उस पार की रोशनी... / कविता

Gadya Kosh से
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वर्तिका देसाई बाल्कनी में खड़ी-खड़ी उगते सुबह की सुंदरता का आनंद ले रही थीं। अँधेरे के दुपट्टे में जैसे किसी ने एक रोशन सितारा टाँक दिया हो। उस सितारे की लौ से बुझती सी अँधेरे की चादर झिलमिला उठी थी। उसकी कालिमा गंदुमी होते-होते धुँधला गई हो जैसे और बुझते से उजले धुआँए रंग का कोई दूसरा प्रकाश पिंड सिर झुकाए चल दिया था किसी कोने-कुतरे की तलाश में... जिंदगी में भी कभी-कभी ऐसा ही होता है, दूर कोई एक सितारा झिलमिलाए और जिंदगी की ऊसर कालिमा उसके प्रकाश में धूसर हो ले। जैसे जीने की एक वजह मिल गयी हो। वैसे सोचो तो न जाने कितनी सारी वजहें हैं जीने की पर मन का क्या वह कहाँ रमे, किसे माने अपने जीने की वजह...

सुबह और सूर्योदय के इस आनंद में जब वह लीन थीं उनकी जिंदगी का सूरज भी तभी प्रकाशमान हो आया था, अपने हाथों में चाय की प्याली और चेहरे पर सदाबहार मुस्कान लिए।

उस मुस्कान का अक्स उनके चेहरे पर भी उतर आया हो जैसे। सूरज ने पूछा था - क्या सोच कर मुस्करा रही हो तुम... बस यही कि तुम लड़कों के नाम सूरज, रवि, प्रकाश, उदय, आदित्य जैसे ही क्यों होते हैं? सारा का सारा तेज सारा का सारा पुरुषार्थ, सारी सत्ता बस तुम लोगों के नाम में, तुम लोग सर्वशक्तिमान और हम औरतें वीणा, सिया... मेरे माता-पिता बहुत ज्यादा प्रोग्रेसिव हुए तो नाम रख दिया वर्तिका। पर उससे अंतर क्या, अर्थ तो वही के वही... हमारे हिस्से में भी वही जलन, वही थकन... सूरज और भी ज्यादा मुस्कराए थे। अरे जलने की तो बात ही दीगर है, सूरज से ज्यादा जलन और किसके हिस्से होगा... फिर भी, जलन जलन में भी तो फर्क होता ही है न... अरे छोड़ो भी, सुबह-सुबह नामों के पोस्टमार्टम में क्या लग गई तुम? नाम को नाम ही रहने दो...

दोनों उतर कर लॉन में चले आए थे। सूरज ने पहले से ही वहाँ लॉन चेयर रख दिया था और चाय का सारा सरंजाम भी। वे चाय की दूसरी प्याली तैयार करते-करते सोच रही थीं आखिर कमी क्या है इस इंसान में? कितने मर्द होते होंगे सूरज की तरह के... खुशमिजाज, हाजिरजवाब और इंटेलेक्चुअल। वह भी सारी उम्र पुलिस विभाग की बेरस जिंदगी में बिता देने के बावजूद। पर फिर भी एक तनी सी रस्सी ताउम्र रही उनके रिश्ते के बीच। वे जब भी उसे फाँद कर एक दूसरे के करीब होने की कोशिश करते वह तनी रस्सी कुछ और बढ़ कर उनके बीच फिर आ खड़ी होती।

वर्तिका अर्ली राइजर नहीं थीं, कभी भी नहीं। उनकी सुबह आठ-साढ़े आठ से पहले कभी नहीं होती थी पर आज कुछ खास बात थी। अलसुबह फोन की घंटी घनघनाई थी, और वे धरफड़ाती हुई उस तक पहुँचती कि वह आवाज सुप्त हो चली थी। फिर पल दो पल का इंतजार... फिर न जाने कितने पलों का इंतजार... उन्हें इंतजार की आदत नहीं। या यूँ कहें कि उन्हें इंतजार करना पसंद ही नहीं। उनके उठते-उठते सूरज ने कहा था फोन न लगा हो शायद। पर उनके भीतर चिढ़ जाग रही थी, हाँ बिल्कुल नहीं लगा होगा। सुबह की नींद खराब कर दी और... यूँ अचके से जब जागती हैं वह किसी दिन फोन की घंटी से दूसरी तरफ से आती बच्चों की आवाज उनकी सुबह को खुशनुमा कर जाती है - गुड मॉर्निंग नन्ना / गुड मॉर्निंग दद्दो।

...पर आज की सुबह सुहानी होते-होते रह गई थी। लेकिन उन्होंने तय कर लिया था कि सुबह को यूँ जाया भी नहीं होने देना है। वह बाल्कनी तक चली आई थीं... और सचमुच कुछ पलों के लिए वह सबकुछ भूल चुकी थी। सुबह सचमुच बहुत खूबसूरत थी। गुलाब के फूलों और पत्तों पर ठहरी ओस की बूँदें, अधखिली कलियों की ताजगी, हरी घास की कचनार सी हरीतिमा सबकुछ उतना ही खूबसूरत, उतना ही सुंदर जैसे कि पूर्णता से पहले होता है। और इन सब के बीच एक साथ बैठे हुए वे दोनों, बिल्कुल किसी खुशनुमा पेंटिंग की तरह। उन्हें इधर लगने लगा है कभी-कभी, जैसे जिंदगी से शिकायत मिटने लगी हो। जैसे वे भी उसी तरह जिंदगी से संतुष्ट हों जैसे कि मिस्टर देसाई। ऐसे में खीझ कर वे अपनी असंतुष्टि को जगातीं जैसे कि ये सब बुढ़ाने के लक्षण हों। इस सब में क्या खूबसूरत है। कुछ भी तो नहीं। न सूरज प्रकाश का साथ न ये पल। कच कच हरी घास उन्हें कभी अच्छी नहीं लगी। उन्हें पता है कि जरा सी लापरवाही हुई और यह अब सूखी कि तब सूखी। वैसे भी पूरा खिला फूल आदमी तो क्या हवा तक की छुअन से पल में झड़ जाए और बेचारी बूँद, जब तक ठहरी है तभी तक तो है उसका अस्तित्व गिरी नहीं कि क्षण में विलीन हो गया उसका सर्वस्व। वे पल भर को यह भी सोचतीं कि वे असंतुष्ट इसलिए तो नहीं होना चाहतीं कि पूर्णता एक विराम है कि उसके बाद कुछ भी नहीं, कभी भी नहीं। पूर्णता मानी समाप्ति। वह कगार जहाँ के बाद बस एक काली अँधेरी खाईं हो और कुछ भी नहीं। उन्हें इस अँधेरी खाईं से बहुत डर लगता है। खाईं से या कि उसके अँधेरे से यह वे तय नहीं कर पातीं, बिल्कुल भी नहीं। वे बार-बात टटोलती हैं खुद को कि उनकी यह सोच उनकी उम्र का तकाजा तो नहीं। वे बूढ़ी हो रही हैं और उन्हें... पर वे नकार देतीं इस सच को। गति, ऊष्मा और बहाव उनके जीवन की तीन निर्मितियाँ रही हैं या कि फिर निमित्त।

