एक्सीडेंट / शम्भु पी सिंह

Gadya Kosh से
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अंधेरी, काली स्याह रात को चीरती हुई बस 60 की रफ्तार से बढ़ती चली जा रही थी। ड्राइवर को अगले बस स्टैण्ड पर समय से पहुँचना था, अन्यथा स्टैण्ड टाइम कीपर निर्धारित समय के बाद उसे एक भी पैसेन्जर नहीं लेने देता। आधे घंटे में उसे 25 कि। मी। की दूरी तय करनी थी, हर यात्री बस की तेज रफ्तार से वाकिफ था, लेकिन किसी ने उसे टोका तक नहीं कि इतनी तेज बस मत चलाओ और फिर एक जोरदार आवाज।

जब होश आया तो मैंने अपने आपको बस की दो सीटों के बीच फंसा हुआ पाया। घुटनों में तेज दर्द हो रहा था और माथे पर भी हल्की चोटें आयी थी। तभी रीतेष की आवाज मेरे कानों में पड़ी और तब मुझे एहसास हुआ कि बस का एक्सीडेंट हो चुका है। रीतेष को मैंने आवाज दी और अपना हाथ खिड़की से बाहर निकाला। हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था, लेकिन आवाज सुनकर रीतेष खिड़की के पास आकर मुझे बाहर निकालने की कोशिश करने लगा। प्रयास के बावजूद वह सफल न हुआ। तब मैंने उसे सलाह दी कि सबसे पहले इस महिला को निकालो जो मेरे ऊपर पड़ी है, तभी मैं बाहर आ सकता हूँ। किसी तरह अपने हाथ से मैंने महिला का सिर खिड़की की ओर किया और रीतेष पूरी ताकत लगाकर उसे बाहर खींच सका। तब धीरे-धीरे रीतेष की मदद से मैं खिड़की के रास्ते बस से बाहर निकलने में सफल हुआ।

सारा नजारा आंखों के सामने था। रोने चिल्लाने की आवाजे सर्द-स्याह रात को भेद रही थी, मैं दर्द से छटपटा रहा था और रीतेष उस महिला की नाड़ी टटोल रहा था, जिसे उसने अभी-अभी बाहर निकाला था। अरे यार, यह तो जिन्दा है। रीतेष को शायद उसकी नाड़ी पकड़ में आ गयी थी। उसके माथे पर काफी चोटें आयी थी और काफी खून बह चुका था। मैंने अपना और रीतेष का रूमाल जोड़कर उसके माथे पर बाँध दिया। खून का पूरी तरह बहना बंद तो नहीं हुआ, लेकिन काफी रूक गया था। रीतेष अपनी शर्ट खोलकर उसे हवा करने लगा।

तभी एक खाली ट्रक आकर रूका और पांच सात लोग बस से लाशों को उतारकर ट्रक में फेंकने लगे। मेरी तो रूह कांप गयी। तभी उसमें से एक मेरी ओर आया और महिला की ओर इशारा करते हुए कहा-"इसके साथ कौन है?"

"क्या बात है?" मेरे मुंह से अचानक निकल गया।

"वह मर गयी है, ट्रक में डालना है।" उसका स्वर रूखा था।

"पागल हो गये हो। यह जिन्दा है। हम लोग होश में लाने का प्रयास करे रहे हैं और तुम इसे जिन्दा नदी में डालना चाहते हो। जाओ यहाँ से।" मेरी तेज आवाज सुनकर वह वापस हो गया। उन जल्लादों ने कितने मुर्दो और जिन्दो को ट्रक में डाला, यह तो पता नहीं लेकिन जो रह गये थे, वे सभी चल-फिर सकते थे।

अब तक उसे होश आ चुका था, लेकिन कराहने के सिवा वह कुछ बोल नहीं पा रही थी। इतने में एक तेज लाइट ने हम लोगों का ध्यान खींचा। गाड़ी पास आ गयी थी। घायल महिला को देखकर ड्राइवर ले जाने को तैयार हो गया और कुछ ही देर बाद हम लोग सदर अस्पताल, भागलपुर पहुँच गये थे। उसे भर्ती किया जा चुका था। कुछ दवा लेने के बाद मुझे भी राहत मिली। मैं और रीतेष तो बरामदे में ही लेट गये। न जाने कब नींद आ गयी। नींद जब टूटी तो सुबह हो चुकी थी और रीतेष अभी भी खर्राटें भर रहा था।

रीतेष को जगाकर सबसे पहले हम दोनों उसके बेड की ओर बढ़े।

"आप कैसी हैं" उसका ध्यान मैंने अपनी ओर खींचा।

"ठीक हूँ, पर मैंने आपको पहचाना नहीं।" उसने स्वाभाविक ढंग से अनभिज्ञता प्रकट की।

"कल जिस बस से आप सफर कर रही थी, उसी में हम दोनों भी सवार थे। बस का एक्सीडेन्ट हो गया और आप गंभीर रूप से घायल हो गयी। किसी तरह हम लोग आपको यहाँ तक लाने में सफल हुए।"

