उम्र के हिरण की छलांग / जयप्रकाश चौकसे

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उम्र के हिरण की छलांग

प्रकाशन तिथि : 17 जुलाई 2012

आमिर खान के कार्यक्रम ‘सत्यमेव जयते’ की ताजा कड़ी में उम्रदराज लोगों की समस्याओं पर प्रकाश डाला गया और उनके प्रति समाज के बदलते दृष्टिकोण ने हमें स्तब्ध कर दिया। भारत के अनेक शहरों और कस्बों में अधिकांश मकानों के नाम ‘मातृछाया’, ‘पितृकृपा’ जैसे नामों से भरे पड़े हैं, परंतु यथार्थ जीवन में इन्हें नजरअंदाज किया जाता है। आख्यानों में बुजुर्ग के आशीर्वाद की महिमा का बखान है, परंतु वृद्धाश्रमों में इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। हमारे व्यवहार के दोहरे मानदंड केवल महिलाओं के प्रति अन्याय तक सीमित नहीं हैं, मूलत: अन्याय आधारित समाज में वृद्धावस्था कैसे बची रह सकती है।

दरअसल समाज में संवेदनाएं घट रही हैं और क्रूरता के दायरे फैलते जा रहे हैं। जीवन की भागमभाग निर्ममता को धार दे रही है, क्योंकि गिरे हुए या निर्बल पर पैर रखकर भागते रहने के मूल्य स्थापित हो चुके हैं। सारे मानवीय रिश्तों में आर्थिक पहलू निर्णायक हो चुका है। कार्यक्रम में एक विशेषज्ञ ने कहा कि ६क् वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त व्यक्ति८क् साल तक जीता है तो 20 वर्ष के लिए उसके ऊपर खर्च का प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है।

विज्ञान ने व्यक्तिकी औसत आयु बढ़ा दी है, परंतु आय में वृद्धि नहीं हुई और अधिकांश उम्रदराज लोग आश्रित हैं। सारे सामाजिक समीकरणों का केंद्र ‘अर्थ’ है। अनेक शहरों में वृद्धाश्रमों की स्थापना हुई है, परंतु यह यथेष्ट नहीं है। अधिकांश उम्रदराज नेताओं की मौजूदगी के बावजूद सरकारें बूढ़ों के प्रति उदासीन हैं। कुछ राज्यों में उन्हें मामूली-सी आर्थिक सहायता प्राप्त होती है, परंतु इसे पाने की प्रक्रिया जटिल और लंबी है। कतार में खड़े-खड़े ही उम्र का हिरण छलांग लगा जाता है।

तमिलनाडु के एक छोटे-से क्षेत्र में सदियों से वृद्ध व्यक्तिको उसके ही बच्चे मार देते हैं और विगत कुछ वर्षो से नीम-हकीमों को रिश्वत देकर जहर के इंजेक्शन देने की प्रथा बढ़ गई है। इस घिनौने सत्य को उजागर किया ‘डेक्कन क्रॉनिकल’ की पत्रकार प्रमिला कृष्णन ने। इस तरह के कृत्य को ‘तलक्ष्कुतल’ नाम दिया जाता है। जैसे खाप पंचायतों के विरुद्ध सरकारें निष्क्रिय हैं, वैसे ही ऐसी घृणित परंपरा के खिलाफ कुछ नहीं हो सकता। उस क्षेत्र के लोगों का कहना है कि शारीरिक रूप से लाचार वृद्ध को उसकी यातना से मुक्तिके लिए उसे मार दिया जाता है, गोयाकि यह मर्सी किलिंग या यूथेनेसिया का ही एक स्वरूप है। यह सही नहीं है, क्योंकि यूथेनेसिया में व्यक्तिकी अपनी इच्छा पर यह किया जाता है।

कार्यक्रम में एक व्यक्तिका सुझाव था कि अपनी जायदाद जीवनर्पयत अपने ही नाम पर रखनी चाहिए। प्रेम के कारण अनेक लोग अपनी संपत्ति को अपने प्रियजनों के नाम कर देते हैं। यह कोई समाधान नहीं है कि संपत्ति के लालच में युवा लोग अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा करें। सेवा का भाव नि:स्वार्थ रूप से हृदय में मौजूद हो, तभी कोई बात है। संपत्ति के नाम पर आप किराए की परिचारिका भी रख सकते हैं। इसलिए यह मुद्दा संवेदना और उसके अभाव में मात्र क्रूरता से ही जुड़ा है।

