एक कविता-यात्रा बरास्ता एशियन पोएट्स मीट / कुमार रवीन्द्र

Gadya Kosh से
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(मद्रास - अब चेन्नई)

21 जून 1975

रात-हुए लखनऊ से यहाँ पहुँचा हूँ। वर्ल्ड पोएट्री सोसायटी द्वारा आयोजित 'एशियन पोएट्स मीट' में भाग लेने। उद्घाटन कल शाम को राजाजी हाल में मुख्यमंत्री करुणानिधि के द्वारा किया जाना है। अभी तो बुरी तरह थका हुआ हूँ लगभग डेढ़ दिन की लंबी रेल-यात्रा से। लखनऊ से चलना भी खिन्न मन से हुआ था। सरला की माताजी का चार दिन पहले ही अचानक देहांत हो गया था। सरला को उस शोकार्द्र स्थिति में छोड़कर आने का कतई मन नहीं था। पर सरला ने जिद की - ऐसे सुअवसर बार-बार नहीं आते। पूरे एशिया महाद्वीप से सभी प्रमुख कवि एकत्रित हो रहे थे। उनसे संपर्क करने का, कविता के वर्तमान परिदृश्य, उसके समकालीन रूपों एवं विविध आयामों से परिचित होने का यह सुयोग, सच में, दुर्लभ था। हरियाणा से मैं एकमात्र आमंत्रित कवि था। अस्तु, बेमन और दुचित्त होने पर भी मैं आ गया था।

दक्षिण-पथ का पहला अनुभव। विंध्य पर्वतमाला में प्रवेश करते ही मन बदल गया। पर्वतों के बीच जाना मुझे हमेशा से अच्छा लगता रहा है। ट्रेन का अपना संगीत होता है पर्वतों के बीच - कई स्थानों पर दोनों ओर एकदम निकट पहाड़। उनके बीच में ट्रेन की लय अचानक संगीत की शास्त्रीय मुरकियों जैसी हो जाती थी जैसे पं. ओंकारनाथ ठाकुर या पं. भीमसेन जोशी गंभीर आलाप ले रहे हों। इसी पर्वतमाला का ही तो हिस्सा है उस्ताद अलाउद्दीन खाँ की साधना-स्थली मेहर, जहाँ पं. रविशंकर ने भी प्रारंभिक साधना की थी। मेहर के देवीपीठ में उनका गायन-वादन, उनका कुछ अंश मेरे इस यात्रा-पथ में भी कहीं-न-कहीं अवश्य बिखरा होगा। प्रकृति के महिमामय दैवी रूप की आदिम आकृतियों से रू-ब-रू होने का जो एक अलग किसिम का संवेद होता है, वह धीरे-धीरे मन को जोड़ रहा था अपने इस अनूठे यात्रा-पथ से। इस आदिम पर्वत की त्रासदी की ऋषि अगस्त्य से जुड़ी रूपक-कथा भी मन में बार-बार उभरती रही। और फिर आगे आया था धरती का सबसे आदिम भूखंड - दक्षिण का चट्टानी पठार, जो भू-शास्त्रियों के अनुसार आदिभूमि गोंडवानालैंड का ही हिस्सा था - हाँ, उसी भौगोलिक आदिम महाद्वीप का, जो धरती की आंतरिक प्रक्रिया से बिखरकर सात अलग-अलग महाद्वीपों में विभाजित हो गया था। भारतीय उपमहाद्वीप के उस सबसे प्राचीन परिवेश में प्रवेश करते ही मन अनंत जिज्ञासाओं से भर गया। उस पूर्वज भूमि की शिला-आकृतियाँ चकित-आतंकित करतीं मुझे जोड़ रहीं थीं उस आदि-मनुष्य से, जो यहीं कहीं विचरण करता रहा होगा। उत्तर का हिमालय और उसके नीचे बिखरा पड़ा सिंध-गंगा-यमुना का विस्तृत मैदानी प्रदेश, इस भू-भाग के मुकाबले एकदम बच्चे। गरिमामयी इन चट्टानों में कितनी-कितनी भू-आकृतियाँ छिपी हुईं हैं, कितने-कितने जीवधारियों के भ्रंसावशेष इनमें दफन पड़े हैं, मैं सोचता रहा। आदि-मनुष्य इन्हीं में से किसी चट्टान में शायद अपनी कालजयी नींद में सोया पड़ा हो। हाँ, और अन्य तमाम जीव-जंतु भी। जलप्रलय के उपरांत संभव है यहीं कहीं मनु भटकते फिरे हों और यहीं 'बैठ शिला की शीतल छाँह - एक पुरुष भीगे नयनों से - देख रहा था अतल प्रवाह' की मनःस्थिति में रहे हों। उस आदिकाल में यहीं कहीं वह 'हिमगिरि का उत्तुंग शिखर' रहा होगा, जहाँ देव-संसृति और दैवी संस्कृति का उत्थान एवं पतन हुआ होगा। पिछले पूरे दिन की रेल-यात्रा इन्हीं चट्टानों के बीच से गुजरते हुई थी। दक्षिणावृत्त का वह पहला अनुभव आज भी उद्वेलित-आतंकित करता है। विधायक-आवास के अपने कक्ष में लेटा इन आदिम छवियों से जूझते मैं कब सो गया, पता ही नहीं चला।

22 जून 1975

सुबह उठने पर पता चला कि वर्षा जो रात में शुरू हुई थी, अभी तक चल रही है। मानसून की समुद्रतटीय वर्षा पता नहीं कब तक चले। शायद आज कहीं घूमना नहीं हो पाएगा। सोचा था शाम तक का समय खाली है, आसपास के कुछ स्थल, मद्रास की प्रसिद्ध मैरीना बीच आदि देख लूँगा। पर वर्षा में - मन खिन्न हो गया। नहा-धोकर मैं नीचे विधायक-आवास के कैंटीन-हॉल में नाश्ते के लिए पहुँच गया। नाश्ते में सारी भोज्य सामग्री दक्षिण भारतीय। यात्रा में भी कल दिन भर यही इडली-डोसा-बड़ा आदि और आज फिर वही। मैंने बैरे से पूछा - पूड़ी नहीं मिल पाएगी। पहले तो वह समझा नहीं। उसके लिए हिंदी-अंग्रेजी की मिश्रित एवं कुछ इंगितों की भाषा का प्रयोग करना पड़ा। थोड़ी देर में वह पूड़ी-रसम ले आया। मैं प्रसन्न हुआ कि चलो, कुछ तो उत्तर भारत का खाने को मिला। पर दो-चार कौर खाने के बाद पता चला कि पूड़ियाँ भी चावल के आटे की बनी थीं। गेहूँ तो, लगता है, इस भू-भाग में वर्जित है। आदम के शाप की कथा में कुछ लोगों का अनुमान है कि अदन के बाग में ईश्वर ने जिस फल को खाने से आदम को मना किया था, वह गोधूम ही था। मन में एक कल्पना जागी कि मैं संभवतः उसी अदन के बगीचे में पहुँच गया था, जहाँ गेहूँ खाना मना था। बेचारा आदम स्वर्गिक अदन से सृष्टि के उन्मेष में निष्कासित किया गया था, किंतु बंजर पृथिवी पर आकर भी वह उस वर्जित अन्न का स्वाद नहीं भूल पाया था और उसी को उसने अपना मुख्य अन्न बना लिया था। यह भी संभव है कि उसी पौधे को उसे धरती पर लाने की इजाजत दी गई हो। किंतु यहाँ इस आदिम भूमि पर तो गोधूम अभी भी वर्जित है। कहीं यह उसी अदन के बाग का हिस्सा तो नहीं, जहाँ से शापग्रस्त होकर पहले पुरुष-स्त्री इस पृथिवी पर आए थे। कहीं मैं पुनर्जन्मा वही आदि-पुरुष तो नहीं, जो अदन के बगीचे में वापस पहुँच गया हो। युगों-पूर्व का वह अभिशप्त बाबा आदम अचानक मेरी सामूहिक चेतना में जाग उठा था।

