उसके गले का राम / हरि भटनागर

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वह मुसलमान था। हुलिये से साफ़ नज़र आ रहा था। मूँछ कटी और दाढ़ी बढ़ी हुई। सिर पर गमछा था। गंदी-सी कमीज़ पहने था और ऐसा ही पायजामा जिसके पाँयचे तार-तार थे। कमीज़ पसीने से गीली थी। चीकट। पायजामा भी तकरीबन ऐसा ही हो रहा था। कमीज़ में बटन न होने की वजह से सीना खुला हुआ था जिसमें से गझिन बाल झाँक रहे थे। पैर नंगे थे और फरुहे की तरह लग रहे थे। अपनी धज में वह मजूर था।

धूप और गर्मी से वह परेशान था और थका हुआ। ऐसा लगता था जैसे किसी को हेर रहा हो और न मिलने पर परेशान और थक गया हो। मेरे पास आकर उसने सिर से गमछा उतारा, पसीना पोंछा और एक उम्‍मीद भरी निगाह से मुझे देखा। ऐसा करते वक़्‍त उसके सूखे, काले होंठ खुले जिनके बीच उसके पीले-पीले दाँत झाँकते लगे। आँखें उसकी अधमुँदी थीं। उसने हल्‍का-सा सिर झुकाया, दाहिना हाथ माथे से लगाया, “आदा बर्ज” किया। फिर वह जेब में हाथ डालकर कुछ खोजने लगा। थोड़ी देर में उसने जेब से तुड़ा-मुड़ा गंदा-सा रुक्‍का निकाला और मेरी हथेली पर रख दिया।

यकायक मैं घिन से भर उठा। यह घिन बदन से उठ रही पसीने और पीले-पीले दाँतों की बास से उतनी न थी जितनी उसके मुसलमान होने की वजह से थी। मैं उसे बर्दाश्‍त नहीं कर पा रहा था।

मैंने रुक्‍का देखा जैसा मरा हुआ मेंढक हो। दाँत पीसकर रुक्‍का उसकी ओर उछाल दिया और घर की ओर बढ़ा। बढ़ते-बढ़ते मैंने पलट कर देखा-वह झुककर रुक्‍का उठा रहा था, तिरछी आँखों, माथे पर बल डाले, मुझे देखता हुआ।

यह पहला मौक़ा था जब मैंने उसे देखा।

दूसरी मर्तबा मैंने उसे रग्‍घू के झोपड़े के सामने पड़ी खाट पर बैठे देखा। खाट पर वह इत्‍मीनान से बैठा था। बीड़ी पी रहा था और बीच-बीच में बनियान से अपने ऊपर हवा भी करता जाता था। उसके बाजू में, नीचे, अद्धे पर रग्‍घू बैठा था। दोनों बहुत प्रसन्‍न और हँस-हँसकर बातें कर रहे थे। यकायक रग्‍घू की बीवी झोपड़े से निकली। धुएँ से उसकी आँखें लाल थीं। हाथ में उसके चाय के दो गिलास थे जिन्‍हें वह अंगुलियों में फँसाए थी। दोनों को गिलास थमाकर वह झोंपड़े में चली गई।

अब मुझे समझ में आया। यह आदमी रग्‍घू को खोज रहा था जिसका पता उस रुक्‍के में दर्ज़ था। लेकिन यह रग्‍घू के बहाने गड़बड़ करने आया है। मेरे दिमाग़ ने अपना काम करना शुरू किया। ज़रूर चोरी-छिपे यह घपला करेगा और दफा हो जाएगा। इसके पहले कि यह कुछ करे, इसे भगाना चाहिए।

मैंने रग्‍घू को इशारे से बुलाया। रग्‍घू कीचड़ के बीच रख ईंटों पर पतले-पतले पैर रखता, सँभलता आया।

उस आदमी के बारे में मैंने इशारे से पूछा।

रग्‍घू ने बताया कि वह उसके गाँव का है। पास के कस्‍बे में रहता है। मज़दूर है। ज़ालिमों ने उसके बीवी-बच्‍चों को दंगे में मार डाला। किसी तरह जान बचाकर आया है। अब कुछ काम-धंधा करके रहना चाहता है।

रग्‍घू आगे बोलता जा रहा था लेकिन मेरा दिमाग़ इस नुक़्‍ते पर फँसा था कि लोगों ने इस पर जुल्‍म किया है तो यह भी मौक़ा पाते ही बदला लेगा। खीझा आदमी किसी पर ग़ुस्‍सा उतारता है। फिर यह क्‍यों चूकेगा? मुसलमान जो ठहरा।

- तुम इसे अपने पास मत ठहराना। - मैंने आदेशात्‍मक स्‍वर में उससे कहा।

- काहे साब! - उसने पूछा।

- पागल मत बनो! यह मुसलमान है! जानते ही हो, मुसलमान किसी के नहीं होते। अब गदर हुई तो तुम्‍हारी जान लेगा ही, हम लोगों पर भी हाथ बढ़ाएगा।

रग्‍घू गहरी सोच में पड़ गया। सीधा-सादा मजूर भला क्‍यों किसी को नुकसान पहुँचाएगा। यह तो बेचारा खुद मजलूम है। उसके छोटे से माथे पर बल पड़ गया। आँखें सिकुड़-सी गईं, जैसे कुछ सोच रही हों।

मैंने कहा-वैसे भी देख रहे हो, मंदिर-मस्‍जिद की आग भड़की हुई है। कब क्‍या हो जाएगा, कुछ समझ में नहीं आता। पहले भी इसी लफड़े में दंगे हो चुके हैं इसीलिए कह रहा हूँ...