वर्तिका माने कि न माने वे क्रमशः बृद्ध होते दो शरीर थे जिन्हें एक दूसरे के साथ की बहुत-बहुत जरूरत थी और जिससे वे बाहील-हुज्जत हमेशा इनकार करते आए थे जैसे कि जिंदगी की अन्य बहुत सारी सच्चाइयों से। सच्चाई से इनकार करने की इसी आदत की तहत वे अपने और सूरज के साथ के इन सुखद क्षणों से भी इनकार करना चाहती थीं और खोज-खँगाल कर निकालने लगी थीं अपने रिश्ते के बीच की सारी खाइयों को, गो कि वे जानती थीं कि ऐसी कोई खाईं भी नहीं है ठीकमठीक उनके बीच। सूरज ने पूछा था क्या सोच रही हो तब से। वे कहना चाहती थीं उनसे सब कुछ पर यह कोई खाई नहीं थी तो और क्या था कि आदतन उन्होंने यही कहा था, कुछ भी तो नहीं। सूरज उठ कर टी सेट रखने जाने लगे थे और आदतन उन्होंने भी कहा था मंजू तो आएगी ही। यह जानते हुए भी कि उनके कहने-सुनने का कोई भी मतलब नहीं। होता तो वही रहेगा अंत तक जैसा कि होता आ रहा है हमेशा से। वे दोनों सुनते जरूर थे एक दूसरे की, पर करते वही थे जो उनका दिल चाहे। सूरज प्रकाश इसे दोनों की निजता कह कर परिभाषित करते और वर्तिका को भी यह अच्छा ही लगता। निःसंदेह उनकी इस जीवनशैली में सूरज प्रकाश की बहुत बड़ी भूमिका थी। वे पूरे परिवार के सामने बड़ी विनम्रता और दृढ़ता के साथ कहते कि वर्तिका पर कोई और किसी तरह का दवाब नहीं डाला जाय। शादी होने का मतलब यह बिल्कुल भी नहीं कि लड़की आमूल-चूल बदल जाए या कि उसे बदलने पर मजबूर कर दिया जाए।

पर उससे भी वे एकांत में कहते मैं तुम्हारी आजादी में कभी बाधक नहीं बनूँगा पर एक बात तुम भी हमेशा याद रखना कि व्यक्तिगत आजादी के नाम पर कभी अपनी बातों से, अहं से दूसरों को ठेस नहीं पहुँचने देना। स्वतंत्रता की यह बहुत ही अजीब सी परिभाषा थी। यह कैसे संभव हो सकता है कि आप अपनी मर्जी का जिएँ, करें और दूसरे को ठेस भी न लगे, रत्ती भर भी नहीं। पर सूरज खुद ऐसे ही थे हर असंभव को संभव बनाते हुए और वे वर्तिका से भी शायद ऐसा ही होने की उम्मीद करते थे। और वर्तिका ने ऐसा होने की चाह में धीरे धीरे बहुत कुछ गँवाया। अपनी कला, अपना नाम, अपने शौक। साथ ही उन्होंने बहुत कुछ अर्जित भी किया। नया नाम, नए शौक, नई पहचान जो कि उन्हें आजादी का भ्रम भी देती रहीं साथ ही साथ।

वर्तिका अब सोचती है तो आश्चर्य होता है... गोकि कई क्षण आए थे उनकी जिंदगी में जब उनका जी भी चाहा था सब कुछ छोड़-छाड़ कर चलती बने, इस जंजाल गृहस्थी को भी। पर तब बच्चों के मोह ने उसे रोक लिया था। उसने एक आम गृहस्थिन की तरह यह सोचा था पर एक खीझ भरी मुस्कराहट उसके चेहरे पर तैर आई थी। और बच्चों से पहले जब उसकी जिंदगी में सिर्फ सूरज प्रकाश ही थे तब ससुराल की मान-मर्यादा, सास-ससुर का प्यार... और जब वे भी गुजर गए...? वर्तिका ने खुद को डपटा था, सच तो यह है तुम कभी भी हिम्मत नहीं जुटा पाई। सारी सुख सुविधाओं को छोड़ कर एक अनजान अंधकार की दिशा में चल पड़ने को। सूरज प्रकाश के पद की गरिमा, उससे उपजे सुख-संतोष, उनकी प्रश्नहीन छत्र-छाया ये सब कुछ मिलजुल कर उस सुख-संतोष से तो जरूर बड़े रहे होंगे जिसके लिए सबकुछ छोड़छाड़ कर भाग जाने को उसका मन छटपटाता रहा होगा किसी पल।

वे ओछी हो आई थीं अपनी ही नजर में, इतनी कि इस आत्मग्लानि से उनकी आँखों में आँसू आ गए थे। पश्मीने के उस शाल को जिसे सूरज प्रकाश कश्मीर से तीन वर्ष पहले लेते आए थे बड़े एहतियात से अपने इर्द-गिर्द लपेटने के बावजूद वे खाँसने लगी थीं और बेतरह खाँस रही थीं। बेलिहाज खाँसी की इस आवाज को सुन कर सूरज हड़बड़ाते हुए बाहर आए थे। सीरप उनके हाथ में था। वर्तिका ने इशारे से उन्हें मना किया - जरूरत नहीं है और सूरज ने पहली बार जिंदगी में कहा था शायद - कैसे नहीं है। मैं देख रहा हूँ खाँसी का दौरा बहुत जल्द-जल्द पड़ने लगा है तुम्हें इन दिनों। डॉक्टर तुम्हारा रूटीन चेक अप नहीं कर के गया क्या? वर्तिका ने खुद को सँभालते हुए कहा था, नहीं, मैं ठंड में बैठ गई थी न इसीलिए, थोड़ा सो लूँ तो शायद ठीक लगे। सुबह बहुत जल्दी भी तो उठ गई थी। और वे एकदम से उठ कर कमरे की तरफ जाने लगी थीं कि अचानक ही उनके पाँव लड़खड़ाए थे और वे... सूरज ने उन्हें सँभाल लिया था - यूँ अचानक झटके से न उठा करो... गिरने के क्रम में चोट से ज्यादा जिस तकलीफ का एहसास उन्हें हुआ था वह यह था कि वे चाहें न चाहें सूरज प्रकाश पर उन्हें आश्रित होना ही पड़ेगा। ऑर्थराइटिस इसी उम्र में... वर्तिका सोचती रही तो क्या...। और उन्होंने मन ही मन तमाम गालियाँ अपने उस वंशानुक्रम को दीं जिसमें यह वात रोग पीढ़ियों से चल कर अब शायद उन तक आ पहुँचा था। माँ, नानी, परनानी और उनसे भी कहीं बहुत आगे से। उन्होंने सोचा रोग-शोक सब जैसे औरतों की ही ताक में... सूरज तो उनसे कितने बड़े हैं फिर भी... दुबले जरूर हुए हैं उम्र के साथ, पाचन शक्ति भी थोड़ी कम गई है, डाइ नहीं करते सो कनपटी के सफेद बाल भी दिखते हैं फिर भी यह सब कुछ उन पर फबता है, उन्हें और ज्यादा गरिमामय बनाता हुआ। और एक वह...।