भाग्य अच्छा था। नाश्ता करते-करते बादल छँट गए थे और बरसात के बाद की धुली-धुली, साफ-सुथरी, उजली एवं तेज-तीखी धूप निकल आई थी। मैं बाहर निकला - सारा परिवेश सुनहरी धूप में नहाता - ऊपर सद्यःस्नात नीलबरन शेषशायी विष्णु के विशाल वक्ष-सा खुला विस्तृत आकाश। वहीं एक बादल का टुकड़ा विष्णु के वक्ष पर ऋषि भृगु के पाद-चिह्न-सा। समुद्र-तट निकट ही था। समुद्रतटीय वनस्पतियों में खजूर-ताड़ का विशेष स्थान है। कमरे की खिड़की से रात में उन्हें देखा था। उत्तर भारत में यह बिरला वृक्ष यहाँ हर ओर मौजूद था - रहीम के दोहे की 'पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर' की उक्ति को सार्थक करता। हाँ, समुद्रतट पर पूरे क्षितिज को घेरे खजूर-कुंजों का सौंदर्य -रहीम ने इसकी ओर क्यों नहीं ध्यान दिया, मैं सोचता रहा उसे अपलक निहारते। रात में जो आकृतियाँ अस्पष्ट थीं, वे अधिक चित्रमय, अधिक चित्ताकर्षक, अधिक आत्मीय होकर मेरे मन पर छा रहीं थीं। मैं उन्हें निहारता समुद्रतट पर अचानक ही पहुँच गया। रेतीले तट पर समुद्र की लहरों के आवागमन, दूर क्षितिज तक उनके आरोह-अवरोह, उनके विविध रूपाकारों को अवलोकने का यह मेरा पहला अनुभव था। लगता था जैसे कि सागर लहरों-लहरों सूर्य-रश्मियों की अनंत स्वर्णराशि को आकाश तक लुटा रहा है अथवा उसे चारों ओर बिछी रेती पर राशि-राशि बिखेर रहा है। एक बेंच पर मंत्रमुग्ध बैठा मैं उस अनादि-अनंत के सम्मोहन को आत्मसात कर रहा था, जो यहाँ सागर के रूप में उपस्थित था। लहरों के कितने-कितने आलोड़नों, कितने आरोहों-अवरोहों में मैं देर तक डूबता-उतराता रहा। भीतर जो आकृतियाँ-छवियाँ उनसे बन रहीं थीं, उन्हें सँजोता रहा। कवि होना एक वरदान है, यह मैं पहली बार इतनी शिद्दत से जान रहा था। सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु का आवास भी तो ऐसा ही एक सागर है। पैरों में सागर का, उसके द्वारा भिगोई रेती का सुखद स्पर्श मुझे जोड़ रहा था किसी आदिम सुखानुभूति से। हाँ, समूची सृष्टि के संज्ञान से भी। फिल्मों में अभी तक देखे सागर को मैं साकार देख रहा था, छू रहा था, उसकी अनन्यता, उसके विस्तार में समा रहा था, उन्हें भीतर समो रहा था। समाधिस्थ होने की-सी यह स्थिति कुछ देर बनी रही, किंतु कविता जागने लगी थी और वह मुझे उस आदिम जिज्ञासा से झकझोर रही थी, जिससे ही पहली कविता का जन्म हुआ होगा। आदिकवि न तो वियोगी रहा होगा और न ही करुणार्द्र। मेरी दृष्टि में, वह तो जिज्ञासु रहा होगा। प्रथम ऋषि-वाणी जिज्ञासा से ही तो उपजी थी। बाहर से अंदर होने और अंदर से बाहर होने की यह प्रक्रिया कुछ अजीब-ही होती है। वह बाह्य जैविकता से काटती है, उसकी ऐंद्रिय संचेतना से जोड़ती है और इनके भी परे उस लीलाभाव में सन्निहित कर जाती है, जिसमें अनुभूतियों का रास-नर्तन होता है। उसी भावभूमि में कविता 'रसात्मक वाक्यं' बनकर जागने लगती है और 'गिरा-अर्थ जल-बीचि सम' की सर्जना-स्थिति प्राप्त हो जाती है। मेरे मन में भी अदृश्य कविता आकार लेने को अकुला रही थी। धूप भी बढ़ रही थी। अब कमरे में लौटना होगा। कविता रचने के लिए, किसी भी अनुभव के कविता बनने के लिए जिन 'शांत मन की स्मृतियों' की दरकार होती है, उसके लिए कुछ अंतराल भी चाहिए। मैं उन घनीभूत होती अनुभूतियों को भीतर समोए लौट पड़ा था अपने अस्थाई आवास की ओर, किंतु वहाँ भी कविता लिखी नहीं जा सकी। अनुभूतियों का प्रवाह जब ठहरेगा, थमेगा, तभी उनकी आकृतियाँ उभर पाएँगीं।

नाश्ते के समय ही परिचय हो गया था कर्नाटक के कन्नड़ एवं अंग्रेजी के कवि द्वारकानाथ कबाडी से। सहृदय व्यक्ति - लगभग हम-उम्र। उनसे मिलकर लगा जैसे हम एक-दूसरे को अरसे से जानते हों। मुझे अक्सर ही यह अनुभूति हुई है कि एक बिल्कुल ही अजनबी व्यक्ति पहले ही परिचय में आपको नितांत अपना लगने लगता है। 'आइडेंटिकल ट्विन्स' की तरह क्या 'आइडेंटिकल' मन भी होते हैं? ऐसा क्यों और कैसे हो जाता है, यह भी सृष्टि का एक अबूझा रहस्य है। कबाडी जी से बाद में भी पत्र-व्यवहार रहा, हालाँकि उसके बाद मिलना कभी नहीं हुआ। पत्राचार भी धीरे-धीरे बंद हो गया। किंतु आज भी, हाँ, इतने वर्षों बाद भी वे भीतर कहीं उपस्थित हैं। इन पंक्तियों को लिखते समय मैं उनका चेहरा देख रहा हूँ, उनकी सहज निश्छल हँसी सुन रहा हूँ।

