उपनिवेश में स्त्री / प्रभा खेतान / पृष्ठ 1

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मुक्ति कामना की दस वार्ताएं
कथासार / समीक्षा

हिन्दी में नारीवाद को शंका की दृष्टि से देखा जा रहा है। पितृसत्ता के रखवालों को लगता है कि यदि स्त्री अपने बारे में सोचने लगी तो हमारा नेतृत्व छूट जाएगा। वे यह कहकर नारीवाद को अस्वीकृत कर देते हैं कि भारत में नारी को हमेशा सम्मानजनक स्थान प्राप्त था, ये नारीवाद तो पश्चिम से आयातित है अत: यहां इसका कोई औचित्य नहीं।

नारीवाद के प्रति बने इन सभी भ्रमों, पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों को प्रभा खेतान अपनी 'उपनिवेश में स्त्री : मुक्ति कामना की दस वार्ताएं` पुस्तक के माध्यम से विस्तृत और स्पष्ट तरीके से दूर करने का प्रयास करती हैं। यह पुस्तक सन् २००३ में राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई। स्त्री और उपनिवेश को एक साथ उठाती हुई प्रभा अपने विषय को दस अध्यायों में बांटकर भारतीय नारीवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट करती हैं।

पुस्तक की भूमिका में ही प्रभा स्पष्ट करती हैं कि नारीवाद को निश्चित सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। उनके शब्दों में-

स्त्री के अधिकारों की चर्चा करने पर पूछा जाता है कि वह किस राष्ट्र की नागरिक है? उसका धर्म, उसकी जाति, उसका सम्प्रदाय क्या है? इन सवालों का जवाब यह है कि नारीवाद को राष्ट्रीय सीमा में बंद नहीं किया जा सकता।``


पुरुष ज्ञान का स्रोत विचार को मानता है, भावना को नहीं। वह तर्क और पद्धति को मान्यता देता हुआ हार-जीत की भावना रखता है परंतु नारीवादी चितंक ज्ञान का स्रोत भावना आधारित स्वीकारती हुई सत्य को शिव के साथ एकाकार की पक्षधर हैं।

'आधी दुनियां का श्रम और भूमंडलीकरण` नामक प्रथम अध्याय में प्रभा एक व्यवसायी स्त्री होने के नाते अपने अनुभवों को संजोते हुए भूमंडलीकरण के दौर में आधी आबादी (स्त्री) का सच सामने लाती है। भूमंडलीकरण स्त्री के लिए जितना लाभ की स्थिति में रहा उससे अधिक हानिकारक साबित हुआ है। स्थानीय पूंजी का सीधा संबंध अंतरराष्ट्रीय पूंजी से है। अंतरराष्ट्रीय स्तर की मांग स्थानीय श्रम की गतिविधि को निर्धारित करती है। श्रम की सैद्धांतिक स्पष्टता जब तक श्रमजीवी स्त्री समझ नहीं लेती तब तक वह शोषण का विरोध नहीं कर पायेगी। लेखिका का मानना है कि भूमंडलीय स्तर पर विश्व की स्त्री को अपनी स्थानीय समस्याओं को समझना होगा। स्त्री ने घर से बाहर सार्वजनिक स्थानों पर पुरुष के बराबर अपनी उपस्थिति तो कायम की है लेकिन वह वहां भी दोयम दर्जे पर ही है। स्त्री को पारिश्रमिक पुरुष से कम ही मिलता है। प्रभा यूनियन को भी पुरुष प्रधान संस्था मानती हैं। प्रभा मानती हैं कि भारतीय स्त्री को आर्थिक स्वतंत्रता के साथ-साथ राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में भी सक्रिय होना पड़ेगा।

भारतीय परम्परा ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि सभी जगहों पर पुरुष वर्चस्व को स्थापित किया है। अपनी सत्ता स्थापित करने में पुरुष ने स्त्री को माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया। साहित्य जगत में भी पितृसत्तात्मक इस परम्परा ने अपना परचम लहराया। पुरुष द्वारा दिखाए रास्ते पर चलती हुई स्त्री जब साहित्य में परम्परागत आदर्शों को मानती रहती है तो आलोचक उसे स्वीकारते हैं। स्त्री जब बेबाकी से अपने अनुभवों को लिखती है तो उसके लेखन को उच्छंृखल कहकर हाशिए पर धकेल दिया जाता है।

