहीं’ कहने को फड़के... उसकी आंखों में बड़ा गहरा खौफ था... गोली चली, सरदार नौजवान सड़क पर ढेर हो गया। बस भागती रही, मैं देखता रहा... देखता रहा।

3

केद्रीयय टर्मिनल पर पहुँचकर बस खाली हुई। खौफज़दा लोग नीचे उतरे। उनमें एक मैं भी था। अब भय की एक पुफरपुफरी मेरे भीतर भी उठ रही थी। पास में ही रकाबगंज गुरुद्वारा था। पहले जब कभी मैं उधर से गुजरता तो लाउडस्पीकर पर गूंजती ‘गुरुवाणी’ सुनकर अनायास ही मेरे कदम थम जाते।

आज भी मैं सोच रहा था कि भय की जो फुरफुरी मेरे भीतर दहशत का संकेत दे रही है, उसे यहीं ‘गुरुवाणी’ सुनकर मिटा दूंगा। मगर आज रकाबगंज पर ‘शबद’ नहीं गूंज रहे थे। गुरुद्वारा एकदम सुनसान पड़ा था। उसके दोनों दरवाजों पर पुलिस के जवान बैठे थे। धर्म की रक्षा ये अधर्मी क्या खाक करेंगे। मेरे भीतर यह पंक्ति क्यों गूंजी, मैं नहीं जानता। पर यह मेरी आदत बन गई है कि धार्मिक स्थलों पर पुलिस को देखकर मैं अकारण ही नाक-भौं सिकोड़ने लगता हूँ।

‘टर्मिनल’ के बाहर भी जगह-जगह लोगों का जमघट था। लोग एक-दूसरे पर झुके हुए कुछ सुन रहे थे। मैं बस की प्रतीक्षा में खड़ा हो गया। पता नहीं कहाँ से अखबार बेचने वाला एक लड़का अखबारों का मोटा-सा गट्ठर थामे उधर आ खड़ा हुआ। लोग उसकी तरफ दौड़ पड़े। देखते-ही-देखते उसके सारे अखबार बिक गये। मैं जानना चाहता था कि उस आदमी ने ‘बहुत बुरा वक्त आ गया है’ क्यों कहा? उस सख्त चेहरे वाले लड़के ने उस श्रमजीवी सरदार को बस से उतारकर गोली क्यों मरवायी? पूरे दिन की थकन और ऊब के बाद घर लौटते लोग पूरे रास्ते एकदम चुप और खामोश क्यों रहे? मैंने भी एक सांध्य-समाचार खरीद लिया। पूरे पन्ने पर सिर्फ़ एक हेडिंग - ‘देश की प्रधनमंत्री को उनके ही अंगरक्षकों ने मार डाला।’

मेरे भीतर कोई अचानक तेजी से कांपने लगा। घबराहट मेरे भीतर छाती गयी। बुद्धिजीवी-से दिखने वाले एक सज्जन मेरे पास आकर खड़े हो गये। वह बुदबुदा रहे थे -

“और कितना भरोसा करेगा आदमी... आखिर हर चीज़ की एक हद होती है... अखबार में पढ़ा है। उसको उसके ज्योतिषी ने बता दिया था। मगर फिरर भी कितना गहरा विश्वास था उसके मन में अपने लोगों के प्रति... और ढेर हो गई बिचारी... उसके अपने रक्षकों ने उसके विश्वास की हत्या कर डाली।... उसका विश्वास खंडित हो गया।”

मैंने उनकी तरफ देखा। उन्होंने थोड़ी देर मुझे घूरा। फिर बोले-“अभी तो कुछ नहीं हुआ... अब होगा बहुत कुछ।” उस आदमी को पागल मानने की कोई वजह मेरे पास नहीं थी। मैं झटपट एक बस में चढ़ गया। लगभग भागते हुए मैं घर पहुँचा। आठ या नौ बज चुके थे। मगर हमारी गली के दोनों छोरों पर अंधेरा ऐसा गहराया हुआ था मानो आधी रात हो गयी हो। मैं गली में अपने भीतर एक भय लेकर घुसा। डरते-डरते अपने घर का दरवाजा खटखटाया... पिताजी ने खोला, कंबल ओढ़े हुए पिताजी के चेहरे के भाव मेरी समझ में बड़ी आसानी से आ गये। मैं चुपचाप भीतर घुसा।

“आ पुत्तर, आज तो तूने बड़ी देर कर दी। कहाँ चला गया था? मैं तो बड़ी परेशान हो रही थी।” माँ ने मुझे खींचकर अपनी गोदी में डाल लिया। पिताजी सामने वाले पलंग पर बैठ गये। फिर मां चाय बनाने चली गयी।

“कुछ गड़बड़ तो नहीं है?”

