एक कटोरी धूप / राहुल शिवाय / सत्यम भारती

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"आधुनिकता" एक ऐसा पैमाना है जिसके आधार पर लोगों की मेधा, तरक्की तथा प्रगतिशीलता आंकी जाती है। आधुनिकता का तात्पर्य-विचार और कर्म दोनों से आधुनिक होना है न कि दिखावे और बातों से; कुछ लोग आधुनिकता का मतलब पुरातन सभ्यता, संस्कृति, रीति-रिवाज, इतिहास आदि के त्याग को समझते हैं। पश्चिमी सभ्यता का दास बन जाना, बाहर के विचारकों के मतों को ब्रह्म सत्य मान लेना, बीड़ी सिगरेट धूकना, उटपटांग कपड़े पहनना, अंग्रेज़ी में बक-बकाना, अपने विचारों को दूसरे पर थोपना आदि वर्तमान समय में आधुनिकता कि आधारभूमि बन गई है। यह प्राचीनता का त्याग नहीं उसके विसंगति में परिवर्तन की मांग करती है; यह पुरातनता के धरातल पर ही पुष्पित एवं पल्लवित होती है। हर युग अपने पुरातन युग की तुलना में आधुनिक होता है जो हमें तकनीक, विज्ञान, तर्क आदि की तरफ उन्मुख कराता है। यह केवल दो विचारों का द्वंद्व नहीं है बल्कि युग की तार्किक व्याख्या है, यहाँ तर्क की बात की गई है कुुतर्क की नहीं। आज हर जगह बुद्धिजीवी, कवि, विद्वान, लेखक तथा विमर्शकार विचारों के द्वंद में फंसे हैं, कोई यथार्थ से नहीं टकराता है, सब इन वैचारिक लड़ाई की आड़ में अपना-अपना स्वार्थ साध रहे हैं। आम आदमी का क्या है वह तो आज भी वही है जो पहले था; फिर आम आदमी के नाम पर चलने वाला यह तमाशा क्यों? कवि नागार्जुन ने लिखा था-"होंगे दक्षिण, होंगे वाम, जनता को रोटी से काम" कुछ इसी तरह की भावाभिव्यक्ति दोहाकार राहुल शिवाय की पुस्तक "एक कटोरी धूप" में मिलती है-

दक्षिण क्या दक्षिण रहा? रहा वाम क्या वाम?
मैं पहले भी आम था, मैं अब भी हूंँ आम॥

कथनी-करनी में फर्क आज के मानवों की कमजोरी है, हम इतने आधुनिक और कृत्रिम हो गए हैं कि मुंह से बात तो बड़ी-बड़ी करते हैं, जग सुधारने की बात करते हैं, हर मुद्दे पर सवाल पूछते हैं, लेकिन हमारे घर में क्या समस्याएँ हैं इससे वाकिफ नहीं हैं। किसी भी परिवर्तन की शुरुआत हमें अपने घर से करनी चाहिए, जब हम अपना घर नहीं सुधार पाए तो जग क्या सुधरेंगे? यह प्रवृत्ति बाजारवाद से मानव के अंदर समाहित हुई है-

बेटा सोशल हो गया, करे विश्व की बात।
पर घर में क्या हो रहा, उसे नहीं है ज्ञात॥

कहते हैं-"हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा" लेकिन अब इसका उलट हो गया है-"जग सुधरेगा तो हम सुधरेंगे"। सत्ता तथा समाज से सवाल पूछना, आंदोलन करना आसान है लेकिन उसका 10% भी खुद में सुधार कर पाना मुश्किल है यही आधुनिक मानव की सच्चाई है-

देख समस्या यह सदी, करती सिर्फ़ बदलाव।
नहीं कभी बदलाव की बनती स्वयं मशाल॥

बाजारवाद की एक नियति है-जो दिखता है वही बिकता है; यह दिखने वाली प्रवृत्ति जहाँ मानवों में कृत्रिमता को जन्म दिया है तो वहीं बाज़ार में विज्ञापन को; विज्ञापन का चकाचौंध तथा मॉल संस्कृति ने लोक में प्रचलित कुटीर उद्योगों, लोक कला को विलुप्त कर दिया; वहीं मिलावट, कालाबाजारी, निकृष्ट वस्तु की पैकेटबंदी और मुनाफा आदि को जन्म दिया है; दोहाकार विज्ञापन के चकाचौंध में फंसे लोगों की नियत से परेशान है-