कबाडी भाई मद्रास शहर के चप्पे-चप्पे से परिचित थे। उनके साथ मद्रास शहर के कुछ दर्शनीय स्थल देखना आसान रहा - भाषा की भी आसानी रही। हाट-बाजार तो वैसे ही, जैसे कहीं भी, किसी भी महानगर के। चंदन की लकड़ी से बनी तमाम सजावट की चीजें, सीपियों की मालाएँ, शंख आदि यहाँ सस्ते और अच्छे मिलते हैं, बशर्ते आप ठगे न जाएँ। कबाडी जी के साथ मैंने भी कुछ छोटी-मोटी चीजें घर-परिवार में भेंट देने के लिए खरीद ली हैं। कुछ आसपास के मंदिर एवं चर्च भी देखे। दक्षिण का स्थापत्य उत्तर भारत के स्थापत्य से बिल्कुल अलग है। मंदिरों के प्रांगण, उनके गलियारे आदि अधिक प्रशस्त एवं खुले। शिखर भी अधिक ऊँचे, अधिक भव्य, पर गर्भगृह वैसे ही संकुचित। हिंदू देवता इतने सँकरे स्थान में क्यों रखे जाते हैं, यह हमेशा ही मेरी समझ से परे रहा है। कहाँ चर्च की प्रतिमाएँ खुले हॉल में सीधे भक्तों से मुखातिब, कहाँ परदे के पीछे अपने छोटे-से कक्ष में आसीन हिंदू देवमूर्तियाँ अपने उपासकों से दूरी रखते हुए। इसका कोई ऐतिहासिक कारण अवश्य होगा, जिसके शोध की आवश्यकता है। हो सकता है ईश्वर की परिकल्पना में जो एक रहस्यानुभूति का भाव जुड़ा हुआ है, उसके कारण ऐसा किया जाता हो।

दोपहर के बाद लौटकर हमने लंच लिया - भात-साँभर-रसम-नारियल की चटनी-दही आदि। दक्षिण भारत में ज्यादा खट्टा दही पसंद किया जाता है। थोड़ी देर विश्रामोपरांत उसी विधानसभा परिसर में अवस्थित राजाजी हॉल में हम 'एशियन पोएट्स मीट' के उद्घाटन समारोह हेतु पहुँचे। मुख्यमंत्री करुणानिधि, उनके साथ शिक्षामंत्री श्री नेदुनचेजियन उद्घाटन-समय से कुछ पूर्व ही पहुँच गए थे। दीप-प्रज्वलन के साथ उद्घाटन की प्रक्रिया सायं छह बजे के नियत समय पर ही शुरू हो गई। शालीनता और सुरुचिपूर्ण ढंग से संपन्न उस पूरे उत्सव में बहुत समय भी नहीं लगा। वहीं पहली बार मैंने दक्षिण भारत की बृहदाकार पुष्प-मालाओं को देखा। उन्हें पहनाने का ढंग भी उत्तरीय की तरह का था। उस शुभ अवसर पर श्री बालसुब्रमणियम् द्वारा नादस्वरम् और श्री सूर्यनारायणा द्वारा वीणा-वादन की प्रस्तुतियों ने समारोह को एक अतिरिक्त गरिमा प्रदान की। उनके माध्यम से कविता और संगीत की उस युगलबंदी की भी बानगी मिली, जो भारतीय लोककला परंपरा का सदियों से अभिन्न हिस्सा रही है। मुख्यमंत्री ने अपने संक्षिप्त सधे-हुए वक्तव्य में पधारे हुए कवियों-मनीषियों का अभिनंदन करते हुए उन्हें कवि-विधायक कहकर संबोधित किया। मुझे प्रसिद्ध अंग्रेजी के रोमांटिक कवि शेली के वक्तव्य का ध्यान आया, जिसमें उसने कवि को 'लेजिस्लेटर' कहा है - साथ ही प्लेटो के 'फिलॉस्फर किंग' का भी रूपक ध्यान आया। किंतु प्लेटो ने तो अपने 'रिपब्लिक' यानी अपने द्वारा परिकल्पित आदर्श जनसत्ता-व्यवस्था से कवि नामधारी जीव के प्रवेश तक को वर्जित कर दिया था।

उद्घाटन-सत्र का अधिकांश समय कवियों द्वारा अपना परिचय देने में बीता। जापान, कोरिया, थाईलैंड, मलयेशिया, श्रीलंका, अरब, ईरान, इजरायल, मारीशस, जांबिया और नाइजीरिया के कवि-प्रतिनिधियों ने जब अपना परिचय दिया, तो तालियों की गड़गड़ाहट से उनका स्वागत हुआ। भारत से जो कवि-प्रतिभागी थे, उनमें प्रो. पी. लाल, प्रो. जयंत महापात्र, डॉ. ए. विश्वम्, श्री प्रणव बंद्योपाध्याय, डॉ. रवींद्रनाथ मेनन, श्रीमती मोनिका वर्मा, डॉ. अमरेश दत्त के नाम प्रमुख हैं। प्रो. पी. लाल और डॉ. रवींद्रनाथ मेनन के वक्तव्यों के साथ उद्घाटन-सत्र का समापन हुआ।

23 जून 1975

प्रथम सत्र आलेख-पाठ का था, जिसमें चीन, ईरान एवं थाईलैंड के कविता-परिदृश्य का आकलन करते आलेख पढ़े गए। श्रीमती पर्ल पदमसी ने अंग्रेजी अनुवाद सहित अपनी हिब्रू कविताओं का पाठ किया।

तीसरे पहर के दूसरे सत्र के सभापति थे प्रो. जयंत महापात्र। उनकी अध्यक्षता में 'मीट' में पधारे सभी सत्तर कवि-प्रतिनिधियों ने अपनी उन्हीं रचनाओं का पाठ किया, जो उसी अवसर के लिए पहले से ही 'पोएट्री एशिया' शीर्षक 'पोएट' के विशेषांक में प्रकाशित की गईं थीं। मेरे लिए वह एक अद्भुत अनुभव था। इतना समृद्ध वैविध्य - कविता के किसिम-किसिम के रूप। मेरी कविता आकार में लघु थी, किंतु उसे सभी ने सराहा। अच्छा लगा।

उसी शाम तमिलनाडु के पंजाब एसोसिएशन के आमंत्रण पर हमें मद्रास के रोयापेट्टाह इलाके में स्थित एसोसिएशन के मुख्यालय ले जाया गया, जहाँ उत्तर भारत, विशेष रूप से पंजाब के भाँगड़ा नृत्य की दक्षिण भारतीय संगीत के साथ प्रस्तुति की गई। अपने परिचित भाँगड़ा को सुदूर दक्षिण के इस प्रदेश में देखना कितना सुखद लगा, कहने की आवश्यकता नहीं है। गेहूँ के आटे की रोटी और अन्य उत्तर भारतीय भोजन पाकर हम उत्तर भारत से आए कवियों को बड़ी तृप्ति मिली। घर से निकले सिर्फ तीसरा दिन था और मैं आतुर-विकल होने लगा था अपने परिवेश, अपने भोजन के लिए। नौ वर्षों तक जालंधर में रहा था, अस्तु, पंजाबी खाना मेरे लिए अपना ही था। वह पाकर मुझे बड़ी संतुष्टि मिली। पर कमरे में वापस आकर सोने से पूर्व लेटे-लेटे मैं सोवता भी रहा कि हमाऐ खान-पान, भाषा का यह अंतर कहीं उत्तर-दक्षिण भारत के अलगाव के बिंदु न बन जाएँ।