क्या औरतों को रोग, उम्र और शोक इसलिए ज्यादा परेशान करते हैं कि उनके मन के चोर तहखानों में भी बना होता है कोई और तहखाना जिसमें न जाने कितनी अनाम ख्वाहिशें, कितनी कामनाएँ सब तड़फड़-तड़फड़ करती पड़ी रहती हैं, रौंदती रहती हैं उन्हें भीतर ही भीतर।

उन्होंने सूरज प्रकाश के चेहरे को बहुत गौर से देखा था, क्या यहाँ कोई कामना नहीं होगी... कोई दबी-ढँकी अनाम सी चाहत। पर नहीं, उन्हें अभी भी लगा था कि सूरज संतुष्ट हैं, जिंदगी से, उस सब से जो उन्हें प्राप्त है। यानी कि उस उतने से भी कि जो जोर-जबर मिल जाता है उन्हें या कि जो कि मन को समझा कर या मार कर वह दे देती हैं ...कि यह तो उनका प्राप्य है, उनका हक। पहले शिकायत होती थी इस सब से, बाद में वह भी नहीं और अब तो...

सूरज उन्हें सहारा देते हुए कमरे तक ले आए थे और एक पल को उन्हें लगा था कि सूरज तो है ही नहीं कोई और है वह। पर सामने सूरज ही थे, जीते जागते सूरज और उनकी मीठी कल्पना पल भर में धराशायी हो गई थी। सूरज कह रहे थे कुछ... मुझे तो रूटीन चेक अप के लिए जाना ही है, तुम भी साथ चल चलो। तुम्हारा डेंचर भी तो लेना है। कितने दिनों से तुम्हें खाने-पीने में परेशानी हो रही है और मैं हूँ कि ...। पिछला डेंचर तुम्हें सूट नहीं हो पाया था, देखो इस बार कोई नया बहाना नहीं करना कि गड़ता है या कि ढीला है। लगातार लगाओगी तभी आदत बन पाएगी। आदत के बगैर... वर्तिका ने सोचा था आदत की ही तो बात है। जीना भी तो एक आदत ही है, साँस लेना भी। बस आदत के कारण ही तो... उसने एक ठंडी साँस ली थी...

वर्तिका को लगा सदियों लंबी राह चल कर लौटी हैं वो। थकान उतनी ही जबर, हल्की ठंड के मौसम में भी इस तरह का पसीना। उन्होंने सप्रयास सूरज से कहा था बहुत हरारत सी हो रही है। चेक अप करवाने मैं नहीं जा पाऊँगी। सूरज की चिंतातुर हथेलियों ने उनका माथा टटोला था। सिर भी हल्का गर्म है, अगर साथ चलती तो... वर्तिका ने बहुत नरमी के साथ एक बार फिर नकारा था। और वह नकार सूरज के लिए निषेध रेखा थी। आगे अब कुछ नहीं। न कोई बातचीत न कोई जिद। वर्तिका ने कह दिया सो कह दिया। अकेले ही जाना होगा अब उन्हें।

पर उन्हें वर्तिका की चिंता हो रही थी, कुछ न कुछ तो गलत हो ही रहा है उसके साथ। उसकी दृढ़ता, उसकी मजबूती जैसे ढहती जा रही हो। जैसे कुछ टूट-फूट रहा हो उसके भीतर। किसी भी तूफान में हौसला न हारनेवाली वह औरत छोटी-छोटी बातों में अब फूट पड़ती है। बच्चों जैसी जिद स्वभाव ही बदला जा रहा हो जैसे। वर्तिका जरूरत से ज्यादा गुमसुम रहने लगी है, चुप भी। बाहर जाने के हर मौके को जैसे वह टाल देना चाहती हो। महिला मंच की अध्यक्षा शहर के लगभग हर समाजसेवी संस्था से संबद्ध, हर सप्ताह पार्लर जानेवाली वर्तिका की भौंहों की धार इन दिनों भोथरी हो रही थी और उसे जैसे इस बात का गुमान ही न हो और गजब तो यह कि उनका यूँ भोथराना उन्हें चुभ रहा था, उस सूरज प्रकाश को जिन्हें पार्लर से लौटी वर्तिका बिल्कुल नहीं भाती थी, सजी-सँवरी, तराशी हुई। उसकी ऊँची एकरेखीय भौंहें उनके अंदर जैसे कुछ मार जातीं। वे कहना चाहते वर्तिका से तुम यूँ ही बहुत सुंदर हो, बहुत-बहुत सुंदर तुम्हारी दृढ़ता, तुम्हारी आभा, तुम्हारे नक्श और ये तुम्हारी गोलाकार भौंहें सब अपने आपमें खूबसूरती का पर्याय हैं, इन्हें किसी कृत्रिमता की जरूरत नहीं। पर पिछले चालीस वर्षों में वे ऐसा कुछ भी नहीं कह सके थे उससे। शायद यह सब वर्तिका को भाता हो... शायद यह सब हाई सोसायटी वीमेन की जरूरत हो...

एक वक्त था जब घर में चौबीसों घंटे उसकी आवाज गूँजा करती थी। फोन पर अक्सर ही सहेलियों से लंबी-लंबी बातें, देर रात तक रवि और बच्चों की एक-एक बात का खयाल, नौकरों पर सख्ती और रात ढले उसके खर्राटे जिससे उनकी नींद बार-बार टूटती। फिर भी वे कभी वर्तिका के बगल से उठ कर कहीं गए नहीं और न ही कभी कोई शिकायत ही की उससे।

वे हमेशा से उतना ही बोलते रहे हैं जितने की जरूरत हो या कि सामनेवाला जितना सुनना चाहता हो। जबरन किसी के सामने अपना मन खोलना उनकी फितरत नहीं रही। न कि जबरदस्ती का अधिकार जताना। वर्तिका खुले और समो ले उन्हें अपने भीतर, उसका प्यार उस वेगवती नदी की तरह हो जिसमें घुल जाएँ उनके जीवन के सारे अवयव, जिसमें धुल जाएँ उनके जीवन के सारे सुख-दुख वे तो बस यही चाहते थे। पर ऐसा कभी नहीं हो सका।

पर कभी-कभी लगता उन्हें वर्तिका ठीक वैसी नहीं है जैसी कि दिखती है वो याकि जैसी उसके सामने हो जाती है। बच्चों के साथ, रवि के साथ उसे खिलखिल करते पाया है उन्होंने। शरारतें और जिदें करते भी। वह उनके साथ पूरे अधिकार भाव से पेश आती। बच्चे तो खैर बच्चे थे पर रवि... अजीब बात है वे हमेशा से यह चाहते रहे हैं कि वर्तिका रवि को अपने बच्चों जैसा ही समझे, उसे भी उन्हीं में शामिल करे पर जब वह... उन्हें क्यों परेशानी होती है। क्या चाहते हैं आखिर वे। वे उनके बीच के दोस्ताने से चिढ़ भी उठते कभी-कभी। कभी-कभी जब वे सब साथ कहीं जा रहे होते वर्तिका बच्चों को उनके साथ कार में छोड़ कर रवि के साथ बाइक पर जा बैठती। उन्हें गुस्सा आता, चिढ़ होती, पर सब भीतर ही भीतर। वे आगे पीछे निकलती बाइक से वर्तिका की खिलखिलाहट सुनते और अपने गुस्से को यह कह कर समझाते कि वे मानें कि न मानें लगभग हमउम्र हैं वे दोनों। रवि उनसे दस साल छोटा है और वर्तिका... वे नहीं हँसेंगे-बोलेंगे तो कौन...? और रिश्ता भी तो...।

