ऊषा बहन जी चुप थी / सन्तोखसिंह धीर / केवल गोस्वामी

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पिछले बीस बरस से ऊषा बहन जी शहर में मजदूरों के बीच काम कर रही थी और उनमें बहुत लोकप्रिय थी! मजदूरों की स्त्रिायों में वह और भी जानी-पहचानी थी।

मजदूरों की दैनिक समस्याओं के लिए भी वह संघर्ष करती थी वह उन्हें सचेत करती थी शिक्षित करती थी! उनका विश्वास था कि देश में एक दिन मजदूरों का अपना राज होगा और जमाना बदलेगा। पूंजीवाद समाप्त होगा। समाजवाद आएगा और मजदूर अपने श्रम का खुद मालिक होगा, गरीबी समाप्त होगी, हर किसी को अच्छा खुशहाल जीवन मिलेगा साथ ही वह यह भी कहती थी कि इसके लिए मजदूरों को लम्बी लड़ाई लड़नी होगी।

वह ठीक कहती थी।

मजदूर उनके नेतृत्व में संद्घर्ष करते आ रहे थे। मजदूरों की स्त्रियां संग्राम में हिस्सा लेती थीं। मजदूरों की स्त्रियों में उन्हें देवी जैसा आदर-सत्कार मिलता था।

ऊषा बहन जी शिक्षित एवं विवेकशील थी। उन्हें सारी दुनिया के हालात मालूम थे। कहाँ क्या हो रहा है वह सब कुछ बता सकती थी। रूस, चीन, फ़्रांस, अमरीका उनके लिए ऐसे थे जैसे शहर के गली कूचे।

ऊषा बहन जी साधारण स्त्रिायों की तरह नहीं थीं, वह उनसे सर्वथा भिन्न थीं। मंच पर भाषण देते समय बादल की तरह गरजती थी। मजदूर उन्हें देखते ही 'बहन जी बहन जी' पुकारने लगते थे।

ऊषा बहन जी गहन-गंभीर एवं चरित्रावान नेता थी। वह सांसदों से भी वार्तालाप कर सकती थी और अशिक्षित कुलियों से भी। वह यद्यपि संभ्रांत थी किंतु स्वयं को सामान्य जाति का मानती थी। भद्र लोगों को पृथक सर्वहारा के साथ रच-बस जाती थी। वह फरिश्तों की मानिंद थी जो छोटे-बड़े का अंतर मिटाकर मानवता के आधार पर अपनी जीवन यापन करते हैं। उनके लिए सभी इंसान एक समान थे, एक सांसद क्या और एक कुली क्या? वह कुलियों मजदूरों के द्घरों में बड़ी बेतकल्लुपफी से जाती थी और उनके घर का एक सदस्य बन जातीं। उनके मैले कुचैले बच्चों को इस प्रकार गोदी में लेती जैसे वे उनके अपने बच्चे हों।

ऊषा बहन जी की व्यक्तित्व भी बड़ी आकर्षक था, गोरा रंग, तीखे नयन-नक्श, चौड़ा माथा, गोल गदराए चेहरे पर बड़ी-बड़ी आँखें, लम्बी सुराहीदार गर्दन सामान्य कद काठी। वह आमतौर पर सीधी-सादी साड़ी पहनती थी, कभी-कभी सलवार सूट भी। साड़ी में वह पंख फैलाए फूली हुई बत्तख के समान लगती थी। उनके बाल भी साधारण ही थे। वह सीधी मांग निकालती तथा पीछे एक छोटी सी चोटी या जूड़ा बनाती थी, पीछे से उनकी चोटी में एक डोरी भी नजर आती थी। उनके केश साधारण पार्टियों में बंटे होते थे किंतु वह फ़िर भी आकर्षक लगती थी, वास्तव में उनकी सुंदरता तो अत्यंत सादगी में रहने की ही थी।

उनके पति भी प्रसि (समाज सेवी एवं राजनीतिक कार्यकर्ता थे। वह भी ऊषा बहन जी की भांति ही मजदूरों में अत्यंत लोकप्रिय व्यक्ति थे। एक जमाने में वह ऊषा बहन जी के सहपाठी थे। दोनों प्रगतिशील विचारों के तथा संभ्रांत घरानों से संबंधित थे। विशेषता यह थी कि दोनों में आरंभ से ही लोककल्याण की भावना कूट-कूट कर भरी थी। दोनों विवेकशील थे और तदैव लोकहित के बारे में ही चिंतन किया करते थे। निजी चिंताओं से वे दोनों सदा सर्वदा के लिए मुक्त हो गए थे।

ऊषा बहन जी की आयु इस समय ४६ वर्ष के आस-पास थी और उनके पति पचास पार के प्रतीत होते थे। दोनों के कोई संतान नहीं थी, बच्चा हुआ ही नहीं था या उन्होंने खुद परिवार नियोजन अपनाया था, यह बात स्पष्ट नहीं थी। मालूम होता था उन्होंने आत्म नियंत्रण किया था, क्योंकि वे जिस प्रकार का जीवन जी रहे थे, उसमें परिवार के विस्तार की कोई गुंजाइश नहीं थी।

उच्च घराने में जन्म लेने पर भी दोनों आँषियों-मुनियों की तरह रहते थे। सुना था कि दोनों के पास एक छोटा सा कमरा था, थोड़े से बर्तन तथा जरूरत भर की वस्तुएँ थीं। उनकी जरूरते थीं ही कितनी? कंधों पर झोला लटका कर दोनों अपने-अपने क्षेत्रा में काम पर निकल जाते, जमाने को वे आदर्श पति-पत्नी लगते थे।