24 जून 1975

अधिवेशन के दूसरे दिन का पहला सत्र 'पोएट्री इंडिया' का था, जिसमें भारत की विविध भाषाओं में रची जा रही कविता पर संक्षिप्त विमर्श और कविता-पाठ का कार्यक्रम था। तीन आलेख विमर्श-खंड में प्रस्तुत हुए, जिनके शीर्षक थे - 'पोएट्री एण्ड दि पोएट', 'लिटरेरी क्रिटिसिज्म' एवं 'डिवोशन इन पोएट्री'। काव्य-पाठ की प्रस्तुतियाँ अपनी-अपनी भाषा में थीं। अधिकांश कविताएँ दक्षिण भारत की तीन प्रमुख भाषाओं - तेलगू, तमिल एवं मलयालम - की थीं। उनकी लयात्मकता और बीच-बीच में संस्कृत भाषा के शब्दों के अतिरिक्त हम उत्तर भारतीयों के लिए उनका आस्वाद लेना दुष्कर रहा। लज्जा भी आई कि हम अपने ही देश की भाषाओं को नहीं समझ पाते। हिंदी की कविताओं को, जिनमें मेरी भी एक हिंदी कविता शामिल थी, मुझे लगा कि उतने उत्साह से नहीं स्वीकारा-सराहा गया, जैसा भारतीय गणतंत्र की संवैधानिक राजभाषा के लिए होना चाहिए था। उर्दू की एकाध रचना पढ़ी गई, जिनको अधिक सराहना मिली।

सायंकालीन सत्र अधिवेशन का समापन-सत्र था, जिसके मुख्य अतिथि थे प्रदेश के शिक्षामंत्री श्री नेदुनचेजियन। उस सत्र में मदुराई विश्वविद्यालय के कुलपति श्री एस.वी. चित्तिबाबू ने महाकवि तिरिवल्लुउर एवं श्री महराजन ने महाकवि कंबन की कविता पर अंग्रेजी में बड़े ही विचारोत्तेजक वक्तव्य प्रस्तुत किए। मुझे लगा कि दक्षिण भारत का पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग का बौद्धिक अभी भी अपनी सांस्कृतिक-साहित्यिक परंपरा से अधिक गहराई से जुड़ा हुआ है। उनके अवचेतन का संस्कार अभी भी काफी हद तक भारतीय है। सत्र की अध्यक्षता की थी मद्रास विश्वविद्यालय के कुलपति श्री सुंदरावदिंवलु ने। अपने अथ्यक्षीय भाषण में उन्होंने कविता की एक सांस्कृतिक पुल की भूमिका को व्याख्यायित किया और सभी आगंतुक कवियों से आवाहन किया कि वे कविता को 'पोएट' पत्रिका के मुखवाक्य 'पोएट्री फॉर पीस' के आदर्श के अनुरूप बनाएँ। शिक्षामंत्री श्री नेदुनचेजियन का वक्तव्य कविता की सामाजिक भूमिका और कवि के सामाजिक उत्तरदायित्व पर केंद्रित था।

वह शाम भी पंजाब एसोसिएशन के आमंत्रण पर भव्य नृत्य-प्रस्तुतियों का आनंद लेते गुजरी।

25 जून 1975

मुख्यमंत्री के आदेश से दो 'लग्जरी' बसें तड़के सुबह से आ गईं हैं। दो दिन का कार्यक्रम है दक्षिण तमिलनाडु की यात्रा का। वर्ल्ड पोएट्री सोसायटी, फीनिक्स, यू.एस.ए. की मुखपत्रिका 'पोएट' के मुख्य संपादक डॉ. कृष्णा श्रीनिवास एवं उनके प्रमुख सहयोगी डॉ. सैयद अमीरुद्दीन हमारे साथ हैं। कृष्णा जी अधिवेशन के दौरान तो सूट-टाई में ही रहे, किंतु यात्रा में वे सफेद लुंगी-कमीज एवं चप्पल ही पहनकर चले। इस विशुद्ध दक्षिण भारतीय वेषभूषा में माथे पर चंदन-टीका लगाए वृद्ध डॉ. कृष्णा बड़े भव्य लग रहे थे। यात्रा में उनके इस अनौपचारिक रूप के दर्शन हुए, जिससे वे सभी भारतीय तथा विदेशी प्रतिनिधियों को समान रूप से अपनत्व दे रहे थे। मुझे तो उन दो दिनों की यात्रा में वे नितांत अपने लगे।

मद्रास के मयलापुर में श्री कपिलेश्वरार मंदिर के दर्शन से हमारी इस साहित्यिक यात्रा का शुभारंभ हुआ। मंदिर छोटा ही, किंतु उसका खुला हुआ प्रांगण, उसके प्रवेश द्वार और अन्य द्वारों - दीवारों पर प्रस्तर में उकेरी विविध यक्ष-अप्सरा-देव आकृतियाँ एवं स्वस्तिक-कमल-शंख आदि मांगलिक चिह्न मुझे अत्यंत मनोहारी लगे। उत्तर भारत के मंदिरों में पत्थरों में उकेरा यह कलात्मक स्थापत्य देखने को नहीं मिलता सिवाय दिलवाड़ा और खजुराहो के मंदिरों के। सिंध-गंगा-यमुना के मैदानों में इतने प्राचीन मंदिर मिलते भी नहीं। संभवतः मूर्तिभंजक मुस्लिम आक्रांताओं का आवेश दक्षिण तक पहुँचते-पहुँचते या तो चुक गया होगा या इन मंदिरों की भव्यता देखकर उनका हृदय-परिवर्तन हो गया होगा। दक्षिण भारत वैसे भी विदेशी आक्रमणों के आघात से काफी कुछ बचा रहा था। इसीलिए समृद्ध हिंदू स्थापत्य कला के प्राचीन नमूने यहाँ बचे रह गए हैं।

मद्रास से बाहर हमारा पहला पड़ाव था परानुर, जहाँ कोढ़ियों के पुनरुद्धार हेतु बनाए गए केंद्र में हमें ले जाया गया। वहाँ जो कुछ हमने देखा, उसने हमें बहुत प्रभावित किया। एकदम साफ-सुथरा, स्वच्छ-पवित्र वातावरण और कोढ़ी समुदाय के प्रति लगाव एवं ममत्व के साथ सेवावृत्ति का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता यह केंद्र हमें मानवता के मंदिर-सा लगा। दोपहर तक हम वदलूर पहुँचे, जहाँ महान संत-कवि वल्ललार का अंतिम समय बीता था। वहीं हमने दोपहर का भोजन प्राप्त किया। दक्षिण भारतीय निर्माण शैली का अद्भुत नमूना था वह आवास, जहाँ हमें भोजन कराया गया। प्रशस्त दालानों में साफ-सुथरी पट्टियों पर बैठकर सामने बड़े-बड़े केलों के पत्तों पर छोटी-छोटी तमाम कटोरियों में परोसे स्वादिष्ट व्यंजनों का अमृत-तुल्य स्वाद पाकर आत्मा को जो तृप्ति मिली, उसका वर्णन शब्दों में नहीं हो सकता। ग्राम्य-परिवेश का वह छोटा-सा स्थान मुझे बड़ा ही मनोरम लगा।

