उसके हिस्से की धूप / मृदुला गर्ग / पृष्ठ 2

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‘टूरिस्ट हॉस्टल’ की इमारत पीछे छूट गयी। अपनी आदत के अनुसार मनीषा जब उससे आगे निकल गयी जब जाकर ख़याल आया कि मंज़िल पीछे ही रह गयी। कहीं जाने के लिए निकलने पर उसके साथ यही होता है। जब तक राह परिचित लगती है, वह बिना उसकी ओर देखे अंतःप्रज्ञा से आगे बढ़ती जाती है। जब आसपास की अपरिचितता बरबस ध्यान अपनी ओर खींच लेती है तब चौंककर रुक जाती है और क़दम लौटा लेती है। सड़कों के साथ यह करना जितना आसान है, ज़िंदगी के साथ उतना ही कठिन। आदमी जब तक लौटे-लौटे, मंज़िल बदल जाती है। वाह ! क्या दार्शनिक विचार है, वह ज़ोर से अपने ऊपर हंस दी और ‘टूरिस्ट हॉस्टल’ के भीतर घुस गयी।

अपने कमरे तक पहुंचते-पहुंचते उसकी हंसी ही नहीं, होंठों की मुस्कराहट तक ग़ायब हो चुकी थी। शरीर ढीला और सुस्त पड़ने लगा था। रोज़ दर रोज़ की उबाऊ अन्यमनस्कता उस पर यूं हावी होने लगी थी कि वहां पहुंचते ही वह एक लम्बी जम्हाई ले उठी। अख़बार हाथ में लिये, आरामकुर्सी पर पीठ टिकाये मधुकर अधलेटा-सा पड़ा था। उसके पैरों की आहट सुन हाथ का काग़ज़ नीचे रख बोला, ‘‘बहुत देर कर दी।’’

‘‘हां।’’

‘‘चार बज गये ?’’

‘‘हां।’’

‘‘कहां गयी थीं ?’’

‘‘लाइब्रेरी।’’

‘‘इतनी देर तक ?’’

‘‘हां।’’

‘‘मैं तीन बजे ही लौट आया था। प्रोफ़ेसर ह्यूम से बातचीत ख़त्म नहीं हुई थी, पर मैंने सोचा तुम अकेली बोर हो रही होगी।’’

वह चुप रही।

‘‘चाय तक नहीं पी,’’ मधुकर ने फिर कहा।

उसका मन हुआ, कह दे, पी लेते, मैंने तो पीली, पर कहा नहीं। बैरे को बुलाने के लिए घंटी बजा कर बाथरूम में घुस गयी। हाथ-मुंह धो कर लौटी तो बैरा चाय लेकर आ गया। उसने चुपचाप केतली उठा कर चाय प्यालों में डाल दी। फिर प्याला उठाकर मुंह से लगाया तो ‘जासमिन-टी’ के बाद उसका स्वाद कड़वा-कड़वा-सा लगा।

‘‘बहुत तेज़ है,’’ उसने कहा।

‘‘ठीक तो है,’’ मधुकर ने कहा, ‘‘तुम चाय पीती हो या पानी ?’’ जासमिन-टी, उसने कहना चाहा, पर कहा नहीं, चुप रही।

‘‘कौन-कौन-सी किताबें ले आयीं ?’’ मधुकर ने पूछा।

‘‘कोई नहीं।’’

‘‘तो क्या दिन भर लाइब्रेरी में घूमती रहीं ?’’

‘‘नहीं, पढ़ती रही।’’

‘‘क्या बात है ?’’ मधुकर ने अपना हाथ उसके हाथ पर रखते हुए पूछा, ‘‘तबीयत ठीक नहीं है क्या ?’’

‘‘क्यों, तबीयत को क्या हुआ ?’’

‘‘इतनी चुपचाप जो हो।’’

वह एकदम खीझ उठी। ‘‘आदमी की तबीयत क्या तभी ठीक होती है जब वह लगातार बकर-बकर करता रहे ?’’ उसने कहा।

‘‘कमाल है,’’ मधुकर भी खीझ उठा, ‘‘तुमसे कोई अच्छी बात भी कही जाये तो जवाब ईंट-पत्थर से देने लगती हो।’’

‘‘इसमें ईंट-पत्थर कहां से टपक पड़े ?’’

‘‘कैसे बोलती हो तुम ?’’

‘‘ठीक तो बोल रही हूं,’’ उसने अपना स्वर एकदम सीधा करके कहा। वह इस वक़्त झगड़ने के मूड में बिलकुल नहीं थी, ‘‘बस थक गयी हूं।’’

‘‘यहां से लाइब्रेरी तक जाने में ही ?’’ मधुकर ने मुस्करा कर कहा। यानी उसने भी लड़ने का इरादा स्थगित कर दिया था।

उसने चैन की सांस ली और चाय के प्याले की चुस्कियां भरने लगी।

‘‘प्रोफ़ेसर ह्यूम से झक मारते-मारते थक मैं भी गया हूं,’’ मधुकर ने बदन तोड़ते हुए कहा, ‘‘सोच रहा था, चाय पीकर घूम आऊं तो दिमाग़ हलका हो जाये। मौसम बढ़िया है, चलोगी ?’’

‘‘मैं बहुत थकी हूं।’’

‘‘कुछ देर आराम कर लो, फिर चलेंगे।’’

‘‘इस वक़्त मन नहीं है।’’

‘‘तब चलो, घूमने न सही, बोटिंग चलते हैं। नाव मैं चलाऊंगा, तुम आराम से बैठी रहना।’’

‘‘तुम हो आओ।’’

‘‘छोड़ो फिर, मैं जा कर क्या करूंगा,’’ उसने नाराज़ होकर कहा।

‘‘नहीं, सच, तुम हो आओ न,’’ मनीषा ने स्वर को मीठा बना कर कहा।

‘‘नहीं, मुझे उतना शौक़ नहीं है। रहने देते हैं।’’

वह समझ रही थी कि मधुकर उसे जाने के लिए इसलिए मना रहा है क्योंकि वह सोचता है, उसे कमरे में अकेले छोड़कर घूमने जाना उसे नाग़वार गुज़रेगा। यह वैवाहिक जीवन भी अजीब चीज़ है, वह सोच रही थी। जो करो एक साथ। साथ बैठो, साथ बोलो, चाहे बोलने को कुछ हो या नहीं, साथ घूमो, साथ दोस्त बनाओ, चाहे एक का दोस्त दूसरे को कितना ही नामुराद क्यों न लगे, साथ खाओ और साथ सोओ, चाहे एक के खर्राटे दूसरे को सारी रात जगाये क्यों न रखें। वह थका है दिमाग़ से और कसरत चाहता है। वह थकी है जज़्बात से और अकेले रहना चाहती है, पर चूँकि वे विवाहित हैं, इसलिए ज़रूरी है कि जो भी वे करें; दोनों करें, चाहे उससे एक को कितनी कोफ़्त क्यों न हो। अगर वे दोस्त होते तो एक अपना ठौर छोड़ सड़क पर घूमने निकल जाता, दूसरा सोने अपने ठौर चला जाता। पर अब उन दोनों का ठौर एक है।