वे ऐसा नहीं चाहते थे कि वर्तिका... वे बस इतना चाहते थे कि वह उनके साथ भी उसी तरह रहे पर... यूँ भी सब घर में हँसते-खिलखिलाते रहते और एक उनके पहुँच जाने भर से सन्नाटा सा छा जाता जो उनकी लाख कोशिशों से भी कभी टूटा नहीं। बच्चे भी उनकी जिंदगी में वैसे ही रहे जैसे कि वर्तिका। जरूरतों की नामालूम सी कोई डोर उम्र भर बाँधे रही थी एक रिश्ता। अब भी वे फोन करते तो सिर्फ वर्तिका को, उनसे तो बस औपचारिक बातें ही होती थी। उन्होंने शिकायत करना छोड़ दिया था, सोचना भी। बच्चे तो दूर देश थे पर रवि... वह तो कभी फोन भी नहीं करता था। वे तलाशते पर ढूँढ़ नही पाते कौन सी कमी थी आखिर उनमें। कौन सी गलती हो गई थी आखिर उनसे। वे उस शून्य से लड़ना चाहते थे तब भी और अब भी... अपने स्वभाव के ठीक विपरीत जा कर अब वे वर्तिका के पास आते, साधिकार कुछ कहते। चाहे उसकी खातिर ही सही, दवाब देते पर वह वैसी की वैसी ही बनी रहती, कुछ भी नोटिस नहीं करती जैसे नोटिस करना ही नहीं चाहती हो कोई बदलाव। जैसे पहुँचता ही नहीं हो उसके भीतर तक उनके भीतर का एकांत... कि शायद उसका एकांत और भी ज्यादा बड़ा था। वे समझते नहीं हों कुछ ऐसा नहीं था पर सब समझ कर भी उस से नाराज नहीं हो पाते। उनके लिए सबकुछ बेमतलब था, सिवाय वर्तिका की उदासी के जिसे वे दूर करना चाहते थे पर दूर नहीं कर पाए कभी।

जब बच्चे चले गए थे और फिर रवि भी, वे भीतर ही भीतर खुश हुए थे अब वर्तिका केवल उनकी होगी। पर ऐसा नहीं हुआ था... वर्तिका ने ढूँढ़ ली थीं अपनी दूसरी व्यस्तताएँ... क्लब, बुटीक, पार्लर, महिला मंच और न जाने क्या-क्या...। जिस सब में उसकी रुचि नहीं दिखी थी पहले कभी या कि इसे अपने दायित्वों तले दबा रखा था उसने। हाँ, उन्हें ऐसा ही लगा था कुछ। और वे अपने अरमानों को भीतर ही भीतर समेटते रहे थे, कभी तो लौटेगी वर्तिका, कभी तो भरेगा उसका मन इन सब से... उम्र के किसी छोर पर... वे उसे वहीं समेट लेंगे... उनका प्यार इंतजार करना जानता है। सचमुच वर्तिका उन्हें बहुत प्यारी थी, अपने भोलेपन, अपनी दृढ़ता, अपनी चुप्पी, अपनी गलतियों और भूल-चूक के साथ... पूरी की पूरी वर्तिका जैसी कि वह थी और जैसी कि वह उन्हें चाहिए थी।

इंतजार की घड़ियाँ बहुत लंबी थीं, दिनों, महीनों और सालों के चक्रों से गुजरती हुई। पर उन्हें विश्वास था कि वह दिन आएगा जरूर... और शायद वह दिन अब आ भी गया था। पर वे सचमुच घबड़ा उठे थे वर्तिका में आए इन बदलावों से। वे पूरी ताकत से उसके पास जा खड़े होते, उसके साथ कि उसके अकलेपन का अहसास उसे चुभे नहीं, कि वह चुके नहीं कभी। पर फिर भी...। अब उन्हें अपने इस इंतजार से शर्मिंदगी होती। उन्होंने क्यों चाहा था यह सब। क्यों चाहा था कि यह दिन आए उनकी जिंदगी में। टूटी-हारी शर्मिंदा सी वर्तिका कब चाहिए थी उन्हें। उन्होंने उसे उसकी पूर्णता में चाहा था, एक मजबूत स्त्री जिसे कभी किसी बात का पछतावा न हो। जो हर चीज को अपनी तर्क-दृष्टि और व्यावहारिकता की कसौटी पर कसती-आँकती हो। उन्हें कब पता था कि उम्र मजबूत से मजबूत इनसान को छीजती है, तोड़ती है रेशा-रेशा।

उन्होंने वर्तिका को बिछावन पर लिटाते हुए कहा था नाश्ता बाई बना ही देगी, फिर भी ये थोड़े से बिस्किट और दूध। दवा से पहले कुछ तो लेना होगा। टीवी खोल दूँ? याकि तुम्हारे पसंदीदा गीत... चलो कुछ नहीं सही तो बच्चों को फोन ही लगाते हैं। नहीं... तो फिर रवि को? विशाखा से भी बातें हो जाएँगी और बच्चों से भी। वर्तिका, अकेले तो हम छूट रहे हैं न, वे नहीं। वे सब तो अपनी जिम्मेदारियों में कुछ उसी तरह मशगूल हैं जैसे कि कभी हम हुआ करते थे। पहल हम भी तो कर सकते हैं। वे फोन वर्तिका तक ले आए थे और नंबर डायल ही करना चाह रहे थे कि वे जोर से चीखी थीं - बंद करिए यह सब। मुझे किसी से भी बात नहीं करनी, किसी से भी नहीं। और उनकी उँगलियाँ स्तब्ध सी थम गई थीं। वर्तिका चीखी थी, वह वर्तिका जिसने नौकरों तक को कभी बहुत ऊँची आवाज में नहीं डपटा, जिसकी शालीनता के चर्चे पूरी सोसायटी में है।

जैसे अपनी ही आवाज की ऊँचाई से डर गई हो वह खुद भी। सहमी हुई उसकी आँखों के कोरों में कोई गीलापन आ अटका था... प्लीज, मुझे फोन नहीं करना किसी को। जिसे जरूरत होगी, जिसका मन होगा वह खुद कर लेगा। वे फिर थम गए थे। अगर वे नहीं माने तो कहीं वह फिर रो न दे। और वे बिल्कुल भी नहीं चाहते थे कि... उन्होंने सोचा कि जब वे बाहर निकलेंगे तो उन लोगों को फोन कर देंगे कि वे वर्तिका को फोन कर लें। उन्होंने बगैर वर्तिका से पूछे ही उसकी मनपसंद सीडी चला दी थी... तुम पुकार लो तुम्हारा इंतजार है... वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है...। आम बंगालियों की तरह वर्तिका को भी हेमंत कुमार और किशोर दा बहुत पसंद हैं। उन्होंने शेल्फ से निकाल कर एक अल्बम भी थमा दिया था उसे। ठीक है बात नहीं करोगी पर तस्वीर तो देख सकती हो। इससे तो तुम्हारा सेल्फ-रेस्पेक्ट... वर्तिका बहुत दिनों बाद हँसी थी, धुली-धुली सी ऐसी हँसी और उनका मन भी हल्का हो उठा था।