सायंकाल तमिलनाडु के प्रख्यात मंदिर-नगर चिदंबरम् में हम कवियों का नागरिक अभिनंदन किया गया। उसके पूर्व हमने मंदिर के दर्शन किए। दक्षिण भारत के मंदिर-स्थलों में चिदंबरम् का विशिष्ट स्थान है। चिदंबरम् का नटराज मंदिर विश्व-विख्यात है। वहाँ की नटराज प्रतिमा की कांस्य-पीतल अनुकृतियाँ सभी स्थानों पर मिलती हैं। इस मंदिर की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं - एक तो यह कि उसमें शेषशायी विष्णु और लास्य-तांडव मुद्रा में नटराज शिव के विग्रह एक साथ उपस्थित हैं और दूसरे हैं उसके एक सहस्र स्तंभ, जो सभी स्थापत्य एवं सज्जा में एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं। अधिकांशतः दक्षिण भारतीय मंदिरों में विष्णु और शिव एक साथ उपस्थित नहीं मिलते, किंतु चिदंबरम् के मंदिर में तो वे एक-दूसरे के समक्ष पूरी समानांतर गरिमा के साथ उपस्थित थे। वहाँ दोनों कक्षों में चल रहे पूजा-श्लोकों का दक्षिण भारतीय शैली का गायन भी मुझे बड़ा आकर्षक लगा। गर्भगृहों में गूँजतीं वे ध्वनियाँ गलियारों से होकर पूरे प्रांगण में फैल रहीं थीं। मुझे लगा जैसे उनकी गूँज आकाश तक व्याप रही थी और जैसे दोनों देव वहाँ स्वयं उपस्थित होकर उन पूजा-ध्वनियों को स्वीकार रहे थे। मेरे अवचेतन में अवस्थित हिंदू संस्कार इस अनुभव से कैसे उद्वेलित हुए, बताना संभव नहीं है। वर्षों पहले लगभग एक मास पर्यंत काशी-वास के दौरान अनेक बार विश्वनाथ बाबा के दर्शनों के लिए गया था, किंतु देवता के लिए ऐसा श्रद्धा भाव कभी नहीं जागा था। विश्वनाथ मंदिर के वातावरण में एक संकुचन का-सा भाव मुझे महसूस हुआ था। भीड़ की अंधश्रद्धा और पुजारी समुदाय की व्यवसायिकता, दोनों मिलकर मंदिर के तंग माहौल को और अधिक घुटनभरा बना रहे थे। चिदंबरम् के मंदिर की स्वच्छता, उसकी विशालता उसे दर्शनीय ही नहीं, अधिक पवित्र भी बना रही थीं। हाँ, यह भी संभव है कि मेरी दृष्टि में भी बदलाव आ गया हो। 1959 से 1975 तक का समय का अंतराल भी तो काफी था। मंदिरों-तीर्थस्थलों के प्रति मैं विशेष श्रद्धालु कभी भी नहीं रहा हूँ, किंतु चिदंबरम् मंदिर की देव-प्रतिमाओं, उसके स्थापत्य एवं उसके समग्र वातावरण ने मेरे सौंदर्य-बोध को जगाकर एक जाग्रत आस्तिक भाव से मेरे मन को आप्लावित कर दिया था। एक सुंदर कलाकृति को अवलोकने का जो प्रभाव मन पर होता है, वही मुझमें जाग गया था। शिव और विष्णु का यह समन्वयन मुझे बहुत भाया। तुलसी ने अपने 'रामचरितमानस' में इसी समन्वयन को रूपायित किया था। भगवान शिव और उनका पंचायतन द्रविड़ संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहे हैं। भगवान विष्णु एक आर्य देव के रूप में मान्य होने के कारण भारत के द्रविड़ भू-भाग में प्रारंभ में स्वीकृत नहीं रहे होंगे, किंतु रामावतार के रूप में उनके धुर दक्षिण तक प्रवेश कर जाने से उनकी पूजा का भी समायोजन वहाँ के मंदिरों में किसी-न-किसी रूप में कर लिया गया होगा। प्राचीन कांची नगरी के विष्णु कांची एवं शिव कांची के रूप में स्पष्ट विभाजन से दक्षिण भारत की धर्म-संबंधी दुविधाओं का पता चलता है। यह दुविधा उत्तर भारत में भी अवश्य रही होगी। दक्षिण के स्वामी रामानंद के काशी-वास के समय शिव की नगरी में उनके द्वारा राम नाम की महिमा को प्रचारित करने का प्रयास भी इसी ओर इशारा करता है। मध्यकाल की उस देव-परक धार्मिक दुविधा के कारण ही तो शिव की महानगरी में अपनी लोकभाषा में लिखी रामकथा को मान्यता दिलाने के लिए गोस्वामी तुलसीदास को अपने महाकाव्य में रामकथा को शिव-पार्वती के वार्तालाप के माध्यम से प्रस्तुत करने का रूपक रचना पड़ा होगा। उत्तरकांड का काकभुशुंडि प्रसंग भी इसी ओर इशारा करता है। बाद में उन्हें अपने महाकाव्य को काशी में सर्व-स्वीकृति दिलाने के लिए भगवान विश्वनाथ की सही भी तो प्राप्त करनी पड़ी थी। दक्षिण भारत में भी इसी भाँति कांची-संदर्भित धार्मिक अंतर्विरोध एवं असहिष्णुता का समापन एवं समाहरण अंततः चिदंबरम् के नटराज मंदिर के रूप में हुआ होगा। हमारे देवायतन के पालनकर्ता विष्णु एवं महाकाल संहारक शिव को एकात्म करने का यह रूपक, सच में, वंदनीय लगा मुझे।

चिदंबरम् का विश्वविद्यालय ग्रीष्मावकाश के कारण उजड़ा-उखड़ा-सा था। किंतु उसका पुस्तकालय भरा हुआ था। किसी प्राचीन शोधकेंद्र के समान गंभीर व्यक्तित्व वाले इस शिक्षा-केंद्र की उस आंतरिक गरिमा से परिचित होने का न तो मेरे पास समय था और न ही अवसर। हाँ, दक्षिण भारत के एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र होने के नाते उसके दर्शन करना मुझे अच्छा लगा।

इस रात हम धर्मपुरम् के प्रसिद्ध मठ में रहे। हमारा परम सौभाग्य रहा कि उस रात मठाधीश श्री गुरुमहासान्निधनम् से वार्तालाप करने का हमें अवसर मिला। उन्होंने शैवदर्शन संबंधी हमारी जिज्ञासाओं का बड़े धैर्य से समाधान किया। एक परम सात्विक सिद्धपुरुष के सान्निध्य का वह अनुभव आज भी मुझे रोमांचित कर जाता है।

