ऋचा / भाग-8 / पुष्पा सक्सेना

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अचानक ऋचा को लगने लगा, वह तो बस एक मोहरा भर बनकर रह गई है। उसे अपनी लड़ाई खुद लड़नी है। दूसरों के लिए संघर्ष करनेवाली ऋचा कितनी निष्क्रिय बन गई है। नहीं, ऋचा को मोहरा बने रहना स्वीकार नहीं, उसने कोई ग़लती नहीं की है, फिर क्यों उसके घरवालों को मॅंुह छिपाना पड़ रहा है। अब और नहीं....

बिस्तर से उठकर ऋचा सामान्य रूप में किचेन चली गई। उसे देखते ही माँ चैंक गई-

"तू यहाँ क्यों आई है, जाकर बिस्तर पर आराम कर। बड़ा भारी काम करके आई है न?" घृणा माँ के स्वर में बज उठी।

"बड़ा काम करने तो अब जा रही हूँ, माँ, और हाँ मुहल्ले-पड़ोसियों के सामने रोने-धोने से कोई फ़ायदा नहीं होनेवाला। उनके लिए घर के दरवाजे नहीं खुलेंगे।" दृढ़ स्वर में अपनी बात कहकर ऋचा ने चाय का पानी चढ़ा दिया।

ऋचा को सामान्य देख आकाश का मुँह चमक उठा। पिता के सामने चाय का कप धरकर ऋचा ने कहा-

"बाबू जी, आप कब तक आॅफ़िस नहीं जाएँगे? आपकी बेटी के साथ जो हादसा हुआ, उसके लिए आपको आँखें चुराने की ज़रूरत नहीं है। आँखें तो शर्म से उन्हें नीची करनी होंगी जो इस हादसे के लिए ज़िम्मेदार हैं। मैं उन्हें सज़ा दिलवा के रहूँगी।"

बेटी के दृढ़ चेहरे को देख पिता को जैसे साहस मिल गया।

"ठीक कहती हो, बेटी। मैं आज ही आफ़िस जाऊॅंगा। लोगों के सवालों का मॅंुहतोड़ जवाब दूँगा। मेरी बेटी की तरह कल किसी और की बेटी के साथ ऐसा हादसा हो सकता है, किसी की बेटी को तो हिम्मत करनी ही होगी। यह हिम्मत मेरी बेटी ने की है।" बाबू जी उठकर तैयार होने चले गए।

"बाबू जी ठीक कहते हैं, मेरी दीदी बहादुर है। डरपोक लड़की तो बात छिपाकर रोती रह जाती। अब स्कूल जाते मैं भी नहीं डरूँगा।" आकाश अचानक बड़ा हो गया।

ऋचा पुलिस-स्टेशन जाने को तैयार हो रही थी कि सीतेश के साथ सम्पादक जी आ गए।

"कैसी हो, ऋचा?" कुछ संकोच से सम्पादक जी इतना ही पूछ सके।

"पहले के मुकाबले लड़ने की और ज्यादा ताकत आ गई है, सर।" हॅंसती ऋचा ने दोनों को विस्मित कर दिया।

"देखो बेटी, जो हो गया सो हो गया। वे लोग तुमसे माफ़ी माँगने को तैयार हैं। अखबार के दफ्तर में भी तुम्हें सहायक सम्पादक का काम दिया जाएगा। तुम्हारे लिए एक फ्लैट व कार की स्थायी व्यवस्था की जाएगी। बोलो मंजूर है?"

"अच्छा तो मेरे अपमान की कीमत एक फ्लैट और कार है? नहीं, सर। मुझे कोई भी कीमत स्वीकार नहीं है। मैं अपनी लड़ाई में किसी की बैसाखी नहीं चाहती।" उत्तेजित ऋचा का मुँह लाल हो आया।

"एक बार फिर शान्ति से सोच लो, तुम्हारे माता-पिता और भाई के भविष्य की भी पूरा व्यवस्था की जाएगी। कहते हैं, सज़ा देने की जगह क्षमा-दान अधिक महत्वपूर्ण है।"

"क्षमा सुपात्रों को दी जानी चाहिए, कुछ कुपात्र दण्ड के ही योग्य होते है। मुझे क्षमा करें, सर। मुझे बाहर जाना है।"