पिताजी के इस आसान से प्रश्न को मैं समझा नहीं।

“बाहर सब ठीक-ठाक तो है?” पिताजी ने फिर पूछा।

मैं जाने क्यों भीतर तक सहम गया। मुझे लगा, मैं अब तक जिस बात से अनजान बनने का प्रयास कर रहा था, वह मुझे समझ में आ गयी थी शायद।

मां-पिताजी दोनों बातचीत करते रहे थे... मैं कभी मन से, कभी अनमने उनकी बातें सुनता रहा। मां बार-बार ‘जपुजी साहब’ से कुछ उद्धरण देती हुई पिताजी से बतिया रही थी और बात-बात में ‘रब्ब खैर करूँ’ कहकर चुप हो जाती। उस रात मैं खामोश ही रहा।

4

सुबह उठा तो एक वीरानी-सी पूरे घर में बुरी तरह छायी थी। पिताजी नहा-धोकर सोफे पर बैठे हुए कुछ पढ़ रहे थे। मां मुझे चाय का प्याला पकड़ाकर वहीं चादर बिछाकर ‘सुखमनी साहब’ का पाठ करने बैठ गयी। भगवान ही जाने कि इन धर्मग्रंथों का सुबह-शाम पाठन कर मां को क्या सुख मिलता है। तभी आंगन में कुछ फैंके जाने की आवाज हुई। पिताजी आंगन में गये और तह बने अखबार को खोलते हुए भीतर आये। मां ने अखबार हाथ में थमा देख चेहरा ‘सुखमनी साहब’ के पन्नों में गड़ा लिया। पिताजी सोफे पर बैठ गये और मुखपृष्ठ को बड़े गौर से देखने लगे। मैं उनके चेहरे पर से खबर चुराने की कोशिश कर रहा था। एकाएक मेरे भीतर कुछ कौंधा, मैं उठकर पिताजी के पास पहुँचा।

मुखपृष्ठ देखा तो मेरी आंखें विस्मय से भर उठीं। मेरा मन रोने को कराह उठा... मुखपृष्ठ पर उसी सरदार की फोटो छपी थी जो मेरे सामने जिन्दा था और देखते-ही-देखते एक लाश में बदल गया था। मेरी आंखें डबडबा आयीं। काली सड़क पर लाल खून भी काला दिख रहा था।

तभी छत पर ‘धम्म-धम्म’ की आवाजें गूंजीं। मैं उठा, सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचा तो छोटे को पतंग उड़ाते हुए पाया। पहले तो मैं उसे देखता रहा, फिर न जाने क्यों उस पर बहुत गुस्सा आया। मैंने खींचकर उसे एक थप्पड़ मारा। डोर को चरखड़ी से तोड़कर पतंग को आकाश में छोड़ दिया और चरखड़ी को छत के फर्श पर पटक-पटककर तोड़ दिया। छोटा रोता हुआ नीचे की ओर भागा... अब मैं समझ चुका था कि समय वाकई बुरा हो रहा था।

नीचे आया तो पिताजी दफ्तर जाने को तैयार थे -

“क्या आप आज भी दफ्तर जायेंगे?” मैंने हैरानी से पूछा।

“क्यों? आज क्या है?” पिताजी ने आश्चर्य प्रकट किया।

“आज...आज...समय अच्छा नहीं है।”

मैं कहना कुछ और चाहता था पर कह कुछ और गया। माँ रसोई में थी।

“खाना तैयार है।” मां की ही आवाज थी।

पिताजी रसोई की ओर बढ़ गये। तभी बाहर से धीमा-धीमा शोर आया... ऐसा लगा मानो हवाई जहाज उफपर से गुजर रहा हो। आवाज धीरे-धीरे तेज होती गयी। मुझे यह अहसास हो गया कि आवाज हवाई जहाज के गुजरने की नहीं है।

