एक कर्मक्रांत परिव्राजक एवं इक्कीसवीं सदी का आर्ष योद्धा / संतलाल करुण

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आज नरेंद्र मोदी ने दिन बीतते-बीतते प्रधान मंत्री पद की शपथ ले ली है। गरीब परिवार में पैदा हुए मोदी की अब तक की यात्रा महज़ चायवाले बच्चे से लेकर प्रधान मंत्री पद की यात्रा नहीं है। वह एक ऐसे राष्ट्र-तत्वान्वेशी की यात्रा है, जो बचपन से कुछ बनने के नहीं, बल्कि कुछ करने के सपनों के साथ लम्बे समय से संघर्ष करता आया है। अभिनेताओं से पूछ जाए कि यदि आप अभिनेता नहीं होते तो क्या होते, तो वे बेलाग छूट पड़ते हैं कि अभिनेता नहीं होता तो क्रिकेटर होता और यही प्रश्न यदि क्रिकेटर से पूछ जाए तो प्राय: उत्तर मिलता है कि क्रिकेटर नहीं होता तो अभिनेता होता ! इतना ही नहीं, भौतिकता के उत्कर्ष से पीड़ित आज दिन दूने रात चौगुने गति से फलते-फूलते और उनके प्रभाव का लोहा मानते भारतीय समाज में उच्च प्रशासकों, डॉक्टर, इंजीनियर आदि से यदि पूछा जाए तो कुल मिलाकर प्राप्त उत्तर लगभग ऐसे ही रूप-स्वरूप में सामने आते हैं कि आई.ए.एस. नहीं होता तो आई.पी.एस. होता, डॉक्टर नहीं होता तो इंजीनियर होता, इंजीनियर नहीं होता तो डॉक्टर होता वगैरा-वगैरा !

नरेंद्र देश में आम तौर पर बहती इस धारा के विपरीत बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ बटोरकर कुछ बनने की राह से बचपन में ही भटक गए। तृषा थी सच्चे ज्ञान की, ईशरत्व-बोध की, सेवा–सद्भावना की और शांति की। अक्सर ऐसी चेतना व्यक्ति को समाज से विमुख कर देती है और वह संन्यास-मार्ग पर चल पड़ता है। 17 वर्षीय नरेंद्र का विवाह जब अल्पवयस्क कन्या जशोदाबेन से हुआ, तो विवाह सफल नहीं हुआ और कुछ समय बाद बाल पत्नी को और पढ़ने, आगे की शिक्षा प्राप्त करने का उपदेश देकर नरेंद्र घर छोड़कर संन्यास के मार्ग पर निकल पड़े। पर विचित्र संयोग कि जो उपदेश उन्होंने पत्नी को दिया था, वही उपदेश उन्हें वेलूर-मठ से मिला, क्योंकि वहाँ संन्यासी होने के लिए कम-से-कम ग्रेजुएट होने का नियम था और वे उस समय ग्रेजुएट नहीं थे। फलत: नरेंद्र तीर्थाटन करते रहे, कुछ और मठों-आश्रमों में संन्यास लेने का प्रयास किया, किन्तु असफल रहे और कुछ समय हिमालय की अनमोल प्राकृतिक धवलता में साधनारत रहकर मन की एकाग्रता तथा ह्रदय की निर्मलता के लिए व्यतीत किया।

कहने को नरेंद्र को किसी मठ-मंदिर या आश्रम ने दीक्षा नहीं दी, पर लगभग दो वर्षों बाद जब वे हिमालय से होकर समाज की ओर लौटे, तो उनकी चेतना व्यक्तिगत जीवन की सारी सीमाएँ तोड़ चुकी थी। उनकी दृष्टि का विस्तार हो चुका था। फिर धीरे-धीरे वे समष्टि की समस्या-समाधान की पहेली बूझने में समर्पित होते गए। पारिवारिक-दाम्पत्य जीवन से जो विरक्ति उन्हें पहले ही हो गई थी, वह जीवनपर्यंत के लिए दृढ़ हो गई। आगे चलकर उनकी परिव्राजकता सामाजिक ताप में तपने लगी। राजनीतिक उत्ताप ने भी उनके संन्यस्त जीवन को तपाना शुरू कर दिया। एक और विचित्र संयोग कि जिस प्रकार उनके उपदेश को उनकी बाल पत्नी ने मन से माना और पढ़ाई पूरी करके स्कूल-शिक्षिका बनीं, उसी प्रकार वेलूर-मठ के उपदेश को उन्होंने मन से ग्रहण किया तथा उम्र बढ़ जाने पर भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक का कार्य पूरे मनोयोग से करते हए व्यक्तिगत प्रयास से 1978 में स्नातक तथा 1983 में राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर होकर अंतत: भारतीय राजनीति के सर्वोच्च पद तक पहुँच गए।

उनके बाल मन पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की छाप पहले से थी और चारों ओर भटकने के उपरांत उन्होंने पुन: उसी की छत्रछाया में शरण ले ली। फिर वे वर्षों के संघर्ष, अथक श्रम, समाज और देश के प्रति बढती सेवा-भावना तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शिक्षा, संस्कार एवं उत्प्रेरणा के चलते एक दिन राष्ट्रीय मंच पर अवतरित हुए। उन्होंने 2001 में गुजरात में मुख्य मंत्री की कुर्सी क्या सँभाली, वर्ष 2002 के गुजरात दंगों के कारण उनके राजनीतिक विरोधियों और सरकारी मशीनरी ने मिलकर कठोर जाँच-पड़ताल का एक ऐसा सिलसिला शुरू किया कि वे एक तरह से अयस्कार की भट्ठी में तपा-तपा कर उसकी लोहे की निहाई पर बराबर ठोंके-पीटे जाते रहे। शंकाओं का पहाड़ खड़ा करने वाले अफवाहों के पंख पर सवारी कर-करके हार गए, पर वे नहीं थके, नहीं हारे। विरोधियों द्वारा वर्षों तक बेरहमी से तपाए जाने और ठोंके-पीटे जाते रहने का ही परिणाम है कि आज भातीय समय ने सजीव राष्ट्रपदा लौह-मूर्ति के समान उन्हें प्रधान मंत्री-पद पर प्रतिष्ठापित कर दिया है।

आज 26 मई 2014 को सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों-प्रतिनिधियों, अन्य पड़ोसी देशों के नुमाइंदों, विभन्न राजनीतिक दलों के राष्ट्रीय नेताओं, देश के हर क्षेत्र व विशिष्टता से जुड़े राष्ट्रीय स्तर की हस्तियों आदि की लगभग चार हज़ार की जन संख्या का साक्ष्य लेकर नरेंद्र मोदी ने दूरदर्शिता का अभूतपूर्व परिचय दिया है; देश को गौरवान्वित करता महनीय समारोह आयोजित किया है; अपने लम्बे तपे-तपाए परिशुद्ध, परिव्राजक जीवन को निर्विकार भाव से राष्ट्र के नाम अर्पित किया है और प्रधान मंत्री-जैसे कंटकाकीर्ण पद की शपथ आखिरकार ले ली है।

वे आज के भारत के एक कर्मक्रांत परिव्राजक एवं इक्कीसवीं सदी की भारतीय राजनीति के आर्ष योद्धा हैं, जिनका भविष्य की उत्तापन-भट्ठी में समय-असमय तपना अभी बहुत-कुछ शेष है तथा उसकी भारी-भरकम निहाई और हथौड़ी भी उनकी कम प्रतीक्षा नहीं कर रही है।