एक और कुकुरमुत्ता / प्रताप सहगल

Gadya Kosh से
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प्रियकान्त को आज आर्य समाज के प्रचारक के रूप में दीक्षित कर दिया गया था। प्रियकान्त को सुमुख या प्रियदर्शी भी कहा जा सकता था। दीक्षित होने वाले अन्य प्रचारकों की अपेक्षा प्रियकान्त की बुद्धि अधिक तर्कशील थी। वेदों एवं वेदांगों का अध्ययन करते हुए उसने यह भी स्थापित कर दिया था कि तर्कशील होने के साथ-साथ वह ज़बर्दस्त स्मरण शक्ति का मालिक भी था। उसे गुरुकुल से लेकर यहाँ तक यही सिखाया गया था कि वेद ही सभी ज्ञानों के स्रोत हैं। किसी से भी शास्त्रार्थ करते हुए अन्तिम साक्ष्य वेदों को ही मानना चाहिए। अन्य प्रचारकों की तरह से प्रियकान्त भी उन सभी गुणों का स्वामी था, जिनकी अपेक्षा आर्य समाज के एक प्रचारक से की जाती है। ‘कृण्वंतो विश्वम् आर्यम्’ उसका महामन्त्र था। उसे कहा गया था कि उसे भी स्वामी दयानंद एवं आर्य समाज का ऋण उसी तरह से चुकाना है, जिस तरह से स्वामी दयानंद ने अपने गुरु स्वामी विरजानंद का ऋण उतारा। लेकिन प्रियकान्त के व्यक्तित्व में कुछ अलग भी था। सुमुख तो वह था ही, संगीत का भी उसे अच्छा ज्ञान था। वह स्वयं न केवल भक्ति-गीत लिख लेता, उन्हें स्वर-बद्ध भी स्वयं ही करता था। अपने ही गीतों को स्वयं स्वर-बद्ध करके वह अपने सुमधुर कण्ठ से सुनाता। इससे उसे अलग पहचान मिली।

अलग पहचान बनाना प्रियकान्त की खूबी भी थी और कमज़ोरी भी। कतार में खड़े होकर बढ़ना उसे पसन्द नहीं था, लेकिन यहाँ तो वह कतार में ही था और उसे कतार से निकलकर आर्य समाज प्रचारकों के पिरामिड में सबसे ऊपर बैठना था। इसमें उसे देर नहीं लगी। कुछ ही दिनों में विभिन्न आर्य समाजों से उसकी माँग आने लगी।

प्रचार कार्य करते हुए उसकी नज़र हमेशा ऐसे लोगों पर रहती, जो जीवन में सफल लोग कहते जाते हैं। ऐसा ही एक मिला उसे नितिन। नितिन फिल्म-निर्माता था। फिल्मों के टेंशन भरे माहौल से भागकर वह जब-तब दिल्ली आ जाता। दिल्ली का ही तो वह था। उसके संस्कार भी आर्य समाज के ही थे। एक दिन साप्ताहिक सत्संग के बाद वह स्वयं ही तो आया था प्रियकान्त के पास-‘नमस्कार’।

नमस्कार का जवाब देते हुए प्रियकान्त की निगाहें नितिन में कुछ खोजने लगीं। नितिन का पहनावा, उसकी चाल-ढाल, बोल-चाल कुछ ऐसी थी, जो दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करती।

“मेरा नाम नितिन है...नितिन कपूर।”

“कहीं आप फिल्म वाले नितिन कपूर...?”

“जी...”

“आइए, बैठिए न, यहाँ, इधर...” प्रियकान्त ने यह सब अव्यवस्थित तरीके से कहा।

“आप गाते बहुत अच्छा हैं।”

प्रियकान्त ने मुस्कराते हुए कहा-”लिखता भी खुद हूँ, धुनें भी खुद ही बनाता हूँ।”

“ऐसा...” स्वार्थ रहित समझे जाने वाले प्रचारक का स्वार्थ लोलुप चेहरा नितिन को दिखने लगा था।

शेष लोग प्रसाद लेकर जा चुके थे। अब बात अधिक इत्मीनान से हो सकती थी।

“नया क्या बना रहे हैं?” प्रियकान्त ने अपने स्वार्थ भरे चेहरे को दबाते हुए पूछा।

नितिन भी फिल्म वाला था। समझ गया स्साला एक्टिंग कर रहा है-”कुछ नहीं...एक फिल्म फ्लोर पर है...दूसरी जल्दी ही लांच कर रहा हूँ।”

“संगीत किसका है...” अब तो प्रियकान्त से रहा ही नहीं जा रहा था।

“अभी तय नहीं किया...पर शायद रंजन-राजन...”

रंजन-राजन की जोड़ी फिल्म-संगीत में हिट थी। इस बात की जानकारी प्रियकान्त को भी थी।

प्रियकान्त के चेहरे पर निराशा तैरने लगी। नितिन को प्रचारक का मुलम्मा उतरता देख मज़ा आ रहा था। उसे लग रहा था कि प्रियकान्त में एक कॉम्प्लेक्स चरित्र छिपा हुआ है। चाहे तो वह किसी फिल्म में उसे एक मज़ाहिया चरित्र की भूमिका में उतार सकता है। पर उसे अभी तो भक्ति-संगीत की ही बात करनी थी, बोला-”ज़रूरत पड़ने पर आपको कहाँ ढूँढूँ?”