उनके जाते ही माँ ने ऋचा को आड़े हाथों लिया था-

"उनकी बातें मान लेने में सबकी भलाई थी, ऋचा। इतना घमण्ड किस काम का? रस्सी जल गई, पर ऐंठन नहीं गई। क्या मिल जाएगा कोर्ट-कचहरी जाके? उल्टे कचहरी में तेरी छीछालेदार और होगी।"

"माँ होकर तुम बेटी के उन पापियों से फ़ायदा उठाने की बात सोच रही हो? ऐसी बात सोचते भी शर्म आती है, माँ। मैं जा रही हूँ।"

"कहाँ जा रही है? अरे, अब क्या तू बाहर मुँह दिखाने लायक रही है? क्यों हमारे मुँह पर और कालिख पुतवाने पर तुली है, ऋचा?"

"कालिख पुती है तो उसे धोना जरूरी होता है, माँ।" माँ को और बात कहने का अवसर न दे ऋचा ने साइकिल निकाली। साइकिल बरामाद करने में पुलिस वालों की मुस्तैदी निःसन्देह काबिले तारीफ़ थी।

घर से बाहर निकलते ही ऋचा पर पड़ोसियों की निगाहें टंग गई। सत्या ताई ने आगे आकर पूछा-

"कहीं बाहर जा रही है, बेटी? तबीयत तो ठीक है न?"

"ऋचा बेटी, जरा सम्हल के साइकिल चलाना, घाव सूखे नहीं होंगे।" मॅंुहबोली मौसी ने हमदर्दी जताई।

किसी भी बात का जवाब न दे ऋचा ने साइकिल के पैडल पर पाँव रख, स्पीड तेज कर दी। पीछे औरतों का हुजूम विस्मय से निहारता रह गया।

"जरा लड़की की हिम्मत तो देखो। इतना झेलने के बाद भी कोई फ़रक नहीं पड़ा"

"हाँ बहन, एक हम थे, पहली रात के बाद चार दिन तक कमज़ोरी महसूस करते रहे।"

"अरे, आजकल की लड़कियों की कुछ न कहो, सब खेली-खाई होती हैं। हमारा ज़माना ही दूसरा था।" ताई ने मुँह बिचकाया।

"नहीं, ताई, सब लड़कियाँ एक-सी नहीं होतीं। हमारी शालिनी को देख लो, कॅालेज से सीधे घर आती है। हाय राम! मैं तो गैस पर दूध चढ़ा आई थी।" मौसी के जाते ही ताई ने ताना मारा-

"इनकी शालिनी कैसी है, हम जाने हैं, पड़ोस के लड़के मदन के साथ स्कूटर पर बैठकर घूमे है। हमें क्या किसी से लेना-देना। चलें घर में ढेरों काम पड़े हैं।"

"जो भी हो, ऋचा के साथ हुआ बहुत बुरा। बेचारी की ज़िन्दगी खराब हो गई। अब कौन उसके साथ शादी करेगा।" समवयस्का नई ब्याही सत्तो को ऋचा से हमदर्दी हो आई।

घर के काम निबटाना सबकी मजबूरी थी, वरना आजकल टी.वी. सीरियल के मुकाबले उन्हें ऋचा की कहानी में ज्यादा मज़ा आ रहा था।

थाने में ऋचा को देख इन्स्पेक्टर कुलकर्णी हक्का-बक्का रह गया।

"आप........... खुद यहाँ आई हैं?"

"जी हाँ, मैं जानना चाहता हूँ, केस की क्या स्थिति है? तीनों अभियुक्त कहाँ हैं?"

"जी........ उन्हें तो कल ज़मानत पर छोड़ दिया गया है। उनपर मुकदमा चलाया जाएगा।" इन्स्पेक्टर हड़बड़ा-से गए।

"ज़मानत पर छोड़ दिया गया ताकि बाहर जाकर किसी और लड़की का बलात्कार करें?" ऋचा की आँखों से चिनगारियाँ छूट रही थीं।

"देखिए, कोर्ट के आर्डर के सामने हमारी बात नहीं चल सकती।"

"ठीक है मि. कुलकर्णी, मैं देखती हूँ, क्या किया जा सकता है।"

उत्तेजित ऋचा सीधी चीफ़ जस्टिस गर्ग के घर पहुँच गई। दरबान के रोकने की परवाह न कर, डोर-बेल बजाती गई। दरवाजा खुलते ही ऋचा अन्द प्रविष्ट हो गई।