26 जून 1975

धर्मपुरम् की धार्मिक स्थली से चलकर लगभग दस बजे हम पुंपहार पहुँच गए हैं। किंवदंती के अनुसार इसी स्थान पर प्राचीन कावेरीपट्टणम् नामक पोतनगर लगभग 2000 वर्ष पूर्व स्थित था। कावेरी नदी का बंगाल की खाड़ी से यहीं पर संगम होता है। महान तमिल महाकाव्य 'शिलापदिकरम्' के उत्तर कथानक का यही स्थान घटनास्थल था। आज का पुंपहार समुद्रतट पर ही स्थित है। वहीं बना है पुंपहार संग्रहालय। महाकाव्य की घटनाओं को इस संग्रहालय में रूपायित किया गया है। मुख्यमंत्री करुणानिधि की लेखन प्रतिभा से तो मेरा परिचय नहीं हो पाया, किंतु उनके सुहृद काव्य-प्रेम और सौंदर्य-बोध से परिचित कराने के लिए यह संग्रहालय यथेष्ट था। हम कवियों को इस काव्यस्थली तक पहुँचाने की जो सुचारु व्यवस्था उन्होंने कराई थी, वह भी तो उनके काव्य-प्रेम को ही दर्शाती थी। संग्रहालय का प्रवेशद्वार ही अपने-आप में एक संपूर्ण कलाकृति जैसा मुझे लगा। उस ऊँचे तोरण-द्वार से प्रवेश करते ही प्रांगण के केंद्र में स्थित महाकाव्य की नायिका कन्नगी की काले पत्थर से निर्मित विशाल प्रतिमा अपने भव्य सौंदर्य से अभिभूत करती है। संग्रहालय के गलियारों में महाकाव्य की पूरी कथा को शिलाखंडों में उकेरा गया है। एक काव्य की ऐसी बिंबात्मक प्रस्तुति - मैं चकित-विस्मित, कुछ-कुछ मोहाविष्ट उन शिला-बिंबों को अपने अंतर्मन में सँजोता रहा। सौंदर्य को मौन होकर ही मन में समाविष्ट किया जा सकता है। किसी महाकाव्य को समर्पित एक कवि-हृदय मुख्यमंत्री की यह काव्यांजलि - भारत में तो यह अपने ढंग का एकमात्र ऐसा संग्रहालय होगा। काश, 'अभिज्ञान शाकुंतलम्', वाल्मीकि-तुलसी रचित रामायण महाकाव्यों, वेदव्यास की 'महाभारत' का भी ऐसा ही सुगढ़ एवं चित्ताकर्षक शिलांकन हो पाता।

और फिर जब सभी लोग संग्रहालय की कॉफी आदि का आस्वाद ले रहे थे, मैं निकट के समुद्रतट पर विचरण के लिए निकल गया। सागर-तट की रेती पर महाकाव्य की घटनाओं को जैसे तलाशता मैं कुछ दूर तक चलता चला गया था। लग रहा था जैसे वे घटनाएँ साकार होकर सामने खड़ी हो गई हों। उछलती-गिरती सागर की लहरें पता नहीं क्या-क्या कह रहीं थीं? संभवतः वे कन्नगी की व्यथा-कथा अथवा उसके आक्रोश को ही स्वर दे रहीं थीं। उसी मोहाविष्ट मनःस्थिति में अचानक मेरा दायाँ पैर किसी चीज से टकराया। वह एक छोटी-सी हड्डी थी, जिसे मैंने बिना सोचे हाथ में उठा लिया और पैंट की जेब में डाल लिया। सारी क्रिया इतनी सहज, इतनी अनायास हुई कि आज सोचकर उस पर विस्मय होता है। मैंने ऐसा क्यों किया था, यह प्रश्न आज भी मेरे सामने एक यक्ष-प्रश्न बना हुआ है। मेरे कवि-मन ने बाद में जो इस प्रश्न का समाधान खोजा, उसे संभवतः किसी भी तर्क से स्वीकार करना कठिन होगा। हुआ यों कि मैंने उस हड्डी को हिसार वापस आकर अपने ड्राइंगरूम के मैंटलपीस पर रख दिया। मेरे मित्र प्रो. शिशिरेंद्र दास ने जब एक दिन उस हड्डी को देखा, तो उन्होंने उसके बारे में जानना चाहा। सारी बात सुनकर उन्होंने आशंका व्यक्त करते हुए कहा कि उसके साथ कोई आत्मा जुड़ी हो सकती है और यदि वह कोई दुरात्मा हुई, तो हमें कष्ट भी दे सकती है। इसलिए इसे किसी निर्जन स्थान पर फेंक देना ही उचित होगा। मैंने उनसे तो कुछ नहीं कहा, किंतु रात में सोते-सोते मैं उस पर विचार करता रहा। उस अर्ध-सुप्तावस्था में मेरा अवचेतन मन उसी प्रसंग से जुड़ा रहा। आधी रात के समय अचानक मेरी आँख खुली और एक लंबी कविता सहज अवतरित होती गई। रात्रि के अंतिम पहर तक मैं उसे लिखता रहा। हुआ यह कि मेरी कल्पना ने उस अस्थि-खंड को मेरे अपने ही किसी पूर्वजन्म से, संभवतः तमिल महाकाव्य के कालखंड में हुए जन्म से जोड़ दिया था। शायद मैं कावेरीपट्टणम् का ही वासी था किसी जन्म में अथवा हो सकता है मैं उसी समुद्र का वासी कोई जल-जीव रहा होऊँ और जब मैं वहाँ इस जन्म में पहुँचा, तो वह मेरा अवशिष्ट अस्थि-खंड, जो इसी पल की प्रतीक्षा में सदियों से लहरों के थपेड़े खाता रेती में पड़ा रहा था, अचानक मेरे पैरों की आहट पहचान कर उभर आया और मेरे पैर से टकरा गया और मैं उसे सहज उठा लाया। वह अस्थि-खंड आज लगभग पैंतीस साल बाद भी मेरे पास सुरक्षित है। कविता ने उसे नितांत मेरा अपना बना दिया है।