कुछ आलोचक तो स्त्री द्वारा लिखे साहित्य को पढ़ते ही नहीं। कुछ पढ़कर सहानुभूति दर्शाकर रह जाते हैं। कुल मिलाकर स्त्री साहित्य को नकारा जाता है। पुरुष ने स्त्री को अपने साहित्य में स्थान दिया मगर वह एक उपभोग की वस्तु मात्र बना दी गई। सुनिता हो या पारो पुरुष के लिए बनाई गई थीं, उनका स्वयं का अस्तित्व नहीं था। इसको स्पष्ट करती हुई प्रभा लिखती हैं-

कोई पारो थी, कोई सुनीता, जो अपनी बात कहना चाहती थी, मगर ठीक से कभी कह नहीं पाई।``

लेखिका मानती हैं कि चाहे कितने उदार लेखक हों, प्रेमचंद या जैनेन्द्र जैसे भी मगर वे भी मानवतावादी बाद में और पुरुष पहले थे तभी तो शरत की पारो की पीड़ा किसी को नहीं दिखाई दी। प्रभा के अनुसार स्त्री अपनी मानवीय गरिमा और अधिकार को समझकर संरचनात्मक, सांस्कृतिक तथा मानवीय दृष्टिकोण के तत्त्वों का विश्लेषण करे।

नारीवाद के बौद्धिक सरोकार और सनातन धर्मवादी राष्ट्र में नारीवाद की भूमिका पर 'बौद्धिक सरोकार, राष्ट्रवाद और नारीवाद की जमीन` अध्याय में प्रभा ने विस्तृत चर्चा की है। प्रभा ने पश्चिमी नारीवाद का मूल्यांकन भारतीय परिप्रेक्ष्य में किया है। प्रभा के अनुसार नारीवाद को राष्ट्रों की सीमाओं में नहीं बांटा जा सकता क्योंकि फिर राष्ट्र के भीतर भी जाति, वर्ग, सम्प्रदाय आदि में इसे और बांटा जायेगा।

बुद्धिजीवियों की दो श्रेणी हमारे यहां है। प्रथम पारम्परिक बुद्धिजीवी है, जिनकी भूमिका हमेशा अपरिवर्तित रही है- शिक्षक, पुरोहित, प्रशासक आदि। दूसरा विशिष्ट व्यावसायिक संस्थानों से जुड़ा है और वह बौद्धिक क्षमता द्वारा वर्गीय सत्ता पर नियंत्रण रखता है। नारीवाद को अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना होगा और स्त्री संघर्ष के इतिहास को सुव्यवस्थित भी करना होगा। प्रभा कहीं भी पुरुष से विद्वेष रखने की राह नहीं दिखाती। वे तो समतामूलक समाज की स्थापना पर जोर देती हैं। प्रभा तो यह मानती हैं कि मानव समाज के लिए स्त्री के मन में भी उतना ही आदर है जितना कि एक पुरुष के मन में है।

परम्परा से ही समाज ने स्त्री को अधीनस्थ स्थिति में रखने के लिए संस्कृति का जाल बुना है। प्रभा ने पितृसत्ता के विभिन्न सांस्कृतिक हथियारों की चर्चा की है। पुरुष ने विश्व की श्रेणीबद्ध कल्पना में सबसे ऊपर ब्रह्म, ईश्वर, अल्लाह को रखा है और फिर क्रमश: सवर्ण, शूद्र। सबसे नीचे जाकर स्त्रियां तथा जानवर माने हैं। इतना होते हुए भी मानवीय मूल्यों को बचाए रखने के लिए स्त्री को ही कहा जाता है।

समीक्षक श्रीधरम के शब्दों में-

प्रभा खेतान के अनुसार २१वीं सदी में नारीवाद को समझने के लिए एक नया दृष्टिकोण विकसित करना होगा। क्योंकि नारीवाद में उमड़े अंतर्विरोधों और विरोधाभासों को समझकर ही यह समझा जा सकता है कि नारीवाद में कितना बिखराव है साथ ही यह सत्ता और व्यवस्था के स्वर में कितना अलग है।``

प्रभा चाहती हैं कि नारीवाद का उद्देश्य स्त्री उद्धार और मानव मुक्ति हो। कहीं नारीवादी चिंतन भी पुरुषों की तरह ही न चलने लगे। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की यौन प्रवृत्ति को पुरुष ने अपनी कामना तक सीमित रखा है, स्त्री के सुख के बारे में उसने कभी नहीं सोचा। पुरुष केन्द्रित ये यौन मानसिकता स्त्री को गुलाम मानसिकता प्रदान करती है। प्रभा 'यौनिकता की राजनीति` अध्याय में इसी मुद्दे पर अनेक प्रश्न उठाती हैं। प्रभा के अनुसार जब स्त्री के सुख का सवाल ही नहीं रखा जाता फिर इतरलिंगी संबंध ही क्यों स्वीकारे जाते हैं। पाश्चात्य नारीवादियों के विचारों की समीक्षा करते हुए प्रभा ने यौन जीवन में सत्ता के स्थान पर आनंद की प्रधानता पर बल दिया है। समलिंगी यौनिकता का यह सबसे मजबूत पक्ष है क्योंकि आनंद कोई बाह्य वस्तु नहीं, आनंद तो एकदम आंतरिक अनुभूति है। प्रभा समलिंगी यौन व्यवस्था को नारीवाद का प्रयास नहीं मानती। लेकिन वो मानती हैं- शिश्न-प्रवेशरहित 'काम` का प्रचार किया जाए तो यह अधिकार स्त्रियों के पक्ष में जाएगा। इससे समलैगिंकता की समस्या को समझने में सहायता मिलती है।``

