उपसंहार / भगवतीचरण वर्मा

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उपसंहार

एक वर्ष बाद !

महाप्रभु रत्नांबर ने कहा- ‘वत्स श्वेतांक! तुम्हारा विवाह हो गया और तुम गृहस्थ हो चुके हो। अब मुझे बतला सकते हो कि बीज गुप्त और कुमारगिरि-इन दोनो में कौन व्यक्ति पापी है? ’

श्वेतांक ने रत्नांबर के सामने मस्तक नमा दिया -‘महाप्रभु! बीजगुप्त देवता है। संसार में वे त्याग की प्रतिमूर्ति है। उनका हृदय विशाल है। और कुमारगिरि पशु हैं। वह अपने लिये जीवित है, संसार में उसका जीवन व्यर्थ है। वह जीवन के नियमों के प्रतिकूल चल रहा है। अपने सुख के लिए उसने संसार की बाधाओं से मुख मोड लिया। कुमारगिरि पापी है।’

-‘और वत्स विशालदेव! त्ुमने योग की दीक्षा ले ली , और तुम योगी हो गए। अब तुम मुझे बतलाओ कि कुमारगिरि और बीजगुप्त -इन दोनो में से कौन व्यक्ति पापी है? ’

विशालदेव ने रतनांबर के सामने मस्तक नमा दिया-‘महाप्रभु! योगी कुमारगिरि अजित है। उन्होंने ममत्व को वशीभूत कर लिया है। वे संसार से बहुत उपर उठ चुके हैं उनकी साधना ,उनका ज्ञान, और उनकी शक्ति पूर्ण है। और बीजगुप्त वासना का दास है। उसका जीवन संसार के घृणित भोग विलास में है। वह पापी है-पापमय संसार का वह एक मुख्य भाग है।’

रतनांबर कह उठे-‘तुम दोनो विभिन्न परिस्थितियों में रहे और तुम दोनो की पाप की धारणाऐं भिन्न भिन्न हो गयी हैं। तुम लोग जा रहे हो - तुमहारी विद्या पूर्ण हो चुकी है, अब अपना अंतिम पाठ मुझसे सुने जाओ-’


‘संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मनःप्रवृति लेकर पैदा होता है । प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के रंगमंच पर एक अभिनय करने आता है। अपनी मनःप्रवृति से प्रेरित होकर अपने पाठ को वह दोहराता है यही मनुष्य का जीवन है जो कुछ मनुष्य करता है वह उसके स्वभाव के अनुकूल होता है और स्वभाव प्राकृतिक होता है। मनुष्य अपना स्वामी नहीं है वह परिस्थितियों का दास है-विवश है। कर्ता नहीं है, वह केवल साधन मात्र हैं ।फिर पाप और पुण्य कैसा?

मनुष्य में ममत्व प्रधान होता है। प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है। केवल व्यक्तियों के सुख के केन्द्र भिन्न होते हैं । कुछ सुख को धन में देखते हैं , कुछ त्याग में देखते हैं -पर सुख प्रत्येक व्यक्ति चाहता है, कोई भी व्यक्ति संसार में अपनी इच्छानुसार वह काम न करेगा जिसमें दुःख मिले -यही मनुष्य की मनःप्रवृति है औ उसके दृष्टिकोण की विषमता हैं । संसार में इसीलिये पाप की परिभाषा नहीं हो सकी और न हो सकती है। हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है।’

रत्नांबर उठ खडे हुऐ- ‘यह मेरा मत है तुम लोग इससे सहमत हो या न हो , मैं तुम्हें बाध्य नहीं करता और न कर सकता हूँ। जाओ और सुखी रहो। यह मेरा तुम्हें आशिर्वाद है।’

(नोटः-उपन्यास का कापीराइट प्रकाशक के अधीन सुरक्षित होने के कारण समीक्षा स्वरूप इसका संक्षिप्त कथा-सार ही अंकित किया जा रहा है। संकलनकर्ताः