हावी हमपर इसतरह, विज्ञापन के बोल।
शीशे को भी मिल रहा, हीरे जैसा मोल॥

महानगर का बनना आधुनिकता कि निशानी है, तरक्की करना बुरी बात नहीं है लेकिन उस मृगतृष्णा में फंसकर मानवीय मूल्य तार-तार कर लेना यह बुरी बात है।

फ्लैट-कल्चर, कंक्रीटीकरण, एकल परिवार की संस्कृति आदि गांवों से लोकजीवन छीन रही है तो वहीं हमारी पुरातन संस्कृति को मटियामेट भी कर रही है। वृक्षों के कटने से तथा प्रकृति के साथ किए गये छेड़छाड़ से विविध प्रकार की आपदाएँ, व्याधियाँ और समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं जो जनजीवन के लिए घातक है-

महानगर तुम कह रहे, मुझको लगता भीड़।
जहाँ धुएँ में हैं टंगे, कंक्रीट के नीड़॥

एक दोहा और देखें-

आओ हम उस वृक्ष में, डाले पानी खाद।
जो करता है धूप का, छाया में अनुवाद॥

आज हम और हमारी पीढ़ी को सूरज, चांद, पहाड़, नदी, समुद्र, पेड़-पौधे, गांव, खेत-खलिहान देखे बरसों हो गये, भागदौड़ की ज़िन्दगी में हम इतने स्वार्थी हो गए हैं कि इनके लिए समय नहीं बचा है। हमारे बच्चे जो प्रकृति तथा उनके तत्वों से इतने दूर हैं कि उन्हें ट्यूबलाइट में सूरज दिखता है और कूलर में बरसात-

बल्ब बोलता, आदमी! पूज्य मुझे तू नित्य।
मुझे आज के दौर में, कहते सब आदित्य॥

मशीनीकरण होने से जहाँ एक तरफ हमारे काम आसान हो गए तो वहीं यह मशीन हमें आलसी, स्वार्थी, संवेदनहीन तथा प्रतिस्पर्धी बना दिया है आज का मानव सिर्फ़ मशीन बनता जा रहा है इंसान नहीं-

दया, प्रेम, सद्भाव की बंजर हुई जमीन।
नई सदी में हो गया, मानव सिर्फ़ मशीन॥

संवेदना शून्य चित तथा स्वार्थी मति के कारण हम रिश्तों को तोड़ रहे हैं, अपनों को दुश्मन मान रहे हैं तथा माता-पिता को उनके हालात पर छोड़ रहे हैं; हम उसी से रिश्ता निभाना चाहते हैं जहाँ से फायदे की दरकार हो। लेखक आधुनिक मानवों की इस प्रवृत्ति से क्षुब्ध होकर व्यंग्यात्मक तेवर दिखाता है और आज के श्रवणकुमार के ऊपर कटाक्ष करता है-

बदल गया है अब समय, बदल गये किरदार।
गर्लफ्रेंड का बोझ अब, ढोते श्रवणकुमार॥

साहित्य में अनुभूति की प्रमाणिकता के अभाव पर वे लिखते हैं-

जिसने देखा ही नहीं, ज्वार, बाजरा, धान।
कविता में वे कर रहे, गांवों का गुणगान॥

अब बात करते हैं-स्त्री चेतना कि; आधुनिक युग में हमने भले ही खूब तरक्की कर ली हो, लेकिन आज भी हमारी सोच स्त्रियों के प्रति आधुनिक नहीं हो पाई है जो भेदभाव पूर्ण है। हम सब जगह परिवर्तन की मांग करते हैं लेकिन कभी अपने घर में स्त्रियों को अपने समान हक क्यों नहीं देते? हम अपने समाज को पितृसत्तात्मक ही देखना चाहते हैं, मातृसत्तात्मक क्यों नहीं? सामंती सोच और पुरुषवादी मानसिकता ने स्त्रियों को हमेशा से छला है, कवि राहुल शिवाय उस मानसिकता पर आघात करते हुए लिखते हैं-