चीफ जस्टिस गर्ग ब्रेकफास्ट ले रहे थे। ऋचा को देख चेहरे पर नाराज़गी-सी उभर आई। नाराज़गी की परवाह न कर, संक्षेप में ऋचा ने अपना केस सुना दिया।

"आप मुझसे क्या चाहती हैं? अन्ततः हर बात का एक तरीका होता है। इस तरह बिना इजाज़त घर में घुस आना अपराध है। आपको सज़ा दी जा सकती है। कानून का अपना नियम है। हर फैसला नियम-कानून के अधीन किया जाता है।"

"किस कानून की बात आप कर रनहे हैं, सर? जहाँ एक लड़की का तीन-तीन युवक सामूहिक बलात्कार करने के बाद खुले घूम रहे हैं और फ़रियादी लड़की को कानून के नियम-कायदे समझाए जाते हैं?"

"कोर्ट के फ़ैसलों में वक्त तो लगता ही है। तुम्हें सब्र से काम लेना चाहिए।"

"सब्र रखने की बात कहना बहुत आसान है, अगर यही हादसा आपकी अपनी बेटी के साथ होता तो क्या आप इसी सब्र से काम लेते? नहीं सर, नहीं। जब तक बलात्कार झेलनेवाली लड़की के साथ आप जुड़ाव न महसूस करेंगे, तब तक रोज़ किसी शीला, मीना, लीला, रमा का बलात्कार होता रहेगा। कुछ देर के लिए मुझमें अपनी बेटी को देख लीजिए, सर, तब आप उस पिता के हाहाकार को समझ सकेंगे, जो आज मेरे पिता सह रहे हैं।"

चीफ़ जस्टिस गर्ग मौन रह गए। उनकी पत्नी की आँखों में आँसू आ गए।

"मैं तुम्हारा दर्द समझ रही हूँ, बेटी। मुझे खुशी है, तुमने हिम्मत नहीं हारी। मेरा आशीर्वाद है, तुम्हें कामयाबी मिले।"

"ठीक हैं, तुम अपना मुकदमा दाखिल कराओ। विश्वास रखो, तुम्हारे साथ अन्याय नहीं होगा।"

"थैंक्यू, सर!"

ऋचा का चेहरा चमक उठा। रास्ते में महिलाओं का जुलूस जोरदार नारों के साथ सड़क पर उतर आया था। एक बार जुलूस में शामिल होने की इच्छा हो आई, पर अब उसे अपने केस के लिए वकील ढॅूँढ़ना है।

घर वापस आती ऋचा को विशाल बेतरह याद आने लगा। काश, आज इस मुश्किल के वक्त विशाल उसके साथ होता, पर वह तो इतना कायर निकला कि झूठी तसल्ली के दो शब्द देने भी नहीं आ सका। ऋचा जानती है, अब वह पहले वाली स्थिति में नहीं है, शादी न सही, दोस्ती तो कायम रखी जा सकती थी। शायद अन्य सामान्य पुरूषों की तरह ही बलात्कार की शिकार लड़की के साथ किसी भी तरह का सम्बन्ध बनाए रखने में उसे अपना सम्मान घटने का डर होगा। इस वक्त ऋचा के सामने सच शीशे की तरह साफ़ था। हाँ, वह विशाल से बहुत प्यार करती है। पर शायद विशाल के लिए ऋचा बस एक समय काटने की साथिन भर थी।

साइकिल रख, बैठक में विशाल को देख, ऋचा चैंक गई। क्या यह सच था!

"तुम........ यहाँ?"

"हाँ, ऋचा। बड़ी देर से तुम्हारा इन्तज़ार कर रहा हूँ।"

"थैंक्स, विशाल! वैसे यहाँ आने की तो तुम्हें कोई जल्दी नहीं थी।" अनजाने ही ऋचा की आवाज में व्यंग्य उतर आया।

"देर या जल्दी का सवाल तो तब उठता, जब मैं शहर में मौजूद होता, ऋचा।" उदास स्वर में विशाल ने बताया।

"ओह! तो हादसे की बात सुनते ही आप शहर छोड़ गए। ठीक कहा न, विशाल?" अपनी सवालिया आँखें ऋचा ने विशाल पर निबद्ध कर दीं।

"मुझे इतना ही जान सकीं, ऋचा?" आहत स्वर में विशाल ने पूछा।

"तुम्हें जान ही कहाँ सकी, विशाल? मैं तो भ्रम में जीती रही।"