लगभग तीसरे पहर हम थिरुक्काद्युर पहुँचे। वहाँ देवी अभिरामी के प्रसिद्ध मंदिर में हमें वह स्थल देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जहाँ विख्यात भक्त कवि अभिरामि भट्टार ने अपने भजन-गीतों से देवी का महिमा-गान किया था। मुझे यह देखकर सुखद विस्मय हुआ कि तमिल प्रदेश में कविता एवं साहित्य के जगह-जगह इस तरह के सिद्धपीठ स्थापित किए गए और वे आज भी उतने ही प्रेरक एवं जाग्रत हैं, जितने उन महान संत-कवियों की साधना के समय में थे। भारत के अन्य प्रदेशों में भी पता नहीं कितने ही ऐसे साधना-स्थल होंगे। हो सकता है दक्षिण के अन्य प्रदेशों में भी इस तरह के कविता-पीठ आज भी सुरक्षित हों, पर जहाँ तक उत्तर भारत का प्रश्न है, वहाँ तो सिवाय सत्ताधीशों के और किसी का सम्मान होता नहीं। तुलसी-सूर की साधना-स्थलियाँ क्या कम महत्वपूर्ण हैं, पर उनकी तीर्थयात्रा क्या वहाँ की जाती है? कितने राजनेता हैं उत्तर भारत के, जो अपने-अपने क्षेत्रों के साहित्य-साधकों से परिचित हैं, उनका सम्मान करना तो दूर की बात है। आज निराला, प्रसाद, प्रेमचंद, पंत आदि के साधना-स्थल कितने उपेक्षित हैं, कहने की आवश्यकता नहीं है। केंद्रीय सत्ता से दूर दक्षिण भारत सांस्कृतिक-साहित्यिक दृष्टि से अधिक जीवंत, अधिक सक्रिय, अधिक परिपक्व मुझे लगा। उत्तर में मौके-मौके पर बाह्य आडंबर तो खूब रचे जाते हैं, पर उनमें वह सप्राण जीवंतता देखने को नहीं मिलती, जो तमिल प्रदेश के इन छोटे-छोटे कविता के सिद्धपीठों में मुझे महसूस हुई। इसके अतिरिक्त एक अंतर और भी मुझे लगा। ये सिद्धपीठ किसी-न-किसी मंदिर या मठ से जुड़े हैं और वे स्थल धार्मिक-आध्यात्मिक दृष्टि से आज भी जाग्रत हैं, क्योंकि उनका व्यवसायीकरण नहीं हुआ है। ये केंद्र दक्षिण भारतीय स्थापत्य, विशेष रूप से अपने अनुपमेय काष्ठ-स्तंभों के शिल्प की दृष्टि से भी कला के लघु संग्रहालयों जैसे हैं। परिवेश की पवित्रता और कलात्मक अनुभूति का अनूठा संगम मुझे दिखा इन पीठों में। एक अछूती रागात्मक जिज्ञासा से भरे ये स्थल कविता के वे तीर्थस्थल मुझे लगे, जहाँ सारस्वत अनुष्ठान आज भी आयोजित किए जाने चाहिए। इन काव्य-भूमियों में जाकर मेरा मन एक अद्भुत काव्यात्मक आस्था से भर उठा।

लौटते समय रास्ते में पता चला कि हम पांडिचेरी के बहुत निकट से गुजर रहे हैं। मेरा मन अचानक ही वहाँ जाकर महर्षि अरविंद की साधना-स्थली अरविंद आश्रम देखने को कर आया। हम कड्डलूर से होकर गुजर रहे थे। वहाँ से पांडिचेरी के लिए बस ली जा सकती थी। मेरे अनुरोध पर मुझे बस अड्डे पर उतार दिया गया। शाम के लगभग साढ़े-पाँच बजे थे। मैं बस की प्रतीक्षा कर रहा था, तभी किसी दुकान पर बज रहे रेडियो से खबर सुनी कि प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी है और जनता के सभी नागरिक अधिकार समाप्त कर दिए हैं। जे.पी. - प्रसिद्ध स्वतंत्रता-सेनानी, समाजवादी नेता, महान भूदानी नेता एवं 'संपूर्ण क्रांति' की देश-व्यापी अलख जगाने वाले महान क्रांतिदृष्टा श्री जयप्रकाश नारायण - समेत सभी प्रमुख विरोधी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया है। कई दिनों से राजनीति, अखबारों आदि से एकदम कटा हुआ था। उत्तर में स्थित सत्ता-केंद्र की धमक इस सुदूर दक्षिण के क्षेत्र में अचानक गूँज गई। खबर सुनकर स्तब्ध था मैं और आशंकित-आतंकित भी। क्या होगा भारत के प्रजातंत्र का अब, यह प्रश्न ही मुख्य रूप से मेरे मन में ऊहापोह कर रहा था।

पांडिचेरी मैं लगभग आठ बजे पहुँचा। अँधेरा हो चुका था। अब तो अपनी सुविधा के होटल में पहुँचकर रात बितानी थी। रिक्शेवाले ने जिस होटल में मुझे पहुँचाया, पता चला कि अरविंद आश्रम तो उससे बहुत ही नजदीक था। खाना खाने के बाद टहलता हुआ वहाँ तक हो आया। एक आधुनिक ऋषि की साधना-स्थली प्राचीन ऋषियों के आश्रम से नितांत भिन्न। पांडिचेरी एक समुद्रतटीय नगर है। भारत में फ्रेंच उपनिवेश-काल का एक अवशेष। क्रांतिकारी अरविंद की शरणस्थली इसी कारण बना। अंग्रेजी शासन यहाँ उनका कुछ नहीं कर सकता था। यही उनकी आध्यात्मिक साधना का केंद्र बना। लौटते समय और कमरे में लेटे-लेटे मैं उस अद्भुत कालखंड के बारे में ही सोचता रहा। बंगभूमि से तीन महान विभूतियाँ उपजीं - नेताजी सुभाषचंद्र बोस, जिन्होंने भारतीय स्वराज्य आंदोलन को आई.एन.ए. की गतिविधियों के द्वारा एक नई गति दी। भारत की राजनीति में उनका स्थान सर्वोपरि होता, यदि उनकी आकस्मिक मृत्यु न हो गई होती। दूसरी विभूति गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर थे, जिनकी साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र की उपलब्धियों का कोई सानी नहीं। और तीसरे महर्षि अरविंद, जिन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में एक अद्भुत क्रांति की। यही सब सोचते-सोचते गहरी नींद आ गई और आँख सुबह रोशनी होने पर ही खुली। एक समकालीन महर्षि की साधना-स्थली को देखने की यह उत्कंठा एक व्यक्तिगत कारण से भी थी। मेरे एक प्रिय प्राध्यापक आध्यात्मिक साधना की किसी अधकचरी प्रक्रिया के कारण अचानक विक्षिप्त हो गए थे और उन्हें यहीं आकर शांति मिली थी। कल की आपातकाल की सूचना ने मुझे भी अशांत कर दिया है। कई चिंताएँ मन में व्याप गई हैं। हो सकता है महर्षि की इस साधना-स्थली में मुझे भी अपनी शंकाओं-चिंताओं का समाधान मिल सके।

नित्यकर्म से निवृत्त होकर आश्रम की कैंटीन में, जो एक अलग भवन में स्थित है, मैं नाश्ते के लिए पहुँचा। आश्रम खुलने में कुछ देर थी। नाश्ते के बाद मैं उसी स्ट्रीट पर टहलता रहा। एक छोर पर समुद्रतट, जिसके किनारे कमर तक ऊँची दीवार बनी हुई थी। समुद्र की लहरें वहाँ तक पहुँच कर उससे टकराकर वापस चली जातीं थीं। मैं थोड़ी देर दीवार पर बैठा लहरों की उस क्रीड़ा को देखता रहा। सूर्य क्षितिज से काफी ऊपर आ चुका था और समय भी हो चुका था आश्रम में प्रवेश का। पांडिचेरी में लगभग सभी मकान फ्रेंच शैली के हैं यानी बाहर से ऊँची दीवारों का घेरा और भीतर से कुशीदा और खुले। आश्रम भी एक ऐसे ही मकान में।