पिता, भ्रात, पति, पुत्र के, रही सदा अनुरूप।
नारी सागर-मन लिये, बनी रह गई कूप॥

एक सवाल स्त्रियों की तरफ से दोहाकार समाज से पूछता है-

चूल्हा, चौका देहरी, घर-आंगन, दीवार।
नारी का सीमित रहा, क्यों इतना संसार॥

इसके अतिरिक्त लेखक ने कुछ स्त्रियों की समस्याओं को भी उजागर किया है। अंधविश्वास, पाखंड, बहकावे तथा अफवाहों का तंत्र समाज में इतना हावी है कि यहाँ डायन बताकर स्त्रियों को बेइज्जत करने की परंपरा चल गई है। यह मानवता को शर्मसार करने वाली घटना आज भी बिहार यूपी और झारखंड (हिन्दी पट्टी के राज्यों) में होती रहती है जहाँ जमीन और पैसे की लालच में कुछ लोग स्त्री के धन को हड़पने के लिए उसके चरित्र पर सवाल खड़े कर देते हैं तथा बड़ी बेरहमी से उसकी मौत का तमाशा देखते हैं। कवि इस घटना से काफी आहत है, क्या पाखंड, अंधविश्वास और स्वार्थ एक स्त्री की जान से ज़्यादा कीमती है-

इस समाज की सोच का, बीतेगा कब पूस।
औरत होती है नहीं, डायन या मनहूस॥

विधवाओं की स्थिति समाज में काफी दयनीय है उन्हें सार्वजनिक जगहों पर जाने की छूट नहीं है, समाज के किसी भी पवित्र अनुष्ठानों में शामिल होने का हक भी नहीं है। एक तरफ तो वह पति से बिछड़ने का दर्द झेलती है तो दूसरी तरफ समाज की ताना। स्त्री जब विधवा होती है तो उसे इस समाज में पुनर्विवाह का कोई हक नहीं है और वह वर्षों तक समाज से विगलित रहती है, जैसे कि वह मनुष्य ही न हो-

बद से बदतर हो गये, विधवा के हालात।
जहाँ काम करती वहाँ नजर नोचती गात॥

बांझपन प्रकृति का दिया हुआ रोग है इससे किसी मानव का कोई हस्तक्षेप नहीं होता, जो स्त्री बांझ होती है उसकी भी स्थिति समाज में काफी दयनीय है; एक तरफ उसे पति से ताने सुनने पड़ते हैं, उत्पीड़न झेलने पड़ते हैं तो वहीं समाज उसे दोषी मानता है। यह बात भी सच है कि चाहे दोष पुरुषों में हो लेकिन दोषारोपण स्त्रियों पर ही होता है यही इस युग की सच्चाई है-

अंधियारा, चुप्पी, रुदन, गाली, ताना, दोष।
एक बांझ को किस तरह, देता जग दोष॥

जब पुरुषों द्वारा किसी स्त्री की चाहत पूरी नहीं होती है तब उस पर वह कातिलाना हमला करता है, तेजाब फेंक देता है, उसके चरित्र पर सवाल करता है तथा हवस का शिकार भी बना लेता है; समाज भी इस दरिंदगी का कारण स्त्रियों को ही समझता है। तेज़ाब से न जाने कितनी लड़कियों की ज़िन्दगी तबाह हो गयी। स्त्री घर और बाहर दोनों जगह आतंकित है, सहमी है, कवि इस घटना से भी आहत है-

नई सदी में प्रेम का, देखा कैसा ख्वाब।
मुखड़े पर इंकार के, फेंक दिया तेजाब॥

सदियों से स्त्रियाँ इस दलदल में फंसी है तथा मुक्ति के लिए छटपटा रही है, दोहाकार स्त्री के उन दुखों को शब्दों में समेटकर समाज से सवाल करता है तथा अस्मिता एवं मुक्ति की मांग करता है-

पंजों में इक बाज के, चीड़ी रही थी चीख।
यह सीता का देश है, दो जीवन की भीख॥

"खुद्दारी" मानव में होनी चाहिए, ऐसा देखा गया है कि जब आप लोगों को ज़्यादा भाव देते हो तो वह आपको रद्दी के भाव लेने लगते है और इग्नोर करने लगते है। आप जैसे खुद्दार बनकर आत्मविश्वासी और स्वावलंबी बन जाते हैं तो दुनिया कि नजरों में खटकने लगते हैं। लेकिन किसी के खटकने से कुछ बिगड़ जाए तथा लोग क्या सोचेंगे अगर यह भी हम सोचेंगे तो फिर लोग क्या सोचेंगे। कवि व्यक्ति को खुद्दार बनने की सलाह देता है-

