एक और उमराव जान अदा / जयप्रकाश चौकसे

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एक और उमराव जान अदा
प्रकाशन तिथि : 10 दिसम्बर 2012


साहित्यकार विश्वास पाटील 'राजो' नामक फिल्म के द्वारा निर्देशन क्षेत्र में आ रहे हैं। उन्होंने फिल्म के केंद्रीय पात्र के लिए कंगना रानावत को अनुबंधित किया है, जो इस समय करण जौहर के दड़बे की किसी फिल्म के साथ ही राकेश रोशन की 'कृश-३' में अभिनव भूमिका कर रही हैं। कंगना रानावत एक प्रतिभाशाली अभिनेत्री हैं, परंतु उन्हें कम अवसर मिले हैं। इस उद्योग में कॅरिअर बनाने के लिए जो दुनियादारी चाहिए, उसका अभाव है, इस छोटे-से शहर से आई कन्या में। 'राजो' में वे एक नाचने वाली मुस्लिम कन्या की भूमिका कर रही हैं और एक ब्राह्मण युवा को उनसे प्यार हो जाता है। इतिहास में इस तरह की अनेक प्रेमकथाएं घटित हुई हैं और सिनेमा उद्योग ने उन पर फिल्में भी बनाई हैं, जैसे भालाजी पेंढारकर ने १९२५ में 'बाजीराव मस्तानी' बनाई थी और संजय लीला भंसाली इस विषय की घोषणा कई बार कर चुके हैं। आशुतोष गोवारीकर की 'जोधा-अकबर' सफल रही थी और अब इसी विषय पर एकता कपूर एक सीरियल प्रस्तुत करने जा रही हैं। एकता कपूर की मिक्सी में इतिहास हो या साहित्य हो, सबको पीसकर वे एक जैसा रबर ही बनाती हैं। बहरहाल कंगना रानावत रेखा अभिनीत 'उमराव जान अदा' को बार-बार देख रही हैं। उन्हें कमाल अमरोही की 'पाकीजा' भी देखनी चाहिए और श्याम बेनेगल की 'भूमिका' तथा 'सरदारी बेगम' भी उनकी सहायता कर सकती हैं।

विश्वास पाटील को अपनी फिल्म के संगीत के लिए खय्याम साहब की सेवाएं लेनी चाहिए, क्योंकि 'उमराव जान अदा' आज भी अपने मधुर संगीत के कारण अनेक लोगों की प्रिय फिल्म है। दरअसल नाचने वाली महिलाओं पर बनी फिल्में मधुर संगीत के कारण ही सफल हो पाती हैं। भंसाली की फिल्म 'देवदास' में माधुरी द्वारा अभिनीत चंद्रमुखी भी अपनी नृत्य मुद्राओं के कारण ही लोकप्रिय हुई थी। बिमल रॉय की 'देवदास' में चंद्रमुखी की भूमिका वैजयंती माला ने बखूबी निभाई थी और उसमें साहिर लुधियानवी साहब ने क्या खूब लिखा था - 'जिसे तू कबूल कर ले, वो सदा कहां से लाऊं।' दरअसल हमारे सिनेमा का इस पात्र के लिए बड़ा ही रूमानी नजरिया रहा है, परंतु कोठेवाली के दिल का दर्द हम कभी प्रस्तुत नहीं कर पाए, उसके यथार्थ में हमारी रुचि ही नहीं है। हमने निहायत ही हसीन ढंग से तवायफ को रोमांटिक ढंग से प्रस्तुत किया है। भद्रलोक की भीतरी हिंसा और क्रूरता को सहने वाले कोठों का चित्रण फंतासी की तरह ही किया गया। जहां जिस्म की धुलाई धोबीघाट के पत्थरों पर पीटे गए कपड़ों की तरह होती है, वहां की कुचली गई रूहों का कुछ अनुमान साहिर साहब की अमर रचना- 'कहां हैं, कहां हैं जिन्हें नाज है हिंद पर' से होता है। प्राय: शायरों और कवियों ने इस बात के प्रति कुछ सहानुभूति दिखाने का सतही प्रयास किया है। चंद रुपयों में उपलब्ध काया के लिए मोह मनुष्य के लंपटी अवचेतन में हमेशा कायम रहता है। सच तो यह है कि सामंतवादी सोच वाले लोग हर कालखंड में अपनी विधिवत ब्याहताओं के साथ भी वैसा ही व्यवहार करते हैं, जैसे तवायफों के साथ करते हैं। नारी शरीर कहीं भी बसा हो, वह प्राय: धुनका ही जाता है। इनकी दारुण दशा के प्रति रूमानी रचनाएं भी पुरुषों का मुखौटा मात्र होती हैं। बहरहाल विश्वास पाटील की 'राजो' के प्रस्तुतीकरण के मामले में कंगना रानावत को लेने से उनका काम कुछ हद तक आसान हो गया है, क्योंकि जब कोई कलाकार भूमिका के लिए तैयारी करने लगे, तो मात्र उसकी लगन से ही बात बन जाती है। 'राजो' से जुड़ी बात तो नई है, परंतु इस उद्योग के प्रारंभिक दिनों में कोई भी अच्छे घर की महिला अभिनय नहीं करना चाहती थी, तो कोठेवालियों को निमंत्रित किया गया और अभिनय क्षेत्र में आते ही वे पूरी तरह से बदल गईं। वे कमोबेश पारंपरिक सद्गृहस्थ महिला की तरह हो गईं। परंतु बाद के कालखंड में फिल्म के ग्लैमर से खिंची आईं भले परिवारों की कन्याएं बेहतर अवसरों की खातिर लगभग तवायफों की तरह व्यवहार करने लगीं। ग्लैमर की अग्निपरीक्षा में तवायफें तो खरीनिकलीं, परंतु संभ्रांत परिवारों की कन्याओं का असली रूप उजागर हो गया।