तब प्रियकान्त आर्य समाज के एक मन्दिर में ही रहता था। उसने वही पता देते हुए कहा, “यहाँ, या फिर दीवान हाल में पते पर चिट्ठी डाल दें, मुझे मिल जायेगी।”

“ठीक है”, कहते हुए नितिन के पते की पर्ची जेब में रखी और चल दिया।

उस समय प्रियकान्त का मुँह ऐसे खुला हुआ था जैसे किसी ने उसके मुँह में लॉलीपाप डालकर खींच लिया हो।

नितिन को शायद प्रियकान्त की ज़रूरत नहीं पड़ी, सो वह प्रियकान्त को जल्दी ही भूल गया था। जिन चीज़ों की व्यक्ति को ज़रूरत नहीं रहती, व्यक्ति अक्सर उन्हें भूल ही जाया करता है। प्रियकान्त जितने दिन वहाँ प्रवचन करता रहा, उसकी निगाहें नितिन को ही खोजती रहीं। उसने दो-एक जन से नितिन के बारे में जानना भी चाहा, लेकिन कोई भी उसकी मदद नहीं कर सका।

प्रियकान्त के प्रवचन चलते रहे, पर उसे अब सब ऊबाऊ लगने लगा था। वही तोते की तरह से रटे-रटाए मन्त्र पढ़ना, उनके वही अर्थ खोलना, वही दो-चार भजन, वही प्रसाद, वही दक्षिणा-कुछ भी तो बदल नहीं रहा था। विश्व तो आर्य क्या बनेगा, अपने-आप को आर्य मानने वाले लोगों की ही कथनी और करनी में बड़ा अन्तर था। एक ज़माना था जब आर्यसमाजी की गवाही को जज सच्चा मानते थे। आर्यसमाजी मतलब अपने आदर्शों पर मर मिटने वाला पर अब तो प्रवचन सुनने आने वाले लोग भी कम होने लगे थे।

रात-रात भर प्रियकान्त बेचैन रहता कि कैसे वह आगे बढ़े, कैसे उसके नाम का डंका बजे, कैसे समृद्धि उसके चरण चूमे। सोचते-सोचते उसे एक कौंध आयी। उसे याद आया, एक बार वह रेडियो स्टेशन गया था। गया क्या था एक दोस्त ही ले गया था उसे एक प्रोड्यूसर से मिलवाने। प्रमिला नाम था उसका। हाँ प्रमिला राही। उस मित्र ने प्रियकान्त का परिचय देते हुए कहा था-”मैडम! प्रियकान्त! मेरा दोस्त, बहुत ही प्रतिभाशाली है...गीत, कविता, भजन, नाटक, फीचर, वार्ता-कुछ भी लिखवा लीजिए, गाता भी अच्छा है...कुछ...” प्रमिला ने बातचीत में ही रोकते हुए कहा था-”प्रियकान्त जी! कुछ लिखिए हमारे लिए, ज़रा हट के...एकदम नया...कुछ बिन्दास...यू नो...सब वही कर-कर के मैं बोर हो चुकी हूँ...” प्रियकान्त को : ‘सब वही’ का मतलब समझ में नहीं आया, ना ही उसे यह समझ में आया कि ‘ज़रा हटके’ कहकर मैडम क्या कहना चाहती हैं। पर वह पहली बार मिला था, अशिष्ट भी नहीं होना चाहता था। उसने अपने मित्र की ओर देखा और कहा-”जी, जी...देखता हूँ...कुछ ज़रा हटके” बातें और भी हुई थीं। प्रियकान्त ने रेडियो के लिए कुछ नाटक लिखे भी थे, वे प्रसारित भी हुए, लेकिन अभी भी ‘ज़रा कुछ हटके’ सामने नहीं आ रहा था तो खिन्न सा होकर प्रियकान्त ने रेडियो जाना छोड़ दिया...वही ‘ज़रा हट के’ वाला जुमला आज प्रियकान्त को बड़ा सार्थक लगने लगा था। उसने सोचा कि प्रचार में भी जब तक ‘ज़रा हटके’ कुछ नहीं करूँगा, तब तक न तो उसे यश मिलने वाला है और ना ही समृद्धि।

अगले दिन से ही वह नियमित रूप से विभिन्न पुस्तकालयों में जाने लगा। कभी दिल्ली विश्वविद्यालय, कभी अमेरिकन सेन्टर तो कभी ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी। दिल्ली का कोई भी बड़ा पुस्तकालय उसने नहीं छोड़ा। देशी-विदेशी-खासतौर पर विदेशी पत्रिकाओं को खँगालता और उनमें से वही चीज़ें ढूँढता, जो कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में या तो भारतीयता के साथ या फिर व्यक्ति के रोज़मर्रा जीवन के साथ फिट होती लगतीं।

(दो)