सूरज प्रकाश जब घर से निकले वर्तिका पूरी तरह से अल्बम में डूबी थीं। यह उनकी शादी की तस्वीर थी। तस्वीर के नीचे तारीख टँकी थी 12 मई 1980। और उसकी उम्र...। 31 की होनेवाली थी। फिर भी उनके मन का कच्चापन उनके चेहरे पर था। और इस कारण एक भोलापन भी। वर्तिका जब पहली बार मिली थी मि. देसाई से तब 28 की रही होंगी वे। वर्तिका देसाई नहीं, वे वर्तिका दास थीं तब। मि. देसाई ने उन्हें एक डांस प्रोग्राम में परफॉर्म करते देखा था और फिर एक दिन रिश्ता ले कर आए थे उनके माता-पिता। वर्तिका ने तो पहले बिल्कुल ही नकार दिया था इस रिश्ते को। इस तरह किसी के साथ कैसे शादी कर सकती है वह, जिससे प्यार नहीं हो, जिसे ठीक तरह से देखा-जाना भी नहीं हो। वह तो शादी तभी करेगी जब उसे कोई पसंद हो या कि जब उसे किसी से प्यार हो... उसके पिता समर्थन में खड़े थे उसके साथ। उसकी जिंदगी का सवाल है, फैसला तो उसका ही होना चाहिए।

पर माँ ऐसा नहीं सोचती थीं। वे सोचतीं थीं, शादी ब्याह की एक उम्र तो होती ही है। आज जो रिश्ते आ रहे हैं कल को वह भी न आए तो? और उसके पीछे तीन और बेटियाँ भी तो हैं उनकी। धीरे-धीरे माँ की सोच उसको भी अपने रंग में रँगने लगी थी और उसने इस रिश्ते के लिए हामी भर दी थी। पिता उसके फैसले से उदास और चुप हो गए थे क्योंकि वे जानते थे कि...।

वर्तिका अपनी पहचान और अपना नाम नहीं खोना चाहती थी। वह चाहती थी कि वह शादी के बाद भी अपने नाम से ही जानी जाए। पर धीरे-धीरे सब कुछ पीछे छूट रहा था, नृत्य, गीत, साहित्य यानी कि वह सब कुछ जो कि उसके नाम या कि पहचान से जुड़ा हुआ था।

...दूसरी तस्वीर उनके पहली विवाह वर्षगाँठ की थी। सजा-धजा कमरा मेहमानों और अपनों से भरा हुआ। कमरे की सजावट, मेन्यू, गेस्ट लिस्ट सबकुछ रवि का तय किया हुआ था। कितने उत्साह से जुड़ा हुआ था वह उनके फर्स्ट मैरेज एनीवर्सरी की तैयारी में... उन्हें हैरत हुई, बावजूद इस सब के इन तस्वीरों में वह कहीं मौजूद नहीं था। उसे फिर खयाल आया उनकी शादी की तस्वीरों में भी वह कहीं नहीं था। उसने सोचा यह बहुत अजीब सी बात नहीं कि जो सबकुछ के मूल में था वह कहीं भी नहीं था और शायद यह भी कि जो तस्वीरों में कहीं भी नहीं था वह सबसे ज्यादा प्रभावी था उसकी स्मृतियों में...

वह पन्ने पलटती रही। वंश के जन्मोत्सव की तस्वीरें... एक बार फिर वही सबकुछ। रवि क्यों नहीं होता था आखिर कहीं क्या जानबूझ कर, या कि अनजाने में ही... जाने अनजाने का विचार यूँ भी उसके मन को मथता रहता है हमेशा। जो कुछ भी हुआ था उनकी जिंदगी में कितना जाने, कितना अनजाने यह वह भी कभी तय नहीं कर पाई है। कभी-कभी लगता सबकुछ अनजाने में ही घट गया था बिल्कुल अप्रत्याशित, कभी-कभी लगता सबकुछ उतना अप्रत्याशित भी तो नहीं था। वह जुड़ पाती सूरज से कि उससे पहले ही रवि ने घेर लिया था उसका मन-आँगन। सूरज का गंभीर स्वभाव, सूरज का दफ्तर, सूरज के काम... जब कि रवि हमेशा उसके पीछे घूमता रहता। दोस्तों की बातें, कॉलेज की बातें, दुनिया भर की बातें। किचेन में, पौधों को पानी देते हुए, यहाँ तक कि बेडरूम में आराम करते वक्त भी। और सूरज को भी इससे कोई परेशानी नहीं होती। वे चाहते थे और पूरे दिल से चाहते थे कि वर्तिका रवि का खयाल रखे। वह उससे प्यार करे और उनसे भी ज्यादा करे।

वे जो उनके सघन एकांत के क्षण होते उसे भी काट-पीट कर वे रवि के नाम या कि उन तीनों के नाम कर देते। थके-माँदे सूरज जब घर लौटते, लेटे-लेटे रवि से पढ़ाई की बातें पूछते रहते और बातें करते-करते ही वे ऊँघने लगते और कई बार तो रवि से भी कहते, यहीं सो जाओ। फिर वर्तिका को भी अपनी उदासी को परे ढकेलते हुए धीरे-धीरे रवि से छोटी-मोटी बातें करते-करते सो जाने की आदत सी हो गई थी। धुर जाड़े की रातें तो अक्सर ऐसी ही होतीं क्योंकि इन दिनों सूरज का लौटना अक्सर देर से होता।

चाहे सूरज को लगता रहे कि रवि बच्चा है पर वर्तिका के लिए तो वह हमेशा बड़ा बना रहा। उदास हुई नहीं कि ठिठोली शुरु। खरोंच भी आ जाए तो डेटॉल ले कर तैयार। उसे शॉपिंग के लिए ले जाना, उसके सारे छोटे-बड़े काम आगे बढ़ कर करना। वर्तिका की जिंदगी से धीरे-धीरे सूरज प्रकाश जाते रहे थे, कब... कैसे... न वह समझ पाई और न वे। वर्तिका को धीरे-धीरे अपने सपनों का राजकुमार मिलने लगा था या कि रवि ने उसके मन के उस कोने में सेंध लगा ली थी जहाँ उसके सपनों का राजकुमार रहता था... या कि उसके सपनों के राजकुमार की छवि रवि से बहुत ज्यादा मिलती-जुलती थी और वे खेल-खेल में ही बदल गए थे एक-दूसरे से। वर्तिका की जिंदगी में धीरे-धीरे सबकुछ बदलने लगा था पर इस बदलने का आभास किसी को न था या कि वर्तिका को अगर थोड़ा-बहुत होता भी तो वह उसे सायास परे धकेल देती। जिंदगी बहुत स्मूथली चल रही थी। हाँ, जब तक माँजी-पिताजी थे वर्तिका को हमेशा लगता रहा कि वे रवि को वर्तिका के इतने करीब नहीं देखना चाहते थे। सूरज प्रकाश कह कर जाते कि रवि वर्तिका को डॉक्टर से दिखा लाए लेकिन वे जब दोनों निकलने को ही होते कि पिताजी रोक लेते कि बहू के साथ वे चले जाएँगे, तुम फलाँ काम... जब वे दोनों खिलखिल कर हँसते होते किसी ऐसी-वैसी बात पर कि माँजी पुकार कर रवि को पढ़ाई करने को कहतीं। जब वे दोनों लूडो-कैरम जैसे गेम में पिले होते उन्हें सिरदर्द हो जाता या कि उनकी दवाइयाँ खत्म हो जातीं। वर्तिका अब सोचती है तो यह तय नहीं कर पाती कि उन बुजुर्ग आँखों को भविष्य का अंदेशा था या कि... पर माँजी-पिताजी का साथ भी लंबा नहीं लिखा था और उनके जाने के बाद फिर...

