एक और देवदास(कहानी) / मालती जोशी

Gadya Kosh से
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सारी शाम जैसे रणचंडी मुझ पर सवार रही. पहले तो माली बाबा को बगीचे की दुर्दशा के लिए लताड़ा. वह बेचारा लाख गिड़गिड़ाता रहा कि सावन-भादों में बैग में घास-फूस तो होती ही रहती है, पर मुझे कुछ भी सुनने का होश न था.

फिर सहमत आई सुलेमानी कि. वह शायद पगार की आशा में चढ़ाव के पास बैठी थी. उसकी बोझिल देह को अनदेखा करके मैंने कम्पाउंड की गंदगी के लिए उसे जोरदार डांट पिलाई. फिर उसकी याचना भरी निगाहों की प्रवाह किए बिना ही ज़ोरदार शब्दों में एलान कर दिया कि जब तक होस्टल का अहाता ठीक से साफ़ नहीं हो जाता; पगार नहीं मिलेगी.

सीढियां चढ़ते हुए याद आया कि आइने खुद ही सुलेमानी से कह रखा है कि जचगी होने तक वह बच्ची को भेज दिया करे. नया आदमी रखने से उसके पैसे कटने का खतरा जो था. लेकिन यह बात याद आने से गुस्सा कम नहीं हुआ, बल्कि वह हर सीढी चढ़ने के साथ बढता ही गया. नौ नंबर के कमरे में लक्ष्मी हॉट वाटर बैग लेकर पड़ी थी. मुझे मालूम था, पीरियड्स में वह लगभग बीमार पड़ जाती है. मैंने उसे लेटे-लेटे ही कुछ पढ़ने का कड़े स्वर में आदेश दिया. अध्ययन-कक्ष से गुजरते हुए लड़कियों को शरारत करने की सजा दी. इला को डांटा कि सर्दी-जुकाम के बावजूद उसने स्वेटर क्यूँ नहीं पहना है.

अपने कमरे में जाते हुए देखा,गैलरी का बल्ब फ्यूज है. बस उलटे पैरों लौटकर रजनी की खबर ले डाली. मैडम शाम से बिस्तर में लेटकर कोई सस्ता रोमांटिक नॉवेल पढ़ रही थी. कुछ देर तो सुनती रही फिर भरभरा कर रो पड़ी. पर हमेशा की तरह मैंने उसे सांत्वना नहीं दी, बल्कि पैर पटकते हुए अपने कमरे में लौट आई. सर बुरी तरह भन्ना रहा था.दिमाग की नसें इतनी तन गई थी कि लगता था,फट पड़ेंगी. लगा कि एक-दो और नमूने से सामना हो गया, तो आज सचमुच मुझे कुछ जो जाएगा.

लेकिन सामना हुआ रामरती से. वह कमर पर हाथ धरे दरवाजे के बाहर मेरी प्रतीक्षा कर रही थी. मेरे कुर्सी पर आकर बैठते ही उसका फरमान छूटा,"अपुन को जी अच्छा न होई तो लेट न रहिए घड़ी भर! बिना बात के रिसिआय रहीं तब से."

जैसे कोई फाइल गुब्बारे में पिन चुभा दे,रामरती की बात ने ठीक वही असर किया और मैंने निढाल होकर मेज़ पर सर रख दिया. यहाँ सब पर शासन करने वाली मैं--पर यह दो कौड़ी की नौकरानी मेरी बॉस बनी हुई थी. उसकी कड़ी और खड़ी बातों का मेरे पास कोई प्रतिवाद नहीं होता था. क्योंकि उसके खुरदुरे व्यक्तित्व के भीतर बहने वाली स्नेह की अंतःसलिला को मैं जानती थी. अब भी क्या उसने मुझे चैन से बैठे दिया! एक कप कॉफी के साथ एक टिकिया खिला कर ही दम लिया. फिर बोली "मचिया में पौढिये तो हम मूड़ दाबि दें ठीक से."

