एक चंपाकली : एक विषधर / राजकमल चौधरी

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दशरथ झा का परिवार बहुत छोटा है, पर आंगन बहुत बड़ा। पहले सभी भाई साथ ही रहते थे। अब दशरथ झा, इस पुराने, बड़े, उजड़े, भंग-धथूड़े के जंगल से भरे आंगन में अपनी स्त्री और अपने बच्चों के साथ अकेले रह गए हैं। दशरथ की जीविका है-भैंस। दोनों शाम मिलाकर आठ-दस किलो दूध का प्रबंध इसी एक भैंस से होता है। भैंस के अतिरिक्त डेढ़ बीघा खेत है, और कुछ नहीं। पत्नी, रामगंजवाली घर-आंगन में व्यस्त रहती हैं, एक बच्चा स्कूल में पढ़ता है, दूसरा भैंस में, अर्थात् भैंस चराने में, और बारहवें वर्ष के अंतिम चरण में छंदबद्ध, मुग्ध, सुशील, आज्ञाकारिणी, प्रसन्नमुखी मात्र एक ही पुत्री, पुत्री का नाम है, चंपा।

शशि बाबू अपने बासठ साल के जीवन में जब पहली बार, अपने निकटस्थ पड़ोसी और दूर-दूर संबंधी, दशरथ झा के घर में, बीच आंगन में आकर खड़े हुए, तो चंपा दीवार पर उपले सहेज रही थी। रामगंजवाली थी कुएं के पास...शशि बाबू को देखते ही पानी से भरी बाल्टी उठाकर रसोईघर में घुस गई। गांव के रिश्ते से शशि बाबू रामगंजवाली के ससुर लगेंगे।

दशरथ झा हंसते हुए खुशामद तरंगित स्वर में बोले, “इस तरह शर्माने की क्या जरूरत, शशि बाबू तो अपने परिवार के आदमी हैं...चंपा, मां को बोलो, एक लोटा पानी का इंतजाम करे। पानी का मतलब, गरम पानी।”

“गरम पानी क्यों, बाबूजी?” संयत स्वर में चंपा ने पूछा। धीमे स्वर में रसोईघर से चंपा की मां बोली, “गरम पानी का मतलब चाय। चंपा, तुम दुकान से चाय और चीनी ले आओ। मैं पानी चढ़ा देती हूं।”

दुकान जाने से ज्यादा कष्ट चंपा को और किसी काम में नहीं होता है। हर बार बाजार की किसी दुकान से लौटते वक्त चंपा कसम खाती है कि मर जाऊंगी, लेकिन अब दुकान कभी नहीं जाऊंगी। कोई भी वस्तु उधार लानी हो, चाहे एक छंटाक सुपारी, चाहे एक सेर सरसों तेल-चंपा ही दुकान भेजी जाएगी। चंपा विराध करेगी-मैं नहीं जाऊंगी, जुगेसर का सवा रुपया बाकी है। वह मुझे उधार नहीं देगा।

लेकिन, मां कहेगी या दशरथ बोलेंगे-तुम नहीं जाओगी तो दूसरा कौन जाएगा। चंपा, जुगेसर को बोलाना कि उसका रुपया मैं पचा नहीं जाऊंगा। कल ही मेरा आलू उखड़ेगा। हम आलू बेचकर उसको रुपया दे देंगे। चंपा जानती है कि, बाबूजी ने एक कट्ठा भी आलू नहीं रोपा है। चंपा को मालूम है कि, बाबूजी ऐसे ही जब-तब छोटी-छोटी बातों के लिए, झूठ बोलते हैं, सरासर झूठ।

लेकिन दक्षिणबरिया टोले के सबसे प्रतिष्ठित लोग आंगन में आ गए हैं, पहली बार आए हैं-बाबूजी को शशि बाबू से निश्चय ही कोई बहुत जरूरी काम है-चंपा इतनी बात अवश्य जान रही है। इतनी बात जानने की स्त्री-सुलभ क्षमता उसमें है। अतः चंपा मां को बिना कोई उत्तर दिए ही जुगेसर बनिया की दुकान की तरफ चली गई-भगवती की प्रतिमा जैसी सुंदर, अल्पवयस की बुद्धिमती और सुशील कन्या, चंपा! और शशि बाबू के साथ दशरथ पूरब के कमरे में चले गए। चंपा, चंपा की मां और दशरथ इसी घर में रहते हैं।

