एक कतरा खून / इस्मत चुग़ताई / पृष्ठ 2

Gadya Kosh से
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वह कमसिन बच्चा उनका चचाज़ाद भाई अली बिन अबी तालिब था। उसकी दिलेरी और साफ़गोई से वह बेहद मुतस्सिर1 हुए। ‘‘बड़प्पन उम्र से नहीं, अक़्ल और ज़ुर्रत से होता है।’’ उन्होंने फ़र्माया। ‘‘या रसूलुल्लाह ! मेरी आँखों में हमेशा तकलीफ रहती है। मेरा जिस्म भी तनोमद2 नहीं। मगर मेरा दिल आपका मुतीअ3 है।’’ अली बिन अभी तालिब ने मासूमियत से कहा और रसूलुल्लाह मुस्करा पड़े। उस दिन उन्होंने अपना अजी़ज-तरीन दोस्त, होनहार शागिर्द और बहादुर-ओ-तरीं हम रकाब4 पा लिया। बड़ी तवज्जो से उन्होंने इस बच्चे की तालीम-ओ-तरबियत5 पर वक़्त सर्फ़ किया। दोनों हरदम साथ रहने लगे। एक दराज़क़द6 नौजवान मर्द और एख कम-उम्र लड़का ! जब अली जवान हुए तब भी साये की तरह साथ रहे। बड़े-बड़े मार्कों में दामन न छोड़ा। अली रसूलुल्लाह को बेइंतहा अज़ीज थे। और जब भी कोई इंतहाई ख़तरे का मौका आता तो वह बेझिझक अली को सामने कर देते। उन्हें अली पर एतमाद था और अली बेउज़्र7 उनका हर हुक्म बजा लाते।

अली की बहादुरी ज़र्बउलमस्ल8 थी। फ़तह उनकी ज़रख़रीद लौंजी थी। वह जिस मुहिम को सर करने का तहैया करते, फ़तह यक़ीन बन जाती। अली बयक वक़्त दो तलवारों से लड़ते थे। ढाल के बजाय दूसरे हाथ में तलवार होती थी। उनकी दो तलवारे हीं ढाल का भी काम करती थीं। लोग उन्हें सैफ़ुल्लाह यानी ख़ुदा की तलवार कहा करते थे। चंद दोस्तों ने अली बिन अबी तालिब से कहा, ‘‘आप क़िस्मत आज़माई क्यों नहीं करते ? रसूलुल्लाह आपको बहुत पसंद करते हैं। अपनी बेटी के लिए वह आपका पैग़ाम ज़रूर मंज़ूर कर लेंगे।’’ अली ने कहा, ‘‘मैं यह ज़ुर्रत कैसे कर सकता हूँ ? जहाँ सा शाहों को जवाब मिल गया, वहाँ मेरी क्या गिनती होगी ? मैं ग़रीब आदमी हूँ।’’

‘‘आप ग़रीब सही मगर रसूलुल्लाह आपको चाहते हैं।’’ दोस्तों ने कहा, ‘‘हमारे ख़याल में तो वह आपको ही पसंद कर चुके हैं। ख़ुद अपने मुँह से कहते तकल्लुफ़ हो रहा है। आपका फ़र्ज़ है कि पैग़ाम दें, चाहे वह मंजू़र करें या न करें।’’ अली इब्ने अबी तालिब ने सर झुका लिया और सोच में पड़ गए। रसूलुल्लाह अली तो पसंद फ़र्माते थे तो यह कोई ताज्जुब की बात न थी। अली की बहादुरी का डंका दूर-दूर तक बज रहा था। वह ख़ुद अपने सिफ़ात9 से बेख़बर थे।


1. प्रभावित 2. स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट 3. आज्ञाकारी 4. साथ चलने वाला 5. सिक्षा-दीक्षा 6. लंबा कद, 7. निस्संकोच 8. कहावत 9. गुण, विशेषता।


अपने बारे में कोई मुग़ालता1 न था। वह ग़रीब थे। उन्होंने मुल्क जो फ़तह किए थे, वह अपनी ज़ात के लिए नहीं, इस्लाम के लिए थे। उनके पास रहने के लिए महल-दोमहल न थे। न ज़र और जवाहरात और न लौंडी और न ग़ुलाम। मज़दूरी करके गुज़र-बसर करते थे। उन्हें बाग़ात लगाने का बहुत शौक़ था। जब मुहिमात से फुर्सत मिलती, बंजर और खुश्क ज़मीन की काश्त करके खजूर के बाग़ लगाते। जॉफ़िशानी2 से उनकी सिंचाई करते। जब वह तैयार हो जाते तो किसी को बतौर तोहफ़ा दे देते। इस वक़्त भी वह आबपाशी3 में मसरूफ़ थे। जब दोस्तों ने बहुत इसरार किया कि फ़ातिमा ज़ोहरा के लिए पैग़ाम देना आपका हक़ भी है और फ़र्ज़ भी तो राज़ी हो गए। पानी का डोल एक तरफ़ रखा। घर जाकर नहाए। अपने हाथ का धुला पैबंद लगा लिबास पहना और रवाना हो गए। अभी अली दरवाज़े तक पहुँचे भी न थे कि रसूले-ख़ुदा ने उम्मे-सलमा से फ़र्माया, ‘‘दरवाज़ा खोल दो। हमारा बहुत ही प्यारा मेहमान आ रहा है।’’

उन्होंने दरवाज़ा खोला तो देखा, अली कुछ शर्माए, झेंपे, सुर झुकाए खड़े हैं। अली की उम्र उस वक़्त इक्कीस साल थी। ‘‘आओ-आओ, अली, अंदर आ जाओ। बाहर क्यों खड़े हो ?’’ अली अंदर आए। उनका क़द इतना लंबा था कि हर दरवाज़ा छोटा मालूम होता था। निहायत घबराए हुए थे, पसीने छूट रहे थे। एक हाथ की उँगलियों से दूसरे हाथ को मज़बूती से पकड़े हुए थे। मौक़ा बड़ा नाज़ुक था। रसूलुल्लाह उन्हें देख रहे थे और मुस्करा रहे थे। उनके तौर-तरीके से भाँप गए कि अली क्या कहने आए हैं, उन्हें भी अली के मुँह से बात सुननी थी। मुस्कराहट रोककर पूछा, ‘‘कुछ परेशान मालूम होते हो, अली ! क्या क़िस्सा है ?’’ अली थोड़ा-सा कसमकसाए, पेशानी से पसीना पोंछा। जी कड़ा करके कह दिया, ‘‘या रसूलुल्लाह, मैं आपकी बेटी फ़ातिमा ज़ोहरा के लिए दरख़्वास्त करने आया हूँ।’’ ‘‘हूँ, मेहर में देने को कुछ है ?’’ मुस्कराकर पूछा।

‘‘कुछ भी नहीं। बस, ये तन के कपड़े हैं। एक घोड़ा है, तलवार हैं और ज़िरह-बकसर। बस, यही कुल पूँजी है।’’ ‘‘तलवार तो एक सिपाही के लिए निहायत जरूरी है। घोड़े के बग़ैर भी काम नहीं चलेगा। मगर जिरह-बकतर की तुम्हें क्या ज़रूरत है ? ख़ुदा तुम्हारा मुहाफ़िज़ है। तुम्हें और किसी हिफ़ाज़त की हाजत नहीं।’’


1. धोखा, ग़लतफ़हमी 2. कठिन परिश्रम 3. सिंचाई।