दिल्ली में एक पाश इलाका मधुविहार। देश के विभाजन के वक़्त दिल्ली में आये विस्थापितों के लिए नयी-नयी कॉलोनियाँ बसना शुरू हुईं। उन्हीं कॉलोनियों में एक कॉलोनी मधुविहार। यह विस्थापित, जिन्हें अधिकतर लोग शरणार्थी कहते थे, अपने सरवाइवल के लिए संघर्ष कर रहे थे। मधुविहार भी इन्हीं विस्थापितों ने बसाया था। कुछ नौकरी करने लगे, कुछ अपना छोटा-मोटा काम, अधिकतर लोगों ने अपना खुद का काम-धन्ध ही जमाया। देखते ही देखते यह लोग सरसों के खेतों की तरह लहलहाने लगे। सुनसान, वीरान सा मधुविहार गहमगहमी का केन्द्र बन गया। सभी के काम-धन्धे फूलने-फलने लगे। उन्हीं लोगों में एक गुलशन भी था। उसने खूब धन कमाया और जमकर एय्यासी की। एक दिन मन उकता गया। सारा काम-धन्धा छोड़कर मधुविहार के ही बड़े पार्क में अकेला बैठकर पूजा-पाठ करने लगा। निपट अकेला, पार्क के एक कोने में बैठकर मानस पढ़ता रहता। धीरे-धीरे इक्का-दुक्का लोग भी उसके पास बैठने लगे। एक से दो, दो से चार, चार से आठ, सर्दी, गर्मी, बरसात-चाहे कुछ भी हो, गुलशन सुबह-सवेरे पार्क में मानस का पाठ करते मिलता। उससे लोग जुड़ने लगे। उस जुड़ाव को सत्संग कहा जाने लगा। यह क्रम साल-दर-साल चलता रहा। सभी या तो वृद्ध या फिर अधेड़। तभी एक युवक भी उनसे आ जुड़ा। उसका नाम शेखर था। शेखर के पिता भी विभाजन के समय ही दिल्ली आ बसे थे। अपने कठोर संघर्ष से उन्होंने अपना करोबार बढ़ाया। बच्चे हुए, बड़े हुए, उन्होंने उनकी शादियाँ कीं और काम-धन्ध तीनों बेटों को सौंप राम-भजन करने लगे। उन तीनों में बीच का बेटा था शेखर। शेष दो बेटों ने काम-धन्धे को आगे बढ़ाया, लेकिन शेखर ने चौपट किया। उसे लगा कि मधु पार्क में सत्संग करते बुजुर्गों का साथ पाकर उसका काम-धन्धा शायद फिर चल निकले। शेखर ने यूँ तो दुनिया देखी थी। देश-विदेश, कहाँ-कहाँ उसने अपनी कम्पनी का प्रोडक्ट पहुँचा नहीं दिया था, लेकिन अपने दूसरे भाइयों के गठबन्धन के सामने उसके पाँवों के नीचे की ज़मीन खिसकने लगी थी। उसे लगता कि उसके भाइयों ने उसके साथ बेईमानी की है। उसने पिता से मदद माँगी, लेकिन पिता पहले तटस्थ, फिर उदासीन हो गये। शेखर को लगता कि पिता की इस उदासीनता के पीछे उसकी सौतेली माँ का ही हाथ है। सही या ग़लत, जो भी हो, शेखर अपनी सोच को सही ही समझता था। उसे रिश्तों-नातों से वितृष्णा हो गयी थी। एक वैराग्य सा घर कर गया था उसके मन में-वह घर से भागकर हरिद्वार गया, बनारस भी, पर उसे कहीं भी चैन नहीं मिला। भागता, लौटता, फिर भागता, फिर लौटता-बस यूँ ही चल रही थी ज़िन्दगी और यूँ वह एक बार फिर चैन की खोज में मधु-पार्क की सत्संग मण्डली के साथ आ जुड़ा। उसी ने एक दिन सुझाव दिया-”हम रोज़ मिलते हैं, सत्संग करते हैं, क्यों न इसे एक मंच की शक्ल दी जाये” सभी को उसका सुझाव अच्छा लगा। हिन्दुस्तान में धार्मिक काम के लिए अधिकतर लोग बिना सोचे-समझे ‘हाँ’ कर देते हैं। मधु विहार के मधु पार्क में इस तरह से ‘गुलशन सत्संग सभा’ का जन्म हुआ। और लोग भी जुटने लगे। गुलशन का मानस-पाठ चलता रहा, पर यह कितने दिन चलता। धर्म हो, अध्यात्म हो या मनोरंजन, एक ही सिक्का बहुत दिन नहीं चलता। हर आदमी कुछ नया माँगता है। इधर तो कुछ नया करने की इच्छा बलवती हो रही थी और उधर एक चिन्तनशील चिन्तन ने कोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया। चिन्तन पेशे से पत्रकार था। उसका मानना था कि धर्म एक नितान्त व्यक्तिगत मामला है और इसे अगर सामूहिक रूप देना ही है तो उसके लिए मन्दिर बने हुए हैं, पार्कों का इस्तेमाल इस काम के लिए क्यों? फिर कल सिख, मुसलमान और ईसाई भी अपने-अपने धार्मिक कृत्य उसी पार्क में करने लगें तो पार्क की हालत क्या होगी? पार्क घूमने-फिरने के लिए हैं, धार्मिक समागमों के लिए नहीं। दरअसल गुलशन सत्संग सभा में आने वाले तमाम लोग हिन्दू ही थे। उनमें अधिकतर सनातनधर्मी, दो-चार आर्य-समाजी, दो-चार सिख ही नज़र आते थे। मुस्लिम या ईसाई तो शायद पूरे मधू विहार में गिने-चुने ही थे। इसलिए गुलशन सत्संग सभा के सत्संगियों को ऐसा कोई ख़तरा लगता नहीं था, फिर इधर जो ‘हिन्दुत्व’ की लहर उठी थी, उससे उनके हौसले वैसे भी बहुत बढ़े हुए थे और उनका मानना था कि ऐसा कोई भी और समुदाय करेगा जो उससे निपट लेंगे। चिन्तन को पीड़ा नितान्त निजी भी थी। वह रात देर तक काम करता। सुबह देर तक सोने की उसकी ज़रूरत थी और आदत भी। उसे लगता कि सत्संग सभा में बजते लाउडस्पीकर उसकी नींद ख़राब करते हैं, उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार का हनन करते हैं, इसलिए इस सत्संग सभा का बन्द होना ज़रूरी था। वे तो अपने धार्मिक कार्य के लिए मन्दिरों में जा सकते हैं, लेकिन चिन्तन सोने के लिए कहाँ जाये? सत्संगियों का मानना था कि अपने धर्म को मानना, उसका प्रचार-प्रसार करना, उसे सार्वजनिक अनुष्ठान करना उसका भी मौलिक अधिकार है। फिर वे बहुमत में थे ही। हाँ, दूसरे धर्मों के अनुयायियों के दखल देने या वैसा ही समागम पार्क में करना सम्भव हो सकता था। सो उन्होंने सिखों से कहा कि वे भी इसी सभा में आकर ‘जपुजी साहब’ का पाठ करें। आर्य समाजियों से कहा कि महीने में दो-बार वे भी अपनी विधि से यहाँ हवन करें। तो इस तरह वहाँ ‘सर्व हिन्दू समभाव’ प्रकट हुआ। चिन्तन को कोर्ट से स्टे मिला। कुछ दिनों के लिए सत्संग होना रुका, लेकिन अचानक फिर शुरू भी हो गया। पर्दे के पीछे के हिन्दुत्ववादी दबावों के सामने चिन्तन को समझौता करना पड़ा और सत्संग में लाउडस्पीकर का इस्तेमाल पहले तो बन्द हो गया। कुछ दिनों बाद धीरे से बजा, फिर वही ढाक के तीन पात। चिन्तन ने अपना बोरिया-बिस्तर समेटा और किसी दूसरी कॉलानी को अपना ठिकाना बनाया। यह तो हिन्दुत्ववादियों की बड़ी जीत थी। गुलशन सत्संग सभा भी फूलने-फलने लगा। महीने में दो बार आर्य समाज की ओर से हवन और फिर प्रवचन होता। प्रवचन देने के लिए ही एक दिन वहाँ प्रियकान्त को बुलाया गया। प्रियकान्त ने अपने मधुर कण्ठ से निकले भजनों और प्रवचन से लोगों को अभिभूत कर दिया। भक्तजनों में शेखर भी मौजूद था। प्रियकान्त को सुनने के बाद उसकी व्यावसायिक बुद्धि जाग उठी। सत्संग खत्म होने के बाद वह प्रियकान्त के पास गया, उसे प्रणाम किया। अपना परिचय दिया और अपने घर चलने का आग्रह किया। प्रियकान्त ने ‘फिर कभी’ कहकर टाल दिया।