दीवार पर एक पुराना कैलेंडर टंगा है। कैलेंडर में अंकित है द्रौपदी चीर-हरण का एक प्रचलित चित्र। शशि बाबू मानो दशरथ से कोई महत्त्वपूर्ण बात सुनने की प्रतीक्षा करते, बहुत देर तक इस चित्र की तरफ ताकते रह जाते हैं। द्रौपदी विवश है, विवसत्र है...क्रोध से उन्मत्त दुःशासन, गर्व से अंधा सुयोधन, ग्लानि और संताप से सिर झुकाए, लज्जित पांचो पांडव...और ऊपर से द्रौपदी की देह पर थान के थान साड़ी गिराते श्रीकृष्ण राधारमण भगवान श्रीकृष्ण, कैलेंडर के चित्र में मधुर-मधुर मुस्कुरा रहे हैं।

शशि बाबू भी मन-ही-मन मुस्कुराए। बोले कुछ नहीं, लेकिन दशरथ को इतना समझने में कोई त्रुटि नहीं हुई कि मेरे आंगन में आकर मेरे कमरे में इस पुरानी पलंग पर बैठकर शशि बाबू प्रसन्न हैं। इसी प्रसन्नता की आवश्यकता दशरथ झा को है। शशि बाबू कुछ ही साल पूर्व तक पूर्णिया जिला कचहरी में हेड किरानी थे। अब स्थाई रूप से गांव में ही रहते हैं। शशि बाबू का परिवार बहुत बड़ा है। दोनों विधवा बहन, तीन पत्नियों से चार पुत्र, और चारों पुत्रों के अपने-अपने छोटे-बड़े परिवार। आपसी बंटवारा अभी तक नहीं हुआ है। शशि बाबू जब तक जीवित हैं, बंटवारा असंभव।

तीन बार शादी करने के बाद भी, शशि बाबू फिलहाल स्त्री-विहीन हैं। तीसरी पत्नी पांच ही साल पूर्व स्वर्गवासिनी हुई हैं। अब शशि बाबू बूढ़े हो गए हैं, फिर भी, परिवार का और रुपए-पैसे का सारा हिसाब-किताब वे करते हैं, स्टील-संदूक की चाबी वे अभी भी अपने ही जनेऊ में रखते हैं।

“आप मेरा उद्धार नहीं करेंगे, तो दूसरा कौन करेगा,” इसी प्रेम-वाक्य से दशरथ ने अपनी बात शुरू की। शशि बाबू जेब से पनबट्टी बाहर कर पान-जर्दा खा रहे थे। पनबट्टी बंद कर जेब में रखने के बाद, बोले, “मुझसे जो सहायता हो सकेगी, मैं अवश्य करूंगा, लेकिन, आप स्पष्ट बोलिए, आपको कितने रुपए चाहिए... कम-से-कम आपको कितने रुपए...”

दशरथ झा मन-ही-मन हिसाब लगाते हैं। चंपा की शादी का हिसाब। शशि बाबू से कितने रुपए कर्ज मांगने चाहिए? सात सौ? एक हजार? दशरथ झा को अपनी बेटी की शादी किसी साधारण परिवार में करने के लिए भी अंततः दो हजार रुपए चाहिए। हिसाब जोड़ लेने के बाद, दशरथ बोले, “पहले चाय पी ली जाए-रुपए-पैसे की बात उसके बाद कहूंगा। मैं क्या कहूंगा, रामगंजवाली स्वयं आपसे गप्प करेंगी। आपसे क्या छिपा है...आपसे कैसी शर्म...आप तो मेरे अपने लोग हैं।”

चंपा के लिए एक परम उपयुक्त लड़का दशरथ झा ने देखा है। लड़के के पिता दशरथ झा की मित्रता है। भरथपुर गांव, सहरसा से तीन कोस उत्तर। लड़का सहरसा कॉलेज में बी.ए. में पढ़ता है। रामगंजवाली शादी का सारा खर्च मन-ही-मन जोड़ चुकी हैं। यदि दस कट्ठा बेच दिया जए तो पंद्रह सौ रुपए अवश्य मिलेंगे। तीन असर्फी (एक तोला सोने की टिकिया को एक असर्फी कहा जाता है) घर ही में है। यदि शशि बाबू पांच सौ की भी व्यवस्था कर दें...