यह वंश के जन्म के पहले की बात है। स्मूथली चलती जिंदगी में जैसे कुछ ठहराव सा आ गया हो। रवि को पुणे चला जाना था। उसे वहीं इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिल गया था। सूरज घर पर नहीं थे। वे तीन दिन उसके जाने की तैयारियों में कैसे बीत गए थे उसे पता ही नहीं चल सका था। दिन रात बस काम ही काम। मठरियाँ, नमकीन, शकरपारे बनाना, स्वेटर-कंबल-चादर इकम करना, उसके लिए नए कपड़े बनवाना उसके पहले छोटे-बड़े न जाने कितने और काम। उसे यह धुन ज्यादा परेशान किए रहती कि सूरज होते तो...

...वह जाने से पहले की रात थी, उसने उसका सारा सामान एक कमरे में इकम कर दिया था फिर भी देख रही थी कहीं कुछ छूटा तो नहीं। रवि ने पीछे से आ कर हथेलियाँ उसके कंधे पर रख दी थीं। सबकुछ ठीक है और अगर जो न हुई तो वहाँ भी मिल जाएँगी, आपको और ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं...

चलिए खाना खा लें। फिर तो पता नहीं कब... रवि भावुक जरूर था पर हमेशा जैसे खयाल रख रहा हो कि उसकी भावुकता कहीं दिखे नहीं। पर अभी... वर्तिका भी जैसे उदास हो गई थी, उस सतर्कता के छोर के रवि के हाथ से फिसल जाने भर से। उसने पल भर को सोचा था, अभी तक तो काम-काम... फिर कल से क्या करेगी वह। पल भर को चुप्पी पसरी रही थी उन दोनों के बीच। वर्तिका का मन जैसे पिघला जा रहा था।

...अपने-अपने कमरे में घुसने से पहले दोनों ने एक दूसरे को पलट कर देखा था फिर रुके थे क्षण भर को। रुकने के बाद फिर मुड़े थे। रवि ने अटकते-अटकते जैसे कहा था आज... मुझे ढेर सारी बातें करनी है आपसे... मैं सो जाऊँ आपके पास...? वह रुकी थी क्षण भर को। रवि उसके समानांतर आ खड़ा हुआ था। पिछले कई दिनों से तो आपको बात करने तक की फुर्सत नहीं... वर्तिका ने सोचा उसने क्यों नहीं कही यह बात। अलसुबह तो रवि को निकल ही जाना था। सूरज होते तो...

रात जैसे बहुत जल्दी-जल्दी बीत रही थी। आप अपना ध्यान रखिएगा। समय पर नाश्ता, खाना... आप अपनी परवाह बिल्कुल भी नहीं करतीं...

तुम भी... तुम्हें तो बिल्कुल भी होश नहीं रहता अपना न अपने सामान का। वहाँ भी ऐसा ही नहीं करना... (समय 12.30)

बरनॉल-डेटॉल सब किचेन के ड्रॉअर में ही है, कुछ हो तो लगा लेंगी। ऐसे ही नहीं छोड़ेंगी जख्म... (समय 1.22)

सर्दी की दवा तुम्हारे बैग में ही है। खाँसी-जुकाम तुम्हें हमेशा परेशान करते रहते हैं और तुम हो कि... मैंने लौंग की कलियाँ भी एक डिब्बे में रख दी हैं। खाँसी ज्यादा आए तो... (समय 2.34)

छोटी-छोटी बातें और छोटे-छोटे पल... वर्तिका ने पल भर को सोचा, सूरज तो हमेशा जाते हैं टूर पर, वह सामान भी इसी तरह रखती है पर इतनी चिंता तो कभी भी... उसने अपने मन को बहलाया था, सूरज को लौट आना होता है फिर।

घड़ी की सूइयाँ तीन बजा रही थीं। वर्तिका ने करवट बदली थी दूसरी तरफ, सो जाओ थोड़ी देर... अब क्या सोना, वक्त ही कितना है... रवि ने हौले से उसे अपनी तरफ मोड़ा था। वर्तिका अपने जिन आँसुओं को छिपाना चाहती थी आखिरकार रवि को दिख ही गए थे वे। रवि ने उसे अपनी बाँहों में समेट कर चुप कराना चाहा था, रोइए तो नहीं... फिर मैं वहाँ कैसे रह पाऊँगा, कैसे लिख-पढ़ पाऊँगा... वर्तिका ने उन बाँहों की कैद से खुद को मुक्त कराते हुए आँसुओं को पोंछने का उपक्रम किया था।

...पर आँसू थे कि जितना पोंछो और तेजी से बह रहे थे। उसका अकेलापन, उसकी जिंदगी की त्रासदी, उसके सुख, उसके दुख जैसे सब कुछ कह डालना हो उन्हें रवि से अभी के अभी... वह भी जो कि वह कभी नहीं कह पाई... पता नहीं फिर कभी मौका मिले भी कि न मिले। वे अलग-अलग होने की कोशिश में और ज्यादा एक-दूसरे की बाँहों में आ सिमटे थे। रवि के तप्त होंठ वर्तिका के सारे आँसू पी लेना चाहते थे, अब के और तब के भी जब वह नहीं होगा। वर्तिका उसकी पनाह में भूलना चाहती थी अपनी सारी पीड़ा। फिर किसी पर किसी का जोर नहीं चला था, खुद का भी नहीं और वह अघटित घट ही गया था जिसे कभी नहीं घटना था या कि घटा था वह जिसे घटित तो होना ही था। वर्तिका ने अपने हिस्से के सुख में सेंध मारी थी और उसे पा भी लिया था। अनंत सुख में डूबे हुए उन दोनों को किसी भी वस्तु का भान नहीं था। वे टूट कर जीए थे और मर भी गए थे... घड़ी ने सुबह के चार बजे का अलार्म बजाया था। वे हड़बड़ा कर एक दूसरे से अलग हुए थे, चार बज गए...?