शेखर ने सभा के अघोषित प्रधान गुलशन से कहा “बाऊजी प्रियकान्त ने प्रवचन कमाल का दिया है, उन्हें फिर बुलाना चाहिए” साथ खड़े दो-तीन लोगों ने भी शेखर की इस बात का समर्थन किया। अगली बार के हवन के कार्यक्रम में फिर प्रियकान्त को ही बुलवाया गया। प्रियकान्त ने प्रवचन देने की अपनी रैस्पी तैयार कर ली थी। पौराणिक आख्यानों एवं चरित्रों को वह इस तरह पेश करता कि वे आम आदमी के जीवन से जुड़ सकें। अध्यात्म तो दूसरे भी कई धर्माचार्य एवं साधु-संत बेच रहे थे, लेकिन अध्यात्म को व्यावहारिक रूप देने का काम प्रियकान्त ने किया। तीन-चार प्रवचनों के बाद ही लोग अपनी-अपनी समस्याएँ लेकर उसके पास आने लगे। वह वैसे भी लोगों को उकसाता कि वे कुछ पूछें। बड़ी-बड़ी विदेशी पत्रिकाओं एवं लेखकों के हवाले देकर भारतीयता और अपनी बात का समर्थन करता। हिन्दुओं के विभिन्न मत-मतान्तरों के विरोधी स्वरूप की वह बात नहीं करता, केवल वही बिन्दु ढूँढता, जहाँ सुख है, समरसता है यानी वह सुखी जीवन के सपने देता। कोरे अध्यात्म की अपेक्षा इहलोक में ही सुखी जीवन जीने के सपने के खरीददार बहुत थे। शेखर भी उन्हीं में से एक था। शेखर में प्रियकान्त को एक प्रबल समर्थक दिखने लगा था। दो बार टालने के बाद तीसरी बार जब शेखर ने प्रियकान्त से घर चलने का आग्रह किया तो वह टाल नहीं सका। सम्भतः वह आगे की कार्रवाई को और टालना नहीं चाहता था।

शेखर का काम-धन्धा भले ही अच्छा न चल रहा हो, पर अचल सम्पत्ति उसके पास बहुत थी। अपने घर में प्रियकान्त का प्रवेश करते ही शेखर ने सबसे पहले उसके पाँव धोए, पत्नी और बच्चों से मिलवाया। खूब सेवा की और कहा-”गुरुजी! यह सब मैं आपके चरणों में अर्पित करता हूँ” प्रियकान्त मुस्करा भर दिया। उसे किसी ने गुरुजी तो पहली बार कहा था, उसने कहा-”शेखर! गुरुजी के लिए संस्कृत में एक शब्द है आचार्य...क्या कहूँ...हम लोग अपनी संस्कृति भूल सी गये हैं...सर, श्रीमन्, गुरुजी...नहीं...नहीं...जो बात आचार्य में है, वह और किसी शब्द में कहाँ?

“ठीक है आचार्य जी! सभी यही कहेंगे...पर आप यह सब तो लीजिए और विश्व कल्याण में लगा दीजिए।”

“यह तुम्हारा घर है शेखर! आगे से कभी भी ऐसी बात मत करना।”

साथ बैठी शेखर की पत्नी थोड़ी भौंचक्क तो थी, लेकिन किसी और के सामने अपने पति को डाँटना उसे अच्छा नहीं लगा, सो खामोश रही। बच्चों को न आचार्य में रुचि थी न किसी प्रवचन में, वे तो प्रियकान्त से नमस्ते करने के बाद ही घर से बाहर हो गये थे।

उस रोज़ प्रियकान्त सारा दिन शेखर के घर रहा। सारा दिन उन दोनों के बीच खूब बातें हुईं। उनकी गहरी छनने लगी। दोनों के बीच जो कुछ धुँधला-धुँधला सा तय हुआ, वह धीरे-धीरे कार्यरूप लेने लगा।

गुलशन सत्संग सभा की अन्दरूनी मण्डली में शेखर ने प्रस्ताव रखते हुए कहा-”आचार्य प्रियकान्त के प्रवचनों से लोगों को बड़ा लाभ हुआ है। मेरा प्रपोज़ल है कि उन्हें एक सप्ताह के लिए लगातार प्रवचन देने के लिए कहा जाये” प्रियकान्त से और लोग भी प्रभावित थे, गुलशन को भी प्रियकान्त अच्छा लगता था, लेकिन वह अधिक से अधिक संतों को बुलाना चाहते थे। फिर यह सोचकर कि एक-एक सप्ताह लगातार प्रवचन करवाने का लाभ अधिक होगा, उसने सिर हिलाकर ‘हाँ’ कह दिया।

मधुविहार में ही शेखर का एक पुराना दोस्त रहता था नीहार। नीहार एक कॉलिज में अंग्रेज़ी पढ़ाता था, पर उसे संस्कृत, हिन्दी, उर्दू साहित्य का भी भरपूर ज्ञान था। शेखर यूँ तो नीहार से कम ही मिलता था, लेकिन आज वह एक इश्तिहार बनवाकर लाया था। इश्तिहार में लिखा था ‘गुलशन सत्संग सभा के इतिहास में पहली बार सात दिनों की अमृतवर्षा।’ ‘सात दिनों की अमृत वर्षा’ शब्द मोटे अक्षरों में थे। आचार्य प्रियकान्त एम.ए. को सुनिए और जीवन सफल बनाइए।

शेखर ने इश्तिहार का मैटर नीहार के सामने रखते हुए कहा-”देख यार! ठीक है न!”

