एक और देवदास / बलराम अग्रवाल

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“सुनो मिस्टर!” कंधे पर खादी का थैला लटकाए घूमते चश्माधारी महाशय को उस नवयुवती ने अपनी ओर आने का इशारा किया।

“जी।” पास आकर वह बोले।

“मुझे ताकते हुए मेरे आसपास मँडराते रहने का तुम्हारा मक़सद क्या है?”

“जी, कुछ खास नहीं। आपके बारे में सोचते रहना मुझे अच्छा लगता है, बस।” वह बोले।

“तब तो मेरा साथ भी जरूर चाहते होगे?…मैं तुम्हारे घर रहने को तैयार हूँ।” उसने मुस्कराकर कहा।

“जी नहीं।” वह तपाक-से बोले,“मेरा शगल आपके बारे में सोचनाभर है, आपसे उलझ जाना नहीं।”

“अच्छा! जानते हो लोग मुझे…”

“समस्या…समस्या नाम से जानते हैं, जानता हूँ। तभी तो…तभी तो मुझे अच्छा लगता है आपके बारे में सोचते रहना।” वह अकड़कर बोले।

“समझी। क्या आप अपना परिचय देंगे?”

“जी हाँ, क्यों नहीं। लोग मुझे ‘बुद्धिजीवी’ कहते हैं।”