उपकथा एक अमोघ मोबाइल की / बुद्धिनाथ मिश्र

Gadya Kosh से
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अनुभवी रेलयात्रियों की सलाह है कि जाड़े के मौसम में जब रेलगाड़ियाँ कोहरे के कारण दस-पंद्रह घंटे लेट चलती हों, आरक्षण नहीं कराना चाहिए। आप घर से तैयार होकर स्टेशन आइये और सामने जो ट्रेन खड़ी हो, उसमें आराम से बैठ जाइये। टीटी आकर खुद आपको जगह देगा, क्योंकि ट्रेन लेट होने से काम के लोग अक्सर दूसरे विकल्प से गंतव्य की ओर रवाना हो जाते हैं। आरक्षित रेलयात्री का हाल भारतीय दम्पति की तरह होता है, जो तमाम परेशानियों के बावजूद एक दूसरे का हाथ नहीं छोड़ सकते। 27 दिसम्बर की रात में, कभी घी की मंडी के रूप में प्रसिद्ध चन्दौसी के पास बबराला कस्बे में कविसम्मेलन था। उसके बाद 29 दिसम्बर के राबर्ट्सगंज का कार्यक्रम अचानक बन गया था। मैने पूरे मन से मना भी किया, मगर वहाँ की साहित्यिक संस्था ‘मधुरिमा’ के अनवरत वार्षिक कविसम्मेलनों का यह स्वर्णजयंती महोत्सव था और उसके सूत्रात्मा, अग्रज कवि अजय शेखर की हार्दिक इच्छा थी कि मैं उसमें न केवल काव्यपाठ करूँ, बल्कि उसका संचालन भी करूँ। सो मन को किसी तरह तैयार करना पड़ा।

मैने बबराला से लौटकर 28 की सुबह में मुरादाबाद से कोई ट्रेन बनारस के लिए पकड़ लेने का विचार किया। बबराला में नीरज जी भी थे। उनका स्वास्थ्य कहीं आने-जाने लायक बिलकुल नहीं है, मगर जो व्यक्ति जीवन और यौवन की अधिकांश रातें कविसम्मेलन के मंचों पर गुजार चुका हो, उसे बुढ़ापे में घर के बिस्तरे पर नींद कहाँ आयेगी! सो आयोजकों के बुलाने पर चले ही जाते हैं। भले ही, श्रोताओं को कितनी ही निराशा क्यों न हो। उनका एक दोहा है कि असली वजन साँस में होता है, क्योंकि जिन्दा लोग पानी में डूब जाते हैं, जबकि लाशें तैरती रहती हैं। मुझे लगता है कि नीरज जी के लिए असली वजन साँस में नहीं, कविसम्मेलनों के लिफ़ाफ़े में है। वही उन्हे जिला रहा है। बबराला में नीरज जी मंच पर आये और अन्य कविसम्मेलनों की तरह ही, दो-तीन कवियों के काव्यपाठ के बाद इस तरह कहरने लगे कि बाध्य होकर संचालक को उन्हें कविता पढ़वानी पड़ी। उसके बाद वे एक मिनट भी नहीं रुके। आयोजकों से लिफ़ाफ़ा लिया और विदा हो गये। उसके बाद वरिष्ठ कवि मैं ही बचा था, सो तीन बजे तक अपनी बारी का इन्तज़ार करना पड़ा। उस समय तक कोहरा इतना घना हो गया था कि जिलाधिकारी ने मुरादाबाद लौटने से मना कर दिया। हारकर वहीं अतिथिगृह की शरण लेनी पड़ी।

28 की सुबह आठ बजे किसी तरह ड्राइवर को चलने के लिए तैयार किया और 80 किमी की दूरी तीन घंटे में तय की। मुरादाबाद स्टेशन पहुँचा तो पता चला कि सुबह की सारी ट्रेनें चली गयी हैं, बस जम्मू-सियालदह एक्सप्रेस आनेवाली है। ट्रेन आने से पहले ही मैने वहाँ से ट्रेन में चढ़नेवाले स्टाफ़ से बात कर अपना परिचय दे दिया था। उसने बिना कोई दक्षिणा लिये मुझे एस-9 कोच का बर्थ नं. 7 दे दिया। ट्रेन में इतनी शायिकाएँ खाली थीं कि मेरे सामने स्वयंवर की नौबत आ गयी । टीटी ने शायिकाओं की सूची मेरे सामने यह कहकर रख दी कि इनमें से जो भी पसन्द हो, रख लीजिये। चूँकि मुझे मध्य रात्रि में बनारस उतरना था, इसलिए मैने गेट के पास बर्थ-7 पर ही अपना बेडरोल बिछाना उचित समझा। मेरा अनुमान था कि यह ट्रेन 11बजे चली है, तो रात में ११ बजे तक बनारस पहुँच जायेगी; और उसी हिसाब से मैने बनारस में अपने भतीजे बालमुकुन्द को फोन कर दिया था कि रात में कार भेज दे। दिन में कोहरा तो ज्यादा नहीं था, मगर ट्रेन की चाल-चलन ठीक नहीं थी।