वर्तिका के हाथों अल्बम का वह पन्ना यूँ कसा हुआ था जैसे उन क्षणों को अपनी मुट्ठी से आजाद नहीं करना चाहती हो वह। पर क्षण तो क्षण थे और उन्हें फिसलना ही था। किसी ने डोरबेल बजाया था। उसे जैसे होश आया हो, सूरज आए हों शायद... और उसने ठंडे हो आए दूध के साथ जल्दी से दवाइयाँ ले ली थीं और दरवाजे की तरफ लपकी थी।

सूरज तो नहीं थे, हाँ बाई दुबारे भी आ गई थी... इतना वक्त बीत चला, सूरज कहाँ रह गए आखिर। वह अतीत से सिर्फ निकल कर ही नहीं पूरी तरह निकल कर वर्तमान में आ पहुँची थी। उसने खुद को समझाया था, कोई मिल गया होगा। यूँ भी कब तक बैठे रहें वो उसकी खातिर। थोड़ा तो उन्हें भी वक्त मिलना ही चाहिए। पर मन में फिर भी सवालों के तूफान थे कि उठ-उठ ही रहे थे। इतनी देर तक बिना कुछ कहे, बिना उसे फोन किए सूरज आखिर कहाँ रुकते हैं कहीं। वह सूरज के लिए पहली बार इतना डर रही थी जैसे अब नहीं खोना चाहती हो कुछ भी। अब नहीं अकेले होना चाहती हो वह।

अपना ध्यान बँटाने की खातिर उन्होंने अल्बम फिर से देखना शुरू कर दिया। बृंदा के जन्म की तस्वीरें, दोनों बच्चों के स्कूल-कॉलेज की तस्वीरें फिर भी उनका मन था कि रम नहीं रहा था...। पन्ने पलटते-पलटते आखिर अन्तिम पन्ने पर आ कर थम ही गई थी वह। रवि और विशाखा की शादी की तस्वीरें... यह पहली तस्वीर थी जिसमें रवि सिर्फ था ही नहीं उसके केंद्रबिंदु में भी था। वर्तिका को यह अजीब लगा, जब रवि जिंदगी में था तस्वीरों में नहीं... और जब...

वर्तिका ने गौर किया वह भी तो नहीं थी कहीं इन तस्वीरों में। उसने समझाया था खुद को, फुरसत कहाँ थी उसे कामकाज से।

उसके मन ने ही उसे टहोका था बस सिर्फ इतनी सी बात थी...? काम से तो वक्त निकाल ही लेती थी तुम और किसी कोने-कँदरे में जा कर आँसू भी बहा लेती थी... कभी स्टोर में, कभी बाथरूम में, कभी... उसने जवाब दिया था खुद को ही... उसकी शादी से बहुत दुखी नहीं थी वह, पर भीतर ही भीतर एक कचोट सी उठती ही थी... अब तक जो उसका था, उसका सबसे करीबी... उसको खो रही है वह। उस पर उसका अधिकार खत्म हो रहा है।

उसके मन ने उसे फिर टोका था, पर यह तो तभी का हो चला था जब वह दूर चला गया था? उसने कहा नहीं था बस सोचा भर था... दूर जा कर भी उस तरह दूर कहाँ गया था वह। अक्सर फोन पर वही सारी कचर-पचर। दिन भर की एक-एक बात बताना... और छुट्टी मिलते ही घर भाग आना...

और सतर्क मन ने जैसे उसकी सुखद स्मृतियों पर बहुत सोच समझ कर पूर्णविराम लगाया था फिर धीरे-धीरे कमने लगा था यह सिलसिला। रवि का मन पुणे में ही रमने लगा था। दोस्तों की बातें ज्यादा जगह घेरने लगी थीं उनकी अपनी बातों में, कुछ दिनों बाद विशाखा की। घर आने का उतावलापन भी कमने लगा था। बहाने कई होते टेस्ट, असाइन्मेंट, वर्कशॉप और भी बहुत कुछ... सब बहाने या कि फिर सब सच।

उसने पहले ही तय कर लिया था कि रवि की जिंदगी में कोई लड़की आई नहीं कि वह समेट लेगी खुद को। पर सोचने जितना सहज कहाँ होता है कुछ भी। उसके भीतर जैसे रेशा-रेशा टूट रहा था कुछ। यह टूटन ऊपर भी दिखने लगी थी... अचानक ही उम्र दिखने लगी थी उसके चेहरे पर और इस उम्र को ढाँकने की उसकी सतर्क कोशिशें भी। वह पार्लर जाती, मसाज लेती पर फिर भी कहाँ कुछ सँभल रहा था, न भीतर न बाहर। वह खीझती बात-बात में, कहना चाहती सबकुछ सूरज से, रोना चाहती उनके कंधे पर सिर डाल कर... शायद इस तरह जिंदगी सहज हो जाए, शायद इस तरह एक नई शुरुआत कर सके वो... पर सबकुछ सोच लेने जितना सहज नहीं होता जिंदगी में। इसीलिए शायद ऐसा वह कभी कर नहीं पाई।

वह रवि से भी कहना चाहती थी बहुत कुछ। उनके प्यार का आखिर यह कौन सा सिला दिया था उसने... कैसे कुछ दिनों, महीनों में वह भूल सका उन्हें... कैसे आखिर... पर कहती वे कुछ भी नहीं किसी से। बस टूटती, छीजती रहती भीतर ही भीतर।

सूरज एक मराठी लड़की से रवि की शादी के खिलाफ थे। पर उसकी जिद से ही तैयार हुए थे हार कर। रवि की शादी नहीं हो ऐसा बिल्कुल भी नहीं चाहती थी वह। जब भी वह पहले कभी फोन पर या कि भावावेश के क्षणों में कहता मैं शादी नहीं करूँगा, छुट्टियों में वहीं चला आऊँगा आप सब और बच्चों के पास तो वह उसे कस कर डाँटती। उसकी शादी उनका भी सपना था। वह तो बस यह चाहती थी कि पहले वह तैयार कर ले खुद को इसके लिए, फिर ढूँढ़ कर लाए रवि के लिए एक चाँद जैसी दुल्हनिया। पर रवि ने मौका ही कहाँ दिया था... न दुल्हनिया ढूँढ़ कर लाने का, न सँभलने का। सूरज बौखला गए थे, पढ़ाई खत्म होने के पहले ही शादी करने की जिद से। उसने उन्हें बहुत मुश्किल से सँभाला था... हड़बड़ी कुछ-कुछ तो समझ में आ ही रही थी उसे... और शादी के आठवें महीने अंकुश के जनम के साथ सूरज भी समझ गए थे सबकुछ...

वह सोचती अगर उन्होंने रवि के लिए दुल्हन ढूँढ़ी होती तो मलाल कम गया होता उसका। विशाखा को वह चाहे जितना प्यार दे ले, पर भीतर तो वह जले पर लगे नमक जैसा ही छनछनाती थी वह।

और विशाखा भी तो... पढ़ाई पूरी होते-होते उन दोनों ने नौकरी कर ली थी। और फिर विशाखा ने लौटने कब दिया था रवि को फिर उन लोगों के पास... वे भीतर ही भीतर इंतजार करती... सूरज बाहर-भीतर कुढ़ते... आना-जाना तो दूर एक फोन तक करने की फुरसत नहीं है साहबजादे को...