चाय और चीनी की पुड़िया मां के पास रखकर, चंपा बरामदे में खड़ी है। शाम होने में अब कम ही देर है। आज दोपहर में पानी बरसा था-मूसलाधार बारिश, आंगन में कीचड़...सड़क पर कीचड़...चंपा दुकान जाते वक्त फिसलकर गिर गई थी। मां बोली, “तुम साड़ी बदलकर केश बांध लो...जल्दी करो। शशि बाबू ज्यादा देर बैठे नहीं रहेंगे। केश बांध लो...अलगनी पर साड़ी रखी हुई है, वह पहन लो...जल्दी करो। शशि बाबू का चाय और पान दे आओ।”

चंपा कुएं के पास चली गई। बाल्टी में पानी भर लिया। काफी देर तक हाथ-पैर धोती रही। कोहनी में लगा हल्दी का दाग छुड़ाया। कनपट्टी के आस-पास की मैल...भौंह की मैल...लेकिन, चंपा की देह में मैल कहीं नहीं है, मात्र मैल का भ्रम है उसके मन में। थोड़ी देर पहले दुकान के पास गिर गई थी, तो अभिमन्यु चौधरी का भतीजा परीक्षित इतनी जोर से हंसा था...लाज के मारे रंग गई थी चंपा, लाज से, क्रोध से, अपमान से आरक्त हो गई थी। संदेह हुआ था कि परीक्षित कोई अपशब्द भी बोला है। यद्यपि, परीक्षित मात्र हंसा ही था, बोला नहीं था। चंपा ऐसे ही, इसी अल्प वयस में सतत, मैल के भ्रम से, अपशब्द के संदेह से, अपमान के संदेह से व्यथित और चिंतित होती रहती है।

हाथ-पैर धो लेने के बाद लाल रंग की साड़ी और लाल ब्लाउज खोजने के लिए चंपा रसोई घर के ओसरे पर आ गई। मां कहती है, तो मुंह में पाउडर लगाकर, बाल सीट कर, लाल साड़ी पहनकर शशि बाबू के हाथ में चाय की प्याली देनी ही होगी। मां जो कहे, वह करना चाहिए। वही करती भी है चंपा। इच्छा नहीं भी रहती है, तो भी करती है...जैसे दुकान से उधार लाना...जैसे ललितेश के आंगन जाना...जैसे इसी तरह का और भी बहुत सारा काम करने की इच्छा नहीं होती चंपा की। चंपा उस कमरे में प्रवेश करना नहीं चाहती है, जिसमें पलंग पर बैठे हैं शशि बाबू और खुशामद-मिन्नत की मुद्रा में एक पीढ़ी पर नीचे बैठे हैं चंपा के पिताजी, दशरथ झा। चंपा को शर्म नहीं होती है, होती है ग्लानि, आत्मवेदना, कि बाबूजी ऐसे क्यों हैं, ऐसे दरिद्र और ऐसे क्षुद्र...बाबूजी पलंग पर क्यों नहीं बैठे हैं?...कौन-से स्वार्थ के कारण अभी शशि बाबू के लिए चा बनाई जा रही है?...मां इतनी अस्त-व्यस्त क्यों है?

“आप बैठें, मैं दो मिनट में आता हूं।” -इतना कहकर दशरथ कमरे से बाहर बरामदे पर आए, लोटा हाथ में लिए और आंगन से बाहर हो गए। शशि बाबू द्रौपदी-चीर-हरण का कैलेंडर देख रहे हैं, और विचार रहे हैं कि दशरथ झा को रुपया दिया जाएया न दिया जाए। विशेष संभावना तो इसी बात की है कि रुपया डूब जाएगा। लेकिन यदि रुपया नहीं दिया जाए तो चंपा की शादी कैसे होगी?...और दशरथ चले कहां गए? वे कहते थे कि रामगंजवाली खुछ हमसे बात करेंगी। वे क्यों करेंगी बातचीत?