"मेरे चाचाजान कहाँ हैं" उसने रूआंसे ढंग से कहा।

"हमें नहीं पता" हम दोनों ने आष्चर्य का भाव प्रकट किया।

थोड़ी देर बाद हमें पूरा यकीन हो गया कि इसके चाचाजान उन जल्लादों के हाथ पड़ गये। फिर भी हमने उसे विश्वास दिलाया कि उन्हें ढूंढ़कर निकालेंगे।

पांच दिनों तक वह अस्पताल में रही। हम दोनों का अधिकांश समय अस्पताल में ही व्यतीत होता। पूरे प्रयास के बाद भी उसके चाचाजान का पता नहीं चल पाया। पुलिस रेकार्ड में उस बस में एक भी नहीं मरा था। तीन को गंभीर रूप से घायल दिखाया गया था, जिसमें एक नजमा भी थी। पूछने पर उसने यही नाम बताया। तार द्वारा उसके परिवार को सूचना दे दी गयी थी और छठे दिन उसके भाईजान आकर उसे ले गये।

और आज ठीक दो साल बाद हम दोनों एक इंटरव्यू के सिलसिले में साथ-साथ इलाहाबाद जा रहे थे। उसकी याद आते ही दोनों पुलकित हो उठते कि चलो आज नजमा से मुलाकात तो होगी ही, रहने की समस्या भी हल हो जायेगी। रास्ते भर रीतेष को हर बुरका वाली औरत नजमा ही नजर आती थी। एक समय तो हद ही हो गयी, जब उसने प्लेटफार्म पर चल रही एक औरत की ओर इषारा कर मुझे केहुनी मारी कि नजमा आ रही है। संयोग से वह औरत हम दोनों के सामने वाली सीट पर बैठ गयी और जब बुरका हटाया तो रीतेष भौंचक मुझे देखता रह गया।

संध्या सात बजे हम लोग इलाहाबाद पहुँच गये। तांगे से सीधे राजापुर गये जहाँ का पता नजमा ने दिया था। दरवाजे पर दस्तक दी। एक दस वर्ष का लड़का बाहर निकला। मैंने नजमा के बारे में पूछा। बालक अंदर चला गया। भागलपुर से आने की बात सुनकर नजमा बाहर आयी। पीछे से उसके अब्बाजान भी निकले। नजमा हम दोनों को देखते ही पहचान गयी और अंदर बैठने का इशारा किया।

"आप लोग भागलपुर से आ रहे हैं" नजमा के अब्बा का प्रश्न था।

"जी" हमने बैठते हुए कहा।

"आपको पहचाना नहीं। आपके अब्बाजान।" नजमा के अब्बा ने शायद हमदोनों का परिचय जानना चाहा, तभी नजमा ने मेरी ओर इशारा किया-यही हैं मि। अब्दुल। इन्होंने ही भागलपुर के बस एक्सीडेन्ट में मेरी जान बचायी थी और ये हैं सलीम इनके मित्र" इशारा रीतेष की ओर था।

उसके इस व्यवहार से हम दोनों अचंभित थे।

"आप दोनों का मैं शुक्रगुजार हूँ। आपके एहसान को मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा। खुदा आप दोनों को सलामत रखे। हमारे मजहब को आप जैसे नेक इंसान पर ही नाज है।"

बाप-बेटी के वार्तालाप ने हमें गूंगा बना दिया था। हमने अपना कर्त्तव्य निभाया था, एक इंसान बनकर, न कि हिन्दू या मुसलमान बनकर, जबकि मैं यहाँ आदर पा रहा था अब्दुल रहमान बनकर।

नजमा जब चाय लेकर अकेली आयी तो ढेर सारे प्रश्न मेरे अन्तःस्थल में उठने लगे। इससे पहले कि मैं उससे कुछ पूछूं, नजमा की फुसफुसाहट हमारे कानों में पड़ी "क्षमा करेंगे मैं चाहकर भी आप दोनों का सही परिचय नहीं दे सकती। सारा शहर साम्प्रदायिकता की आग में जल रहा है और मेरे अब्बाजान..." नजमा की रोनी सूरत आज भयानक लग रही थी।

"बेटा समय ठीक नहीं है। इस मुहल्ले से जल्दी निकल जाओ। क्या पता कब क्या हो जाय। मैं सब कुछ जानती हूँ बेटा, लेकिन यहाँ मैं तुम्हारी रक्षा नहीं कर पाऊँगी।" नजमा की माँ कमरे में आती हुई बोली।

बड़े ही भारी मन से हम दोनों चलने को तैयार हुए। चलते समय नजमा की आंखें नम हो गयी।

मैं आपका ऋण न चुका सकूंगी, शायद कभी नहीं। वह दोनों हाथ जोड़ रूआंसी होकर बोली। तब तक रीतेष कमरे से बाहर हो चुका था। बड़ी तेजी से हम दोनों मुख्य सड़क तक आये। बिना कुछ बोले बहुत दूर तक चलते रहे। हम किसी होटल की तलाश में थे। तभी रीतेष बोल उठा 'यार एक बात बताओ। इस देश में क्या सिर्फ हिन्दू और मुसलमान ही रहेंगे, तो फिर इंसान कहाँ रहेगा?' मैं रीतेष के प्रश्न का मैं कोई जवाब न दे सका और चुपचाप होटल की तलाश में चलता रहा।