खयालों में फिर आ कर सूरज अटक गए... वही चिंता जिससे वह दूर भाग रही थी। सूरज अब तक आए नहीं क्यों आखिर। भीतर एक अनाम सा भय चिलकने लगा था, उन्हें घर जरूरत से बहुत ज्यादा बड़ा लगा था दीवारें बहुत ज्यादा मजबूत। अगर इसमें सूरज के बगैर रहना पड़े तो...? और इस अकेलेपन की कल्पना भर से ही सिहर उठी थीं वह, नहीं... वह सूरज के बगैर जी नहीं पाएगी। वह भले ही सोचती रही हो कि सूरज का साथ उसकी मजबूरी हो पर उम्र के इस मोड़ पर यह साथ उसके चाहते न चाहते उसकी आदत बन चुकी थी और आदत से भी ज्यादा एक जरूरत... वे उठी थीं और उन्होंने अल्बमों को समेट कर आल्मारी में रख दिया था। रखने के क्रम में कुछ तस्वीरें फिसल कर नीचे गिर पड़ी थीं, वह समेटने लगी थी उन्हें जैसे जो कुछ बचा-खुचा रह गया है उन सबको सहेज कर रख लेना चाहती हो अपने पास...

शाम रात में तब्दील होने लगी थी और वे बाहर दरवाजे पर कुर्सी डाल कर बैठ गई थीं, ठंड-ओस की परवाह किए बगैर। वे भूल चुकी थीं अपनी अस्वस्थता, अपना दर्द। बस सूरज... एक सूरज। अगर उन्हें कुछ हो गया तो... भीतर एक तीखा सा दर्द चिलका था - नहीं। वह माने कि न माने एक सूरज ही तो हैं जो साए की तरह दिन-रात उसके साथ रहते आए हैं। वह भले ही डूबी रहे अपने खयालों में पर सूरज ने तो हमेशा उसी का खयाल किया है... बीता सबकुछ धुँधलके में खो रहा था कहीं... बस सूरज... अकेले सूरज... एकमात्र सूरज... उसे कुछ और नहीं चाहिए जिंदगी में। उसने पहली बार सूरज के लिए यह तड़प महसूस की थी अपने भीतर, गोकि इसके बाद एक और खयाल आया था मन में, यह पीड़ा सूरज से ज्यादा कहीं अपने लिए तो नहीं थी, अपने अकेले होने का भय... किसी के भी साथ न होने का भय, पीछे छूटे रह जाने का दर्द या कि वे सारी की सारी चिंताएँ जो क्रमशः बूढ़े होते किसी इंसान को हो सकती हैं...

हाँ, अगर ऐसा है तो ऐसा ही सही... इस असुरक्षाबोध के आलोक में उसने सूरज को पहचाना तो था। देखा तो था अपने रिश्ते का यह नया स्वरूप...

बाहर कुछ खटका था, वे दौड़ पड़ी थीं। बाहर सचमुच सूरज ही थे। वे उनके गले लग गई थीं और इस गले लगने से सचमुच शरमा गई थीं वो। पहले तो कभी इस तरह...

सूरज हँस पड़े थे, क्या हुआ...? परेशान हो बहुत...? थोड़ी सी चोट लग गई थी, वे चौंकी थीं और तब जा कर गौर किया था उनके दाहिने कंधे पर बँधी पट्टी को। वे और कस कर लिपट पड़ी थी उनसे... डॉक्टर के यहाँ जाने के लिए गाड़ी पार्क कर के अभी निकला ही था कि एक साइकिलवाले से धक्का लग गया। वैसे चोट तो ज्यादा नहीं पर...

...वे सूरज को ऐसे सहेज कर ले जा रही थीं जैसे वे कोई दुधमुँहा बच्चा हों...

वे दौड़ कर उनके लिए पानी ले कर आई थीं। सूरज ने जेब से निकाल कर दवाएँ थमा दी थीं।

सूरज एकटक देखते रहे थे उन्हें जैसे कि पहली बार मिली वर्तिका को देखा था। पर आज की वर्तिका उन्हें और भी ज्यादा सुंदर लगी थी, और भी ज्यादा सहज। अनुभवों की रोशनी से चमकती वर्तिका की आँखों की जगर-मगर उन्हें बाँध ले गई थी अपने मोहपाश में। वे आँखें जो उनकी राह देखती हैं... जो उनकी परवाह करती हैं और इस कदर करती हैं। यह वे अभी-अभी जान पाए थे... और जिस एक बात को जानने की चाह उनके भीतर वर्षों से संचित थी।

तो क्या उनके जीवन का प्रतीक्षित पल आ गया था, सचमुच...?

...वे साथ-साथ खा रहे थे हमेशा की तरह पर इस साथ-साथ खाने में साथ खाने का भाव उन्होंने पहली बार महसूसा था...

रात गहरा रही थी, पर सूरज के अंतर में एक आलोक था, एक मर्मभेदी आलोक...

रात बीत रही थी और वर्तिका सचमुच उनके पास थी... उनसे घिरी हुई। इतना पास, इतनी करीब तो वह कभी नहीं लगी। बीता सबकुछ धुँधलका सा... तो क्या वे सचमुच वर्तिका के भीतर पहुँच चुके थे और वह भी किसी सेंध या कि चोरदरवाजे से नहीं। उसके भीतर तक पहुँचने की वह लंबी राह अब उन्हें बौनी होती लगी थी।

...उन्होंने सुना वर्तिका कुछ कह रही थी बहुत हौले, उनसे सटे हुए ही। वे अपने कानों को उस आवाज तक ले गए थे... वे सजग हुए थे थोड़े... मैंने पहले कभी कहा नहीं, पर कहना चाहती थी हमेशा... मेरी जिंदगी में था कोई... कोई क्या... वह... कोई और नहीं... र...। कि सूरज प्रकाश ने हौले से अपनी उँगलियाँ वर्तिका के होंठों पर रख दी थीं नहीं कुछ भी नहीं... कुछ भी कहने सुनने की कोई जरूरत नहीं है हमारे बीच... हम दोनों ने साथ-साथ ही तो जिया है... और मैंने महसूस भी किया है सबकुछ। तुम्हारा अकेलापन, तुम्हारा दुख, तुम्हारी पीड़ा तुम कहो कि न कहो...

मैं तो बस इसी में खुश रहा कि तुम छोड़ कर नहीं गई अकेले मुझे बीच राह...

...वर्तिका को लगा कि वह सिमट कर बहुत छोटी हो गई है, बिल्कुल टुइँया सी... और सूरज हैं कि बड़े हुए जा रहे हैं, इतने बड़े कि पूरा बिछावन छोटा हुआ जा रहा है। इसी बृहत्तता में दुबक कर जी लेंगी वे अपनी बची-खुची सारी जिंदगी और सचमुच उन्होंने गौर किया जुगनू से चमकते इन पलों में कुछ भी नहीं था, न बाहर, न भीतर न अंतस न कि स्मृतियों में... बस सूरज थे, वे थीं और कुछ पल... या कि बहुत सारे पल उनके साझा सुखों के...