काले चुचके चेहरे पर चमकती आँखों में वह मुस्‍करा रहा था जैसे अंदर ही अंदर मेरी बात की हँसी उड़ा रहा हो। मैंने उसे डराने के लिए चेहरा सख्‍़त किया। माथा सिकोड़ा और यह भाव जताया कि अगर तू बात नहीं मानेगा तो यहाँ रहने नहीं दूँगा।

मैंने ग़ौर किया। इसका असर हुआ। उसकी चमकती आँखों से वह मुस्‍कुराहट ग़ायब हो गई और वे भय से सहम-सी गईं। इसका असर उसके पूरे शरीर पर भी हुआ। उसके हाथ और पैर के रोंये डर से खड़े हो आए थे। छाती पर मुटि्‌ठयाँ बांध्‍ो वह ऐसे खड़ा था मानों सर्दी लग रही हो।

मैंने जब ‘समझ रहे हो' कहा तो वह चौंक-सा गया। तपाक से बोला- हाँ हुजूर! समझ रहा हूँ।

- तो आज, इसी वक़्‍त उसे रफा कर दो।

उसके होंठ काँपे। जैसे बुदबुदाया कि हाँ साब, अभी इसी बखत रफा कर देता हूँ। मैं खुश हुआ और लम्‍बे डग बढ़ाता घर आ गया।

दूसरे दिन शाम को जब बाज़ार जा रहा था, छोटा झोला और बहुत से रुपये जेब में संभाले, रग्‍घू और उस मुसलमान को मैंने मैदान में देखा। रग्‍घू उस मुसलमान को रिक्‍शा चलाना सिखा रहा था। मुसलमान गद्दी पर बैठा था हैंडिल पकड़े और पैडल मारता जाता था। रग्‍घू उसके साथ-साथ हैंडिल पकड़े दौड़ता जाता था। बीच-बीच में वह कभी ब्रेक लगाने को कहता, कभी दाएँ-बाएँ मोड़ने को। दोनों पसीने से तर थे।

रग्‍घू थककर जब किनारे आ बैठा और वह मुसलमान भी रिक्‍शे से उतर उसके बग़ल आ बैठा, रग्‍घू को आवाज़ दी।

रग्‍घू सिर खुजलाता मेरे पास आया। उसके चेहरे के भाव से लगता था जैसे मुझसे छिपना चाहता हो।

मैंने सख्‍़ती से फुसफुसाकर कहा- तुमने उसे भगाया नहीं। अब रिक्‍शा चलाना सिखा रहे हो! मरना चाहते हो क्‍या?

वह बगलें झाँकने लगा। कुहनियाँ खुजाने लगा।

- बोलते क्‍यों नहीं? साँप क्‍यों पाल रहे हो?

वह बहुत ही धीरे से भयभीत आवाज़ में बोला- साब, गाँव का आदमी है, कैसे भगा दूँ?

- कह दे, तेरे रहने से मेरा झोपड़ा नहीं बचेगा तो वह खुद चला जाएगा।

- साब, घर आए आदमी को नहीं भगाया जाता।

- घर तो साँप भी आता है।

- साँप को हम नहीं मारते।

मैंने जब उसे घुड़का तो वह चुप हो गया जैसे मेरी बात मान ली।

- भगा दोगे?

वह मरी आवाज़ में बोला- ठीक है साब!

- सच बोल रहे हो कि पहले की तरह करोगे।

- नहीं साब, सच्‍ची कह रहा हूँ।

- अब तुम जानो और तुम्‍हारा काम। मैं थोड़ा रुका और फिर बोला- आगे जो होगा तुम्‍हें ही भुगतना है। दंगे में गरीब झुग्‍गी वाले ही तबाह होते हैं... मुझे कुछ नहीं होगा। हमारे पास तो मुहल्‍ले की फौज़ है... क्‍या समझे?