ऊषा बहन जी जब कभी मजदूर बस्ती में आती तो स्त्री-पुरुष उनके गिर्द इकट्ठे हो जाते- “आज तो बहन जी आयी हैं। ऊषा बहन जी आयी हैं।” उनके मध्य स्वयं को पाकर ऊषा बहन जी बहुत प्रसन्न होती थी। ऊषा बहन जी मछली और लोग उनके लिए पानी थे। ऊषा बहन जी आती तो एक बार लगभग सारी बस्ती में चक्कर लगाती। “क्या बात है रानी? हरबंसकौर का क्या हाल है। पूरन देवी कैसी है, अब तो घरवाला शराब पीकर नहीं मारता? ओ भई गुरवचन सिंह तेरी शिकायत आई हैऋ तू ताश के साथ जुआ खेलता है, भाई यह ठीक नहीं बच्चे कैसे पलेंगे?”

“दुलारी! मिल गई न तेरे मर्द को नौकरी! उससे कहना जी लगा के काम करे! उसमें भी कमी है।

“हाँ उस प्यारा राम की माई का क्या हाल है! वह बीमार थी न?”

“बहन जी! वह तो अब ठीक-ठाक है

कभी स्त्रियां कभी पुरुष उन्हें पूछने आते।”

“बहन जी यह मिल वाले अब बोनस कब तक देंगे?”

“भाई, बोनस भी देंगे, उसके लिए लड़ाई लड़ तो रहे हैं।”

“बहन जी! राम स्वरूप के मामले का क्या फैसला हुआ जिसका हाथ कट गया था?”

“उसको भी मुआवजा मिलेगा।”

“उस रुलिए फिटर का?”

“कौन रुलिए?”

“जिसे निकाल दिया गया था”

“उसके बारे में मुझे पता नहीं, देखकर पता लगेगा।”

बस्ती में दलीपकौर नाम की एक मजदूर स्त्री थी, जब ऊषा बहन जी एक दिन उसके घर गयीं तो वह गुमसुम सी बैठी थी। ऊषा बहन जी ने उससे कारण पूछा

“क्या बात है दलीपकौर! बहुत उदास बैठी हो।”

“किसी से झगड़ा हुआ है क्या?”

“नहीं!” उसने धीरे से भरी-भरी आवाज में कहा “कोई झगड़ा तो नहीं हुआ।”

“फ़िर तुम इतनी उदास क्यों हो, एकदम गुमसुम?”

“क्या बताऊँ बहन जी। बात ही कुछ ऐसी है।”

“मुझे बताने वाली नहीं।”

“नहीं जी बताने वाली तो है।”

“फ़िर तू बताती क्यों नहीं है।”

दलीपकौर की आँखों से बेर के बराबर मोटे-मोटे आंसू धरती पर गिरने लगे।

“बहन जी आपको क्या बताऊँ आज तो मैं मर भी नहीं सकती।”

“ओ हो, पर हुआ क्या? आखिर बात भी बताओगी।”

“बात तो बहन जी कुछ भी नहीं, पर है इतनी बड़ी कि...”

ओ हो पर बता भी दो, मेरी अच्छी बहन।”

दलीपकौर ने लड़ियों जैसे आंसू छिटके और रुंधे गले से बोली- “बहन जी आज बारह बजे के लगभग मेरी भान्जी आ गयी थी...”

“तुम्हारी बहन का बेटा”

“हाँ, मेरी बहन का बेटा! कभी-कभी आ जाया करता है।” मैंने उससे रोटी पूछी तो उसने हामी भर ली...”हाँ मौसी खाऊँगा।”

बहन जी बड़ी उत्सुकता से उसकी बात सुन रही थी।

“घर में आटा नहीं था, उधार लेने के लिए आस-पड़ोस का कोई घर छोड़ा नहीं था। सबका आटा देना था, सुबह भी उधार के आटे में रोटी बनाई थी, और अब आटा खत्म था। सुबह की दो रोटियां घर में बची पड़ी थीं और थोड़ी सी दाल भी। बहन जी मैंने वही दो रोटियां, टिफिन जैसी-थाली में रख दी और साथ में वही दाल। बहन जी, मैंने उसके आगे थाली रख तो दी थी, पर मुझे उसके पास खड़े रहना मुश्किल लग रहा था। भगवान की दया से अठारह-उन्नीस बरस का जवान लड़का था-दो नामालूम रोटियों से उसका क्या बनना था? मैंने थाली उसके आगे रखी और खुद घर से निकलकर पड़ोसियों के घर जा बैठी। अगर मैं उसके सामने होऊँगी तभी तो वह और रोटी मांगेगा।”

ऊषा बहन जी पत्थर बनी बिट-विट देख रही थी। उनके लिए हुंकार भरना मुश्किल हो रहा था।

“बहन जी बार-बार मैंने पड़ोसियों के घर से अपने घर की ओर देखती रही, कब वह उठकर जाए और कब मैं घर में लौटूँ?”

“मेरा इंतजार करके आखिर वह लड़का वहाँ से उठा और साइकिल पकड़ कर चला गया। उसने वही दो रोटी खाकर थाली नीचे रख दी थी।”

“बहन जी वह धीरे-धीरे गली में चला जा रहा था, मैंने उसकी पीठ देखी थी।”

“बहन जी वह अपने मन में क्या सोचता होगा। ऐसी है मेरी मौसी?”

“बहन जी वह कितने दिनों बाद आज मेरे घर आया था, मेरी बहन क्या कहेगी?”

दलीप कौर की आँखों से फ़िर आंसू बहने लगे। “ऊषा बहनजी चुप थी।”