उपेक्षित समुदायों का आत्म इतिहास / विष्णु महापात्र / समीक्षा

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संग्रह: दलित साहित्य आंदोलन
उपेक्षित समुदाय का आत्मावलोकन
समीक्षा:अशोक कुमार शुक्ला

यूं तो उत्तर भारत के कुछ प्रदेशों में उपेक्षित समुदायों में पर्याप्त जागृति के साक्ष्य के रूप में अनेक छोटे बडे कस्बों में 100 से अधिक प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित की जाने वाली दलितों के मध्य ऐसी लोकप्रिय पुस्तिकाओं का उदाहरण मिलता है परन्तु शोधकर्ताओं व विद्वानजनों द्वारा इस समुदाय के प्रमाणिक इतिहास की कमी अनुभव की जाती रही है। इन समुदायों के इतिहास की जानकारी के लिये जिन संदर्भ पुस्तको का उदाहरण दिया जाता है उनमें दलित समुदाय द्वारा इतिहास लेखन को लेकर अक्सर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाये जाने का आरोप लगाया जाता है इसलिये स्वयं दलित समुदाय के लेखकों के द्वारा अपने इतिहास के संदर्भ में लिखे गये वक्तव्यों को संकलित करना वास्तव में ऐसा ही है जैसे इस समुदाय का आत्मावलोकन करना।

यह पुस्तक दलित समुदाय के विभिन्न उपसमुदायों का इतिहास उसी समुदाय के विद्वजनों द्वारा लिखे गये आलेखों का संकलन है जिसमें नागवंशी भंगी जाति के उद्गम से लेकर 1857 की क्रान्ति के जनक के रूप में मातादीन हेला भंगी को याद किया गया है। यह नागवंशी नायक उस कारखाने में कार्य करता था जिसमें सेना के उपयोगार्थ कारतूस बनाये जाते थे। उसने उन कारतूसों को बनते देखा था जिनमें पानी की नमी और जंग से बचाने के लिये गाय और सुअर की चर्बी लगी झिल्ली पर्त चढाकर सुरक्षित किया जाता था और उपयोग के समय सिपाहियों द्वारा इसी कारतूस की चर्बी लगी पर्त को अपने अपने दांतों से उखाडकर बंदूक में भर कर दागना होता था।

मातादीन हेला ने अंग्रेजी सेना के मुलाजिम मंगल पाण्डे से उसका लोटा अपने उपयोगार्थ मांगा गया तो उन्होंने अपने ब्राह्मणत्व अभिमान के कारण मातादीन हेला को अपमानित किया गया तो इस नागवंशी नायक द्वारा क्रोधित नाग की भांति उलट कर मंगल पाण्डे को यह कहकर फटकारा गयाः-

‘‘.......तुम सबका ब्राह्मणत्व और ऊंचेपन का जातीय अहंकार उस समय कहां चला जाता है जब तुम अपनी बन्दूकें चलाने के लिये गया और सुअर की चर्बी से युक्त तर कारतूस को मुंह में डालकर उसे अपने ही दांतो से काट काट कर बन्दूकों में भरते और चलाते हो?.....’’

मातादीन हेला द्वारा आक्रोश में कही गयी इस बात का बडा असर हुआ और उसकी यह बात फौजी बैरकों में जंगल में आग की तरह फैल गई। गाय और सुअर की चर्बी की बात सुनकर हिन्दू और मुसलमान दोनो समुदायों के सिपाही ऐसा भडक उठे कि अंग्रेज सरकार के विरूद्व बडा विद्रोह पनप उठा। इतिहासकारों पर इस महान दलित क्रांतिकारी योद्वा की उपेक्षा का आरोप लगाया जाता है इतिहासकार राजेन्द्र कुमार जैन ने सन 1857 का विप्लव और शाह जफर के पृष्ठ 73 पर लिखा है:-

‘‘......नं0 70 बंगाली पलटन के कैप्टेन राइट नेएक चिट्ठी मेजर बोन्टीन दमदम के नाम 22 जनवरी 1857 ई0 को लिखी थी जिसमें लिखा था कि नं0 2 की पलटन के एक बा्रहमण सिपाही से एक भंगी मातादीन हेला ने पानी पीने के लिये उसका लोटा मांगा। ब्राहमण ने भंगी मातादीन को फटकार दिया। भंगी मातादीन ने ब्राहमण को चिढाते हुये कहा कि बहुत जल्दी तुम सबकी पंडिताई ऊंच ब्राह्मणीपन निकल जायेगी। जब तुम सब दांत से सुअर और गाय की चर्बी से बने कारतूस को काटकर बन्दूकों में भरकर चलाओगे। यह भंगी दमदम के उस कारखाने में नौकर था जहां ये नए कारतूस बनाए जा रहे थे। इसलिये उसकी बात प्रमाणिक मानी गयी। इसी एक घटना से सेना में विद्रोह फैला और यह विप्लव सन् 1857 का गदर बना।....’’

