एक चरवाहे साहित्यकार की कथा / सुरेश सर्वेद

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सुबह - शाम दूध दुहना, उसे बेचना और दिन भर पशु चराना उस चरवाहे की नियति थी। पशु चराते दिन सरक कर कब संध्या में परिवर्तित होने लगता इसका भी उसे ज्ञान नहीं हो पाता। खेत - खलिहान, चारागाह में वह पशुओं को हांकते रहता और घर वापिस का चेत उसे तब आता जब पशु गांव की ओर रूख करने लगता।

उस चरवाहे का नाम तो था गनपत। गांव के लोग उसे पूरा नाम से नहीं पुकारते थे। गन्नू नाम गांव में प्रचलित था और इसी नाम से उसे पुकारा जाता था। नाम में परिवर्तन से उसे कोई शिकायत नहीं थी। उसे तो गनपत से अच्छा नाम गन्नू लगता था।

तो गन्नू चरवाही कर जीवन यापन करता था। वह खुश था, बहुत खुश। खेत - खलिहान में भटकते उसके मस्तिष्क में अनेक विचार उठते रहते। कभी वह विचारमग्न हो कलाकार होने की सोचता तो कभी नेता। पर वह बन कुछ नहीं पा रहा था सिवा चरवाहे के। वह थोड़ा बहुत पढ़ाई किया था। कभी अखबार के अक्षरों को हिज्जाकर बांच लेता तो कभी फिल्मी पत्र - पत्रिकाओं को। धीरे - धीरे वह पढ़ने में भी अभ्यस्त हो गया।

जाने उसके हाथ कब एक साहित्यिक पत्रिका लग गई। अब उसमें साहित्यकार बनने की इच्छा जागिृत होने लगी। धीरे - धीरे वह एक दो लाइन कविता लिखने लगा और एक अवसर ऐसा भी आया जब वह थोड़ी बहुत अच्छी रचनाएं लिखने लगा। जहां कहीं भी कवि गोष्ठियां या सम्मेलन होता, कोई पहुंचे न पहुंचे गन्नू अवश्य पहुंच जाया करता था। यहीं से उसके मन में मंच में उतरने की लालसा जागिृत होने लगी। वह अवसर भी उसे मिला। पहले तो मंच पर उतरते उसके हाथ पांव कांपते थे मगर धीरे से वह मंच पर आसानी से खड़ा होकर कविताएं पढ़ने लगा। तालियां बटोरने लगा।

उसकी लालसा यहीं खत्म नहीं हुई। वह अब अपनी लेखनीय को लोगों को पढ़वाना चाहता था। उसने रचनाएं स्थानीय समाचार पत्रों में भेजना शुरू किया। उसकी रचनाएं छपने लगी। अब उसे लगने लगा - अब वह मात्र मंचीय कवि ही नहीं रह गया अपितु छपने लायक कवि हो गया।

धीरे से वह एक साहित्यकार के संपर्क में आया। वास्तव में देखा जाए तो वह साहित्यकार था ही नहीं अपितु उसने साहित्यकार होने का चोला पहन रखा था और भ्रम पाल रखा था तथा किसी बड़े साहित्यकार से स्वयं को कम नहीं समझता था। इस साहित्यकार का असली परिचय यह था कि वह कभी किसी नाचा पार्टी से संबद्ध था। वहां छोटा - मोटा वाद्य यंत्र बजाया करता था। संगीत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के प्रयास में तो वह असफल रहा तो वह साहित्य की ओर उन्मुख हुआ। मगर वह साहित्य में भी वह स्थान नहीं बना पाया जो स्थान अब तक उस गन्नू चरवाहे ने बना लिया था मगर अधकचरे ज्ञान के साहित्यकार की इस कमियां को वह नवांकुर चरवाहे साहित्यकार गन्नू समझ नहीं पाया परिणाम उसकी नजर में अधकचरे ज्ञान के साहित्यकार से बढ़कर कोई और साहित्यकार इस नगर में था ही नहीं। गन्नू को लगने लगा - साहित्याकाश में यही साहित्यकार उसे बिठा सकता है। गन्नू उसके हाथ का कठपुतली बन गया।

अल्पज्ञान से परिपूर्ण साहित्यकार उसे नित्य नये विचार परोसता। वह गन्नू को ऐसे - ऐसे सपने दिखाता कि गन्नू स्वयं को देश के महान कवियों में अपने आपको रखने लगा।

धीरे से एक दिन उस अधकचरे ज्ञान के साहित्यकार ने कहा - तुम मंच पर बहुत कार्यक्रम दे चुके। कई अखबारों में छप चुके। मगर लोग सुनकर और अखबारों में पढ़कर बिसर जाते हैं।

- तो ऐसा क्या किया जाए कि मेरा नाम कभी विलोपित न हो। जब जब नगर के साहित्यकारों का स्मरण किया जाए तो मेरा नाम भी सामने आये।‘’

- इसका एक ही उपाय है।‘’

- क्या ?’’ चरवाहा की उत्सुकता बढ़ गई।

- साहित्य में उन्हीं लोगों का नाम जीवित रहता है जिसकी पुस्तकें प्रकाशित हो।‘’

- पर मेरी पुस्तक छापेगा कौन ?’’

