उमराव जान अदा / मिर्ज़ा हादी रुस्वा / पृष्ठ 2

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उमराव जान के इस मतला ने आपके दिल में यह खयाल पैदा किया, जिसका इशारा ऊपर किया गया है।

अलकिस्सा, मुंशी साहब के शौक और उकसाने और उभारने में उमराव जान को मजबूर किया, और वह अपनी आपबीती कहने पर मजबूर हो गईं।

इसमें कोई शक नहीं कि उमराव जान की तकरीर बहत शुस्ता थी और क्यों न हो ? अव्वल तो पढ़ी-लिखी, दूसरे आला दर्जे की रंडियों में परवरिश पाई, शहजादों और नवाबजादों की सोहबत उठाई और महलात शाही तक रसाई ! जो कुछ उन्होंने आंखों से देखा, और लोगों ने कानों से न सुनो होगा।


अपनी आपबीती, वह जिस कदर कहती जाती थीं, मैं उनसे छुपा के लिखता जाता था। पूरी होने के बाद मैंने मसीदा लिखाया। इस पर उमराव जान बहुत बिगड़ीं। आखिर खुद पढ़ा और जा-बजा जो कुछ रह गया था, उसे दुरुस्त कर दिया। मैं उमराव जान को उस जमाने से जानता हूं, जब उनकी नवाब साहब से मुलाकात थी। उन्हीं दिनों मेरा उठना-बैठना भी, अक्सर उनके यहां रहता था। बरसों बाद फिर एक बार उमराव जान की मुलाकात नवाब साहब से उनके मकान पर हुई, जब वह उनकी बेगम साहिबा की मेहमान थीं। इस मुलाकात का जिक्र आगे है। इसके कुछ अर्से बाद उमराव जान हज करने चली गईं।

उस वक्त तक की उनकी जिंदगी की तमाम घटनाओं को मैं निजी तौर से जानता था। इसलिए मैंने यह किस्सा वहीं तक लिखा, जहां तक मैं अपनी जानकारी से उनके बयान के एक एक लफ्ज को सही समझता था। हज वापसी के बाद उमराव जान खामोशी की जिंदगी बसर करने लगीं। जो कुछ पास जमा था उसी पर गुजर औकात थी।

वैसे उनको किसी चीज की कमी नहीं थी। मकान, नौकर चाकर, आराम का सामान, खाना पहनना, जो कुछ पास जमा था, उससे अच्छी तरह चलता रहा। वह मुशायरों में जाती थीं, मुहर्रम की मजलिसों में सोज पढ़ती थीं और कभी कभी वैसे भी गाने बजाने के जलसों में शरीक होती थीं।

इस आप बीती में जो कुछ बयान हुआ है, मुझे उसके सही होने में कोई भी शक नहीं है। मगर यह मेरी जाती राय है। नाजरीन को अख्तियार है, जो चाहें समझें।