जहाँ रुकी, बस रुकी रह गयी। लखनऊ में मेरे सहयात्री सूर्यकुमार पांडेय उतर गये। तब रात के दस बज रहे थे, यानी पाँच घंटे की दूरी को उस ट्रेन ने 11 घंटे में पूरी की! मुझे कोई जल्दबाजी नहीं थी। बल्कि मैं चाहता था कि वह खूब लेट हो जाए, जिससे सुबह में बनारस पहुँचूँ। भूख बहुत लग गयी थी, मगर बाहर का खाना मैं खाता नहीं, इसलिए साथ में रखे चना-चबेने से अब तक मैने दोनो का काम चलाया था। लखनऊ में सूर्यकुमार प्लेटफ़ार्म पर खोमचा लगाकर बेच रहे विक्रेता से एक प्लेट चावल-राजमा खरीदकर जबर्दस्ती थमा गये। भूख लगी ही थी, मैने जैसे ही एक कौर लिया कि मन खराब हो गया। वह भात कई दिन पहले का बना हुआ था, जिससे दुर्गन्ध आ रही थी। मन मसोसकर प्लेट खिड़की से बाहर फेंक देना पड़ा। उस ठंढ में रात में फल खाना भी स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं होता, इसलिए पानी पीकर सन्तोष करना पड़ा। सोचा तो यह था कि मध्यरात्रि से पूर्व बनारस पहुँच जाऊँगा। तब घर पर ही खाना खाऊँगा, मगर ट्रेन अपनी चाल से चल रही थी। उसे अंतहीन कष्ट झेल रहे अपने यात्रियों से कोई भावनात्मक लगाव नहीं था। वह ‘मैं बैरागन हूँगी’ गाती हुई अयोध्या की ओर धीरे-धीरे ससर रही थी।

लगभग चार घंटे के बाद वह एक्सप्रेस टेन फ़ैज़ाबाद पहुँची। मैने जैकेट की जेब से मोबाइल निकाला। उसमें बैटरी खतम हो गयी थी। मेरे सामने ही गेट के बगल में मोबाइल चार्ज करने की व्यवस्था थी। मैने चार्जर निकाला और मोबाइल चार्ज होने के लिए लगा दिया। शुरू में मैने मोबाइल को अपने पैताने ही दबा रखा था, मगर उससे गेट से आने-जानेवालों को असुविधा होती थी और खींचकर निकाल ले जाने का खतरा भी था। इसलिए मैने उसे अपर बर्थ पर फँसाकर रख दिया , ताकि आने-जानेवालों की पहुँच से वह बाहर रहे। उसकी सुरक्षा के लिए मैने रूमाल से अच्छी तरह बाँध भी दिया था। रात में वैसे भी लोगों का आना-जाना कम ही होता है और उस ट्रेन को बनारस से पहले कहीं रुकना भी शायद नहीं था। इसलिए लगभग निश्चिन्त होकर बेडरोल में घुस गया। खिड़की के बगल में ठंढ भी ज्यादा लग रही थी, क्योंकि बार-बार कोशिशें करने के बावजूद खिड़की का निचला हिस्सा खुल ही जाता था। तीन बजे उठा तो देखा, मोबाइल रूमाल में बँधा लटक रहा था। बेफ़िक्र होकर प्रातःक्रियाओं से निवृत्त हुआ। मोबाइल पूरा चार्ज नहीं हुआ था और बनारस में या राबर्ट्सगंज में बिजली साइत पूछकर आती है, इसलिए उसे पूरा चार्ज होने के लिए छोड़ दिया। फिर बेडरोल में घुस गया।