- तुम अभी नये हो इसलिए कोई प्रकाशक तुम्हारी पुस्तक छापेगा तो नहीं। हां, स्वयं के व्यय से पुस्तक छपवा सकते हो।‘’

गन्नू यह नहीं चाहता था कि मरने के साथ साथ उसकी मेहनत तार - तार हो जाए। उसकी रचनाएं भी मर जाए। वह आ गया उस साहित्यकार की बातों पर और उसने एक पुस्तक छपवाने की ठान ली।

उसने शुरू किया पाई - पाई जमा करना। उसने आवश्यक खर्चों पर भी कटौती करने से परहेज नहीं किया और उसने इतने रूपए इकठ्ठा कर लिया जिससे एक पुस्तक छापी जा सकती थी। वह अपनी मौलिक पांडुलिपी लेकर उस साहित्यकार के पास आया। उसने पांडुलिपी और रूपए उस साहित्यकार को थमा दिया। अल्पज्ञान के साहित्यकार की आंखों में उस समय जो चमक थी संभवतः उसने ऐसी चमक कभी और अपनी आँखों में स्वयं ने भी नहीं देखी होगी। फिर तो दूसरों की बातें ही छोड़ो।

पुस्तक छपने का कार्य शुरू हुआ। अब गन्नू स्वप्न लोक में विचरण करता। कभी वह अपने आपको बड़े - बड़े साहित्यकारों के मध्य पाता तो कभी उसे अपनी रचनाओं को पाठ्यक्रम में शामिल होने का स्वप्न आता। वह टी.वी.कार्यक्रमों, बड़े - बड़े मंचों पर और न जाने कहां कहां स्वयं को पाता।

उसकी पांडुलिपी पूर्ण पुस्तक का रूप ले उसके हाथ में आ गयी। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि उसकी कोई पुस्तक भी छपेगी। मगर उसकी पुस्तक छप चुकी थी। उसने अपनी पुस्तक के प्रचार की गरज से अन्य साहित्यकारों में कापियां बांटना शुरू किया। वास्तव में जो साहित्यकार थे उन्होंने पुस्तकें पढ़ने शुरू किये। कुछ ने सलाह दी की समीक्षकों को भी पुस्तकें दे। उस चरवाहे को यह ज्ञान नहीं था कि समीक्षक किस बला का नाम है मगर जब उसे समझाया गया कि समीक्षक वह प्राणी होता है जो किसी भी साहित्य को चलन में ला सकता है और किसी भी साहित्य को कचरे की टोकरी में डालवाने का साहस रखते हैं तो उसे समझ आया कि उसकी लेखनीय का कद्र तभी संभव है जब उसकी पुस्तक ऐसी प्राणियों की नजर से गुजरे। उसने नगर के दो - तीन समीक्षकों से संपर्क किया। पुस्तक भेंटकर उसकी समीक्षा के लिए अनुनय किया। समीक्षकों ने पुस्तक उलट - पलट कर देखा फिर उस चरवाहे के चेहरे को देखा। और समीक्षा करने का आश्वासन दे वहां से रवानगी दे दिया।

पुस्तक की समीक्षा होने लगी। समीक्षा जब छपकर सामने आयी तो चरवाहे को कुछ समझ नहीं आया कि आखिर समीक्षकों ने उसके नाम का कहीं कोई उल्लेख क्यों नहीं किये। क्यों बार - बार उस अधकचरे साहित्यकार के नाम का ही वर्णन किए हैं। उसने एक समीक्षक को पकड़ा। कारण जानने का प्रयास किया तो समीक्षक ने सपाट शब्दों में कहा - जो मेहनत करेगा उसी का नाम आयेगा न ? ‘’

- पर सारी मेहनत तो मेरी है।‘’ चरवाहे ने कहा।

- कौन सी मेहनत तुम्हारी है ? ‘’

- लेखनीय मेरी है, पुस्तक छपने में लगे पैसे मेरे हैं।‘’