यह एक लोकप्रिय मान्यता रही है कि निर्मम भौतिकतावादी पश्चिम में युवा वर्ग अपने बुजुर्गो की फिक्र नहीं करते, परंतु इस सत्य को अनदेखा किया जाता है कि पश्चिम की सरकार वृद्ध को यथेष्ट सुरक्षा देती है। हमारे अपने आध्यात्मिक देश में उम्रदराज लोग उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं। पश्चिम जैसे उच्च स्तर के वृद्धाश्रम हमारे यहां नहीं हैं। आमिर के कार्यक्रम में एक सुविधा-संपन्न आश्रम दिखाया गया है, जहां एक महिला नीलम शर्मा ने बताया कि उनका परिवार उनकी फिक्र करता है, परंतु वह स्वयं अपनी इच्छा से अपने पति के साथ आश्रम में रहती हैं। यहां की सक्रियता उन्हें पसंद है। यह एक विरल उदाहरण है।

इस कार्यक्रम में दूसरा पक्ष भी प्रस्तुत किया गया, जहां उम्रदराज व्यक्तिनिरीह नहीं है, वह सक्रिय है और पूरे जोश से जिंदगी जी रहा है। पुणो के नारायण महाजन ने लोनावला में पहाड़ की चढ़ाई की और रस्से पर घाटी भी पार की। ९१ वर्षीय महाजन चुस्त-दुरुस्त हैं और उन्होंने मन से जवान बने रहने को रेखांकित किया। मुंबई के बोरिवली में दादा-दादी पार्क में सक्रिय वृद्ध का हुजूम प्रतिदिन इकट्ठा होता है। महाराष्ट्र सरकार इस तरह की संस्था के विकास पर दो लाख रुपए देती है और सालाना रख-रखाव के वास्ते भी कुछ रुपए दिए जाते है।

कोई ३५ वर्ष पूर्व नारी सिप्पी की ‘जिंदगी’ नामक फिल्म में संजीव कुमार और माला सिन्हा ने उपेक्षित उम्रदराज लोगों की भूमिकाएं निभाई थीं। इसी तरह की फिल्म ‘बागबान’ भी थी, जिसमें अमिताभ बच्चन तथा हेमा मालिनी थे। राजेश खन्ना और शबाना आजमी अभिनीत मोहन कुमार की ‘अवतार’ भी कमाल की फिल्म थी।

एक विदेशी फिल्म में बच्चों के एक स्कूल में आधी रात आग लग जाती है। बच्चे बचा लिए जाते हैं, परंतु इमारत ध्वस्त हो जाती है। थोड़ी दूर पर एक वृद्धाश्रम में अस्थायी तौर पर बच्चों को रखा जाता है। सभी वृद्ध खुर्राट हैं और अपनों द्वारा नकारे जाने की पीड़ा से दु:खी हैं। जिन्हें अपने हाथ निवाले खिलाए, उन्होंने उन्हें अपने जीवन से खारिज कर दिया, अत: उन्हें बच्चे नापसंद हैं। धीरे-धीरे बच्चे अपने बचपन की मासूमियत से उन्हें सकारात्मक बना देते हैं और बूढ़ों की कहानियां बच्चों के लिए शिक्षाप्रद सिद्ध होती हैं।

इनके बीच ऐसी मोहब्बत पैदा होती है कि नया भवन बनने के बाद बच्चे बड़ी मुश्किल से इस शर्त पर जाते हैं कि सप्ताहांत पर उन्हें बुजुर्गो के पास लाया जाएगा। बच्चों की ऊर्जा और बुजुर्गो का अनुभव एक स्वस्थ संस्था का विकास करते हैं। यही एकमात्र मार्ग है। पचपन के बाद बचपन। बच्चे समय की नदी से इस पार वहां की पाकीजगी लाए हैं और बूढ़े नदी के पार बचपन की निर्मल भावना लेकर जाना चाहते हैं। ‘युवा नींद के पीछे बुजुर्गो के रतजगे छुपे हैं।’