एक थी तरु / भाग 18 / प्रतिभा सक्सेना

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असित की दौरेवाली नौकरी। तरु अपना काम एकदम कैसे छोड़़ दे -अभी पूरी गृहस्थी बसानी है। हफ़्ते भर ससुराल रह कर लौ़ट आई। रश्मि से पटरी अच्छी बैठी।

नींद उचट गई है। कहाँ तो थकान के मारे आँखें झुकी जा रहीं थीं, शाम से इच्छा हो रही थी लेट कर सो जाऊँ, और अब खुल गई तो आ नहीं रही। पता नहीं कितनी रात बीत गई। गहरी अँधेरी रात, झिल्लियों की झंकार गूँज रही है, !

असित के धीमे खर्राटों की आवाज़ रह-रह कर उठती है

कितना समय बीत गया, पर लगता है जैसे कल की ही बात हो। हम पिछली पीढी में आ गये। अब बाहर कुछ नही होता, भीतर ही भीतर सब घटता रहता है।

तरु सोचती है वह ऐसी क्यों है? जैसे और सब रहते हैं वैसे वह क्यों नहीं रह पाती! उसे भी वैसा ही होना चाहिये। पर नहीं कर पाती। कोशिश करती है तो लगता है अपने भीतर किसी से द्रोह कर रही है। अब लगता है जिन्हें अपना समझा था, वे अपने नहीं थे, जिन्हें पराया समझा वे पराये नहीं थे, सब मन का भ्रम था। कैसी अजीब स्थितियाँ रहीं उसके साथ। जो जो किया सब विपरीत होता गया। करती है कुछ सोचकर, नतीजा कुछ और निकलता है। जब मन था तब कुछ नहीं मिला था, और आज जब सब-कुछ मिल रहा है तो उसका भोग करनेवाला मन नहीं रहा।

घोर अशान्ति। मन पर अपना कोई बस नहीं। जैसे कोई भीतर ही भीतर दिन-रात मथता रहता हो।

असित, तुम मेरे साथ हो, पर और भी बहुत कुछ है जो मेरे साथ है। कुछ ऐसा जिसे मै तुमसे बाँट नहीं सकती। वहाँ मैं बिल्कुल अकेली हूं। जिसके लिये शब्द नहीं हैं, जिसकी कोई अभिव्यक्ति नहीं है, उसे किसी से कैसे कहा जा सकता है?

ऐसी मनस्थिति में तरु की नींद गायब हो जाती है। किसी भी वय-प्राप्त पुरुष को देख पिता की आकृति नयनों में डोल जाती है। ट्रेन के सफ़र में कोई बूढ़ा भिखारी सामने आए तो तरु देखती रह जाती है। कितना बहलाती है, पर मन बहलता नहीं। सारे रूप बदल जाते है।

वह साँसे लेता जर्जर शरीर था, पिता नहीं थे। अन्तिम बार जब देखा था तब लगा था वे सब कष्टों से परे हो गये हैं। इन्जेक्शन चुभा दो उन्हें कुछ अन्तर नहीं पडता। आँखों में पहचान नहीं -सूनी रीती दृष्टि! उनसे कुछ भी कहो, उनसे कितना भी दुर्व्यवहार करो, अब कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी। अब उन्हें कुछ नहीं चाहिये, न रोटी, न चाय, न कपडे! कपडे भी शरीर पर रहें या न रहें उन्हें कोई फर्क नहीं पडेगा। और उसके बाद सारी चीख-पुकार सुन कर भी तरु अपने कमरे से बाहर नहीं निकली थी।

बिस्तर पर लेटे-लेटे तरु सोचती रहती है। उसने न उनकी मृत देह देखी, न अंतिम संस्कार। उसकी चेतना उनकी मृत्यु की साक्षी नहीं बनी, उसे बार-बार यह लगता है कि वे यहीं कहीं हैं। उनका सब सामान हटा दिया गया है पर तरु के कान उनके कदमों की आहट का आभास पा लेते हैं। उसे उनकी दृष्टि का अनुभव होता है। उसे लगता है, वे लौट कर आयेंगे, पूछेंगे,”तरु, तुमने क्या बनाया है?”