एक घंटे के बाद नींद टूटी, तो देखकर अवाक रह गया। चार्जर का तार लटक रहा था और मोबाइल रूमाल सहित गायब !! मुझे तो उस भयंकर ठंढ में भी पसीना आने लगा, क्योंकि उसके बाद के संयोजकों के फोन नम्बर भी उसी में थे। मैं तड़पकर उठा। अपर बर्थ पर सोये यात्री को जगाया। उसने झाड़-पोछकर देखा। मोबाइल कोई सुई तो था नहीं। उसके नीचे मिडिल बर्थ पर छाना, तो मेरा रूमाल उसपर पड़ा मिला। अब तो तय हो गया था कि मोबाइल चोरी हो गया। अपनी मूर्खता पर ग्लानि भी हुई--मुझे काम भर चार्ज कर मोबाइल रख लेना चाहिए था। मैं लोभ में क्यों पड़ गया था कि पूरा चार्ज कर लूँ। आसपास के यात्री जगे और मेरी नासमझी पर मुझे दुतकारने लगे। अब तो मुझे कई तरह के कष्ट एक साथ होने लगे। दूसरे को परेशान देखकर उसे सहायता करने के बजाय उसे उपदेश देनेवाले हमारे समाज ज्यादा पाये जाते हैं। सो, भिन्न-भिन्न भाषाभाषी सहयात्रियों के मुखारविन्द से उपदेशों की बौछार हो रही थी और उन्हें बिना प्रतिवाद किये मैं झेल रहा था। कुछ देर में सभी यात्री खर्राटे लेने लगे। अकेला मैं जाग रहा था-हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, शिला की शीतल की शीतल छाँह में बैठे मनु की तरह, लुटा-लुटा।

इस बीच मैने अपने दूसरे मोबाइल से, जिसका उपयोग मैं केवल ट्रेन टिकट रखने के लिए करता हूँ, उस मोबाइल पर काल किया। उधर स्विच ऑफ़ था। मतलब साफ़ हो गया कि चोर ने अपना काम कर दिया है। अब वह सिम को निकालकर फेक देगा या थोड़ी देर बाद उस सिम से जहाँ-तहाँ फोन करेगा। बात वह करेगा, बिल मेरा उठेगा। इस चिन्ता ने मुझे और झकझोर दिया। आजकल नये मोबाइल में एक नम्बर होता है, जिससे मोबाइल को बेकार कर दिया जा सकता है। मेरा मोबाइल भी नोकिया का नवीनतम एक्स-थ्री था, लेकिन नम्बर कहीं पास में नोट नहीं था। मैने बालमुकुन्द को मोबाइल चोरी की दुखद सूचना दूसरे फोन से दी और उस मोबाइल को ब्लॉक करवा देने के लिए कहा। उसने तत्काल बीएसएनएल को फोन भी कर दिया। कस्टमर केयर वालों ने मोबाइल के लोकेशन आदि की पुष्टि कर ली।

पाँच बजे के करीब जीआरपीएफ़ के तीन सशस्त्र जवान आये। मैने रोककर कहा--मेरी मोबाइल चोरी हो गया है। वे रुके। मैने बताया कि कहाँ मोबाइल रूमाल में बाँधकर टाँगा था। इसपर उनमें से एक जवान ने कहा कि आप तो मोबाइल पाँव के नीचे दबाकर रक्खे थे। मैने पिछली बार चेक करते समय देखा था। मैने कारण बताया। एक ने कहा- ‘आपको गेट पर मोबाइल चार्ज नहीं करना चाहिए था। यहाँ सभी तरह के लोग आते-जाते हैं। ’ मैने प्रतिवाद किया- यह सुझाव तो आपको रेल मन्त्रालय को देना चाहिए कि स्लीपर क्लास में भी हर बर्थ पर चार्ज करने की सुविधा उपलब्ध कराए। एक जवान ने कहा- आपको मोबाईल लगाकर सो नहीं जाना चाहिए था। ’ इसपर सलाह पर मुझे गुस्सा भी आया-- क्या नींद पूछकर आती-जाती है। इस थका देनेवाली रेलयात्रा में झपकी आ जाना कोई असम्भव नहीं है। फिर रात का समय है। ’ इसके बाद एक जवान ने जेब से कागज निकाला और मेरा और मोबाइल का पूरा विवरण लिखा। एक ने टिप्पणी की--यह मोबाइल तीन हजार से कम का नहीं होगा। मैने अन्यमनस्क होकर जवाब दिया--दाम तो उसका नौ हजार था, मगर इस समय मुझे उसमें जो नम्बर सब पड़े हुए हैं, उनकी जरूरत है। तीनो जवानों ने टटोला मुझे--इसका एफ़आइआर कराएँगे? मैने दृढ़ स्वर में जवाब दिया--वह तो स्टेशन पर उतरते कराऊँगा। तभी मुझे दूसरा सिम मिलेगा। ’