“आ, खा ले पुत्।” मां ने पुकारा।

मैं तीव्र गति से सीढ़ियाँ चढ़ गया। ऊपर पहुँचकर चारों तरफ निगाह दौड़ाई... बाहर सड़क पर लोगों का हुजूम बढ़ रहा था। डंडे, हाकियां, ईंटें और न जाने क्या-क्या थामे हुए तरह-तरह के बहुत से सख्त चेहरे सड़क पर बढ़ रहे थे।... सब-के-सब चीख रहे थे। जाने क्या बोल रहे थे। उनकी भाषा मुझे समझ में नहीं आ रही थी। मगर उनके स्वर में समायी एक अदृश्य-सी क्रूरता मुझे महसूस हो रही थी।

हमारी कालोनी में घुसने का जो रास्ता बना है उसके मुहाने पर ‘शहीद भगत सिंह’ की आदमकद मूर्ति लगी हुई है। मैं देख रहा था... अनगिनत सख्त चेहरे एकजुट होकर उस मूर्ति पर अपने डंडों से वार करने लगे... शहीद भगतसिंह की मूर्ति टुकड़े-टुकड़े हो गयी। मैं किसी अनजाने भय से घबराकर धड़धड़ाता हुआ नीचे उतर आया। दौड़कर दरवाजा बन्द किया और रसोई के दरवाजे पर खड़ा हो गया। मुझे हांफते देख पिताजी ने पूछा-

“क्या हुआ? क्यों हांफ रहा है?”

मैं कुछ न कह सका। पिताजी की सूनी आंखों में मेरी तस्वीर मुझे साफ दिखाई दे रही थी। मगर ताज्जुब था पिताजी आंखों में जरा भी खौफ नहीं था। मैंने जो देखा, कह सुनाया। सुनकर पिता गंभीर हो गए मगर खौफ़ के क्रास तब भी उनके चेहरे पर नहीं झलके।

शोर बहुत ऊंचा हो गया था। गली में कहीं कुछ तोड़ने-फोड़ने की आवाजें आ रही थीं। कुछ तोड़ा जा रहा था - शायद खिड़की का शीशा, या दरवाजा। शोर में कुछ आवाज़े कभी-कभी बड़ी साफ हो जाती थीं।

“आज नहीं छोड़ेंगे।”

“भून डालो।”

“चौबीस घंटे का समय मिला है।”

“एक भी सरदार नहीं बचना चाहिए।”

पिताजी रसोई से बाहर निकलकर छत पर चले गये... मां ने खाना पकाना बन्द कर दिया... छोटा गुमसुम-सा खड़ा हम सबको देख रहा था।

“तू भीतर बैठ।” उसे कहकर मैं सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। कुछ घरों से उठता हुआ धुंआं मुझे नजर आ रहा था। लोगों की चीख-पुकार और सख्त चेहरे वालों के गोली-से लगते स्वर।

“मारो सालों को।”

“जिन्दा जला डालो।”

पिताजी नीचे उतर आये।

“तुम सब अन्दर चलो।” उन्होंने धीमे-से कहा।

हम सब अपने सोने वाले कमरे में घुस गये। पिताजी कुछ देर बाहर निरुत्तर-से खड़े रहे। फिरर वह भी वहीं आ गये।

तभी हमारा दरवाजा किसी ने खटखटाया – “मेहरा साहब! मेहरा साहब!”

पिताजी बेखौफ उठे... वह किसी भी पुकार पर उठकर जाने की हिम्मत करने वाले आदमी हैं... मां ने उन्हें खामोशी से देखा। पिताजी ने मेरी तरफ देखा। पिताजी ने दरवाजा खोल दिया। पड़ोस के छाबड़ा अंकल का बड़ा लड़का चौखट पर खड़ा था, एकदम भयभीत।

“अंकल, मुझे कहीं छिपा लो।”

वह भीतर घुस आया ठीक उसी कमरे में, जहाँ हम थे। पिताजी ने बाहर दोनों तरफ देखा, फिर दरवाजा बन्द कर लिया।

“की होया, पुत! तू डरदा कानूं है?”