आठ बजे आश्रम खुला। एक साइड डोर से एंट्री। छोटा-सा एक गलियारा, जिसमें बाईं ओर एक कक्ष में आश्रम का विक्रय-केंद्र है। अरविंद द्वारा रचा और उन पर विरचा तमाम साहित्य वहाँ पर उपलब्ध था। मैंने महर्षि के महाकाव्य 'सावित्री' की एक प्रति और कुछ पूजा-सामग्री वहाँ से खरीदी। किंतु यह तो बाद में। पहले तो मैं दाईं ओर के द्वार के पार गया। वह पहुँचाता है एक खुले सहन में। वहीं स्थित है महर्षि का समाधिस्थल - एक छतरी से ढँका संगमरमर का एक चबूतरा। परिस्तंभों से घिरा एक छोटा-सा गलियारा उसके एक तरफ, जो भीतर के मुख्य भवन में प्रवेश कराता है। आँगन में पैर रखते ही एक अजीब-सी अनुभूति मुझे हुई - एक आंतरिक दैवी अहसास। समाधि के चारों ओर लोग बैठे-खड़े थे। सभी एकदम मौन - शांत। इतनी शांति कि लगे जैसे कोई नहीं, आप अकेले हों। विभिन्न मुद्राएँ - कुछ आसन में, कुछ समाधि के चबूतरे पर सिर टिकाए अधलेटे। सभी की आँखें बंद - सभी ध्यानस्थ। मैं थोड़ी देर चकित-विस्मित उस अलौकिक दृश्य को निहारता रहा समाधि से टिका बैठा। फिर एकाएक अपने-आप आँखें बंद हो गईं और मैं लीन हो गया एक गहरे मौन में। बाद में मुझे लगा कि दो दिन की काव्य-यात्रा में इसी अनुभूति की तो तैयारी थी। यही तो चरमबिंदु था मेरी इस संपूर्ण काव्ययात्रा का। ऐसे में मन का औत्सुक्य-विस्मय भी विलुप्त हो गया था। उस भौतिक-दैहिक ऊहापोहों से परे की विशुद्ध सात्विक उपस्थिति में मेरा 'मैं' भी विलीन हो गया था। एक चरम शांति थी, और कुछ नहीं था। ऊर्जाहीन-गतिहीन एक संज्ञा और उसकी अनादि-अनंत जागृति। यही तो था परम अस्तित्व। कोई बेचैनी नहीं, कोई हलचल नहीं, फिर भी एक अतल सिंधु-सा विस्तार। उस अचिंत्य मौन से जब मैं बाहर आया, तो मुझे लगा कि जैसे मैं स्वयं के लिए ही अजनबी हो गया होऊँ। अधिकांश लोग उठकर जा चुके थे। घड़ी देखी - नौ बज रहे थे यानी लगभग पौन घंटे मैं रहा था उस महाभाव में। देह एकदम शिथिल हो गई थी। कोशिश करके उसे उठाना पड़ा। लोग सामने बने एक भवन की ओर जा रहे थे। वहीं था श्री अरविंद का साधना-कक्ष।

महर्षि का साधना-कक्ष रोज दर्शनों के लिए नहीं खुलता था, पर मेरा सौभाग्य - उस दिन खुला था। ऊपर जाने के लिए बंद जीना। पहली 'लैंडिंग' पर माँ का साधनाकक्ष। अंदर जाना मना - द्वार बंद। बाहर से उस छोटे-से कक्ष की धवल-एकदम सादी सज्जा ही मैं देख सका। ऊपर महर्षि का कक्ष। वह भी बंद। बाहर से ही दर्शन। वह भी क्षणिक। जीने पर चढ़ते-उतरते पगों की शांत चापें। उससे भी शांत सबके मन। सीढ़ियाँ सँकरीं, किंतु सभी चुपचाप उन पर बिना टकराए चढ़ते-उतरते। मन श्रद्धावनत-जाग्रत, पर शरीर जैसे सुप्तावस्था में सक्रिय। चेतना के उस धरातल की अनुभव-अनुभूति आज भी मेरे साथ है और मैं उसे यादकर रोमांचित हो उठता हूँ.।

ऑरोविले जाने का विचार छोड़ना पड़ा। महर्षि अरविंद की स्मृति में बनाया जा रहा वह नगर भविष्य का नगर कहा जाता है। सुना था कि कुछ आपसी मतभेदों के कारण वहाँ काम रुका हुआ था। वहाँ आने-जाने में पूरा दिन लग जाता और फिर रात तक मद्रास पहुँचना संभव नहीं हो पाता। दूसरे दिन उत्तर की ओर वापसी थी। दोपहर तक पांडिचेरी नगर के चर्चों को देखता रहा। उनका स्थापत्य ब्रिटिश भारत में देखे चर्चों से अलग। चर्च का मौन-शांत वातावरण मुझे हमेशा ही भाता रहा है। पूजा-समय के अतिरिक्त उस मौन एकांत में प्रभु यीशु को निहारना, उनसे मूक संभाषण करना आसान होता है। गहरे मौन में डूबी, ऊपर के रोशनदानों से झरते आलोक में नहाई प्रभु की सलीब-टँगी आकृति किसी अन्य लोक की लगती है।

देर-रात मद्रास पहुँचा। कड्डलोर तक की यात्रा समुद्र के साथ-साथ। बीच-बीच में आते छोटे-छोटे गाँव। सारा मार्ग खजूर-ताड़ वृक्षों की असंख्य वीथियों से गुजरता। उछलती-लहराती सागर की तरंगें बस की खिड़की से बराबर दिखतीं। अपने नए-उपजे मौन के बीच मैं उन छवियों से बतियाता रहा। और उनको समेटता-सँजोता रहा मेरा चित्रकार-कवि मन। महाबलिपुरम् भी नहीं गया। ट्रेन तीसरे पहर की थी वैसे तो, पर मेरा मन पूरी तरह शिथिल-निष्क्रिय। दोपहर का भोजन मद्रास के ही एक युवा कवि मित्र के परिवार के साथ। और फिर वापसी अपने स्थायित्व की ओर। ट्रेन की यात्रा का एकांत ही केवल मेरे साथ। कविता-पर्व की सुखद स्मृतियाँ भी। और हाँ, वह मौन भी जो यहाँ उपजा था।

आज इतने वर्षों के बाद पीछे मुड़कर यह सब अवलोकना एक अतींद्रिय सुख से मुझे भर रहा है। काश, मैं दोबारा उन क्षणों में वापस जा सकूँ, उन्हें वैसे ही जी सकूँ। शायद मेरे इस वृत्तांत में बहुत कुछ मेरे अंतरमन से उपजा हो, उसी की संरचना हो। काश, ऐसा ही हो।