'सामाजिक सरोकार उर्फ आक्रमकता की खोज` नामक अध्याय प्रभा राजेन्द्र यादव के लेख 'होना, सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ` से शुरू करती हैं। प्रभा के अनुसार इस लेख में राजेन्द्र यादव की पितृसत्तात्मक मानसिकता उनको स्त्री के दैहिक अस्तित्व से आगे नहीं जाने देती। यदि उनकी जगह कोई स्त्री होती तो पितृसत्ता की बेहतर आलोचना कर पाती। प्रभा के अनुसार स्त्री की स्थिति हमेशा तरल है ठोस नहीं। स्त्रियां पितृसत्ता के दमन और उत्पीड़न का शिकार हैं। इतना होते हुए भी स्त्री के मानवीय मूल्य पुरुष के मूल्यों पर भारी पड़ते हैं। प्रभा अपना स्वयं का उदाहरण देते हुए लिखती हैं-

निस्संदेह किसी स्वर्णिम अतीत की कल्पना मेरे जेहन में नहीं है। स्त्री-जाति का कोई इतिहास नहीं हुआ और न ही हमारे नाम पर राजकाज हुए। आज जो है वही सुखद स्थिति है। इससे अधिक स्वतंत्र मैं कभी नहीं थी।``

प्रभा के अनुुसार स्त्री स्वयं अपनी देह के प्रति नया दृष्टिकोण निर्धारित करे, अपनी देह के संसाधन का महत्त्व पहचाने। इसी दैहिकता के आधार पर वह प्रकृति के इतने करीब है।``

'क्रांति-चेतना के नारी-रूप` शीर्षक निबंध में प्रभा ने मार्क्सवादी क्रांति चेतना में नारीवाद के स्वरूप पर विचार किया है। प्रभा नारीवाद के संदर्भ में मार्क्स की सीमाओं को चिहि्उात करती हैं। आंदोलन के भीतर यौन विभाजन को मान्यता देना, मार्क्स के समतामूलक समाज में भी पितृसत्तात्मक संस्था स्त्री को सर्वहारा बनाए रखने के पक्ष में जाती है। मार्क्सवाद पूंजीवाद को नियंत्रित नहीं कर पाए क्यांेकि वे दुनियां की आधी आबादी को साथ लेकर नहीं चले। अत: लेखिका के अनुसार

हमें एक नई 'दास कैपिटल` भी लिखनी चाहिए और एक नया 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र` भी लिखना चाहिए जो न केवल पूंजीवाद के बदले हुए चेहरे का एक बार फिर जायजा लेगा बल्कि वर्ग-समाज में यौन-विभाजन की उस उलझन को भी सुलझाएगा जिस मार्क्स ने नजर अंदाज कर दिया था।``

'भाषा और विमर्श का संजाल` अध्याय में प्रभा वात्स्लाव हावेल तथा नेल्सन मंडेला को सत्तर के दशक में निष्प्राण कौम में राजनीतिक संस्कृति को पुनर्परिभाषित करने का श्रेय देती हैं। इस अध्याय में प्रभा ने उत्तर आधुनिकतावाद, संरचनावाद एवं उत्तर-संरचनावाद के संदर्भ में विस्तृत चर्चा की है। प्रभा के अनुसार इस उत्तर-संरचनावाद के युग में अस्तित्ववाद को समझना होगा। स्त्री ने अभी-अभी बोलना ही सीखा है अत: उत्तर-आधुनिकवादियों को स्त्री के इतिहास को स्वीकारना होगा। स्त्री को मुक्ति की दिशा जहां से मिले उसे वो स्वीकारनी चाहिए।

निष्कर्ष रूप में प्रभा के इस संग्रह से नारीवाद की भ्रांतियां दूर होगीं और नारीवाद को समझना भी इससे कुछ हद तक आसान होगा। स्त्री विमर्श के लिए यह पुस्तक एक बड़ी उपलब्धि है।