“हाँ, हाँ, ठीक है”, नीहार ने टालने की मुद्रा में कहा।

“बिना पढ़े, ठीक है...देख तो सही...”

नीहार को थोड़ी खीझ आ गयी। उसने इश्तिहार के मैटर वाले काग़ज़ को हाथ में पकड़ते हुए कहा-”एम.ए. क्या है?”

“आचार्य जी की डिग्री।”

“कोई मतलब भी है यहाँ डिग्री लगाने का...एम.ए. काट दो, बाकी ठीक है।” नीहार को लगा था कि प्रियकान्त मानसिक रूप से बहुत विकसित नहीं है, इसलिए नाम के साथ डिग्री लगाकर अपने महत्व को स्थापित करना चाहता है।

“और कुछ...एम.ए. हटा दिया...अगले हफ़्ते शुरू हो रहा है, एक बार सुन तू भी...”

“मैंने पार्क में घूमते हुए उसे एक दिन सुना था...चलते-चलते जो दो-चार बातें मेरे कानों में पड़ी थीं। उससे लगता कि वह और उपदेशकों से बेहतर है...”

“तो आ न!”

“बेहतर है आम जन के लिए...मुझे अपनी राह ढूँढने के लिए उसके पास जाने की ज़रूरत नहीं है...पर तेरा क्या स्वार्थ है?” नीहार ने शेखर पर सीधी चोट की।

शेखर न सकपकाया, न तिलमिलाया-”आचार्य को आगे बढ़ाना है...मुसलमानों और ईसाइयों ने इस देश को बर्बाद कर दिया है...आजकल क्रिश्चियनटि फैल रही है...रोकना है इसे।”

“क्रिश्चियनटि फैल रही है, इस्लाम फैल रहा है, बौद्ध फैल रहे हैं तो इसके लिए हिन्दू खुद ही ज़िम्मेदार हैं।”

“हिन्दू धर्म से अच्छा कोई धर्म नहीं।”

“तभी आज भी अछूतों और दलितों को ज़िन्दा जला देते हो, जो कन्वर्ट हो गया, सो हो गया...उन्हें अपने समाज में लौटने का मौका नहीं देते हो।”

“शुद्धिकरण होता है न”, शेखर ने टोका।

“सिर्फ़ आर्य समाज में...बस...वो भी कितना...उन्हें समाज में स्वीकृति कितनी मिलती है...हिन्दू धर्म का डंका बजाना छोड़ो, करना ही है तो हिन्दुओं के मन को बदलने का काम करो।”

“बात तो तेरी ठीक है...आचार्य जी से मिलो न, उन्हें भी बताओ।”

“किसलिए, किसलिए मिलूँ उससे...यह प्रवचन-पाठ उसका मिशन नहीं, व्यवसाय है...यह सब धर्माचार्य धर्म के सौदागर हैं...और तुम हो उनके पिछलग्गू...बेकार...अपना काम-धन्धा करो, नाम कमाओ, धन कमाओ-समझ में आता है...शिक्षा बाँटो-उससे कमाओ, यह भी समझ में आता है, पर धर्म का धन्धा अपनी समझ में नहीं आता।”

थोड़ी देर तक उन दोनों के बीच चुप्पी फैल रही। चुप्पी जब आतंकित सा करने लगी तो शेखर ही बोला-”चलता हूँ” कहकर झट से उठा और चला गया। अगले दिन वह फिर लौटा उसके हाथ में छपा हुआ वही इश्तिहार था “लो...”

हाथ में लेकर पढ़ते हुए नीहार ने कहा-”ठीक है”

“नीचे चलोगे?” शेखर ने पूछा।

“क्यों?”

“आचार्य जी गाड़ी में बैठे हैं...तुमसे मिलना चाहते हैं।”

“मुझसे बिना पूछे तुम उसे यहाँ क्यों ले आये” नीहार ने डाँटा।

“मिल तो ले यार। तेरे से कुछ माँग थोड़े ही रहे हैं।” नीहार अशिष्ट नहीं होना चाहता था, शायद हो ही नहीं सकता था, कहा-”अपने आचार्य को ऊपर ले आओ” शेखर भी यही चाहता था। ऊपर लाकर शेखर ने नीहार को प्रियकान्त से औपचारिक परिचय करवाया।

“आपका यह दोस्त आपकी बड़ी तारीफ करता है...” प्रियकान्त ने नीहार से कहा।

“पुरानी दोस्ती है न!...क्या लेंगे।”

“आपकी इजाज़त हो तो आपका थोड़ा सा वक़्त ले लूँ?” नीहार प्रियकान्त की इस शिष्टता के सामने ना नहीं कर सका।

“आपके क्रान्तिकारी विचार मुझ तक पहुँचे हैं...शेखर ने बताया। मेरा मन हुआ आप से मिलूँ...नीहार साहब! जैसा आप सोचते हैं, मैं भी वैसा ही सोचता हूँ, लेकिन समाज में कुछ बदलना है तो सिर्फ सोचकर नहीं बदला जा सकता।”

“जानता हूँ...पर हर बदलाव की पहली शुरुआत सोच से ही होती है।”

“बस वहीं शुरू, वहीं खत्म।”

“नहीं, आगे भी चलती है वह, शब्दों में, चित्रों में, कलाओं में...”

“कितने लोगों तक पहुँचती हैं वे सब।”

“उन तक तो पहुँचती ही हैं जो समाज में बदलाव ला सकते हैं...”

“बहुत माइक्रोस्कोपिक बदलाव होता है वो, दो-चार परिवार बदलते हैं बस...बदलाव लाने के लिए कुछ करना ज़रूरी है, सिर्फ़ विचार से काम नहीं चलता, कई बार विचार को शक़्ल देने के लिए हथियार भी उठाना पड़ता है, राजनीति में उतरना पड़ता है...आप तो खुद चिन्तक हैं, सोचिए कि अगर लेनिन न होते तो क्या मार्क्स के विचारों के अनुरूप समाज बनता...वाशिंगटन न होते तो क्या दास-प्रथा खत्म होती...