इसी प्रकार मैला उठाने वाले अस्पृश्य मेहतर जाति के उद्गम और विकास को अंकित करते हुये यह साबित करने की कोशिश की है कि निचली जाति के किसी व्यक्ति को देखकर दूर से ही मुंह बिचकाने वाले ब्राह्मण समाज में यदि उन्हें अंग्रेजों के आह्वाहन पर ईसाई धर्म अपनाने के उपरांत अंग्रेजों की किचन में प्रवेश मिल सकता था। हांलांकि यह पढकर कोई भी आश्चर्य कर सकता है कि निचली जाति के किसी व्यक्ति को देखकर दूर से ही मुंह बिचकाने वाले समाज में यदि उन्हें अंग्रेजों के आह्वाहन पर ईसाई धर्म अपनाने के उपरांत अंग्रेजों की किचन में प्रवेश मिल सकता था तो ऐसा होने की स्थिति में अंगरेजी शासन में हमारे देश की समूची दलित आबादी ने ईसाइयत क्यों नहीं स्वीकार कर ली और इसकेे उलट यह भी सोचने पर विवश होना होगा कि इन परिस्थितियों में उच्च जातियों द्वारा क्रिश्चनियटी किस कारण स्वीकार की गयी?

इसी प्रकार निषाद वंश कुरील समुदाय तथा पासी समुदाय एवं दुसाध समुदाय का इतिहास अंकित किया गया है। इस पुस्तक में संकलित लेखों में जहां एक ओर समाज के उच्च वर्ण के प्रति पक्षपात पूर्ण इतिहास लेखन का आरोप लगाते हुये उच्च समुदाय की आलोचना की है वहीं दूसरी ओर इसी पुस्तक में नायी वर्ण निर्णय में महाभारत तथा मनुस्मृति के उद्वरणों के माध्यम से यह भी सिद्व किया गया है कि नायी जाति मूल रूप से ब्राह्मण जाति से है तथा वे ब्राह्मण पुत्र है

ब्रार्हण्य्रा ब्राह्मणाजजातों ब्राह्मणः स्यान्न संशयः।
क्षतियायां तथेवस्याद्वैश्यायामपि चैवहि।।
           (महाभारत अनु0 पर्व अ 47 श्लो 28)

इसी प्रकार नाई के सिल्ली तथा उस्तरे की पूजा और क्षौर कर्म के वैदिक कर्म होने के कारण उसेे मूलतः ब्राहमण सिद्व करने का प्रयास किया गया है। इसी आधार पर रामायण के पात्र सुग्रीव और हनुमान को नाई जाति का सिद्व किया गया है। एक अन्य विचार जन्म से वर्ण व्यवस्था मानने वालों के लिये दिया गया है जिसमें सजातीय वर्ण से उत्पन्न सन्तान को उसी वर्ण का तथा भिन्न वर्णो में हुये सम्बन्धों से उत्पन्न वर्ण संकर सन्तान को नायी कुंभकार आदि सिद्व किया है। साथ ही इस पुस्तक में निम्न जातियों के प्रमुख गैरराजनैतिक संगठन बामसेफ के हवाले से वह पुराना आंकडा प्रस्तुत किया गया है जब समूचे देश में मात्र 12 लाख दलित लोग ही नौकरीशुदा थे और उसमें से 3000 डाॅक्टर 15000 वैज्ञानिक 7000 ग्रेजुएट तथा 500 डाॅक्टरेट डिग्रीधारी होते थे।

सामान्यतः दलित समुदाय के विद्वानों का यह दृढ मत है आजादी के बाद रचे गये जातीय इतिहास के लेखन में निम्न जातियों के गौरव की अनदेखी की गयी है इसलिये उत्तर भारत में आयी दलित चेतना के बाद 1984 के बाद रचे गए निम्न जातियों के जातीय इतिहास के मूल प्रवृति दलित गौरव को स्थापित करना तथा राष्ट्र एवं समाज निर्माण में उनकी अनेकशः कुर्बानी के बाद भी उच्च जातीय षड्यंत्रों का शिकार हो पीछे रह जाने की पीडा एवं अपने अतीत की उच्च स्थिति से षड्यंत्र कर विकास के दौर में अपदस्थ कद लिये जाने का बार बार हवाला दे अपनी जाति के लिये किए जाने वाले आरक्षण की सुविधा के पक्ष तैयार करने से पूर्व इन जातियों के द्वारा पूर्व के इतिहास में के हिन्दू धर्म से दूसरे ईसाई तथा मुस्लिम धर्म की ओर किये गये पलायन को भी तार्किक रूप से प्रमाणिक के साथ अंकित करने का दावा किया गया है।

वस्तुतः इस संकलन का उद्देश्य सामाजिक विमर्श, अस्मिताओं के टकराव, आत्मसम्मान, की राजनीति की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया को आम भारतीय के सामने लाना है। इसका एक और लक्ष्य सामाजिक विषमताओं के विषयों पर शोध के लिये इच्छुक शोधार्थियों के लिये इन्हें संस्त्रोत के रूप में उपस्थित करना भी है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित उपेक्षित समुदायों के विद्वान लेखकों द्वारा लिखित स्वयं के इतिहास को पढकर यह अनुभव होता है कि समाज के निचले तबके के साथ यदि सवर्ण जाति के पूर्वजों ने उपेक्षित बर्ताव न किया जाता तो शायद हम हिन्दू धर्म से इनके मोहभंग केा रोका जा सकता था। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ और निचली जातियों को झुकाव और पलायन दूसरे धर्मों की ओर होता गया।

पुस्तक में कुछ और रोचक तथ्य भी हैं जिन्हें जानने के लिये इस पुस्तक को आपकी बुकशेल्फ में होना जरूरी होगा।

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