इसपर एक ने सुझाव दिया--एफ़आइआर कराने के लिए आप चोरी का नाम मत लीजियेगा। कहियेगा कि कहीं खो गया है। ’

अब तो मेरा धैर्य टूट चुका था। मैने कड़ककर कहा-मैं जो हुआ है, वह लिखबाऊँगा। नहीं कैसे लिखेगा। लिखेगा उसका बाप। मैं भी बनारस का ही हूँ। ’ वे तीनो आश्चर्यजनक ढंग से विनम्रतापूर्वक बात कर रहे थे। पूछा--किसी व्यक्ति पर आपको सन्देह है? मैनए कहा-‘नहीं। जब किसीको देखा ही नहीं, तब क्या बताऊँ?’ वे तीनो देर तक आपस में बतियाने के बाद पीछे की ओर के डब्बों में चले गये। एक घंटे के बाद मैने फिर उस मोबाइल पर काल किया। अब वह खुला हुआ था। मेरा नाम देखकर उधर से आवाज आयी-आप बुद्धिनाथ बोल रहे हैं?

‘जी हाँ। आप मेरा मोबाइल तुरंत दे जाइए। ’ मैने एक साँस में ही कह दिया

उधर से आवाज आयी--आप परेशान न हों। आपका मोबाइल कहीं गिरा हुआ था। चायवाले ने मुझे दिया है। मै चाय पीने उतरा था। तबतक गाड़ी चल पड़ी तो मैं पीछे के जनरल डब्बे में आ गया हूँ। स्टेशन आने पर मैं आपको दे दूँगा। ’

‘ठीक है। ’ कहने के अलावा मेरे पास था भी क्या? चन्द मिनट के बाद मैने फिर फोन किया। फिर वही आश्वस्ति सऊचक संवाद। सुबह के सात बज चुके थे, मगर कोहरे के कारण अभी अन्धेरा ही था। बनारस स्टेशन आनेवाला था। मुझे डर था कि कहीं वह भाग न जाए। मैने फोन किया। रिंग हो रहा था। कोई जवाब नहीं। सहयात्रियों का कहना था कि जब किसीने फोन पर आपको जवाब दे दिया है, तब आपको मोबाइल जरूर मिल जाएगा। मुझे भरोसा नहीं था। आजतक का इतिहास तो यही है कि ट्रेन से चोरी गया मोबाइल कभी लौटा नहीं। मैने फिर एक बार फोन किया। कोई जवाब नहीं। अब तो तय हो गया कि पिंजरे से चिड़िया उड़ चुकी है। अब वह हाथ नहीं लगने की। मगर मुझे विस्मित करते हुए उधर से काल आया-‘मैं एस-वन तक आ गया हूँ। ’

मैने यथाशक्ति अपनी वाणी में शहद घोलते हुए उसे बताया कि ज्यादा भागदौड़ करने की जरूरत नहीं है। बनारस में काफ़ी देर ट्रेन रुकती है। मैं एस-9 के गेट पर मिल जाऊँगा। बनारस में प्लेटफ़ार्म पर ट्रेन रुकी। मैं तुरन्त उतरकर गेटपर आया। उस फोन पर काल किया। एक सफारी सूट पहने युवक आया और बड़ी विनम्रता के साथ मेरा मोबाइल आगे कर बोला-यह लीजिये आपका मोबाइल। मै नौगढ़ जाऊँगा। आपका मोबाइल मुझे चायवाले ने यह कहकर दिया था किसीका गिर गया है। ’

मेरे लिए वह देवदूत के समान था। बार-बार धन्यवाद दिया, हृदय से लगाकर आभार व्यक्त किया। वह युवक तुरंत आगे के डब्बे की ओर चला गया। मेरी कार स्टेशन के बाहर खड़ी थी। ड्राइवर का बार-बार फोन आ रहा था। इसलिए मैं भी चल पड़ा। केवल बालमुकुन्द को मोबाइल मिलने की सूचना दे दी जिससे वह बीएसएनएल वालों को फोन कर दे। जबतक कोई अभिज्ञ पाठक पूरी घटना का विश्लेषण करते हुए, चोरी गये मेरे मोबाइल की वापसी का रहस्य नहीं खोलते हैं, तबतक मैं यही मनता रहूँगा कि मेरा मोबाइल भी भगवान राम के बाण की अमोघ है यानी जाकर लौट आनेवाला है।