- ऐसा तो कहीं नहीं लगता। ‘’

गन्नू को कुछ समझ नहीं आ रहा था। पुस्तक आने के बाद गन्नू इतना मस्त था कि उसने कव्हर पेज के अतिरिक्त किसी पन्ने को उलटाकर देखा ही नहीं था। जब उससे पूछा गया कि क्या तुमने पुस्तक पढ़ी है तो उसका एक टूक जवाब था - मैंने पुस्तक पाठकों के पढ़ने के लिए लिखी है। फिर मैं पढूं या न पढूं इससे क्या फर्क पड़ता है।‘’

अब समीक्षकों को समझ आने लगा कि किसी महाधूर्त ने चरवाहे को मूर्ख बना दिया। धीरे से गन्नू को भी समझ आ गया कि उसके साथ विश्वासघात किया गया है। वह सीधा उस अधसिखे साहित्यकार के पास गया। उस साहित्यकार के पास कई अन्य साहित्यकारों की भीड़ थी। उस चरवाहे का गुस्सा तमतमाया हुआ था। पर जैसे ही वह उनके बीच गया कई साहित्यकार उठ खड़े हुए तो उस गन्नू को कुछ समझ नहीं आया। वहां गन्नू को सम्मान के साथ बिठाया गया। अन्य साहित्यकारों के हाथों में पांडुलिपियाँ थी। उनमें से एक ने अपनी पांडुलिपी बढ़ाते हुए कहा - भइये, मेरी पांडुलिपी पढ़ लीजिए। मैंने बहुत मेहनत से इन रचनाओं का सृजन किया है।‘’

- भइये, ये रही मेरी पांडुलिपी। ‘’

दूसरे फिर तीसरे और ऐसे वहां जितने साहित्यकार थे उनकी पांडुलिपियां गन्नू के हाथों में आ गयी। गन्नू को कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसने असमंजस की स्थिति में पूछा - मगर मैं इन पांडुलिपियों का क्या करूंगा। ‘’

- जैसे आपने इस महाशय की पुस्तक छापने में योगदान दिया हमारी भी पुस्तक छापने में अपना योगदान दीजिए....। ‘’

अब गन्नू का माथा चकराया। उसने कहा - पर यह पुस्तक तो मेरी है। इसमें प्रकाशित सारी रचनाएं मेरी स्वयं की है। ‘’

- पर हमें तो कहीं से नहीं लगता ....।‘’ एक ने कहा।

- मतलब .... ?’’ गन्नू चिन्तित हो गया।

- मतलब यही कि इस पुस्तक की रचनाएं आपकी होगी। इसमें न आप रचनाकार के रूप में है और न प्रकाशक के रूप में। इस पुस्तक को छपने में आपने सहयोग मात्र किया है इसलिए आभारी मात्र है। और हम भी अपनी पुस्तक में आपको आभारी के रूप में देखना चाहते हैं। ‘’

गन्नू को अब धीरे से सारी बातें समझ आने लगी। उनमें से एक ने कहा - भइये, इस महाशय ने बताया कि आपने अपनी पूरी मेहनत से एक एक पाई जमा कर इस महाशय की पुस्तक छापने में अर्थ खर्च किए हैं। अर्थ लगाकर भी आपने प्रकाशक बनाना स्वीकार नहीं किए अपितु मात्र आभार व्यक्त करना ही पर्याप्त समझे। ‘’

- अरे, भाई आप लोग गलती पर हैं।‘’ गन्नू ने कहा - इस पुस्तक में समाहित सभी रचनाएं मेरी है। वह भी मौलिक।‘’

उस चरवाहे की बातों को सुनकर वहां उपस्थित साहित्यकारों को हंसी आने लगी। गन्नू ने आगे कहा - इसने मुझसे धोखा किया है। मेरी पूरी मेहनत को अपनी मेहनत निरूपित कर दिया है। मेरी स्वयं की रचना होकर, स्वयं के धन लगाकार। मैं मात्र आभारी भर रह गया हूं। इसने मेरे साथ धोखा किया है मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है। मेरे सपनों को तार तार किया है।

और गन्नू फफक पड़ा। उस चरवाहे के रोने का जरा भी दुख उस साहित्यकार को नहीं था क्योंकि वह अपने उद्देश्य में सफल हो चुका था। और चरवाहा रोते - रोते वहां से चल पड़ा। उसे किसी ने रोकने का प्रयास नहीं किया। रोकता भी क्यों, वह चरवाहा तो लूट चुका था। धन से, मान से, सम्मान से, स्वप्न से, भावना से और न जाने किस किस से ....।