मैंने देखा- वह डर गया था। उसने मेरी बात मान ली थी। मैंने जेब में से कुछ रुपये निकाले और उसकी बंडी की जेब में खोस दिए- ये रख लो, काम आएँगे।

वह न-न करता रहा, आख़िर में मान गया। रुपये रख लिए।

दो तीन रोज़ बाद सबेरे मैं डेरी से दूध लेने जा रहा था और यह सोचकर खु़श था कि चलो वह मुसलमान चला गया, अच्‍छा हुआ, वह दृश्‍य देखा तो स्‍तब्‍ध रह गया। अपने झोपड़े के बग़ल ख़ाली जगह में रग्‍घू उस मुलसमान के लिए झोपड़ा खड़ा कर रहा था। उसके साथ उसकी वीवी और वह मुसलमान भी इस काम में लगे थे।

मैं भन्‍ना गया। ज़ोर से खाँसा ताकि रग्‍घू देखे। सुतली बाँधते हुए रग्‍घू ने मुझे देखा और सिर नीचे झुका लिया। सहसा वह घुटनों पर हाथों को रखकर उठा और मरियल से डग बढ़ाता अपने झोपड़े में घुस गया।

बाहर खड़ा मैं इंतज़ार करता रहा। वह नहीं निकला। एक घण्‍टा बीत गया। बिना दूध लिए मैं क्रोध में भरा घर लौटा।

बिस्‍तर पर पड़ा घूमते पंखे में उलझा था कि यकायक एक बात दिमाग़ में कौंधी।

मैं रग्‍घू की घरवाली का इंतज़ार करने लगा।

थोड़ी देर बाद वह आई। मेरे घर का वह बर्तन मलती है। मैंने उसे धमकाया- कल से तुम्‍हारी छुट्‌टी, मत आना।

सोचा था, वह डर जाएगी, गिड़गिड़ाएगी तो अपनी बात, मुसलमान को फुटा देने वाली बात- कह दूँगा, वह राजी हो जाएगी। लेकिन मामला इसके उलट था। वह कह रही थी- कल से काहे , आज से काम छोड़े देती हूँ।

पत्‍नी ने मुझे जलती आँखों से देखा जैसे कह रही हों- बर्तन क्‍या तुम मलोगे जो बाई की छुट्‌टी कर रहे हो।

अपनी चाल से मेरा गला फँस गया था। पत्‍नी ज़ोरों से मुझ पर चीख-चिल्‍ला रही थीं। ऐसा कर एक तरह से बाई को पटा रही थीं। बाई की छुट्‌टी का मतलब था पत्‍नी के लिए आफत। क्‍योंकि बाइयाँ बहुत ही मुश्‍किल से मिलती थीं जिसके लिए वह तैयार न थी।

मैं चुप था। शर्मिन्‍दा। मगर बाई पर इसका कोई असर न था। वह कड़क हो गई थी। उसने काम न करने का फ़ैसला कर लिया था। वह रसाई में भी नहीं गई। बाहर से लौट गई।

अब जबरदस्‍त संकट था।

पत्‍नी ने बाई से माफी माँगने के लिए कहा। पहले मैं तिड़का। जब कोई बाई न मिली तो हार गया। अंदर से गुस्‍से में भरा रग्‍घू के घर पहुँचा। बाहर वह एक छोटे से पत्‍थर पर बर्तन घिस रही थी। मुझे देखकर भी उसने अनदेखा किया। मैंने खाँसा ताकि वह मुझे देख ले।

यकायक वह ज़ोरों से चीखी। चीखना उसका अपनी बच्‍ची को बुलाना था। झुतरे बिखेरे जब बच्‍ची आई तो उसने उसी तरह चीखकर कहा कि अस्‍सी रुपये लूँगी अब! बच्‍ची की ओर देखकर वह मुझसे कह रही थी। मैं हैरत में था। पहले वह चालीस लेती थी। अब अस्‍सी! हद है! बहस की गुंजाइश नहीं थी।

मैं मान लेता हूँ।

सामने खाट पर रग्‍घू बीड़ी के धुएँ में खोया था। वह ज़्‍यादा से ज़्‍यादा धुआँ कर रहा था। शायद इसीलिए कि मैं उसे न देख पाऊँ या वह मुझे न देख पाए।

ख़ैर, मेरी तो उसकी तरफ़ देखने की हिम्‍मत भी नहीं हो रही थी। पहाड़ की तरह वह विशाल और मज़बूत लगा। उसके तले मैं दबा जा रहा था।

घर के लिए यकायक मुड़ा कि उस मुसलमान से टकरा गया। रिक्‍शा टिकाकर वह झोपड़े की ओर बढ़ रहा था। टक्‍कर से उसे कहाँ तक चोट लगी, नहीं कह सकता। लेकिन मुझे ऐसा लगा जैसे पत्‍थर से भिड़ गया होऊँ।

टक्‍कर से सहसा वह सहम-सा गया। फिर यकायक पहचान कर मुस्‍कुरा उठा। उसके पीले-पीले दाँत सूखे-काले होंठों के बीच झाँकने लगे। उसने दोनों हाथ छाती पर जोड़ लिए और कहा- राम-राम बाबूजी!

मैंने जवाब नहीं दिया। सपाटे से बढ़ा। उसका “राम-राम” मेरे गले में फाँसी के फंदे की तरह कसता जा रहा था।