एक इंसानी दस्तावेजनुमा फिल्म / जयप्रकाश चौकसे

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एक इंसानी दस्तावेजनुमा फिल्म
प्रकाशन तिथि :15 अप्रैल 2017

आधी सदी से फिल्मों पर फिल्मों के लिए जीते-मरते, अपनी अभिव्यक्ति पर गर्व हो गया था कि फिल्मों का बयान बखूबी कर सकता हूं परंतु आज भट्‌ट बंधुओं एवं सरजीत सेन की फिल्म 'बेगमजान' देखकर गर्व का शीशा टूटकर चकनाचूर हो गया। इस सर्वकालिक महान फिल्म का वर्णन करना असंभव है। सआदत हसन मंटो एवं इस्मत चुगताई को साहित्य का नोबल पुरस्कार नहीं दिया गया, क्योंकि गुलाम तो बेजुबान होते हैं। उनकी कटी हुई जुबान पर मक्खन लगाकर उसका टोस्ट बनाया जाता है। सरजीत सेन ने सआदत हसन मंटो, इस्मत चुगताई और साहिर लुधियानवी को आदरांजलि अर्पित की है। फिल्म के अंत में साहिर साहब का लिखा और खय्याम साहब के संगीत से सजा 'फिर सुबह होगी' का गीत बजता है, 'वह सुबह कभी तो आएगी, वह सुबह हमीं से आएगी।'

आज़ादी की जंग के दौर में महात्मा गांधी ने कहा था कि देश का विभाजन नहीं होगा और अगर होगा तो उनकी मृत देह पर होगा। इस विभाजन का विरोध करने वाली फिल्म की केंद्रीय पात्र बेगमजान का भी यही विश्वास है और वे अपने आदर्श की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे देती हैं। फिल्मकार ने बेगमजान और उनकी हमपेशा बहनों को फिल्म के अंत में अग्निकंुड में कूदते हुए दिखाया है और चित्तौड़ की रानी पद्‌मावती का संदर्भ दिया है। बेगमजान स्वयं को पद्‌मावती नहीं मानती परंतु उनके द्वारा स्थापित महान आदर्श का पालन करती हैं। अत: इस अलग किस्म के जौहर के कारण इसे महान पद्‌मावती से नहीं जोड़ा जाना चाहिए अन्यथा अनावश्यक विवाद के इंतजार में बैठे हुड़दंगी इस मासूम फिल्म को भी अपनी चपेट में ले लेंगे।

दरअसल, फिल्म की केंद्रीय पात्र एक औरत है और समाज के दोहरे मानदंडों की शिकार हो जाती है। वह व्यवस्था व विकार के दो पाटों के बीच पिसती हुई इंसानियत का प्रतीक बन जाती है। याद आता है महान मैक्सिम गोर्की का कथन की हर गोली अंततोगत्वा किसी मां की छाती में ही धंसती है। ग्रंथों से लेकर संविधान तक स्त्री को समानता और स्वतंत्रता देते हैं परंतु यथार्थ जीवन में स्त्री का शोषण ही होता है और वह धरती की तरह ही रौंदी जाती है। फिल्म की केंद्रीय पात्र बेगमजान एक कोठे की संचालिका हैं और अपने यहां काम करने वाली हर महिला को माता के समान प्यार देती हैं। वे उनकी सुरक्षा के लिए भी स्वयं को उत्तरदायी मानती हैं। उनका रिश्ता तो कुछ उन मां और बेटियों की तरह है, जिनकी अम्बलिकल कार्ड काटे नहीं करती और ममता का रिश्ता हमेशा कायम रहता है। फिल्म में बेगमजान कुछ अबोध बच्चियों को सुरक्षित स्थान पर भेजना चाहती हैं परंतु बेटियां सुरक्षा से अधिक महत्व बेगमजान के साथ मर जाने को देती हैं। ये मोहब्बत के इंसानी रिश्तों के ताने-बाने से बुनी हुई फिल्म है और कबीर की चादर की तरह अलग-अलग रंग की डोरों से बुनी चादर है। दर्शक कहीं यह बात नज़रअंदाज नहीं कर दे, इसलिए फिल्मकार कबीर के दोहों का भी फिल्म में इस्तेमाल करता है। फिल्म के संवाद नुकीले खंजर की तरह है और सीधे आपके सीने में घुस जाते हैं परंतु अदब के खंजर के वार से खून नहीं निकलता वरन मन में विचारों की लहरें हिलोरें लेने लगती हैं। दरअसल, पूरी फिल्म ही महान लेखनी का नतीजा है। फिल्मकार फिल्म की तकनीक से आपको चकाचौंध नहीं करना चाहता वरन वह केवल आपके जमीर को संबोधित कर रहा है। वह इस कदर दर्शक के बीच कोई दीवार नहीं रह जाती, कहीं कोई परदेदारी नहीं है।

फिल्म से निदा फाज़ली की पंक्तियां याद आ गईं, 'ये कंकर पत्थर की दुनिया/ इन्सां की मुसीबत क्या जाने/दिल मंदिर भी है, दिल मस्जिद भी है/ ये बात सियासत क्या जाने/बेजान लकीरों का नक्शा/जज़्बात की कीमत क्या जाने/आज़ाद न तू, आज़ाद न मैं/जंजीर बदलती रहती है दीवार तो वही है बस तस्वीर बदलती रहती है। ' फिल्म की बेगमजान पहले ही भांप लेती हैं कि आज़ादी अवाम को नहीं मिलेगी। वह मुतमइन हैं कि जंजीरों की लंबाई तक ही रहेगा अवाम का सैरसपाटा। वर्तमान में हम जानते हैं कि बेगमजान ने सही आकलन किया था।