एक था राजा, एक थी रानी / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
एक था राजा, एक थी रानी
प्रकाशन तिथि : 09 मार्च 2013


वायकोम 18 और तिग्मांशु धूलिया की 'साहेब बीवी और गैंगस्टर' भाग-2 में पहले भाग की तरह शराबी बीवी ही विजयी होती है और 'साहेब' उस कत्ल का दंड भुगत रहे हैं, जो उन्होंने किया ही नहीं। सारा जीवन हत्याएं, डकैती और अपराध करने वाला 'साहेब' जेल में आश्चर्य करता होगा कि कैसे वह अनकिए के लिए दंडित है। आठ मार्च को पूरे विश्व में महिला दिवस मनाया गया और अगले ही दिन एक फिल्म में एक 'चरित्रहीन महिला' अपराध के गंदे तालाब में कमल की तरह खिली दिखाई पड़ती है और प्रेम में उसकी प्रतिद्वंद्वी अब उसी की तरह पुराने फिल्मी गाने सुनते हुए शराब में डूब रही है। दरअसल फिल्म में प्रस्तुत महिला को केवल एक महिला के रूप में आंकना गलत होगा, क्योंकि उसका ध्येय सत्ता प्राप्त करना है और उसमें रोपित सारे छल-कपट सत्ता के चरित्र हैं और सत्ता लिंग-भेद नहीं करती, वह सबको अपने रंग में ढालती है। इस फिल्म की सत्तालोलुप केंद्रीय पात्र में यथार्थ के किसी राजनीतिक व्यक्तित्व को देखना अनुचित है। सत्ता निर्मम होती है, सत्ता संवेदनहीन बना देती है। इंदिरा गांधी, सिरिमाओ बंडारनायके या मार्गरेट थैचर ने महिलाओं की तरह शासन नहीं किया है, वरन वे अपनी कैबिनेट में 'एकमात्र पुरुष' कहलाती रही हैं और उनका इस्पात पुरुषोचित ही रहा है। अगर हम अपने ही देश के विगत में देखें तो मात्र जवाहरलाल नेहरू कवि की तरह संवेदनशील व्यक्ति थे, यद्यपि उनके भीतर का स्त्रैण पक्ष कभी बहुत लाउड नहीं होता। उनके जैसा काव्यमय गद्य किसी ने लिखा ही नहीं है। रवींद्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था कि जवाहरलाल नेहरू अपने कामों से कहीं अधिक बड़े और अपने परिवेश से कहीं ऊंचे व्यक्ति हैं।

यहां बात नेहरू तक इसलिए पहुंची कि फिल्म की केंद्रीय पात्र 'बीबी' कहती है कि वह हमेशा शायर की तलाश में रही है, जो मर्द भी हो और नायक कहता है कि वह शायर भी बनेगा और उनका खजांची भी बनेगा। सत्ता के साथ खजाने का जुड़ा होना आवश्यक है। सत्ता स्वयं एक नशा है और इस फिल्म की केंद्रीय पात्र तो शराबनोशी भी करती है। फिल्म के प्रारंभ में साहेब लगभग अपाहिज होते हुए भी खतरनाक और हिंसक है और अंत में वह अपाहिज नहीं है, परंतु हिंसक है। यह पात्र एक घायल सांप की तरह है, जो अपने शत्रुओं के अवचेतन में रेंगता हुआ नजर आता है। एक जगह साहेब कहता है कि हमारी इस पुश्तैनी हवेली का असर कुछ ऐसा है कि इसमें रहने वाला पवित्र नहीं रह पाता, ईमानदार नहीं रह पाता। यह बात सत्ता की तमाम हवेलियों के बारे में कही जा रही है। ज्ञातव्य है कि बिमल मित्र का उपन्यास 'साहब, बीबी और गुलाम' सामंतवाद के पतनोन्मुख दौर की कथा थी, जिसमें 'बीबी' अन्य बीवियों की तरह केवल गहने तुड़वाने या बनवाने में रुचि नहीं रखतीं, वरन अपने अय्याश पति का हृदय जीतने के लिए उसकी इच्छा के अनुरूप शराब पीती है, परंतु पति के अच्छा होने तक वह शराब की आदी हो जाती है। गुरुदत्त ने केवल इस महिला की त्रासदी पर फिल्म रची थी और उसके सारे राजनीतिक दांव-पेंच को अनदेखा कर दिया था। बहरहाल 'साहेब, बीवी और गैंगस्टर' में पात्र और परिवेश सामंतवादी ही हैं, परंतु वह वर्तमान दौर की कहानी है। कानूनी तौर पर समाप्त होने के बाद भी सामंतवादी प्रवृत्तियां जारी रही हैं। यहां तक कि हमारा गणतंत्र भी इन्हीं का एक मुखौटा होने का आभास देता रहा है, परंतु इससे भी ज्यादा भयावह इन घातक प्रवृत्तियों का समाज के हर स्तर पर सक्रिय रहना है। यह कथा भी दो सामंतवादी परिवारों की पुश्तैनी दुश्मनी की कहानी है। एक खंडहर है, दूसरी हवेली में अपराध और अनैतिकता की दीमक लगी है और वह जर्जर है। अत: यह फिल्म गिरते-ढहते जीवन मूल्यों की कथा के रूप में वर्तमान व्यवस्था पर विगत के साये को प्रस्तुत करती है। तिग्मांशु धूलिया ने खूब सोच-समझकर इसकी महीन बुनावट की है और सारे संकेत भी धुंध में लिपटे हैं और हवेली में चलते-फिरते पात्र भी अतृप्त आत्माओं के भटकने का आभास देते हैं। इस फिल्म में इरफान खान, जिमी शेरगिल, माही गिल और सोहा अली खान ने अपनी ूमिकाओं में जान डाली है और एक चरित्र भूमिका में राजबब्बर एक मजबूर शक्तिहीन भूतपूर्व राजा की भूमिका के साथ न्याय करते हैं। फिल्म का संगीत पहले ही लोकप्रिय हो चुका। बोल भी वर्तमान समय की विसंगतियों को बखूबी बयां करते हैं, जैसे 'आओ मीडिया को दिखाएं कैसे मंत्रीजी बेडरूम में राजनीति कर रहे हैं।' दरअसल, शयन-कक्ष और यौन संबंधों की अपनी राजनीति होती है। अपना छल-कपट होता है। यहां तक कि मध्यम वर्ग के जीवन में भी शयन-कक्ष की राजनीति परिवार के किचन और ड्रॉइंग रूम में अपना रंग दिखाती है। महीन बुनावट इसकी सिनेमाई ताकत है और कदाचित व्यावसायिक स्तर पर कमजोरी भी और यही सिने माध्यम 'बीबी' की त्रासदी भी है।