उसके अत्याचारों से बचने का कोई उपाय नहीं था. मैं चुपचाप आकर बिस्तर पर लेट रही. रामरती कटोरे में आणले का तेल लेकर सिरहाने जमीन पर बैठ गई. उससे लाख बार कहा कि इस युग में इतना तेल कोई नहीं लगाता. लेकिन न उसे जमाने की प्रवाह थी, न मुझमें उससे बहस करने की शक्ति थी. और ईमानदारी की बात तो यह थी कि उसकी मालिश से सचमुच दिमाग को बड़ी ठंढक मिलती थी. बस तापदायक होती थी उसकी ज़बान,जो अव्याहत रूप से चलती रहती थी. वह निरंतर होस्टल की लड़कियों को, यहाँ के शोर-शराबे को, यहाँ के ढेर सारे काम को और मेरी लापरवाही को कोसती रहती.

धीरे-धीरे उसकी उंगलीयों का जादू मुझ पर छाने लगा और उसका कर्कश स्वर दूर होता गया. कब आँख लग गई पता ही ना चला, नींद जब खुली, तो रात के नौ बज रहे थे. मुझे चादर उढाकर रामरती इधर-उधर हो गई थी.फिर भी मैंने उठने का खतरा मोल नहीं लिया. चुपचाप लेटी रही. शाम की सारी घटनाएँ याद आने लगी. उन लोगों के करूँ चेहरे आँखों के आगे घूम ए,जिन्हें मैंने इन बात के डांट दिया था. अपने ऊपर बड़ी ग्लानि हो आई. पता नहीं सबने मेरे बारे में क्या सोचा होगा. क्या रामरती कि तरह वे भी समझ गए होंगे कि मेरा जी अच्छा नहीं है. क्या हो गया है मेरे 'जी' को ! दोपहर तक तो अच्छी-भली थी. सुबह लड़कियों को 'गुड्डी' दिखने ले गई थी. दोपहर को रजनि के साथ 'ब्ल्यू बेल्स' में खाना लिया था. तीसरे पहर रामरती के हाथ कि बढिया कॉफी पीकर पिछले महीने का हिसाब देख रही थी. तभी... हां, तभी प्रिंसिपल मैडम का बुलावा आया था. इतनी कोफ़्त हुई थी. एक तो जुलाई महीने का हिसाब वैसे ही गड़बड़ रहता है. सुबह पांच लडकियां होती है तो शाम को खाने तक पंद्रह हो जाती हैं. फिर दूसरे दिन पता चलता है, दो लडकियां होस्टल छोड़ रही हैं. उनके डिपौजिट को एडजस्ट करते-करते दम फूल जाता है. बड़ी मुश्किल से मन को एकाग्र कर पाई थी कि ये समन आया. मना करने का कोई सवाल नहीं था. रजिस्टर बंद कर चप्पल चटखाती हुई बंगले की ओर चल पड़ी. मैडम अकेली नहीं थी . मुझे द्वार पर झिझकते देखकर बोलीं-- "कम ऑन, गीता ! आओ, तुम्हारा परिचय करा दूं. मि.वाजपेयी, ये हैं हमारी मेट्रन मिस गीता देसाई...और गीता, आप हैं मि.वाजपेयी डी.एफ.ओ.."

नमस्ते के लिए उठे हुए दो जोड़ी हाथ और दो जोड़ी आँख जड़ होकर रह गईं.

अच्छी बात यह थी कि मेरी उम्र अठारह नहीं, अड़तीस थी. नहीं तो क्या उतनी निर्लिप्तता से कह पति-- "मैडम! हम लोग क्लासफेलो रह चुके हैं."

"सच! हाउ नाइस!" मैडम ने उत्साह में भरकर खा और फिर बीसियों प्रसंग सुना डाले, जब उनकी पुराने परिचितों से यूँ अकस्मात भेंट हो गई थी. सरे वक्त मैं टेबुल-क्लॉथ कि कढ़ाई को मन पर उतरने का प्रयास करती रही. कमरे में तीसरे व्यक्ति कि उपस्थिति को झुठलाती रही. पर मैडम को जल्दी होश आ गया,"मैंने आपको बोर तो नहीं किया ?" उन्होंने अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ पूछा और फिर ऑफिशियल टोन में आकर बोलीं-- "अब काम कि बात हो जाए. गीता, मि.वाजपेयी अपनी बेटी को हमारे यहां रखना चाहते हैं ."

"लेकिन मैडम, हमारे यहां जगह..." मैंने प्रतिवाद करना चाहा. "मुझे मालूम है,लेकिन वी मस्ट ट्रीट इट इज अ स्पेशल केस. अभी अप्रैल में ही इस लड़की की माँ का देहांत हो गया है. मि. वाजपेयी अक्सर टूर पर रहते हैं. लड़की को अकेले घर में नहीं छोड़ा जा सकता है न !"