आगे-आगे रामगंजवाली, एक हाथ में हलुए की तश्तरी, दूसरे हाथ में पानी का लोटा-गिलास लिए और उसके पीछे में छिपी हुई सी, लाल साड़ी और लाल ही ब्लाऊज पहनी, काफी सकुचाई हुई, अति लजबिज्जी चंपा...

रामगंजवाली ने घूंघट नहीं डाला है। बड़ी-बड़ी आंखों में सुंदरता तो अवश्य है, लेकिन, स्त्री-सुलभ लज्जा नहीं। लज्जा स्त्री-आंख की आंतरिक ज्योति है... रामगंजवाली की आंखें जैसे पत्थर से बनाई गई हो, सुंदर, किंतु जिसमें कोई आकर्षण-शक्ति नहीं। चंपा के हाथ से चाय की प्याली लेते वक्त शशि बाबू ने अनुभव किया कि चंपा का हाथ थरथरा रहा है...कि चंपा का अंग-अंग कांप रहा है। समूचा ललाट पसीने से भींगा...दोनों आंखें जैसे आंसू से झलमलाती हुई। शशि बाबू ने अनुभव किया-यदि क्षण-भर भी चंपा यहां खड़ी रही, तो इसी जगह तिलमिलाकर गिर जाएगी, बेहोश हो जाएगी।

मां की किसी नई आज्ञा की प्रतीक्षा चंपा ने नहीं की। चाय की प्याली शशि बाबू के हाथ में दने के बाद, चंपा मां की तरफ उपेक्षा की तीक्ष्ण दृष्टि से देखती हुई, चुपचाप कमरे से बाहर हो गई, आंगन में एक क्षण खड़ी रही, और आंगन से बाहर होकर अपनी सहेली, अन्नपूर्णा के आंगन की तरफ चली गई। चंपा जब काफी दुख में डूबी रहती है, तो चुपचाप अन्नपूर्णा के घर में जाकर सो जाती है।

“दशरथ रुपए के विषय में कुछ नहीं बोले...कितने रुपए चाहिए, और क्या-क्या, सो तो आपलोग ही कहेंगे”-शशि बाबू ने चंपा के तीव्र पलायन से थोड़ा अप्रतिभ और थोड़ा निश्ंिचत होते हुए, समीप में खड़ी रामगंजवाली से पूछा, “दशरथ कहां है?”

रामगंजवाली बोली, “वे तो बथान (भैंस बांधने का अड्डा) की तरफ गए हैं। आते ही होंगे...लेकिन उनके रहने से क्या, और उनके न रहने से क्या...उनको, आपसे कोई बात कहते शर्म होती है। वे नहीं कहेंगे। मैं ही कहूंगी। चंपा मेरी बेटी है, मैं चंपा की मां हूं। बेटी पर मात्र मां का ही अधिकार रहता है, पिता का कोई अधिकार नहीं। मां अपनी बेटी के लिए प्राण देती है। मैं भी देती हूं। इसलिए, मैं ही आपसे बात करूंगी।”

रामगंजवाली के इस निर्द्वंद्व, ओजस्वी और स्पष्ट भाषण से शशि बाबू मन-ही-मन सशंकित होते हैं। क्या कहना चाहती हैं दशरथ की स्त्री? शशि बाबू थोड़ा सम्हलकर बैठते हैं और पीठ तले तकिया रख लेते हैं। दशरथ क्यों चले गए? चंपा क्यों भाग गई? क्यों रामगंजवाली इतनी निकटता से, और इतनी बांधकर गप्प कर रही है? शशि बाबू गांव के नहीं हैं, सब दिन शहर-बाजार में ही रहे। शहर के आदमी हैं शशि बाबू। नौकरी छोड़कर अब स्थाई रूप से गांव आए हैं। गोव के रीति-रिवाज, गांव की राजनीति, गांव के लोगों के आचार, भाषा और व्यवहार जाना हुआ नहीं है। इसीलिए रामगंजवाली की भूमिका को जानने की उचित क्षमता शशि बाबू की नहीं है।