"और मेरी गैरहाज़िरी ने तुम्हारा वह भ्रम तोड़ दिया।"

"शायद, यही सच है।"

"तुम कुछ नहीं जानती, ऋचा। उस रात पिक्चर के बाद जब घर पहुँचा, पापा का मेजेस था, माँ को सीरियस हार्ट-अटैक हुआ था। रात में ही घर के लिए निकल गया। आज लौटते ही तुम्हारे पास आया हूँ।"

"सच कह रहे हो, विशाल?" कुछ अविश्वास से ऋचा ने पूछा।

"माँ की बीमारी का बहाना ओछे इन्सान बना सकते हैं, मैं, वैसा इन्सान नहीं हूँ।"

"अब माँ कैसी हैं?"

"ख़तरे के बाहर हैं, पर छह हफ्तो का बेड़-रेस्ट बताया गया है।"

"इस वक्त तो तुम्हें उनके पास होना चाहिए था, विशाल। "

"मेरा जिसके साथ इस वक्त रहना जरूरी है, उसी के पास आया हूँ, ऋचा। तुम्हारा केस फ़ाइल करना है। सारे पेपर्स तैयार हैं, तुम्हारे सिग्नेचर चाहिए।"

"मुझसे कुछ नहीं पूछोगे, विशाल?" ऋचा की आँखें भर आई।

"जिस ऋचा को इतने करीब से जाना है, उससे कुछ पूछने की क्या सचमुच कोई ज़रूरत है?"

"विशाल, मैंने हर पल तुम्हें याद किया, तुम्हारी कमी महसूस की।" ऋचा की आँखों से आँसू बह निकले।

"छिह, यह कौन-सी ऋचा है? मेरी ऋचा आँसू नहीं बहा सकती।" बड़े प्यार से विशाल ने ऋचा के आँसू पोंछ दिए। ऋचा मुस्करा दी।

"ठहरो, तुम्हारे लिए चाय लाती हूँ।"

"चाय क्यों, मैं तो खाना खाऊॅंगा, अम्मा जी अपने होनेवाले दामाद के लिए खाना बना रही हैं।" शैतानी से विशाल मुस्करा दिया।

"क्या ......... क्या कहा तुमने?"

"वही जो तुमने सुना है। कहो, तुम्हें तो कोई इन्कार नहीं है, ऋचा?"

"नहीं, विशाल। अब स्थिति दूसरी है। तुम्हारे परिवारवालों को बलात्कार की शिकार लड़की स्वीकार नहीं होगी। शायद तुम भी दयावश मुझसे शादी करना चाहो। पर जब भी मुझे देखोगे हमेशा वह हादसा तुम्हें याद आएगा। मैं तुम्हें मुक्त करती हूँ, तुम किसी और लड़की से विवाह कर लो।"

"अरे वाह, पहले खुद प्यार के बन्धन में बाँधा और अब अपनी मर्ज़ी से मुक्त कर दिया। देखो ऋचा, मैं तुम्हारे इशारों पर नाचने वाला गुलाम नहीं, मेरी भी मर्ज़ी है।"

"तुम्हारी क्या मर्ज़ी है, विशाल?"

"मैं तुम्हारे साथ शादी करूँगा। हमारा एक प्यारा-सा घर होगा। घर में ढेर सारे गुलाब खिलेंगे। नन्हे-मुन्ने बच्चे होंगे........."

"बस-बस। अब ये सपने मत दिखाओं। विशाल, मैं नहीं चाहती, शादी का उपकार करके बाद में पछताओ।"

"मैं कोई काम ऐसा नहीं करता, जिसके लिए पछताना पड़े। मैंने एक जुझारू पत्रकार को अपनी पत्नी के रूप में चुना है और मैं चाहता हूँ, मेरी वह कर्मठ पत्रकार जल्दी-से-जल्दी अपने कर्म-क्षेत्र में जुट जाए।" विशाल हॅंस रहा था।

"तुम कितने अच्छे हो, विशाल। अपने चुनाव पर मुझे भी गर्व है।" ऋचा की आँखें चमक उठीं।

खाना खाते, विशाल ने ऋचा के पिता से ऋचा का हाथ माँग सबको चैंका दिया-

"बाबूजी, हम दोनों एक-दूसरे को बहुत चाहते हैं। ऋचा के साथ जल्दी-से-जल्दी विवाह करना चाहता हूँ। हमारे विवाह से बहुत-सी समस्याएँ दूर हो जाएँगी। आपकी अनुमति चाहिए।"

बाबू जी और माँ का चेहरा खुशी से चमक उठा। क्या दुनिया में विशाल जैसे भी लोग हैं?