“दंगाई मुझे भी नहीं छोड़ेंगे।” उसका सारा शरीर कांप रहा था।

पिताजी ने उसे ‘स्टोर रूम’ में बन्द कर बाहर से ताला लगा दिया। बाहर शोर बढ़ रहा था। लोगों के चीखने-पुकारने की आवाजें भी तेज और दर्दीली हो रही थीं। कभी-कभी कोई आवाज जानी-पहचानी जान पड़ती तो मैं एकाएक निराश हो उठता।

मौका तलाश कर पिताजी ‘स्टोर-रूम’ से कोई चीज़ ले आए थे। फिर उन्होंने दरवाजे के पीछे कुछ छिपा दिया था। फिर पिताजी बाहर आंगन में टहलने लगे। माँ हमारे साथ थी। कुछ देर बाद सिर पर दुपट्टा रखकर वह ‘पाठ’ करने लगीं। मां आंखें बन्द कर हमारे चिर-परिचित शबद दुहरा रही थी। मौका तलाश कर मैं उठा, दरवाजे के पीछे झांका... नंगी तलवार रखी थी। यह वही तलवार थी जिसे लेकर मेरे पिता अपनी शादी के वक्त घोड़ी पर चढ़े थे। मैंने एक बार दुबारा तलवार को देखा और बाहर आंगन में टहलते पिता को भी। कई हाथों ने दरवाजा भड़भड़ाया। माँ का पाठ रुक गया। हम सहम गये। पिता का चेहरा अब सख्त हो उठा...

“मेहरा जी... मेहरा जी? जरा दरवाजा खोलिए।”

पिता ने एक बार सांसें रोकीं, फिर दरवाजा खोल दिया।

“ठीक-ठाक हैं?” कई आवाजों में एक आवाज मुखर थी।

“हां ऽऽऽऽहां... हां, भाई!” पिता ने लड़खड़ाती जबान को संभाल लिया।

मैंने थोड़ा उचककर देखा... यह वही आदमी था जिसका हमारी कालोनी में मिट्टी के तेल का डिपो है। मुझे इस आदमी से बड़ी चिढ़ थी। दो-तीन बार यह तेल की कालाबाजारी करता हुआ भी पकड़ा गया था।

दो-तीन सख्त चेहरे वाले लड़के खुले दरवाजे में से भीतर झांकने लगे।

“अरे, आ जाओ, इधर मत झांको, यह तो अपना ही घर है।”

जत्था आगे बढ़ गया। पिताजी दरवाजे पर खड़े रहे। मैं भी बेखौफ पिता के पास आकर खड़ा हो गया।

5

भीड़ ने छाबड़ा अंकल के घर का दरवाजा तोड़ डाला। कुछ लोग भीतर घुस गए... तोड़-फोड़ की आवाजें आयीं। भीतर जो लोग घुसे थे, वह छाबड़ा अंकल को खींचकर बाहर लाये और उन्हें गली में लिटाकर पीटने लगे। छाबड़ा अंकल की सिसकारियाँ छूटने लगीं। मेरा दिल दहल उठा... तभी कोई भीतर से तेल की कैन लाया, सारा तेल अंकल पर छिड़क दिया। एक आदमी ने तीली जलाई। तभी अचानक पिता को न जाने क्या हो गया। वह बदहवास-से भागे।

“नहीं...नहीं...रब के लिए ऐसा मत करो।” पिता चीख रहे थे। ‘भक्क’ - तीली छूते ही छाबड़ा अंकल का शरीर जल उठा। उनकी दिल दहला देने वाली चीख बहुत दूर तक गूंजी। इसी बीच मां ने ‘भ्राजी’ को स्टोर रूम से बाहर निकाल दिया। वह पिता की तलवार लेकर भीड़ में कूद पड़े और अन्धाधुंध वार करने लगे... भीड़ में भगदड़ मच गयी। भागते लोगों के शरीर से खून गली में गिर रहा था। तभी पुलिस का सायरन बज उठा... पुलिस की जीप गली में आ गयी। ‘भ्राजी’ को जीप में बिठाकर ले जाया गया। उसके बाद शोर नहीं उठा। शाम तक फौज ने कालोनियों पर कब्जा कर लिया था। पूरे शहर में सख्त कर्फ़्यु लगा दिया गया।

आज इस घटना को हुए कई बरस बीत चुके हैं। छाबड़ा आंटी को ‘हर्ज़ाना’ मिल गया है। मुआवज़ा मिलने के बाद ‘भ्राजी’ की शादी हुई। अभी उनके घर एक बच्चे ने जन्म लिया है। आज भी हमारी गली में दिनभर चहल-पहल रहती है मगर शाम ढलते ही चेहरे मायूसी की तस्वीर टांगे इधर-से-उधर घूमते हैं। मुझे अभी भी वह बुरा वक्त रह-रह याद आता है।

रचना काल : 1989