शशि बाबू ने पान का बीड़ा उठाया। जर्दे की डिबिया खोली। असली बात सुनने की प्रतीक्षा करने लगे। रामगंजवाली एक बार आंगन से हो आई। चंपा कहां गई? किसी पड़ोस के आंगन की कोई स्त्री अगल-बगल खड़ी तो नहीं है, रामगंजवाली लौटकर कमरे में आई।

“अब मुझको देर हो रही है...दशरथ कहां है?”-शशि बाबू ने प्रश्न किया। रामगंजवाली मुस्कुराई। बोली, “चंपा की शादी में कुछ नहीं तो दो-सवा दो हजार रुपए लगेंगे, हमलोगों के पास मात्र एक बीघा दस कट्ठा खेत है। और, एक भैंस है। यदि दस कट्ठा खेत बेचूं तो एक हजार रुपए मिलेंगे यदि भैंस बेचूं तो मिलेंगे पांच सौ रुपए।” शशि बाबू ने बीच में ही टोका, “भैंस क्यों बेचेंगी? खेत क्यों बेचेंगी? और बेच लेंगी तो जीवन कैसे चलेगा?”

रामगंजवाली संभवतः यही प्रश्न सुनना चाहती थी। अतः यह प्रश्न सुनकर हंस पड़ी। जैसे किसी सुखांत नाटक की नायिका-अभिनेत्री हंसती है, उसी तृप्त मुद्रा में हंसकर रामगंजवाली बोली, “आपने ठीक कहा, जब यह सब बेटी की शादी में बेच ही लूंगी, तब जीवन नहीं चलेगा। अपनी ही लात अपने ही पेट पर मारना उचित नहीं, इतना मैं जानती हूं। इसीलिए हमलोग, अर्थात् मेरा मालिक, मैं और मेरी बेटी, चंपा आपके शरण में आए हुए हैं...आप ही, मात्र आप ही हमलोगों का उद्धार कर सकते हैं।”

“आप ही हमलोगों का उद्धार कर सकते हैं”-रामगंजवाली के मुंह से यह बात सुनकर शशि बाबू विरक्त हो गए। गुस्सा हुआ कि हम क्यों यहां समय नष्ट कर रहे हैं। कल-परसों से ही दशरथ झा हजार बार इस वाक्य की आवृत्ति कर रहे हैं कि शशि बाबू उनका और उनके परिवार का उद्धार कर सकते हैं।

जबकि, उद्धार करने हेतु नहीं, एक दूसरे स्वार्थ से शशि बाबू इस असमय में ऐसे एकांत में दशरथ झा के आंगन आए हैं। शशि बाबू योजना बनाकर कोई काम करते हैं। जीवन-रूपी शतरंज कैसे खेला जाए, कैसे जीवित मनुष्य को लकड़ी का प्यादा किंवा लकड़ी का हाथी-घोडा बनाया जाए। यह मर्म जाना हुआ है उनका।

शशि बाबू के घरडीह का स्थान बहुत कम है। परिवार बहुत बड़ा है। और दशरथ झा का आंगन शशि बाबू की दीवार से सटा ही है, पश्चिम की तरफ। यदि दशरथ झा अपने आंगन के पूरब के हिस्से से बारह धूर जमीन शशि बाबू के हाथ बेच लें, तो उसके मूल्य रूप में चंपा की शादी में हजार-बारह सौ रुपए देने में शशि बाबू को कोई कष्ट नहीं होगा। शशि बाबू उद्धार करने नहीं, बारह धूर घरडीह खरीदने के लिए दशरथ झा के आंगन आए हैं। अस्तु, रामगंजवाली की बातों से उनको कोई प्रसन्नता नहीं हुई। वे विरक्त हुए कि रामगंजवाली मूल कथा पर नहीं, भूमिका पर इतना समय नष्ट कर रही हैं...लोग मुफ्त में संदेह करेंगे कि शशि बाबू क्यों अपने पड़ोसी के आंगन में इतनी देर तक एकांत कमरे में बैठे हैं।

काफी देर बाद अपने मन को स्थिर करके, किंचित गंभीर मुद्रा बनाकर, थोड़़ी हतप्रभ जैसी, रामगंजवाली बोली, “मैं खेत नहीं बेचूंगी, घरडीह नहीं बेचूंगी, भैंस नहीं बेच सकती हूं। मुझे एक चंपा ही नहीं है, और संतानें भी हैं। उनलोगों के मुंह में जाबी नहीं लगाई जा सकती है।”

शशि बाबू ने पूछा, “घरडीह नहीं बेचेंगी, तो क्या करेंगी? कितने रुपए लेंगी हमसे?”