“हाँ, लेकिन सन्त, कवि न होते तो हिन्दू-समाज में जाति के बन्धन ढीले न होते”, नीहार ने कहा।

“आप तो मेरे मन की बात कर रहे हैं...यानी वे अपने विचारों को लेकर लोगों तक पहुँचे...उन्होंने धर्म का, अध्यात्म का रास्ता चुना, लेनिन ने हथियार उठाया...परिवर्तन तो हुआ न!”

“लेनिन के हथियार उठाने से पूरी समाज-व्यवस्था बदल गयी, लेकिन सन्तों की वाणी से ऐसा कुछ नहीं हुआ।”

“हर व्यक्ति की भूमिका अलग है नीहार जी...अब देखिए शेखर ने मुझे आकर बताया कि आपने मेरे नाम के साथ एम.ए. शब्द पर एतराज़ किया...मुझे समझने और खुद को बदलने में ज़रा सा भी वक़्त नहीं लगा...देखा ही होगा आपने इश्तिहार...उसमें मैंने एम.ए. शब्द हटा दिया है।”

“बड़ा फूहड़ लगता था’, नीहार ने कहा।

“जो भी हो...मैं बदला न! मेरा निवेदन सिर्फ़ इतना है कि आप जैसे बुद्धिजीवी इस चारदीवारी में बैठकर ही न सोचते रहें, अपनी सोच को लोगों तक पहुँचाएँ भी...”

“आप हैं न!!” नीहार ने चुटकी ली।

प्रियकान्त भी पीठ के बल गिरने वाला पहलवान नहीं था, बोला-”मेरे पास अपनी सोच है, बहुत सी बातें आपकी सोच से मिलती हैं, सम्भव है बहुत सी बातें न भी मिलें...”

“आपकी राह अलग है, मेरी अलग...” नीहार ने कहा।

“फिर भी हम मिलकर चल सकते हैं...समानान्तर राहों पर भी...”

शेखर उन दोनों की बातों का मूक श्रोता बना हुआ था। बहुत सी बातें उसकी समझ में नहीं आ रही थीं, फिर भी उसके मुख पर फैला स्मित शेखर को बता रहा था कि प्रियकान्त के साथ जुड़कर उसने कोई ग़लत राह नहीं पकड़ी।

प्रियकान्त और नीहार के बीच दो घण्टे तक चर्चा होती रही। धर्म, राजनीति, अध्यात्म, कला, साहित्य, व्यवस्था, वैज्ञानिक सोच, आधुनिकता, भारतीयता-यानी हर विषय पर प्रियकान्त ने नीहार को लगभग चित्त कर दिया तो प्रियकान्त ने ही कहा-”दो दिन बाद समागम शुरू होगा, समय मिले तो आइए...वहाँ मेरी भाषा अलग होगी...वहाँ मुझे आम-जन तक पहुँचना है, सभी इतना नहीं पढ़े, जितना कि आप...”

“आपके क्लाएन्ट भी वही लोग हैं।”

“जो भी मानिए, क्लाएन्ट, भक्तजन, अनुगामी या जो भी...चलूँ...नमस्कार”, कहकर प्रियकान्त सीढ़ियाँ उतर गया।

शेखर प्रियकान्त को अपनी गाड़ी में बिठाकर उसके घर छोड़ने जा रहा था, तभी उसका मोबाइल बजा, देखा नीहार था।

“हलो, कुछ छूट गया क्या”, शेखर ने पूछा।

“नहीं, तुम लोग गये तो एक बात और ध्यान में आयी”

“क्या?”

“तुम्हारे आचार्य जी तुम्हारे साथ ही हैं न।”

“हाँ, मैं ड्राइव कर रहा हूँ, उन्हीं से बात कर”, कहकर उसने मोबाइल प्रियकान्त के हाथ में दे दिया।

“जी, फरमाएँ”, प्रियकान्त के स्वर में अतिरिक्त कोमलता थी।

“मैं कह रहा था कि अगर अपना नाम भी बदल लें।”

“नाम बदल लूँ? क्यों?” प्रियकान्त नीहार की बात सुनकर थोड़ा हैरान था।

“हाँ, यह प्रियकान्त लगता है जैसे किसी फिल्म एक्टर का नाम हो।”

“जो भी हो, नाम तो नाम है, अपने नाम से बड़ा मोह होता है नीहार साहब, यही बात मैं आपसे कहूँ, तो?”

“ज़रूरत हो तो बदल लूँगा...बस मेरे दिमाग में एक फ्लैश आयी तो सोचा कह दूँ पर आप तो बिना जाने ही नाम-मोह में फँस गये...आपको ही मोह से मुक्ति नहीं तो आम जन मोह-पाश से कैसे छूटेगा” चोट सीधी गर्म लोहे पर पड़ी थी।

“अच्छा बताइए।”

“मुझे लगता है कि आप अपना नाम प्रियांशु कर लें...आचार्य प्रियांशु...छोटा...सुन्दर, कुछ अलग...कैसा रहेगा।”

“प्रियांशु!”

तभी पास बैठे शेखर की उत्सुकता जगी-”क्या बात है आचार्य जी।”

“तुम्हारे मित्र कह रहे हैं कि मैं अपना नाम प्रियांशु कर लूँ...ज़्यादा अच्छा रहेगा।”

“न्यूमरलॉजी की इसे अच्छी समझ है”, शेखर ने कहा। वैसे ही प्रियकान्त ने पूछ लिया-”न्यूमरलॉजी की बात है क्या?”