"ओह,सो सैड." मैंने सांत्वना में कुछ और कहना चाहा, मगर शब्द नहीं मिले. बुत बनी बैठी रही.

मैडम शायद चाय के लिए कहने भीतर गईं. मैं ही उनका अनुसरण करना चाह रही थी कि कमरे की चुप्पी को तोड़ता एक प्रश्न आया, "गीता, आज कितने अरसे के बाद मिले हैं न हम लोग !"

"उन्नीस वर्ष बाद !" मैंने क्लर्की लहजे में जवाब दिया.

"तुम जरा भी नहीं बदलीं."

"बदलना मेरा स्वभाव नहीं है."

"मैं एकदम बूढ़ा लग रहा हूँ न ! तुमने पहचान लिया, यही आश्चर्य है."

"एक बार अच्छी तरह पहचान लेने पर सहसा भूल नहीं पाती मैं."

इस बार गहरी चुप्पी. फिर थरथराता प्रश्न आया, "अब तक नाराज हो ?"

"अब मैं किसी से नाराज नहीं होती." मैंने ठंढे स्वर में जवाब दिया. लंगड़ा कर चलने वाली बात वहीं रुक गई. डी.एफ.ओ. वाली मुद्रा बना कर उसने 'टाइम्स' उठा लिया. मैं 'फिल्मफेयर' के पन्ने उलटने लगी. मैडम किचन से लौटीं, तब तक हम दोनों इसी तरह शिष्ट और संयत नज़र आ रहे थे. चाय के बाद फॉर्म भरने का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ--

नाम-- कुमारी बांसुरी वाजपेयी

पिता का नाम--प्रकाशनारायण वाजपेयी

कागज पर खरखराने वाली कलम जैसे मेरे कलेजे को चीरती चली गई. उन दिनों की याद हो आई, जब यह नाम प्रकाश-स्तंभ कि तरह जीवन सार के तट पर खड़ा था. इन्हीं अक्षरों में लिखे अनगिनत पत्र आज भी रेशमी रुमाल में बंधे सन्दुक की तलहटी में पड़े हैं. कितनी रातों को रामरती की आँख बचाकर उसका परायण किया है. ये पत्र उन्हीं हाथों के लिखे हुए थे,जो कही मेरे लिए आकाश के तारे तोड़ लेन का डम भरते थे. आज वही हाथ लड़की के लिए एडमिशन फॉर्म...

" अभी आप ये ढाई सौ डिपौजिट कर लीजिएगा. बिल आने पर हम लोग देख लेंगे." मुझसे कहा जा रहा था. मैंने स्वप्निल गीता को परे धकेल दिया और एक चुस्त मेट्रन की तरह रसीद लिखने बैठ गई.

सारी औपचारिकताओं के बाद मेहमान विदा लेने को हुए. उन्हें बाहर तक छोड़ आने का बहार मुझपर सौपा गया. गाड़ी में बैठते हुए उसने कहा, " मैं बसु के लिए बहुत चिंतित था. मेरा हेडक्वार्टर भी यहां नहीं है. कोई लोकल गार्जियन भी नहीं दे सकता. लेकिन तुम यहां हो. अब मुझे कोई फिक्र नहीं रहेगी."

इतनी देर से सुलगता हुआ मन जैसे भक् से जल उठा. क्या कहने हैं जनाब के! सोच रहे हैं-- गीता बाहें फैलाकर खड़ी है उनकी लाड़ली के स्वागत के लिए. हिप्पोक्रेट !

तब से सारी शाम मुझ पर मानो रणचंडी सवार हो गई थी.

