एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग / ममता व्यास

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रामचरितमानस के सुन्दर काण्ड में एक सुन्दर प्रसंग है। श्री राम पर नजर रखने के लिए रावण अपने कुछ गुप्तचरों को भेजता है। ये गुप्तचर वानरों का वेश धरकर श्री राम के शिविर में आकर बैठ जाते हैं। श्री राम उस समय सभी वानरों के साथ किसी बात पर चर्चा कर रहे थे और सत्संग भी चल रहा था। राम का सानिध्य, दिव्यता, समीपता एवम्‍ प्रेम के सामने सभी गुप्तचर खुद को भूल जाते है और राममय हो जाते हैं। भक्ति और प्रेम में डूबे वे राक्षस भूल वश अपने असली रूप में आ जाते हैं। राम जब देखते हैं तो आदेश देते हैं कि इन सबको पकड़ो और अंग-भंग करके छोड़ दो। तभी कोई वानर कह उठता है -प्रभु आपके सानिध्य में आने पर तो पत्थर भी प्रेम का पात्र हो जाता है आप इन्हें दंड क्यों देते हैं ..राम बहुत ही प्रेम से मुस्काते हुए कहते हैं -मेरे सामने जब भी आओ "जैसे हो वैसे ही बन कर आओ"।

ये राक्षस यदि अपने असली रूप में मेरे सामने आते तो मैं इन्हें सहर्ष स्वीकार करता प्रेम से गले लगाता लेकिन इन्होने रूप बदला मुखौटा लगाया इसलिए इन्हें दंड दिया गया। वेश बदलना, छल करना या कपट के साथ मेरे सामने प्रस्तुत होने का दंड तो भोगना ही होगा इन्हें।

यह तो एक कथा है लेकिन इसमें गहरा दर्शन भी छिपा है और मनोविज्ञान भी। सच ही तो है, क्या हम प्रेम के सामने या ईश्वर के सामने मुखौटा लगा सकते हैं? प्रेम की दिव्यता, पवित्रता निर्मलता के समक्ष कैसे कोई मुखौटा टिक सकता है और कब तक?

प्रेम हो या ईश्वर आपको सौ परदों के पीछे से तुरंत पहचान लेते हैं। कोई हुनर कोई करतब नहीं चलता और आप पकडे जाते हैं। प्रेम और ईश्वर को पाने की एक ही शर्त है; जैसे हैं वैसे ही प्रस्तुत हों।

लेकिन कोई नहीं समझता जिन्दगी भर हर व्यक्ति अपने साथ कई-कई चेहरे, कई व्यक्तित्व और कई मुखौटे लिए घूमता है और ज़रूरत, सुविधा और अवसर के हिसाब से उनका इस्तेमाल करता रहता है। इस खतरनाक खेल में उसे खूब आनन्द आता है लेकिन एक दिन उसका असली चेहरा ज़रूर खो जाता है। और वो फिर इन्हीं मुखोटो के पीछे अपनी जिन्दगी तबाह करता है। उसकी साँस घुटती है, टूटती है; उसे मुखौटे चुभते हैं लेकिन वह कभी भी उनसे निजात नहीं पाता।

आखिर क्या वजह है एक चेहरे पे कई चेहरे लगाने की? मुखौटे में खुद को छिपाने का क्या लाभ है? क्या खुद को छिपाने के पीछे भी कोई मनोविज्ञान कार्य करता है? क्या है मुखोटों का मनोविज्ञान?

लेटीन शब्द परसोना का अर्थ है मुखौटा या मास्क। यूनानी काल में परसोना शब्द का प्रयोग मुखौटे के लिए किया जाता था; जिसको पहनकर यूनानी कलाकार मंच पर विभिन्न प्रकार के अभिनय किया करते थे। परसोना शब्द अग्रेंजी के personality शब्द से बना है। ये शब्द व्यक्तित्व से सम्बंधित है। मुखौटे को सिर्फ अभिनय के समय लगाया जाता है और उसके बाद उतार दिया जाता है। लेकिन वास्तविक ज़िन्दगी में जो लोग अपने चेहरे पर मुखौटे लगाते हैं वे ताउम्र नहीं उतारते। आप जिस व्यक्ति से मिल रहे हैं क्या वह वास्तव में वैसा ही है? या उसने कोई मुखौटा लगा रखा है? ऐसे व्यक्तियों को ध्यान में रखकर ही शायर बशीर बद्र साहब ने फ़रमाया है कि “हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिसे भी देखना बार–बार देखना“