“वही समझ लीजिए” नीहार ने हालाँकि ऐसी कोई गणना नहीं की थी, पर कह दिया, क्यों कह दिया, इसकी कोई वजह उसे समझ में नहीं आ रही थी।

“ठीक है, सोचता हूँ”, कहकर प्रियकान्त ने फोन काट दिया।

“तुम्हारी क्या राय है शेखर”, प्रियकान्त को नाम तो अच्छा लगा था, लेकिन वह शायद शेखर से समर्थन माँग रहा था।

“मुझे अच्छा लगा आचार्य जी, यह नीहार है बड़ा इंटेलिजेन्ट, आचार्य प्रियांशु, सुनने में ज़्यादा अच्छा लगता है न।”

“पर लोग तो मुझे प्रियकान्त के नाम से ही जानते हैं?”

“अभी तो शुरुआत है आचार्य जी...”

“और यह इश्तिहार?”

“नये छपवा लेते हैं।”

वहाँ से वे सीधे प्रेस पर गये। और आचार्य प्रियकान्त बदलकर आचार्य प्रियांशु छपकर बाहर आ गये।

यह एक नये धर्माचार्य का जन्म था।

आम जन तक नया नाम पूरी नाटकीयता के साथ पहुँचाया गया। आचार्य प्रियांशु का डंका बजने लगा।

समागम के पहले ही दिन प्रवचन के बाद शेखर ने आचार्य प्रियांशु को अपने कन्धों पर उठा लिया। अपनी गाड़ी तक ले गया। कुछ लोग हँसे, लेकिन अधिकतर लोगों पर इसका सकारात्मक प्रभाव ही पड़ा। अगले दिन से शेखर आचार्य जी को दण्डवत साष्टांग करने के बाद ही प्रवचन सुनने बैठता।

अधिकतर लोग देखा-देखी ही काम करते हैं। शेखर को इतनी श्रद्धा उँडेलते देख और लोग भी प्रणाम करने लगे। प्रियकान्त किसी को अपने पाँव नहीं छूने देता था। लोगों को समझाता-”सम्मान मन में होता है, उसके प्रदर्शन के और तरीके भी हैं, मेरे पाँव मत छुइए।” वह जितना रोकता, पाँव छू लेने वालों की संख्या उतनी ही बढ़ती जाती। समागम में अधिकतर लोग मूर्ति-पूजक थे। पहले तो प्रियकान्त को उनकी मूर्ति-पूजा अटपटी लगी। वह मूर्ति-पूजा का मखौल उड़ाकर उनकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचाना चाहता था। वह जानता था कि ऐसा करने से वहाँ मौजूद भक्त-जनों को ठेस लग सकती है बल्कि उसे डर था कि ऐसा-वैसा कुछ बोलने से उसके भक्तों की बढ़ती तादाद रुक सकती है, कम भी हो सकती है। उसने लोगों की नब्ज़ पकड़ ली थी। लोग अपनी समस्याओं का तुरन्त कोई निदान चाहते थे। प्रियकान्त ने समझ लिया था कि उन्हें उनकी समस्याओं का कोई ‘तुरन्त हल’ भी देना था और एक सुखद भविष्य का सपना भी। उसे उनका परलोक तो सँवारना ही था, इहलोक में भी सुख की राह दिखानी थी। उसे सचमुच ‘ज़रा हट के’ कुछ करना था। उसने वही किया। सबसे पहले उसने ‘कृण्वंतो विश्वम् आर्यम्’ के मूल मन्त्र के अर्थ का विस्तार किया। फिर उसे छोड़ दिया। वह यज्ञ करता, साथ ही राम, कृष्ण और शिव की मूर्तियों के आगे भी नमन करता। वह अपने को तुलसी से आगे का सन्त मानता। वह निर्गुण में सगुण और सगुण में निर्गुण को वैसे ही ब्लैंड करने लगा, जैसे माल्ट में स्कॉच ब्लैंड की जाती है।

आर्य समाज की केन्द्रीय सभा को जब यह सब सूचनाएँ मिलीं तो उन्होंने प्रियकान्त को तलब किया। प्रियकान्त इसके लिए पहले से ही तैयार था। उसने अपना इस्तीफा डाक से भेज दिया, अब वह बिल्कुल मुक्त था।

आचार्य प्रियांशु धीरे-धीरे आदरणीय फिर श्रद्धेय, पूज्य और फिर परम पूज्य हो गये। शेखर को इसी दिन का इंतज़ार था।

समागम के अन्तिम दिन शेखर ने अपनी ओर से आचार्य प्रियांशु को दक्षिणा स्वरूप एक लाख रुपये का चैक दिया। मधुविहार अब समृद्ध लोगों की कॉलोनी थी। आचार्य प्रियांशु के भक्तों की संख्या भी बढ़ी थी। शेखर के एक लाख के चैक ने औरों को भी उकसाया एक लाख तो नहीं, लेकिन इक्यावन हज़ार, ग्यारह हज़ार, पाँच हज़ार के कई चढ़ावे चढ़े। समागम में सैंकड़ों की संख्या में लोग थे। कुल मिलाकर चार लाख के करीब धन इकट्ठा हुआ। उस दिन फिर शेखर ही आचार्य को अपने कन्धों पर बिठकार अपनी गाड़ी तक ले गया।

घर लौटते हुए प्रियकान्त ने पहले से तय योजना के अनुसार एक लाख का चैक शेखर को लौटाते हुए पूछा-”ठीक रहा न!”

“सुपर्ब अब आगे...”?”

“नीहार आया?”

“एक दिन भी नहीं।”

“वह अब क्या कहता है?”

“कहता है आचार्य प्रियांशु फ्राड है।”

प्रियकान्त के चेहरे पर हल्का सा स्मित फैल गया, बोला-”पर मैंने तो उसके सुझाव पर अपना नाम तक बदल दिया।”

“चलें उसके पास?”