सुबह मैं देर तक सोती रही. किसी के डिस्टर्ब करने का सवाल ही नहीं था. रामरती के होते हुए यमराज भी मेरी देहरी लाँघ नहीं सकते थे. लडकियां बेचारी क्या हिम्मत करतीं ! रजनि को बुला कर बता दिया कि एक नई एन्ट्री होने वाली है. वही सोच-समझकर किसी कमरे में जगह कर दे. फॉर्म वगैरह भी उसे ही सौंप दिए. अचानक इतना बड़प्पन पाकर उसका चेहरा फूल गया. शाम की घटना से मुरझाई रजनी खिल गई. उसका यही बच्चों का सा स्वभाव मुझे बांधे हुए था,अन्यथा काम के नाम पर वह जो करती थी, वह सब शून्य ही था. नौकरी उसके लिए मजबूरी थी. कच्ची उम्र में वैधव्य का दाग लेकर जब वह मेरे पास आई थी,तो मेरा मन पसीज उठा था. मैडम से कहसुन कर अपने असिस्टेंट के तौर पर मैंने उसे रख लिया था. पर एक दिन को भी उसका मन होस्टल की चहारदीवारी में नहीं रम सका. उसकी बड़ी-बड़ी आँखे हमेशा दिवास्वप्नों में खोई रहतीं. जीवन में जो उसे न मिल सका, उसे वह रूमानी चलचित्र या उपन्यासों में ढूंढा करती. इसी कारण मुझे उस पर प्यार भी आता था. इसी बात पर वह मेरी डांट भी खाया करती थी.

रजनी को विदा पर मैंने फिर सो जाने का नाटक किया. पर लगा, जैसे सारी संवेदनाएं किसी अनाम बिंदु पर केंद्रित हो रही हैं. मैं खुद समझ नहीं पा रही कि मुझे क्या हो रहा है. तभी गेट पर वह हॉर्न सुनाई दिया. मस्तिष्क का तनाव कम हुआ जा रहा था. मुझे अपने ऊपर क्रोध भी हुआ और आश्चर्य भी. एक ही दिन में मैं उस हॉर्न को पहचानने लगी थी. इंडिफरेंट होने का इतना बड़ा नाटक रचकर भी अनजाने में केवल उसकी प्रतीक्षा ही कर रही थी.

मेरे लाख विरोध करने के बावजूद मेरी कल्पना उसे गाड़ी से उतरते देख रही थी. तब से लेकर बेटी से विदा लेने के अंतिम दृश्य तक सब-कुछ मैं अपने मानस-पटल पर देखती रही. जबतक गाड़ी वापस नहीं चली गई, मेरा मन मेरा अपना नहीं रह गया था. कमरे का एकांत जब असह्य हो उठा, तो मैं शाल लपेटकर नीचे उतर आई. अहाते में स्कूल बस तैयार खड़ी थी और लडकियां एक-एक कर नीचे उतर रही थी. रोज की तरह मैं सीढियों से टिक कर खड़ी हो गई. तब मैंने देखा. सबसे पीछे वह धीरे-धीरे उतर रही थी. आंखो में रुलाई के लाल डोरे अब भी थे,चेहरा म्लान था. फिर भी ऐसा लग रहा थ,मानो लावण्य का एक पुंज नीचे उतर रहा हो. आंखों में चकाचौंध भरने वाले उस रूप को देखकर ख्याल आया,इसकी माँ भी इतनी ही सुंदर रही होगी. मन में एक अजीब विचार उठा कि परिवार कि मर्यादा और गुरुजनों के इच्छा के नाम पर उसने--प्रकाश ने--जो सौदा किया था,वह घाटे का नहीं रहा.

"कितनी स्वीट है न! "रजनी के इन शब्दों से मुझे होश आया कि मैं अनिमेष नेत्रों से उस मुग्ध सौन्दर्य का अनुशरण कर रही हूँ. फिर एक बार अपने ऊपर क्रोध आया. कुछ तीखी बात कहकर इस प्रशंसा को झुठलाने का प्रयास करना चाह रही थी,पर रजनी ने अवसर ही नहीं दिया. उसकी कमेंट्री अभी भी जारी थी, " दीदी आपने इसके फादर को देखा ? क्या टॉप पर्सनैलिटी है. एकदम एक्टर जैसे लगते हैं. इतने यंग दीखते हैं. विश्वास ही नहीं होता,इतनी बड़ी लड़की के पिता हैं." मैंने आहत होकर रजनी को देखा. पर मेरी व्यथा से बेखबर उसकी आंखें एक स्वप्निल चमक से चमक उठी थीं. पुरुष मात्र उसका वीक प्वाइंट था. शादी के तीन-चार महीनों में उसका स्वर्गीय पति उसके मन में अपनी अमित याद नहीं छोड़ सका था पर उसके मन में अपनी जाति के प्रति मोह अवश्य जगा गया था. रूढ़िवादी परिवार से विद्रोह का साहस जूता पाती,तो रजनी कब की दूसरी गृहस्थी बसा चुकी होती. उसकी यह कमजोरी मेरे लिए कभी-कभी चिंता का विषय बन जाती. पर इस बार मैंने उसे बैसाखी की तरह उपयोग किया. मेट्रन होने के नाते पालकों से अक्सर सामना हो जाता था. जब भी बन पड़ा, मैंने रजनी को प्रकाश से निपटने भेज दिया.फिर देर रात तक उसके मुंह से मि. वाजपेयी कि गुण-गाथा सुनने का दंड भी मुझे भोगना पड़ता. पर उसके सामने अपना संतुलन बनाए रखने की अपेक्षा यह अधिक सरल था.