अब सवाल यह कि क्यों लोग अपनी असली सूरत अपनी फितरत और व्यक्तित्व को इन मुखौटो के पीछे छिपाते हैं। क्या है मुखौटों के रहस्य? चलिए देखें पुराने समय में जब व्यक्ति के व्यक्तित्व का अर्थ बाहरी वेश-भूषा, रूप-रेखा एवम शारीरिक आकृति से लगाया जाता था। जो जैसा दिखाई देता था उसका आंकलन भी वैसे ही कर लिया जाता था और उसे ही व्यक्ति का व्यक्तित्व मान लिया जाता था। पर दार्शनिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व की व्याख्या, आत्मा, स्व और व्यक्ति के रूप में की गयी है। मनोविज्ञान ने खोजा कि आदमी का व्यक्तित्व सिर्फ बाहरी रंग रूप ही नहीं है। आदमी का शरीर नितांत अचेतन है। उसका कार्य लगभग अनैच्छिक है; केवल शरीर की सतह ऐच्छिक है। आंतरिक स्रोत अनैच्छिक होते हैं। आदमी केवल उसका चेतन मन ही नहीं है। उसके पास चेतन से कई गुना ज्यादा मन की अचेतन परत भी है। जिसके बारे में आदमी स्वयं भी नहीं जानता। इस अवचेतन के आगे कोई भी संकल्प शक्ति प्रभावकारी नहीं है।

व्यक्ति जो भी कार्य या क्रिया करता है उसका ज़िम्मेदार उसका अचेतन ही होता है। उसका व्यवहार, उसका प्रेम, क्रोध, जलन, डाह, भय, चिंता इत्यादि सब अचेतन से ही संचालित होते हैं; और इनके ही वशीभूत होकर व्यक्ति कभी अपना व्यवहार बदलता है और कभी अपना चेहरा।

अब सवाल है कैसे समझा जाए व्यक्तित्व की इअस उलझी गुत्थी को? व्यक्तित्व के अस्तित्व को एवम मुखौटों के रहस्यों को। मुखौटों के पीछे का मनोविज्ञान समझने से पहले व्यक्तित्व के अस्तित्व को समझना ज़रूरी है।

व्यक्ति जीवन भर अनेक विषमताओं से गुजरता है अनेक अभावों और प्रभावों से उसका मन घिरा रहता है। इन अभावों और प्रभावों की परत-दर-परत उसके मन पर जमती रहती है। आवरण चढ़ते रहते हैं। वो कभी इन परतों से बाहर निकल ही नहीं पाता।

क्या है ये परते? ये अचेतन की परते हैं जिन्हें हमारी बुद्धि नहीं बेध पाती। इन्हें समझने के लिए स्वयं के भीतर प्रवेश करना होता है। सिर्फ बुद्धि का इस्तेमाल करके हम अचेतन को कभी नहीं समझ सकते। यह बुद्धि के वश की बात ही नहीं। इसे समझने के लिए गहरे में उतरना होता है।

दरअसल हमें वही बात जल्दी समझ आती है जिसे हमारी बुद्धि समझ लेती है, हमारा दिमाग जिससे संगत बिठा पाता है। लेकिन क्या सिर्फ बुद्धि के बल पर किसी भी चीज को पूर्ण रूप से समझा जा सकता है? कभी नहीं!

उदाहरण के लिए हमें बुद्धि ने हमेशा हिदायत दी कि प्रेम कभी नहीं किया जाना चाहिए। प्रेम में बहुत दुःख, बहुत पीड़ा और कष्ट है। सदियों से बुद्धिजीवियों ने कहा यह पतन का मार्ग है। किताबें पढ़-पढ़कर पंडित ज्ञानी बनते गए। वे ज्ञान बाँटते भी रहे लेकिन फिर भी प्रेम में पड़ने से खुद को बचा नहीं पाए। कोई भी नहीं बच पाया। क्योंकि सदियों पहले ही से प्रेम के बीज हमारे अचेतन में पड़े हुए हैं। गहरे बहुत गहरे में प्रेम का बीज छिपा हुआ है। हमारा चेतन उसे कितना भी नकारे लेकिन अचेतन हमसे वही सब करवाता आया है जो बहुत गहरे में हमनें छिपाया है। ऐसे ही हमने क्रोध, ईर्ष्या, जलन, डाह, भय, चिंता और कुंठाओं को भी बहुत गहरे में छिपाया है; इसलिए वे भी अचेतन से नहीं जाती।

उपरी-उपरी सतह पर हम अपने विचार रोज़ बदलते हैं लेकिन क्या हम गहरे में उतर पाते हैं? क्या सिर्फ विचारों के नए हो जाने मात्र से व्यक्तित्व का रूपांतरण संभव है? कभी नहीं। सिर्फ विचारों के बदल जाने से व्यक्ति कभी नहीं बदलता। उलटा वह भीतर ही भीतर नए द्वंद में खुद को उलझाता है। परिणाम स्वरूप उसे अशांति, अवसाद और कुंठाए घेर लेती है।