रामगंजवाली ने उत्तर दिया, “आपसे ज्यादा नहीं, पंद्रह सौ रुपए हमलोग लेंगे। पंद्रह सौ रुपए नगद और अपने मन से चंपा को आप जो गहना, कपड़ा, साड़ी जो देंगे, वह अपने मन से। आप जैसे धनी, समझदार और विद्वान लोग के साथ चंपा जीवन-भर सुखी रहेगी। जीवन-भर आनंद करेगी...”

“आप ही हमलोगों का उद्धार कर सकते हैं”-शशि बाबू अब इस बात का असली अर्थ समझ गए। इसी कारण इतनी भूमिका बांधी जा रही थी। शशि बाबू स्वयं चंपा से शादी करें-यह दशरथ झा, और रामंगजवाली का उद्देश्य है। यह योजना स्वयं रामगंजवाली ने बनाई है। यदि साठ साल का सुंदर स्वस्थ, पराक्रमी वृद्ध शशि बाबू, तेरह साल की आत्ममुग्ध, लज्जामयी, स्पर्शहीन, नवीन चंपाकली से शादी करें-तो शशि बाबू के संपूर्ण राजकाज, संपूर्ण धन-संपत्ति पर रामगंजवाली का और दशरथ का पंजीकृत अधिकार, अर्थात एकाधिकार हो जाएगा, और महारानी जैसी, वृद्ध शशि बाबू के संसार में पटरानी-सी राज करेगी मेरी चंपा, मेरी चंपाकली।

चाय देते वक्त चंपा आई थी। शशि बाबू को अवश्य ही पसंद आई है, मेरी बेटी, मेरी प्यारी-सुकुमारी बेटी। ऐसी बड़ी-बड़ी आंखें, ऐसा सरल-निश्छल स्वभाव। ऐसा बुद्धि-विचार गांव-भर में दूसरी किसी की बेटी का नहीं है।

एक बार अपने दालान पर अपनी मित्रमंडली के समक्ष परिहास अवश्य किया था। शशि बाबू ने कहा था कि मन होता है कि फिर एक शादी कर लूं। लेकिन, यह विनोद ही था, सत्य नहीं। बासठ साल की इस विचित्र उम्र में, शादी करने की कोई आकांक्षा शशि बाबू नहीं रखते हैं। मुक्त-हृदय हैं वे, अब किसी जाल-जंजाल में नहीं पड़ेंगे।

अतएव, पलंग से नीचे उतरकर, धरती पर खड़े होते, शशि बाबू कठिन स्वर में बोले, “आपकी बात मैंने सुनी। दशरथ झा से आप कह देंगी, मैं इतना मूर्ख नहीं हूं। बहुत नहीं, तो चंपा मेरी बेटी कल्याणी से बाईस साल छोटी है। मैं चंपा से कितने साल बड़ा हूं? आपके पतिदेव दशरथ झा हमसे कितने साल छोटे हैं, रामगंजवाली?... आपके मन में ऐसा विचार कैसे आया?”

रामगंजवाली ने परम विषाक्त और परम विरक्त दृष्टि से एक बार शशि बाबू की तरफ देखा। शशि बाबू आतंकित हो गए। जैसे उनके सामने कोई स्त्री, कोई रामगंजवाली बहू नहीं खड़ी हो, जैसे उनके सामने फन काढ़े...कोई विषधर खड़ा हो...कोई भयावह विषधर...

रामगंजवाली ने शशि बाबू को कोई उत्तर नहीं दिया। कोई वाक्य नहीं, कोई शब्द नहीं। विषधर का उत्तर होता है उसका विष, उसका विषदंत! लेकिन विधि का यह कैसा विधान है कि इस सामाजिक घटना में शशि बाबू विषधर नहीं हैं, विषधर है चंपा की मां रामगंजवाली!

मूल मैथिली से अनूदित