भीतर से कोई पुकारता है--वे भूखे हैं, थके हैं, वे कहाँ गये?

नहीं, वे अब कभी नहीं आयेंगे, कुछ नहीं कहेंगे।

करवट से लेटी तरु के बाल आँसुओँ से भीग रहे हैं। वह अपनी सिसकी को दबा लेती है, कहीं असित न सुन ले।

पता नहीं क्यों तरु को लगता है वे अब भी कहीं हैं। और वह मन ही मन पुकारती है,”पिता जी। पिता जी।”

हाँ, अब पुकारती है पर तब चिल्ला-चिल्ला कर रोई नहीं थी। जड़वत् चुपचाप सब होते देखती रही थी।

फिर उनके लिये पूजा-पाठ हुआ था, जिसमें उन्हें कोई विश्वास नहीं रहा था। तरु को याद है पहले वे पूजा करते थे। व्रत रखते थे। बाद के वर्षों में उन्होने सब छोड़़ दिया था मौत की ओर वे स्वयं बढ गये थे। उनके सारे विश्वास टूट गये थे भविष्य के लिये कहीं कुछ नहीं बचा था।

कितने वर्ष बीत गये पर उनकी दृष्टि की स्मृति धुँधलाई नहीं। वे आँखें उसे लगता है उसके भीतर पैठ गई हैं।

वह मन ही मन पछताती है। सोचती है चूक तो मुझसे हुई। अगर मै पूरी तरह तुल गई होती तो जो हो गया वह न होता। गलती मेरी थी। मुझे सब मालूम था। मैने क्यों हो जाने दिया वह सब? लेकिन अब इस ग़लती को किसी तरह सुधारा नहीं जा सकता, किसी तरह भी नहीं।

असित से कुछ नहीं कह सकती। भूखे भिखारी की बात भी नहीं कह पाती। कहते-कहते संयम न रख पाई तो, आँखें भऱ आईँ तो। वे कहेंगे,”तुम्हे क्या करना? दुनिया भर के लिये तुम क्यों परेशान होती हो?”

पर तरु को लगता है जिसने दुख का अनुभव किया है वह दूसरे का दुख देख कर तटस्थ कैसे रह सकता है! पराया दुख देख कर मन अपनी उस व्यथा को फिर से जीने लगता है।

असित के फैले हुये हाथ पर तरु अपना हाथ रख देती है। उस हाथ को अपने हाथ में लेकर सहारे का अनुभव करना चाहती है।

असित गहरी नींद में हैं। वह अनुभूति किससे बाँटूं जो भारी शिलाखण्ड सी मेरे मन पर जम गई है! साक्षी हैं केवल ये एकान्त क्षण जिन्हें देखनेवाला कोई नहीं है।

तरु करवटें बदलती पड़ी है। कभी बाथरूम जाने, कभी पानी पीने उठती है पानी पीकर गिलास नीचे रखने लगी तो हाथ से छूट खन्न से नीचे गिरा।

असित की नींद खुल गई।

"अरे ये क्या, तुम अभी तक जाग रही हो?”

"नींद नहीं आ रही, कोशिश कर रही हूँ।

असित ने घड़ी देखी -"दो बज चुके हैं, तुम अकेली जागती पड़ी रहीं। मुझे क्यों नहीं जगा लिया?”

"नहीं, तुम सोओ।”

"आओ न, मेरे पास आओ। देखो अभी नींद आ जायेगी।” हल्का -सा ना-नुकुर कर वह जा लेटी।

पौन घन्टा और बीत गया। शरीर की थकान और बढ़ गई। पर नींद फिर भी नहीं आ रही।

नींद क्या बिल्कुल नहीं आयेगी, कैसे भी नहीं आयेगी!