"जुग-जुग जियो, बेटा, पर क्या तुम्हारे परिवारवाले ऋचा को स्वीकार कर सकेंगे?" पिता ने शंका जताई।

"उनकी आज्ञा लेकर ही आपसे ऋचा का हाथ माँग रहा हूँ। मैं चाहता हूँ, हमारा विवाह सादगी के साथ मन्दिर या आर्य-समाज में सम्पन्न किया जाए।"

"नहीं, बेटा। वर्तमान स्थिति में इस तरह के विवाह को लेकर लोग बातें बनाएँगे। हम चाहते हैं, विवाह पूरे विधि-संस्कार से इस घर से हो।" माँ ने अपने मन की बात कही।

"लोगों की परवाह मत करो, माँ। वो तो हर तरह से कुछ-न-कुछ कहने का बहाना खोज ही लेंगे। विशाल ठीक कहते हैं, विवाह में कोई तामझाम नहीं चाहिए।" ऋचा ने अपना निर्णय दे डाला।

"माँ की बीमारी की वजह से मेरे घर से बस मेरी बहन माधवी ही आ सकेगी। यहाँ के मेरे मित्र-बन्धु भी साथ रहेंगे।" विशाल ने स्थिति बता दी।

दो दिन बाद आर्य-समाज-मन्दिर में विवाह होना तय हो गया। बाबू जी और माँ के चेहरों का विषाद छंट गया। इला दीदी और जीजा जी भी पहुँच गए। इला दीदी ने सिलाई का डिप्लोमा ले लिया था। अब उन्हें नौकरी की तलाश है। दीदी का चमकता चेहरा देख, ऋचा खुश हो गई।

आर्य-समाज के प्रबन्धक ने स्वंय ही आदर्श विवाह की सूचना समाचार-पत्रों में छपवा दी। विवाह के समय भारी भीड़ जमा हो गई। लोग विशाल को बधाई देते यह कहना नहीं भूलते कि उसने बड़ी हिम्मत का काम किया है। ची।फ़ जस्टिस को विवाह में सम्मिलित होते देख, लोग ताज्जुब में पड़ गए। ऋचा के सिर पर आशीर्वाद का हाथ धर, उनकी पत्नी ने एक सोने की चेन उसे पहना दी। ऋचा की आँखें भर आई। वह स्नेहमयी स्त्री सचमुच ऋचा की शुभाकांक्षिणी थीं। स्मिता, सुधा, परेश, नीरज, रागिनी सबने अलग-अलग बधाई दी।

विवाह के बाद ऋचा और विशाल को शहर के एम.एल.ए. की कार द्वारा उनके घर तक पहुँचाया गया। विशाल के छोटे से घर मंे कोई सजावट नहीं थी। माधवी ने भाई-भाभी के स्वागत में खीर बनाई थी। सहास्य भाभी को छेड़ती माधवी ने कहा-

"भाभी, भइया को तो आपने उनकी मंजिल तक पहुँचा दिया। अब हमेें एयरफ़ोर्स तक पहुँचाने की जिम्मेदारी उठानी होगी।"

"तुम जिस भाई की बहिन हो, उस बहिन के लिए कुछ भी कर पाना सम्भव होगा, यह मेरा विश्वास है, माधवी। अपना लक्ष्य तुम जरूर पा सकोगी।" ऋचा ने सच्चे मन से आशीर्वाद दिया।

रात के एकान्त में ऋचा ने विशाल से एक अनुरोध किया-

"जब तक मैं अपने अपराधियों को सज़ा नहीं दिलवा लेती, हमारी मधु-यामिनी स्थगित रहेगी। मेरा यह अनुरोध मान सकोगे, विशाल?"

"तुम्हारे मन की आग मैं महसूस कर सकता हूँ, ऋचा। यही ठीक होगा। पहले वकील साहब मुकदमा जीतकर दिखाएँ, फिर मधु-यामिनी मनाएँ। वाह! क्या तुक बनी है।"

विशाल के परिहास पर दोनों जी खोलकर हॅंस पड़े।