नहीं लगाई शीश पर, किसी चरण की धूल।
चाहे फल अनुकूल हो या फिर हो प्रतिकूल॥

एक दोहा और देखें-

चाहे तुम मेरा कहो, या अपनों का स्वार्थ।
मैं अंदर से बुद्ध हूंँ, ऊपर से सिद्धार्थ॥

धर्म और जात के नाम पर जो आज लोगों में नफरत फैल रहा है उसे दूर करने के लिए कवि मन को शांत रखने, श्रद्धा भाव रखने तथा सभी ईश्वर पर विश्वास रखने को कहता है। ईश्वर एक है, बस उसके व्याख्या करने वाले हमें इसे अलग-अलग बताते हैं-

निर्गुण हो या सगुण, लो श्रद्धा से नाम।
है कबीर से कब अलग, गोस्वामी के राम॥

दोहाकार ने "विरहा-बारहमासा" लिखकर बारह हिन्दी के महीने को तथा उसकी अनुभूति को शब्दों में ढालकर बारहमासा वाली पुरानी परंपरा को जीवंत रखने का प्रयास किया है। कवि जायसी ने आषाढ़ के महीने के लिए कभी लिखा था कि-

चढ़ा आषाढ़, गगन घन गाजा।
साजा विरह दुंदुभि दल बाजा॥

कुछ इसी तरह की विरहानुभूति जो राहुल शिवाय के यहाँ भी मिल जाती है-

हिंडोले उठते कभी, कभी बरसाता मेह।
सुधियाँ माह आषाढ़ में, मन को देती नेह॥

हिंदी साहित्य के कुछ पात्र जो हिन्दी में अभी तक जीवित हैं भविष्य में भी रहेंगे; कवि ने उन पात्रों की युगीन व्याख्या कर नवीन प्रयोग किया है जैसे-हरगोविंद, हीरा-मोती, बूढ़ी काकी, लहना सिंह, अलगू चौधरी, घीसू, खडग सिंह, बाबा भारती, होरी आदि। आज की पंचायत की स्थिति और न्याय की विद्रूपता को उजागर करते हुए एक दोहा देखें-

अलगू-जुम्मन बिक गये, बिका पंच का न्याय।
कौन उनको अब कहे, ईश्वर का पर्याय॥

दोहाकार का ध्यान भाव पक्ष की तरफ ज़्यादा रहा है, इसलिए शिल्प में ज़्यादा नवीन प्रयोग नहीं मिलता है फिर भी प्रतीक एवं बिंबों के सहारे उनकी कहने की क्षमता इतनी सुदृढ़ है कि अर्थ की लय टूटती नहीं है। उनके दोहों में पहली पंक्ति सवाल पूछती है तथा दूसरी पंक्ति में उसका तर्कपूर्ण जवाब होता है, यह शिल्प की नवीनता इस पुस्तक में हमें मिल जाती है। अभिधा में ही अधिकांश बातें कही गई हैं लेकिन कहीं-कहीं व्यंजना का भी प्रयोग मिल जाता है। वाक्य विन्यास सुगठित हैं तथा भाषा में प्रवाह है, शब्दों में लोक मुहावरी रंग चढ़ा है तो वहीं भावों पर गृहस्थी का। अलंकारों के कुछ नवीन प्रयोग यहाँ मिल जाते हैं, मानवीकरण अलंकार का एक उदाहरण देखें-

धुंध भरा घूंघट हटा, निखरा भू का रूप।
विखराई जब सूर्य ने, एक कटोरी धूप॥

प्रतीकों के सहारे बिंब का निर्माण देखें-

लोकतंत्र में लोक का, दिखा अजब किरदार।
खरबूजे चुनते रहे, चाकू की सरकार॥

अंतत: यह कहा जा सकता है कि पुस्तक "एक कटोरी धूप" आधुनिकता और स्त्री चेतना का प्रतिबिंब निर्मित करती नजर आती है।