वह अकसर आता. कुछ तो हमलोगों के व्यवहार में सौजन्य और सहानुभूति का पुट था-- कुछ उसे अपने पद का अभिमान था. शायद मुझसे परिचित होने का एहसास भी था. इसीलिए वह अकसर होस्टल के नियमों को तक पर रखकर ही आता. जब जी होता, बेटी को दो-चार दिन के लिए लिवा ले जाता. रजनी से यह आशा करना व्यर्थ था कि वह उन्हें इस व्यवहार का अनौचित्य समझा सकेगी. यह कठोर कर्तव्य आखिर एकदिन मुझे ही करना पड़ा. एक शाम तकरीबन सात बजे ही वह आ धमका. रजनी की उत्सुक आंखों को अनदेखा कर मैंने ही उसे रिसीव किया.

" देखिए, मि. वाजपेयी !" मैंने छूटते ही कहा, "हमारे यहां मिलने वालों के लिए एक खास दिन,खास समय नियत है. घर जाने के भी कुछ नियम हैं. इनमे आर हम बार-बार ढील देने लगेंगे, तो हमारे अनुशासन में गड़बड़ी आ जाएगी."

"देखो,गीता !" उसने मेरी औपचारिकता की प्रवाह किए बगैर कहा, "तुम्हें मालूम है, मैं टूरिंग जॉब वाला आदमी हूँ. तुम्हारे और मेरे टाइम-टेबुल में हमेशा फर्क बना रहेगा. इसीलिए यह रूल्स और रेगुलेशन्स तुम मुझे मत सिखाया करो. तुम अच्छी तरह जानती हो,उससे मिलने मुझे ही आना होता है. उसकी मां होती तो, मैं इतनी चिंता न भी करता." और एक तीखी हंसी के बाद बोला, "मां होती तो इस नरक जैसी रौटन जगह में वह आती ही क्यों ?"

इतनी खीझ हो आई. पता नहीं, उसके गहरे आत्मविश्वास पर, या पत्नी के उल्लेख पर, या छात्रावास की आलोचना पर. पर मेरा मन आप में नहीं रहा. बहुत ही सख्त स्वर में मैंने जवाब दिया, " आय एम सॉरी अबाउट हर मदर, लेकिन देखिए, यहां जो भी आता है, हरेक की अपनी प्राब्लम्स होती है. नहीं तो घर छोड़कर कोई इस 'नरक' में नहीं आता, इसीलिए सबके लिए नियम एक-सा ही है." उसने विस्मित होकर, व्यथित होकर मुझे देखा. फिर "ऐज यू प्लीज' कहता हुआ कुर्सी से उठकर खड़ा हुआ. दरवाजे तक पहुँच कर कुछ देर ठिठका, फिर बोला, "काश तुम समझ पाती उस बड़े बंगले में अकेले रात गुजरना क्या होता है. इतने-इतने दिनों के बाद लौटता हूँ, तो वह खाली घर काटने को दौड़ता है. इसीलिए पहले सीधा यहां आ जाता हूँ. लड़का उतनी दूर पवई में है. बार-बार घर आ भी नहीं सकता. और उसके होने पर भी घर में वह रौनक कहाँ आ पाती है. लेकिन तुम इतनी भी मेहरबानी नहीं कर सकतीं. ठीक है." और वह एकदम पलटकर सीढ़ियों की ओर बढ़ गया. उसके कंधे एकदम झुक आए थे और पैर मन-मन-भर के हो रहे थे.