उदाहरण के लिए एक व्यक्ति को लेते हैं जिसकी बुद्धि बहुत बड़ी है, जिसके पास बहुत से नए विचार है, ज्ञान का भंडार है; लेकिन वह फिर भी अशांत है, अस्थिर है, अकेला है, दुखी है। इसका कारण सिर्फ यही है कि उसने अपने व्यवहार और जीवन में उन विचारों को उतारा ही नहीं। इस बात को यूँ भी समझा जा सकता है कि एक व्यक्ति प्रेम पर कविताएँ लिखता है, प्रेम पर शोध करता है, प्रेम पर महाकाव्य लिखता है, लेकिन फिर भी उसके जीवन में उदासी है! क्यों? वह प्रेम देना नहीं चाहता सिर्फ लेना चाहता है। और मनमाना न मिलने पर वह उदास दुखी और अवसादी हो जाता है। उसके पास देने के लिए दो मीठे बोल भी नहीं। कोई मन के दरवाजे पर आए तो वह दरवाज़ा बंद कर लेता है (कर लेती है) और भीतर फिर वही उदासी उसे खाने लगती है। उसका नैराश्य, उसका अवसाद, उसके दुःख; उसके जीवन का हिस्सा बन जाते हैं और उसे अपने दुःख दुनिया के सबसे "हसीन ग़म" लगने लगते हैं। अपने और समाज के साथ उसका संघर्ष कभी खतम नहीं होता। उसके मन के भीतर के युद्ध उस कभी चैन नहीं लेने देते। उसकी खीज, झुंझलाहट उसे अस्थिर और अशांत कर देती है। वह किसी का अहित या बुरा करना नहीं चाहता लेकिन उससे किसी का अच्छा भी नहीं हो पाता कभी। उसे यह अपराध-बोध मन ही मन खाता है। खुद से घृणा, खुद से नाराज़ी और भीतरी शोर उसे जीने नहीं देता। उसके निर्मल मन पर अपराध-बोध की काई चढ़ जाती है या फिर वो आत्ममुग्धता के खोल में बंद हो जाता है। दोनों ही स्थितियाँ उसका पतन करती हैं। वह व्यक्ति अच्छी तरह जानता है कि खुद को परिवर्तित करना कठिन ही नहीं असंभव है। वह खुद को बदलने से डरता है। वह मुखौटे के पीछे मर जाने का चुनाव करता है पर खुद को बदलने का साहस उसमें नहीं होता। वह आसान रास्ता चुनता है। वह खुद को मरने से बचाने के लिए अपने व्यक्तित्व को छिपाने के लिए मुखौटे लगाता है। वह जिन्दा रहना चाहता है लेकिन अपनी शर्तों पर; इसलिए वह स्वांग करता है, अभिनय करता है, छल करता है और फिर ओट में छिप जाता है। अपनी जवाबदेही से बचने के लिए; अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए और किसी भी स्पष्टीकरण और सवालों के तीरों से खुद को बचाने लिए वह मुखौटा लगाता है।

लेकिन ...क्या ऐसा व्यक्ति ज़िन्दा होता है? सिर्फ उसकी सांस चलती है, वह कभी अपनी हंसी नहीं हँसता। वह कभी अपने आसूं रोता नहीं। उसके मुखौटे उसकी आँखों को सूखा कर जाते हैं। ये मुखोटे उसकी पवित्र और निर्मल हंसी की हत्या करते है।

इस खतरनाक खेल में वह खुद के साथ-साथ अनगिनत लोगों की भी हत्या करता है। उसका व्यक्तित्व खंड-खंड हो जाता है और उर्जा बिखर जाती है। अपने बनाए क्लोन, अपने बनाए मुखौटों के साथ वह अपनी एक अलग ही दुनिया बसाता है। उसकी निराशा, अवसादों की स्याह दुनिया में बाहरी जगत का प्रवेश निषेध होता है। वह ऐसे जीवन जीता है मानो कोई अपराधी हो जो अगर बिन मुखौटे के बाहर जाएगा तो लोग उसे पहचान लेंगे और मार डालेंगे। जीवन भर उसे इन नकली चेहरों के साथ बसर करनी होती है। ये बेजान मुखौटे उसे भीतर ही भीतर चुभते हैं, लहुलुहान करते हैं। एक दिन उसका असली चेहरा इन नकली चेहरों के बीच खो जाता है और साथ ही खो जाती है उसकी पहचान और निजता भी। ख़ुद से उसकी मुलाकात कभी नहीं होती। इस मानसिक रोग का इलाज सिर्फ मनोविज्ञान में ही संभव है। रोगी से प्रेम और आत्मीयता का सम्बन्ध बनाना होगा। उसके अतीत का उसके बचपन का विश्लेषण करने के पश्चात् उसकी सोच और व्यवहार बदला जा सकता है।