“अब छोड़ो...तुम्हारा यह एक लाख छोड़कर लगभग तीन लाख मिले हैं न!...इसके साथ एक बड़ा समागम करो...भक्तों से और दान मिल ही जायेगा...पर उससे पहले एक अपना फोरम ज़रूरी है।”

फिर बना विश्व जागृति मिशन। मकसद था जन-कल्याण, धर्मान्तरण को रोकना और छुआछूत रहित हिन्दू समाज की स्थापना करना। इसके लिए जो दन्द-फन्द करने पड़े, वे सब प्रियकान्त ने किए। प्रियकान्त गरीबों की बस्ती में भी यदा-कदा हो आता, पर जब उन्होंने अपनी ही बस्ती में समागम आयोजित करने का प्रस्ताव रखा तो वह समय का बहाना बनाकर टाल गया। वहाँ से उसे क्या मिलने वाला था। उनसे कहा-”बड़ा समागम हो रहा है, वहीं आइए” भीड़ जुटना बहुत ज़रूरी था। भीड़ जुटी, खूब जुटी। प्रेस के लोग भी पहुँचे। यश, प्रचार, धन-सब मिला। विश्व जागृति मिशन मंच की विधिवत घोषणा की गयी। उसके लिए एक आश्रम बनाने की घोषणा भी हुई, तो आनन-फानन में बीस लाख रुपया इकट्ठा हो गया।

प्रियकान्त उर्फ आचार्य प्रियांशु महाराज को भी इतनी सफलता की उम्मीद नहीं थी। शेखर को लग रहा था कि प्रियकान्त की इस सफलता के पीछे उसी का हाथ है। न वह उसे इतना मान-सम्मान देता, न यह सब इतनी जल्दी हो जाता। शेखर को लग रहा था, उसके दिन भी फिर गये हैं। इतने चढ़ावे में से कुछ हिस्सा उसे भी मिलेगा, नहीं तो वह आश्रम बनवाते हुए अपना कमीशन रखकर ही काम करवाएगा।

प्रियकान्त के इर्द-गिर्द अब बड़े सरकारी ओहदों पर काम करने वाले जुट गये थे। सभी कहीं न कहीं, किसी न किसी बात से जीवन में दुःखी थे। उन सभी को सुख की खोज थी। उन्हें लगता था कि वे आचार्य प्रियांशु की पूँछ पकड़कर वे वैतरणी पार कर सकते हैं। विश्व जागृति मिशन की कार्य समिति बनी। प्रियकान्त के संकेत पर ही शेखर को नहीं बुलाया गया। शेखर तो मानकर बैठा था कि मिशन की कार्य समिति जब भी बनेगी, महासचिव का पद उसे ही मिलेगा, लेकिन वह पद मिला किसी प्रकाश द्विवेदी को। शेखर को पता चला, वह बुरी तरह से बिफर गया-”आचार्य जी, यह क्या...मुझे बुलाया तक नहीं।”

“यह सब इन लोगों ने ही किया है, मैंने कहा भी...पर अब मैं तो जनता की सम्पत्ति हूँ, जो चाहें, सो करें, पर तुम चिन्ता मत करो, मैं इनसे बात करूँगा।” प्रियकान्त ने शेखर के ताज़ा-ताज़ा घावों पर मरहम लगाते हुए कहा।

शेखर की आशा की हल्की सी किरण दिखाई दी, सो उसमें कोई हंगामा नहीं किया, पर जब वह अगली बार प्रियकान्त से मिलने गया तो उसे एक घन्टा इन्तज़ार करना पड़ा। शेखर किसी को कहता भी तो क्या कहता कि वो एक लाख रुपए का चैक मैंने वापिस ले लिया था कि हम दोनों के बीच पहले से ही साँठ-गाँठ थी और प्रियकान्त ने उसे धोखा दिया है, फिर अब प्रियकान्त के इर्द-गिर्द जो दो-तीन पहलवान रहते थे, उनसे वह मुकाबला कैसे करेगा?”

कुछ दिन बाद परेशान शेखर नीहार के पास आया। चाय पीते हुए नीहार ने ही पूछा-”क्या हाल है तुम्हारे प्रियांशु के...आजकल तो खब चर्चा हो रही है उसकी।”

शेखर भरा बैठा था। फट पड़ा। मोटी-मोटी दो-तीन गालियाँ निकालते हुए बोला-”तुमने ठीक ही कहा था, फ्राड है वो...क्या बताऊँ...मुझसे अब वो मिलना ही नहीं चाहता, पहलवानों और हसीनाओं से घिरा रहता है...एक दिन तो हद ही हो गयी” कहकर वह कुछ रुक गया “क्या हो गया?” नीहार ने पूछा।

“हरामी का पिल्ला...दो सेविकाओं से चरण दबवा रहा था...वो तो मैं दनदनाता हुआ एक दिन उसके कमरे में घुस गया...शिट्...विश्व जागृति मिशन...क्या कल्याण करेंगे यह हिन्दू समाज का...”

“मैंने तुझे कितनी बार समझाया है शेखर, इन लोगों के चक्कर में मत पड़, अपना काम-धन्ध कर, इन लोगों के लिए धर्म एक धन्धा है...”

“कुछ बदलेगा नहीं इनसे?” शेखर ने पूछा।

“कुछ नहीं बदलेगा” नीहार कहने लगा-”देख रहे हो आजकल कितने धर्माचार्य कुकुरमुत्तों की तरह से उग आये हैं...कुकुरमुत्तें हैं यह, ज़हरीले कुकुरमुत्ते, इनसे बचो।”

“पर प्रियांशु तो बरगद बना हुआ है।”

“भ्रम है उसका, तुम्हारा भी...थोड़े ही दिनों में देखना...सब फ्राड सामने आ जायेग...धर्म, इतिहास, दर्शन, समाज को समझना ही है तो कुछ पढ़ो, पढ़े-लिखों की संगत करो, असली सत्संग तो वही है...इन कुकुरमुत्तों से तुम्हें न छाया मिलेगी, न प्रकाश” नीहार बड़ी देर तक और भी बातें करता रहा।

शेखर थोड़ा व्यवस्थित हुआ और अब तरीके से कुछ करने का संकल्प लेकर चला गया।

शेखर ने गाड़ी में जाते हुए देखा सड़क के बायीं ओर की दीवार पर चिपके आचार्य प्रियांशु महाराज के पोस्टर उसे घूर रहे थे। उसने गाड़ी किनारे लगा दी। डैश बोर्ड से मार्कर पेन निकाला और पोस्टर पर आचार्य प्रियांशु महाराज के नाम के आगे मोटा-मोटा लिखा-”कुकुरमुत्ता।”